अंतर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश/आ
गया। छूटते ही आप गान्धीजी के साथ काग्रेस में शामिल होगये। १९२०-२१
के असहयोग-आन्दोलन में आपने महात्मा गान्धी के साथ विशेष भाग लिया।
सन् १९२३ में देहली में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के सभापति हुए। सन
कारण आप गिरफ़्तार कर लिये गये। मौलाना काग्रेस के बहुत प्रभावशाली, सुयोग्य और लोकप्रिय तथा पुरातन नेता हैं। आप उच्च कोटि के वक्ता, लेखक तथा पत्रकार हैं। आपने क़ुरान की उर्दू मे महत्वपूर्ण टीका लिखी है। महात्मा गान्धी के आप दाहिने हाथ हैं। प्रत्येक मुस्लिम-प्रश्न का महात्माजी मौलाना साहब की सलाह से निर्णय करते हैं। मौलाना साहब की गान्धीजी मे अटल श्रद्धा है। वह पक्के गान्धीवादी नेता हैं। आपकी एक-निष्ठता आदर्श है।
आतंकवाद–राजनीतिक हत्याओ, डकैतियों तथा षड्यत्रो द्वारा सरकार तथा सरकारी अफसरो को सत्ताहीन कर देने का प्रयत्न करना। अराजकतावाद के सिद्धान्त को ठीक-ठीक रूप में न समझने के कारण कुछ अराजकतावादियों ने इस प्रकार के कार्यों को सगठित ढंग से करना आरम्भ किया। जब संगठित प्रयत्न दबा दिया गया तो व्यक्तिगत रूप से ऐसे कार्य किये जाने लगे। किंतु जहाँ अराजकतावाद एक सिद्धान्त है वहाँ आतङ्कवाद एक ऐसा मुहावरा है जिसकी विजित और विजेता अथवा शासित और शासक जातियो द्वारा, अपने-अपने विचारानुसार, पृथक् परिभाषा की जाती
है। समस्त संसार के देशो में विक्षुब्ध लोगो द्वारा ऐसी काररवाइयाँ की
जाती रही हैं। भारत में भी यह सब हुआ, किन्तु अब महात्मा गान्धी के
अहिंसावाद के प्रभाव से इसका उन्मूलन हो रहा है।
आर्थिक प्रवेश--एक देश द्वारा दूसरे देश में ऐसी आर्थिक स्थिति
उत्पन्न कर देना जिससे उस देश पर राजनीतिक नियंत्रण भी प्राप्त हो सके।
दूसरे देश के व्यापार-व्यवसाय में पूँजी लगाना, वहाँ मिले तथा कारख़ाने
चलाना, सड़कें, बैंक तथा रेलवे बनाना, अपने व्यापारियो के लिए उपनिवेश
बसाना, इत्यादि ऐसे साधन है जिनसे दूसरे देश पर आर्थिक-आधिपत्य के
साथ-साथ राजनीतिक प्रभुत्व भी क़ायम हो सकता है। भारत में भी वर्तमान शासक-सत्ता बहुत-कुछ इसी प्रकार स्थापित हुई। पाश्चात्य देशो ने
इस नीति का बहुत प्रयोग किया है, और यह नीति भी पिछले तथा वर्तमान
महायुद्धो का एक कारण हुई है।
आर्थिक राष्ट्रीयता--आर्थिक राष्ट्रीयता का, इस समय, प्रत्येक देश
में, जो उद्योग-धंधों में प्रगतिशील है, प्राधान्य है। प्रत्येक ऐसे देश की
अर्थनीति का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि अपने देश के उद्योग-धन्धो का
विकास इतने बड़े पैमाने पर किया जाय कि वह दूसरे देशो के बाज़ारो में तो
अपना तैयार माल बेच सके परन्तु उसे उनसे कोई वस्तु न ख़रीदनी पड़े।
आर्थिक साम्राज्यवाद--यह साम्राज्यवाद का नवीनतम स्वरूप है।
आर्थिक साम्राज्यवादी व्यवस्था दूसरे देशो और उपनिवेशो पर अपना कोई
राजनीतिक नियंत्रण रखना नही चाहती। वह तो सिर्फ उन देशो के आर्थिक
जीवन पर नियंत्रण रखना चाहती है। आज के पूँजीवादी तथा साम्राज्यवादी
राष्ट्र आर्थिक साम्राज्यवाद को अधिक उपयोगी इसलिए समझते है कि इसके
द्वारा उपनिवेशो का शोषण, बिना शासन-सूत्र हाथ में लिए, बड़ी सुविधा-पूर्वक, किया जा सकता है।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व--यह एक प्रकार की निर्वाचन-प्रणाली
है। निर्वाचन में उम्मीदवार की सफलता के लिए कम-से-कम आवश्यक मत
निर्धारित कर दिये जाते है। जितने उम्मीदवार किसी चुनाव के लिए खड़े
होते हैं, उनमें से मतदाता नाम छॉटकर अपनी इच्छानुसार लिखता है,
और जिस उम्मीदवार को वह चाहता है उसके नाम के सामने नम्बर १ लिख
देता है। इसके बाद दूसरे उम्मीदवार के सामने, जिसे वह चाहता है, २
लिख देता है, इसी प्रकार यह सिलसिला चलता है।
अब यदि मत-गणना करते समय यह परिणाम प्रकट हो कि १ नम्बर के उम्मीदवार को निर्धारित सख्या से अधिक मत प्राप्त हुए हैं तो वह अधिक मत उस उम्मीदवार के मतो मे जोड़ दिये जायँगे जिसे सबसे अधिक मतदाताओं ने नम्बर २ दिया है। इसी प्रकार यदि उसके मत भी निर्धारित संख्या से अधिक हो जायँ तो तीसरे नम्बर के उम्मीदवार को अधिक मत दे दिये जायँगे। इसी प्रकार आगे भी होता रहेगा। स्विट्जरलैण्ड में यह प्रणाली प्रचलित है।
आयरिश स्वतंत्र राष्ट्र--यह इँगलैण्ड के पश्चिम मे एक द्वीप है।
पहले यह महान् ब्रिटेन का अंग और उसके आधिपत्य में था। इसका क्षेत्रफल ३१,८०० वर्गमील तथा आबादी ४३,००,००० है। जब सन् ११५२ में
अँगरेजो की सत्ती आयरलैण्ड में स्थापित हो गई, तब से आयरिश जनता
तथा अँगरेजो में संघर्ष होने लगा। आयरिश अँगरेज़ी आधिपत्य के शुरू से
विरोधी रहे। इसके दो कारण थे, एक जातीयता तथा दूसरा धार्मिक मतभेद।
आयरिश रोमन कैथलिक तथा अँगरेज प्रोटेस्टेट थे। क्रॉमवेल की
अधीनता में इन दोनो में घोर संघर्ष हुआ और उत्तरी आयरलैण्ड से, जो अब
अल्स्टर कहलाता है, आयरिश जनता को निकाल दिया गया और इस प्रदेश
मे अँगरेज प्रोटेस्टेट तथा स्कॉच लोग बसा दिये गये। सन् १८०० तक
आयरलैण्ड में अधीनस्थ पार्लमेण्ट काम करती रही। इसी वर्ष आयरलैण्ड
को सयुक्त-राज्य ग्रेट ब्रिटेन (United Kingdom of Great Britain)
में शामिल कर लिया गया। इस प्रकार आयरलैण्ड का अँगरेजी-करण तो
हुआ परन्तु आयरिश जनता में राष्ट्रीय भावना का पुनर्जागरण होगया। अँगरेज़
ज़मीदारो तथा सम्पत्तिशालियो ने आयरिश जनता को न केवल सामाजिक
दमन ही किया प्रत्युत् उसका आर्थिक शोषण भी। वह ख़ुद भूमि के स्वामी
बन गये और आयरिश केवल काश्तकार ही रह गये। १९वी सदी मे आयरिश
जनसंख्या कम हो गई। आयरलैण्ड की आधी पैदावार इँगलैण्ड के ज़मीदारो
को जाती थी। सन् १८८६ तथा १८९३ में प्रथम आयरिश होमरूल मसविदे
(Bills) ब्रिटिश पार्लमेट में प्रस्तुत किये गये। यद्यपि वे स्वीकृत तो नहीं
हुए, तथापि तत्कालीन प्रधान मंत्री ग्लेड्स्टन ने आयरिश-समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया और उसमे उसे सफलता भी मिली। सरकार ने आयरलैण्ड के अँगरेज़ ज़मीदारो से ज़मीने ख़रीदकर आयरिश प्रजा को देदी। सन्
१९१२ मे होमरूल का नया मसविदा प्रस्तुत किया गया। अल्स्टर में इसका
प्रबल विरोध हुआ। अल्स्टर में स्वयसेवको की भर्ती की गई और दक्षिणी
आयरलैण्ड में होमरूल के लिए आयरिश स्वयसेवक भर्ती किये गये। इन
दोनो में संघर्ष शुरू हो जाने की पूर्ण संभावना थी। लार्ड-सभा में दो बार
होमरूल बिल अस्वीकार कर दिया गया। सन् १९१४ मे विश्व-युद्व आरम्भ
हो गया। इस बीच मे मसविदा (Bill) तो स्वीकार होगया, परन्तु उस पर
अमल करना स्थगित कर दिया गया।
उत्तरी तथा दक्षिणी आयरिश सैनिको ने ब्रिटेन की ओर से युद्ध मे
भाग लिया। परन्तु क्रान्तिकारी राष्ट्रीय आयरिश दल (जो शिन-फीन
(Sinn Fein) दल के नाम से प्रसिद्ध है) युद्ध से अलग रहा। ‘सिन-फीन'
का अर्थ है "स्वयं अपने लिए"। सन् १९१६ मे आयरिश-विद्रोह हो गया।
आयरिश स्वतंत्र प्रजातंत्र की घोषणा कर दी गई; किन्तु आयरिश नेता पकड़
लिये गये और उनका वध कर दिया गया। इस विद्रोह में आयरिश जनता
को जर्मनी का सहयोग भी प्राप्त था। जर्मनी से सर रौजर केसमेट यू-बोट में
बैठकर आयरलैण्ड मे विद्रोहियों को सहायता देने के लिये आये।
जब युद्ध समाप्त हो गया तब पुनः एक होमरूल बिल पेश किया गया
और स्वीकार कर लिया गया। उसके अनुसार उत्तरी तथा दक्षिणी आयरलैण्ड में दो पार्लमेट बनाने का निश्चय किया गया। क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी
आयरिश जनता ने गृह-युद्ध आरम्भ कर दिया। उसने आयरलैण्ड में घोर
आतंक फैला दिया। ब्रिटेन ने क्रान्तिकारी आयरिश राष्ट्रवादियो के दमन
के लिये एक विशेष पुलिस भेजी जो ब्लैक-एन्ड-टैन्स के नाम से मशहूर है।
इस प्रकार शिन-फील दल और ब्लैक-एन्ड-टैन्स में बड़ा भयंकर युद्ध होता
रहा। राष्ट्रवादियों ने फौजो पर भी आक्रमण किया। ब्रिटिश पार्लमेट के
कुल १०५ आयरिश सदस्यो मे से ७३ शिन-फीन सदस्य डबलिन में एकत्रित
हुए और आयरिश राष्ट्रीय परिषद् (Dail Eireann) का अधिवेशन किया।
इस प्रकार अन्त मे, सन् १९२१ मे, ब्रिटिश-सरकार और आयरिश राष्ट्रीय
परिषद् के बीच सन्धि हो गई। सन् १९२२ मे आयरिश स्वतंत्र-राज्य-क़ानून
ब्रिटिश पार्लमेट ने स्वीकार किया। इसके अनुसार दक्षिणी आयरलैण्ड में
स्वतंत्र राज्य (Irish Free State) स्थापित हो गया। उत्तरी आयरलैण्ड
(अल्स्टर) ब्रिटेन के अधिकार में रह गया। उसे मर्यादित स्वराज्य दे
दिया गया।
क्रान्तिकारी आयरिश प्रजातत्रवादियों के नेता डी वेलरा ने सन्धि को ठुकरा दिया और आयरिश स्वतंत्र राज्य की सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया। फिर गृह-युद्ध आरम्भ हो गया और सन् १९२३ तक चलता रहा। अन्त में सरकार की विजय हुई।
सन् १९३२ मे आयरिश स्वतंत्र राज्य की पार्लमेट मे फियन्ना-फेल दल का बहुमत हो गया और इस दल का नेता डी वेलरा प्रधान-मंत्री नियुक्त किया गया। शासन-विधान (१९२२) में कई बड़े परिवर्तन किये गये। राजभक्ति की शपथ लेना बन्द कर दिया गया। गवर्नर-जनरल के अधिकार कम कर दिये गये। सन् १९३७ में नया शासन-विधान तैयार किया गया। यह विधान पूर्ण स्वाधीनता के आधार पर बनाया गया। १ जुलाई १९३७ को ५४ प्रतिशत के बहुमत से यह विधान स्वतंत्र राज्य की जनता ने स्वीकार किया। २९ दिसम्बर सन् १९३७ से इसके अनुसार शासन होने लगा।
विधान में आयरलैण्ड को पूर्ण स्वाधीन, प्रभुत्व-युक्त-प्रजातत्र, कैथलिक राज्य घोषित किया गया है। आयरलैण्ड की राष्ट्रीय पताका हरे, सफेद और नारंगी रंग की निर्धारित की गई है। यूनियन जैक (ब्रिटिश पताका) का बहिष्कार किया गया है तथा क्राउन (सम्राट्-सत्ता) का उल्लेख भी नहीं किया गया है। अब गवर्नर जनरल का पद नहीं है। राष्ट्रपति का चुनाव होता है और वही राज्य का प्रमुख शासक है।
राष्ट्रपति ७ साल के लिए चुना जाता है। वह पार्लमेट के अधिवेशन
आमंत्रित करता है तथा उसे भग करता है। वह कानूनों पर स्वीकृति देता
तथा उन्हे जारी करता है। वह सेना
का प्रधान सचालक है तथा क्षमादान का भी उसे अधिकार है। आजकल प्रोफेसर डगलस हाइड आयरलैण्ड के राष्ट्रपति है।आयरलैंड मे दो धारा सभाये हैं। प्रधान मन्त्री राष्ट्रपति द्वारा पार्लमेट से मनोनीत हो जाने पर नियुक्त किया जाता है। ग्रेट ब्रिटेन ने न तो आयरलैण्ड के नये शासन-विधान को स्वीकार किया है और न अस्वीकार ही।
आर्य--आर्य सस्कृत शब्द है और वेदो मे इसका उल्लेख कई स्थलों पर मिलता है। भारतवर्ष के वैदिक साहित्य के अध्धयन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि आर्य शब्द आर्यवर्त्त के लोगो के लिये प्रयुक्त किया जाता था। वर्त्तमान समय में हिमालय से विन्ध्याचल तक तथा भारत की पश्चिमी सीमा से ब्रह्म्पुत्र नदी तक का प्रदेश आर्यवर्त्त के नाम से प्राचीन काल में प्रसिद्ध था। कुछ लोगो के मत से सृष्टि के आदि मे तिब्बत में सबसे प्रथम मानव सृष्टि हुई और वहाॅ से मानव भारत के उत्तरी भाग मे आकर बस गये। यही आर्य कहलाये।
कुछ यूरोपीय विद्वानो का यह मत है कि 'आर्य' वास्त्व मे भाषा विज्ञान का शब्द है, उसका जाति, रक्त या वंश से कोई सबंध नही है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि 'आर्य-जाति' एक कल्पना है--इसमे ऐतिहासिक सत्य नही है।
दूसरी ओर कुछ भारतीय विद्वानो और इतिहास-वेत्ताओ ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि आर्य एक प्राचीन जाति है और इसका जन्म-स्थान मध्य एशिया या तिब्ब्त है। लोकमान्य तिलक के अनुसार 'आर्य' जाति का आदिस्थान उत्तरी ध्रुव है।
वर्त्तमान समय मे जर्मनी के सर्वेसर्वा हर हिटलर ने, संसार के सामने जर्मन जाति की विशुद्धता का प्रमाण देने का प्रयत्न करते हुए, यह स्पष्ट
शब्दो मे कहा है कि जर्मन विशुद्ध आर्य जाति है। आर्य जाति ने ही सबसे प्रथम संसार मे सभ्यता को जन्म दिया और संस्कृति की रक्षा भी उसी ने की। यदि हिटलर का तात्पर्य आर्यवर्त्त के आर्यो से होता, तो इस कथन में सार भी होता, क्योंकि संसार में सबसे प्राचीन धर्म वैदिक धर्म है। वेद अपौरुषेय हैं और यूरोपीय विद्वान् भी यह मानते हैं कि वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। इससे यह स्पष्ट है कि वेदो के माननेवाले आर्य भी प्राचीन हैं। परन्तु हिटलर ऐसा नही मानता। वह केवल जर्मन को ही श्रष्ठ आर्य जाति मानता है। यह वास्तव मे भारी भ्रम है। आज वस्तुत: यूरोप में कोई भी जाति आर्य कहलाने का दावा करे तो यह एक प्रकार की विडम्बना ही होगी। भारत में भी नस्लो और जातियो का इतना मिश्रण हो गया है कि आज यह नहीं कहा जा सकता कि सभी हिन्दू कहलानेवाले प्राचीन आर्य जाति के अंग हैं।
आलैण्ड द्वीप-समूह--यह द्वीप-समूह बाल्टिक सागर मे स्वीडन और फिनलैण्ड के मध्य में है। क्षेत्रफल ५७६ वर्गमील और जनसंख्या २७,००० है। यह द्वीप सामरिक महत्व रखते हैं। यदि इनमें किलेबन्दी कर दी जाय, तो इनका प्रयोग रूस, फिनलैण्ड और स्वीडन पर आक्रमण करने के लिए किया जा सकता है। जिसके अधीन यह द्वीप होंगे वह स्वीडन और जर्मनी के व्यापार मे भी बाधा डाल सकता है। इनमे स्वीडिश जनता रहती है, परन्तु प्राचीन काल से यह द्वीप फिनलैण्ड के पास हैं। सन् १८०६ में वह फिनलैण्ड के साथ रूस के पास चले गये। सन् १८५६ मे, क्रीमियन-युद्ध के बाद, स्वीडन की प्रार्थना पर, रूस ने इन द्वीपो में किलेबन्दी नहीं की। सन् १९१७ में रूसी राज्यक्रान्ति के बाद जन-मत लेने पर यही निश्चय हुआ कि यह द्वीप स्वीडन को दे दिये जायॅ। फरवरी १९१८ में स्वीडन की सेना द्वीपो में प्रविष्ट हुई। परन्तु जब जर्मन-सेना ने उन पर अधिकार जमा लिया तब स्वीडन की सेना वापस आ गई। नवम्बर १९१८ मे जर्मन-सेना वापस आ गई। अब स्वीडन और फिनलैण्ड में, इन द्वीपो के आधिपत्य के संबंध में, संर्घष शुरू हो गया। सन् १९२१ मे राष्ट्र-संघ ने यह निर्णय किया कि यह द्वीप फिनलैण्ड को दे दिये जायॅ, परन्तु उन्हे स्वायत्त-शासन दे दिया जाय और
नि:शस्त्र कर दिया जाय। इन द्वीपो की राजभाषा स्वीडिश है, और सन् १९२१ से यह स्वराज्य भोग रहे है। सन् १९३८ में स्वीडन और फिनलैण्ड ने यह तय किया कि इन द्वीपो मे क़िलेबन्दी की जाय। परन्तु इस कार्य में रूस ने बाधा डाल दी।
ब्रिटेन और जर्मनी के मध्य वर्तमान युद्ध छिड़ने पर, ५ सितम्बर १९३९ को, आस्ट्रेलियन सरकार ने भी युद्ध-घोषणा कर दी। पार्लमेंट में विरोधी-दल ने यह प्रस्ताव पेश किया कि आस्ट्रेलियन सेनाएँ बाहर न भेजी जायँ, परन्तु २८ के विरुद्ध ३३ के बहुमत से यह प्रस्ताव गिर गया।
७ दिसम्बर १९४१ से जापान ने, प्रशान्त महासागर में ब्रिटिश, अमरीकन तथा डच द्वीप-समूहों पर आक्रमण शुरू किया। मार्च १९४२ में जापानी यानो ने आस्ट्रेलिया के बन्दरगाह डारविन पर हवाई हमले किये और ता० ५ अप्रैल १९४२ तक १३ बार इस बन्दरगाह पर हमले हो चुके थे। प्रशान्त महासागर में जापान विजयी हो चुका है, और इन दिनों, इस युद्ध में, आस्ट्रेलिया को जापानी आक्रमण का ख़तरा बराबर बना हुआ है।
इ
इटली--क्षेत्रफल १,१९,७०० वर्गमील, जनसंख्या ४,४०,००,००० है। नाम-मात्र के लिये इटली में बादशाह विक्टर इमान्युल का राज्य है; परन्तु वस्तुत: मुसोलिनी और उसके फासिस्ट दल का अधिनायक-तन्त्र वहाँ चालू है। सन् १९२६ में इटली की पार्लमेंट वास्तव में फासिस्ट बन गई। सन् १९३४ में इसने अपने समस्त अधिकार कारपोरेशन की राष्ट्रीय कौंसिल को सौंप दिये और अक्टूबर १९३८ में पार्लमेंट का अन्त हो गया। इसके स्थान
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