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अणिमा/५. सुंदर हे सुंदर

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लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ १३

 

 

सुन्दर हे, सुन्दर!
दर्शन से जीवन पर
बरसे अविनश्वर स्वर।
परसे ज्यों प्राण,
फूट पड़ा सहज गान,
तान-सुरसरिता बही
तुम्हारे मङ्गल-पद छूकर।
उठी है तरङ्ग,
वहा जीवन निस्सङ्ग,
चला तुमसे मिलन को
खिलने को फिर फिर भर भर।