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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तभी कारगर हो सकती है जब कि हमारे अपने बीच इसके विरुद्ध काम करनेवाली शक्तियाँ न हों। मगर जब अपने बीच हमारा उन लोगोंसे वास्ता पड़ता है जो खास हालातमें हिंसासे काम लेना अपना ध्येय मानते हैं तब अहिंसा काम-चलाऊ नीतिके तौरपर कारगर नहीं रह सकती । अहिंसामें पूर्ण विश्वास रखनेवालेके विश्वासकी परीक्षाका समय भी वही होता है। इसलिए मैं और मेरे विश्वास, दोनोंकी ही आज परीक्षा हो रही है। और अगर हम सफल होते मालूम न पड़ें तो दर्शक या आलोचक मेरे सिद्धान्तको दोष देनेके बदले मुझे ही दोष दें। मैं जानता हूँ कि कभी- कभी मुझे अपने आपसे भी लड़नेको लाचार होना पड़ता है। अबतक मैं ऐसा नहीं बन सका हूँ कि मेरे विचारोंमें भी हिंसाकी गुंजाइश न रहे। मगर मैं ऐसी वैचारिक हिंसाके विरुद्ध परमात्माकी दी हुई सारी शक्ति से संघर्ष कर रहा हूँ ।

अब शायद पाठक समझ गये होंगे कि मैं अली-भाइयोंके साथ पहले जितना क्यों नहीं रहता। अब भी मैं उनकी मुट्ठीमें हूँ। वे अब भी मुझे सगे भाइयों- जैसे प्रिय हैं। मुसलमानोंके गाढ़े वक्तमें उनका साथ देनेके लिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं है। अगर फिर अवसर आया तो मैं वैसा ही करूंगा। हालांकि हम दोनोंका उद्देश्य एक ही है, मगर आज हमारे रास्ते एक नहीं हैं। वे तो मुझे शिमले और कलकत्तेकी सभाओंमें ले जाते[१] । कोहाटके दंगोंके[२] बादसे घटनाओंको समझने में हम लोग एक राय नहीं हो सके हैं। मगर वह दोस्ती ही किस कामकी जो इसीपर निर्भर हो कि हर बातमें हमारी रायें मिलती रहें। सच्ची दोस्ती तो ऐसी होनी चाहिए जो ईमानदाराना मतभेदको, चाहे वह कितना ही तीव्र क्यों न हो, बरदाश्त कर सके। मैं मानता हूँ कि हमारे मतभेद ईमानदाराना है और इसलिए जिन लोगोंको मेरे और अली-भाइयों तथा दूसरे मुसलमान मित्रोंके बीच, जिनका नाम पाठक सहज ही बूझ सकते हैं, दोस्तीके टूटने या उसमें कमी आ जानेका शक हो, वे समझ लें कि वह अब मी पहले जैसी ही पक्की बनी हुई है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १-१२-१९२७
 
  1. १. सितम्बर, १९२७के शुरूमें हिन्दू और मुसलमान नेताओंका एकता सम्मेलन मु० अ० जिन्नाको अध्यक्षता में शिमला में हुआ था; इसी तरहका एक दूसरा सम्मेलन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीने, २७ अक्टूबर, १९२७ को कलकत्ता में बुलाया था।
  2. २. देखिए खण्ड २६, पृष्ठ ३३३-४१ ।