[ १३ ]
सुन्दर हे, सुन्दर! दर्शन से जीवन पर बरसे अविनश्वर स्वर। परसे ज्यों प्राण, फूट पड़ा सहज गान, तान-सुरसरिता बही तुम्हारे मङ्गल-पद छूकर। उठी है तरङ्ग, वहा जीवन निस्सङ्ग, चला तुमसे मिलन को खिलने को फिर फिर भर भर।