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अणिमा/२९. गया अँधेरा

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अणिमा
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
गया अँधेरा

लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ ५९

 
 

गया अंधेरा
देख, हृदय, हुआ है सबेरा।

चलना है बहुत दूर रे,
नहीं वहाँ परी, नहीं हूर,
मूसा का जैसा, कुछ देने के लिए है,
निर्जीवन जीवदहन तूर;
और कहीं डाल अपना डेरा—
गया अँधेरा!

कोई नहीं पूछता, न पूछे,
भरे रह गये हैं वे, इसलिए
तेरी नज़रों में हैं छूँ छे;
ढलकाता चल उनका जल रे,
भर जैसे मिलना है तेरा—
गया अँधेरा!

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