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९०. रंगभेद बनाम स्वदेशी

श्री स्पेंडर लिखते हैं :

गांधी यूरोपके मालका बहिष्कार चाहते हैं; दक्षिण आफ्रिका निवासी एक कदम आगे बढ़कर हिन्दुस्तानियोंका बहिष्कार करना चाहते हैं। स्वदेशी और रंग-भेद विधेयक, दोनों एक ही विचार के दो पहलू हैं। दोनोंके मूलमें यह निराशावादी विचार है कि पूर्व और पश्चिम एक-दूसरेके जीवन की विशिष्टताओं को नष्ट किये बिना हिलमिल नहीं सकते। गांधी एक सन्त हैं, उनके हृदय में दया और उदारता है। और में उनकी इस व्याख्याको सुनता रहा जब उन्होंने बड़े उत्साहसे यह बताया कि उन्हें वर्तमान परिस्थितिको हिंसात्मक अथवा आतंकवादी रीतिसे बदलनेके विचारसे कोई सहानुभूति नहीं है; तो भी जब वे यह कहने लगे कि पाश्चात्य उद्योगवादने हिन्दुस्तान के गाँवोंको किस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है तो मुझे यह लगा कि यदि वे भारतके सम्राट् होते और उनको सभी अधिकार प्राप्त होते तो वे यूरोपवासियोंके हिन्दुस्तानमें दाखिल होने और वहाँ बसनके सम्बन्धमें जो नियम बनाते वे उन नियमोंसे ज्यादा भिन्न नहीं होते जो आज दक्षिण आफ्रिकावासी हिन्दुस्तानियोंके खिलाफ बनानेका प्रयत्न कर रहे हैं। श्री गांधीके लिए मेरे हृदयमें सचमुच बड़ी श्रद्धा है और मैं जानता हूँ कि वे दोनों ही प्रकारकी असहिष्णुताके लिए किसी भी बहाने थोड़ी भी गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहते। तथापि यह सच मानना ही पड़ेगा कि स्वदेशी और रंगभेद दोनों एक ही आध्यात्मिक कुलके वंशज हैं।[१]

श्री स्पेंडरके लेखका यह अंश एक दृष्टिसे बड़े मार्केका है। टॉल्स्टॉयने जिसे सम्मोहन विद्याकी संज्ञा दी है, यह उसका बड़ा अच्छा उदाहरण है। भारतमें अंग्रेज अफसरों द्वारा बनी-बनाई विचार पद्धतिके सम्मोहक प्रभाव पड़कर श्री स्पेंडर दक्षिण आफ्रिकाके रंगभेद विधेयकों और भारतके खद्दर प्रधान स्वदेशीके आन्दोलनमें कोई अन्तर नहीं देख पाते। श्री स्पेंडर एक ईमानदार लिबरल हैं। भारतीयोंकी भावनाओं के साथ उनको थोड़ी सहानुभूति भी है। पर अपने चारों ओरके घनिष्ठ वातावरणके प्रभावसे वे बच नहीं सकते। जो बात उनके विषयमे सच है, वह हम सबके विषय में भी कही जा सकती है। इसीलिए असहयोगको आवश्यकता पड़ती है। जब हमारे चारों तरफका वातावरण दूषित हो जाता है, तब हमें उससे अलग हो जाना चाहिए— कमसे-कम उसके साथ हमारा जो सम्बन्ध स्वैच्छिक हो, सो तो अवश्य समाप्त कर देना चाहिए।

  1. “पत्र : जी० डी० चटर्जीको”, २७-६-१९२६ भी देखिए।