अतीत-स्मृति/११ सोम-याग

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११-सोम-याग

वैदिक समय में दो प्रकार के यज्ञ होते थे। एक तो दही, दूध, घी और पुरोडाश आदि की आहुतियो के द्वारा और दूसरा सोमरस की आहुतियों के द्वारा। प्रथम प्रकार के यज्ञ का नाम हविर्यज्ञ है और दूसरे प्रकार के यज्ञ का नाम सोमयज्ञ या सोमयाग।

हविर्यज्ञ के बाद सोमयज्ञ चला। इसका प्रमाण अथर्ववेद में है। अथर्ववेद के गोपथ-ब्राह्मण मे लिखा है कि भृगु और अङ्गिरा ऋषियों ने पहले पहल सोमयज्ञ किया।

हविर्यज्ञ अनेक प्रकार का है और सोमयज्ञ भी अनेक प्रकार का है। कृष्ण-यजुर्वेद के प्रथम काण्ड मे यज्ञों के नाम है। उसी मे उन सब की विधि भी है। किन्तु ब्राह्मण-भाग मे जो विधि है वह कुछ अस्पष्ट है। तात्पर्य यह है कि यजुर्वेद के प्रचार के समय ही सब यज्ञ जारी हुए। ऋग्वेद के समय उनका अंकुर मात्र था।

कृष्ण-यजुर्वेद के काण्ड १, प्रपाठक ६, अनुवाक ९ में यज्ञो के नाम आदि हैं। यथा-

"प्रजापतिर्यज्ञानसृजत। अग्निहोत्रं चागिष्टोमश्च पौर्णमासी-ञ्चोकथञ्चामावास्याश्चातिरात्रं" इत्यादि। [ १२४ ]हविर्यज्ञ मुख्य करके ७ प्रकार का है। यथा-अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्श-पौर्णमास, आग्रहायणी, चातुर्मास, पशुबन्ध और सौत्रामणि।

सोमयज्ञ भी प्रधानतः ७ प्रकार का है। अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। राजसूय और अश्वमेध भी सोमयाग ही में गिने जाते हैं। परन्तु इन्हें ब्राह्मण लोग न करते थे।

सोमयज्ञ के अन्तर्गत भी कई प्रकार के याग हैं। वे चाहे जितने प्रकार के हों, सब की उत्पत्ति अग्निष्टोम ही से है। इसी लिए विशेष विशेष प्रकार का अग्निष्टोम-यज्ञ विशेष विशेष नाम से पुकारा जाता था। सोमरस से साधित होने के कारण लोग उसे सोमयज्ञ कहते हैं।

सोमयाग के भी तीन प्रकार हैं-"आहीन" "सत्र" और "एकाह"। जो एक दिन में पूरा होता है वह "एकाह" है। दो से बारह दिनों में होने वाले का नाम "अहोन" है। एक पक्ष या और अधिक दिनो तक होने से वह "सत्र" कहलाता है। सत्र के भी "दीर्घ सत्र" इत्यादि कई भेद हैं।

अग्निष्टोम-यज्ञ करने का समय इस प्रकार कहा गया है‌। यथा-"वसन्तेऽग्निष्टोमः" (कात्यायन-सूत्र) "वसन्ते ज्योतिष्टोमेन यजेत" (आपस्तम्बसूत्र) अतएव वसन्तकाल ही सोमयाग करने का समय है। वसन्तकाल ही में सोम बहुतायत से पाया जाता है। इसलिए उसी ऋतु में ऋषि सोमयाग करते थे। [ १२५ ]सोमयाग का देवता अग्नि है। इसीलिए उसका नाम अग्निष्टोम पड़ा (अग्निस्तोमः स्तवन इत्यामिष्टोमः) अग्नि का स्तोत्र गाना और उसकी पूजा करना ही उसका प्रधान उद्देश था। उसके साथ साथ और देवताओं की भी पूजा की जाती थी।

इस यज्ञ को करने के लिए सुपटु ब्राह्मण ही नियुक्त होते थे। पहले कोई अच्छी भूमि बंद कर वहीं यज्ञ होता था। सव कही न होता था। पोछे, धीरे धीरे, यह विधि प्रचलित हुई कि जहाँ वेदज्ञ ब्राह्मण पाये जाये वही स्थान यज्ञ के योग्य है।

स्थान का निश्चय हो जाने पर वहाँ एक मण्डप बनाया जाता था। वह चारों ओर समान होता था और हर तरफ १२ अरन्ति होता था। (कुहनी से कनिष्ठा अंगुली की जड़ तक का नाम आरत्नि होता है) इस मण्डप को प्राचीनवंश कहते थे। इसके चार द्वार होते थे। इस लिए इसको चतुर-मण्डप भी कहते थे। यह चारों ओर तृण से छा दिया जाता था।

प्राचीन-वंश-मण्डप बन जाने और यज्ञ-सम्बन्धी सब सामग्री एकत्र हो जाने पर ऋत्विक्, अर्थात् पुरोहित, यजमान को उस गृह में ले जाकर उसे दीक्षा देते थे।

सब यज्ञो में ऋत्विक लोगो की संख्या एक सो न होती थी। अग्न्याधान-याग में ४, अग्निहोत्र में १, दर्श-पौर्णमास मे ४, चतुर्मास मे ५, पशुबन्ध मे और सोमयाग मे १३ ऋत्विक दरकार होते थे।

इन १६ ऋत्विकों के भिन्न भिन्न नाम और काम थे। नाम, [ १२६ ] यथा-ब्रह्मा, उद्गाता, अध्वयु, होता, ब्राह्मणशंसी, प्रस्तोता, मैत्रावरुण, प्रतिप्रस्थाता, पोता, प्रतिहर्ता, अच्छावाक, नेष्टा, आग्नीघ्र, सुब्रह्मण्य, प्रावस्तुत और उन्नेता।

आपस्तम्भ कहते हैं कि एक सदस्य भी होता है। इस प्रकार सोमयाग के १७ पुरोहित हुए। उनमें ४ प्रधान और शेष उन चारों के सहायक होते थे। होता, उद्गता, अध्वर्य्यु और ब्रह्मा-ये चार प्रधान होते थे।

अध्वर्य्यु के सहकारी प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा और उन्नेता थे। होता के सहकारी प्रस्तोता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य थे।

देवता की स्तुति और आह्वान करना होता का कार्य था। देवता के सन्तोषार्थ साम-गान करना उद्गाता का कार्य था। कार्य्य विशेष में अनुमति देना और सब के कामो को सँभालना तथा जप करना ब्रह्मा का कार्य्य था। यजमान इन सब ऋत्विकों को वरण करता था। ये लोग यजमान का हाथ पकड़ कर उसे यज्ञ-मण्डप में ले जाते और दीक्षित करते थे।

दीक्षा लेते समय यजमान पहले हजामत कराता था। पीछे स्नान करके और नये कपड़े पहन कर माङ्गल्य द्रव्य धारण करता था। ऋत्विक दर्भाञ्जलि अर्थात् कुश-गुच्छ लेकर यजमान के सर्वाङ्ग पर जल छीटते हुए, वेद-मन्त्र पढ़ते हुए, उसे यज्ञमण्डप के पूर्वद्वार से उसके भीतर ले जाते थे। भीतर जाते ही उसे यज्ञ दीक्षा देते थे। दीक्षा देने से मतलब एक छोटा सा होम कराने [ १२७ ] से था। वह होम आरम्भ-सूचक था। उसका नाम दीक्षणीय इष्टि था।

इस प्रकार दीक्षा का काम पूरा हो जाने पर पहले अध्वर्य्यु ऊँचे स्वर से देवताओं और मनुष्यों को सुनाते थे कि "अदीक्षिष्टोऽयं ब्राह्मणः" अर्थात् इस ब्राह्मण ने दीक्षा ग्रहण की। यजमान क्षत्रिय और वैश्य हो तो भी वह ब्राह्मण ही कहा जाता था। फिर दीक्षित यजमान, प्राणेष्टि नामक एक छोटा सा याग करता था। इस याग मे चरुपाक करके उससे अदिति, और घी से अग्नि, सोम, सूर्यदेवता का होम किया जाता था। यह हो जाने पर वास्तव मे यज्ञ का प्रारम्भ होता था। तब प्रति-प्रस्थाता नामक ऋत्विक "उपरव" प्रदेश में (उपरव किसे कहते है, यह पीछे बताया जायगा) कुश बिछाकर उनके ऊपर सोमलता का गट्ठा रखते थे। फिर सोम-विक्रेता सोम के रेशों की परीक्षा करता और साफ करता था। पीछे १७ ऋत्विको सहित यजमान वहाँ आकर उसे मोल लेता था। लाल रंग की एक वर्ष की एक गाय देकर सोम मोल लेना पड़ता था। ऐसी गाय लाकर अध्वर्य्यु सोम-विक्रेता से पहले मोल-तोल करता था। मोल-तोल की बातें आश्चर्यजनक हैं यथा-

अध्वर्य्यु-"आर्य भी विक्रेतव्यसते सोमो राजा!" सोम को क्या तुम बेचोगे?

सोमविक्रेता-"अस्ति विक्रेतव्यः" हाँ बेचने के लिए है। [ १२८ ]अध्वर्य्यु-"गोः कलया मूल्येन क्रीणीमः"-गाय के सोलह अंशो में से एक अंश मूल देकर हम मोल लेंगे।

सोम॰-"इतोऽतिभूयः सोमो राजाऽहर्ति"-राजा सोम इससे अधिक मूल्य पाने के योग्य है।

अध्वर्य्यु-"सत्यं गोरपि विशिष्टो महिमा। पयः क्षीरसारं दध्याभिक्षानवनीतमुदश्वितं धृतम्-इत्येवमादीनि संसारोपयोगिवस्तुजातानि गोभ्यः समुद्रवन्ति" सत्य है कि सोम अधिक मूल्यवान है, किन्तु गाय की भी विशेष महिमा है। दूध, मलाई, दही, मक्खन, तक्र, घी इत्यादि अनेक प्रकार की वस्तुयें गाय से मिलती हैं।

सोम-विक्रेता-"अस्त्येतत् तथापि गोः षोड़शांशादधिकं सोमो राजाऽहर्ति"-यह सत्य है, तथापि राजा सोम गाय के सोलहवें अंश से अधिक मूल्य पाने के योग्य है।

अध्वर्य्यु पहले चार भागो में एक भाग मूल्य देकर लेना चाहते है। फिर तीन में से एक। फिर अर्धांश। फिर समूची गाय देना स्वीकार करते हैं। तब साम विक्रेता कहता है-"विक्रीतो मया सोमः"-परन्तु-"वस्त्रादिकं परितोषकमप्यहं लब्धुमिच्छामि-" मैं सोम बेचता हूँ, परन्तु वस्त्रादि पारितोषिक भी चाहता हूँ। तब विक्रेता को पारितोषिक दिया जाता और राजा सोम शकट पर लादे जाते। फिर उस प्राचीनवंश नामक याग-गृह में पूर्व द्वार से लेकर 'आहवनीय' नामक अग्निकुण्ड के [ १२९ ] दक्षिण ओर, एक लकड़ी के पीढ़े पर मृगचर्म बिछाकर, उस पर वे रक्खे जाते। उस समय आतिथ्येष्टि नामक एक छोटा-सा याग किया जाता। अर्थात् राजा सोम मानों गृह में अतिथि हुए हैं। अतएव यथोचित अतिथि-सत्कार करना उचित है। इसी भाव से वह इष्टि, अर्थात् पूजा, की जाती और वह ठीक लौकिक रीति से सम्पादित होती।

फिर सोम-याग के विघन्कारी असुरों की पराभव-कामना से यजमान तीन दिन तक "उपसद" नामक एक छोटा-सा यज्ञ करता। उसमे सबेरे और सन्ध्या-समय सोम और विष्णु देवता के नाम पर घी की आहुतियों से होम किया जाता।

तीन दिन होनेवाले उपसद-नामक यज्ञ के बीचवाले दिन सौमिक वेदी बनाई जाती थी। उसके ऊपर का भाग, चारों ओर, बितान से ढक दिया जाता था। उसके सम्मुख भाग का नाम अंश और पश्चाद् भाग का नाम श्रोणी होता था। इस वेदो के अंश के उत्तर-भाग मे १० डग के नाप की एक वेदी बनाई जाती थी। वह अग्निहोत्र वेदो के सहश होती थी। उसका नाम "उत्तरवेदी" होता था। उस वेदी के अंश के उत्तर-भाग में पूर्व-पच्छिम, एक डग की एक और वेदो बनाई जाती थी। उसका भी आकार अग्निहोत्र-वेदी के सहश ही होता था। फिर महावेदी के मध्य भाग मे ओणी-रेखा खींची आती थी । मध्य से अंश तक उस सुव्यक्त रेखा का नाम "पृष्ठ्या" होता था। महावेदी के उत्तरांश के पश्चाद् भाग में, चीन डग की दूरी पर, एक गढ़ा

[ १३० ] खोदा जाता था। उसको वैदिक लोग चत्वालक कहते थे। इस चत्वालक गढ़े से १२ डग को दूरी पर एक और गढ़ा खोदा जाता था। उसका नाम "उत्कर" होता था।

यह सब बना लेने पर अध्वय्र्यु और प्रतिप्रस्थाता हविर्धान नामक दो छकड़े उस गढ़े में धोकर, और पश्चिम ओर से महावेदी पर लाकर, श्रोणी के निकट रखते थे। फिर उस पृष्ठ्या नामक रेखा के दक्षिणोत्तर चार खम्भे वाला एक मण्डप बनाते थे। उस मण्डप का नाम हविर्धान-मण्डप था। उसके पूर्व और पश्चिम में दो द्वार होते थे। वीरण अर्थात् शरपत्र (सरपत?) की चटाई से उसे चारो ओर से घेर देते थे।

इसके अनन्तर मण्डप के मध्य में, एक ही से चार कमरे बना कर, अग्निकोण वाले कमरे के बीच में, एक हाथ वर्गाकार-रेखा की कल्पना करके प्रत्येक कोने के किनारे आध हाथ लम्बा और एक हाथ गहरा एक गढ़ा खोदते थे। अर्थात् चारों कोनों पर चार गढ़े खोदते थे। गढ़ों के मुँह वरुणाकाष्ट की चार कंडियों से बन्द करके उन पर वृष-चर्म और उनके ऊपर शिलापट्ट (पत्थर की पटिया) रखते थे। उसी पर रस निकालने के लिए सोम पीसा जाता था।

हविर्धान-मण्डप के सम्मुख, पृष्ठ्या नामक स्थान के दक्षिण, सदोमण्डप नाम का एक और मण्डप बनाया जाता था। यह मण्डप १० अरत्नि लम्बां और ४ अरलि चौड़ा, स्तम्भों से सुशोभित, साफ सुथरा होता था। सदो-मण्डप के ठीक बीच [ १३१ ] मे यजमान के आकार का एक औदुम्बरी स्थूणा (खूटा) गाड़ा जाता था। फिर अग्निशाला का निर्माण, सदोमण्डप और हविर्धान-मण्डप के उत्तर-भाग में, होता था। उसका एक अधीर्श वेदी की ओर घुसा हुआ और दूसरा बाहर को निकला हुआ रहता था। उसमें दो द्वार होते थे। एक दक्षिण की ओर, दूसरा पूर्व की ओर।

आहवनीय-कुण्ड के निकट ही यज्ञीय यूप-स्तम्भ गाड़ा जाता था।

महावेदी बन जाने पर, वैसर्जन नामक होम के बाद, अग्निष्टोमीय पशुयाग का प्रारम्भ होता था। यह याग सोमयाग का पूर्वाङ्ग है। उस समय वंश-शाला में उत्तर-वेदी पर रक्खी हुई सोमलता को लाकर हविर्धान-मण्डप में रखते थे। फिर यज्ञीय पशु को पवित्र जल से स्नान करा कर, यूप के सामने, पश्चिम-मुँह खड़ा कर के, कुशाञ्जलीयुक्त प्लक्ष शाखा से उसे मन्त्रपूत करते थे। मन्त्रपूत अर्थात् उपाकरण हो जाने पर संज्ञपन अर्थात् वध करने तक जो क्रियायें की जाती थीं, उनका ना मपश्वालम्भन था।

दाँता हुआ, सर्वाङ्गपूर्ण, रोगशून्य और बहुत हृष्ट-पुष्ट बकरा ही यज्ञ-कार्य्य मे ग्रहण किया जाता था।

पशु जब वध्यस्थान में लाया जाता था तब ऋत्विक् लोग ऊँचे स्वर से वेद-मन्त्र-गान करते थे। जो मन्त्र गाये जाते थे उन में से एक का अर्थ यो है। "हे व्यापक इन्द्रिसमूह! इस पशु की इन्द्रियाधिष्ठात्री देवी सहित तुम हमे हवि अर्थात् होम-द्रव्य दो।" [ १३२ ] संज्ञपन हो जाने पर पशु के नीचे लिखे अंग काट-काट कर "शामित्र" नामक अग्निकुण्ड में भूने जाते थे। फिर मन्त्र गाते-गाते उसकी आहुति दी जाती थी। वे अंग ये हैं-कलेजा, जीभ, वक्ष, तिल्ली, वृक्कद्वय, अगला बायां पैर, दोनो रानें, दाहिनी श्रेणी, वायुनाल और चर्बी आदि। और भी कई अंग काट कर उनसे होम किया जाता था। इन सब क्रियाओं का नाम था "अग्निष्टोमीय पशुयाग"।

इसके बाद ही पुरोहित ब्राह्मण, चात्वाल और उत्कट-भूमि के उत्तर भाग मे बहते हुए जलाशय से जल लाकर यज्ञशाला में रखते थे। उस लाये हुए जल का वैदिक नाम बसतीवरी था। उस दिन, रात भर, जाग कर तजमान ब्राह्मणों से नाना प्रकार के इतिहास और वैदिक बातें सुनता था। इसी कारण उस दिन का नाम उपवस्य था।

इसके बाद के दिन का नाम सूत्या-दिवस था। उस दिन सबेरे अध्वर्यु आदि ब्राह्मण, स्नान और आलिक कर्म करके, जो जो कार्य करने की विधि होती थी उसमे लग जाते थे। यथा-

पहिले हविर्धान के छकड़े से सोम उतार कर उसे वे उपसव-स्थान में रखते थे। अध्वर्यु बहुत सबेरे उठ कर होता को "प्रेष-मन्त्र" से आवाहन करते थे। होता भी प्रातरनुवाक पढ़ कर अश्विनीकुमार का स्तवन करते तथा आग्नीध्र-पुरोडाश आदि प्रस्तुत करने लगते थे और उन्नेता सोमपान सजाते थे *[१]


[ १३३ ]फिर हविर्धान की गाड़ी के अक्ष-प्रान्त में दो ऊर्णवस्त्र, अर्थात् भेड़ के रोयें के बने कम्वल, सोमरस छानने के लिए रक्खे जाते थे। तदनन्तर दक्षिणी हविर्धान के छकड़े के नीचे मिट्टी का एक द्रोण-कलश रक्खा जाता था और उत्तरी हविर्धान के छकड़े के ऊपर दूसरे दो बड़े-बड़े कलश। उनमे से एक का नाम उपभृत और दूसरे का नाम आघवनीय था। पश्चात् उत्तरवाले छकड़े के नीचे १० काष्ठमय चमस और मिट्टी के ५ घड़े रक्खे जाते थे। यह सब कार्य उन्नेता करता था।

इसके अनन्तर अध्वर्य्यु की आज्ञा से यजमान, उसकी पत्नी और चमसाध्वर्य्य, ऊपर लिखे हुए घड़ों में जल लाते थे। जो जल पुरुष लाते उसका नाम एकधन और जो यजमान-पत्नी लाती उसका नाम पानजन था। अध्वर्य्यु इन दोनों प्रकार के जलों को पूर्वोक्त वसतीवरी जल में मिला देते थे। फिर यजमान, प्रतिप्रस्थाना, नेष्टा और अध्वर्य्यु उस सोमवाली सिल के पास बैठ कर और लोढ़ा हाथ में लेकर, अनुक्षा-वाक्य उच्चारण करते थे। अनन्तर अध्वर्य्यु पाँच मुट्ठी सोम सिल पर रखते थे। प्रतिप्रस्थाता उस सोम के ढेर में से ६ सोमअंशु लेकर अपनी उँगलियो के बीच में दवा रखते थे। फिर सब इकट्ठे होकर उसे पीसते थे। इस प्रकार सोमरस निकालने का नाम सोमाभिपव्


का और स्थाली मिट्टी का बनता था। ये दोनों बर्तन भिन्न आकार के बनाये जाते थे। [ १३४ ] था। यह दिन में केवल तीन बार किया जाता था। सबेरे के सोमाभिषव् का नाम प्रातः-सवन, मध्यवाले का नाम माध्याह्न-सवन और सायङ्काल वाले का सायंसवन था। निकाले गए सोमरस की आहुतियाँ दी जाती थीं। शेष भाग पोने के लिए रक्खा जाता था।

आहुति-योग्य सोमाभिषव् समाप्त होने पर पुरोहित लोग महाभिषव् अर्थात् अधिकता से सोम पीसना प्रारम्भ करते थे। प्रतिप्रस्थाता आदि सब लोग एकत्र होकर पीसते और अध्वर्य्यु उसमे जल देते जाते। अच्छी तरह पिस जाने पर उसे आघवनीय कलश मे डाल कर हिलाते रहते। फिर उसे कपड़े से दबा कर रस निकालते। उस रस को क्रम से ग्रह, चमस और कलश में भरते और अनेक प्रकार के मन्त्र और स्तोत्र पढ़ते। उससे देवताओ के नाम पर आहुतियाँ दी जातीं।

सोमयाग के देवता-सूर्य, अग्नि, इन्द्र, वायु, मित्र, वरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेव, महेन्द्र, वैश्वानराग्नि, चैत्रादि मालों की अधिष्ठात्री देवता, मरुद्गण सहित इन्द्र, त्वष्ट-सहित अग्नि-पत्नी स्वाहा हैं।

इस अनुष्ठान के बाद पुरोहित और यजमान सोमरस पी कर‌ आत्मा को कृतकृत्य समझते थे। पुरोहित और यजमान के सोमपान के विधान में भेद है। पुरोहित प्रत्येक सवन में बचा‌ हुआ सवन पीता और यजमान केवल सायंसवन में पीता था। याग समाप्त होने पर यजमान पहले कहे हुए सदेमिण्डल में [ १३५ ]जाकर पुरोहितों को दक्षिणा देता था। अग्निष्टोमयज्ञ के दक्षिणविभाग में क्रम से १२०० गायें[२] और सोना, वस्त्र, अश्व, अश्वतर, गधा, भेड़, बकरा, अन्न और उड़द देने की विधि थी।

जिन पुरोहित को जिस प्रकार दक्षिणा देने की विधि थी वह नीचे लिखी जाती है—

ब्रह्मा को १२ गायें और कुछ सोना इत्यादि।
उद्‌गाता को {{{1}}} {{{1}}}
होता को {{{1}}} {{{1}}}
अध्वर्यु को {{{1}}} {{{1}}}
ब्राह्मणशंसी को ९ गायें और कुछ सोना इत्यादि
प्रस्तोता को {{{1}}} {{{1}}}
प्रतिप्रस्थाता को {{{1}}} {{{1}}}
पोता को ६ गायें और कुछ सोना इत्यादि
प्रतिहर्त्ता को {{{1}}} {{{1}}}
अच्छावक को {{{1}}} {{{1}}}
अग्नीध्र को ३ गायें और सोना इत्यादि
सुब्रह्मण्य को {{{1}}} {{{1}}}
ग्रावस्तुत को {{{1}}} {{{1}}}
उन्नेता को {{{1}}} {{{1}}} [ १३६ ]शेष गायें आदि दूसरे सहकारी ब्राह्मणों को, अर्थात् चमसाध्वर्य्यु आदि को, यथाशास्त्र विभाग करके दी जाती थी।

उस समय दूसरे याचक, अर्थात् बिना बुलाये आये हुए ब्राह्मण, अन्धे, लँगड़े, अनाथ, दीन आदि को अन्न, वस्त्र, सोना इत्यादि यथा-शक्ति बाँटे जाते थे।

यज-समाप्ति के बाद एक और कार्य करना पड़ता था। उसका नाम अवभृथ-स्नान था। वह स्नान बड़े समारोह से होता था। पुरोहित, वन्धु-वान्धव, सुहृद् और उनकी स्त्रियाँ सब एकत्र होकर यजमान-सहित स्नान करने के लिए किसी‌ बड़ी नदी, नदी न हो तो किसी पवित्र जलाशय, को जाते थे। जाते समय प्रस्तोता नामक पुरोहित आगे-आगे सामान करते चलते और यजमान आदि पुरुष तथा उनकी स्त्रियाँ पीछे-पीछे गाती हुइ जाती थीं। जल के पास पहुँचने पर पहले एक होम किया जाता था, पीछे जलक्रीड़ा होती थी। यह अवभृथ-स्नान बड़े बड़े यज्ञों का अङ्ग था। इस स्नान से शायद ब्रह्महत्यादि सब पाप दूर हो जाते थे*[३]

[जनवरी १६१५


  1. * सोमपात्र दो प्रकार का होता है-ग्रह और स्थानी। यह लकड़ी
  2. न हो तो १०० गायें। वे भी न हों तो उनके मूल्य देने को विधि भी है।
  3. * इस विषय पर बा॰ रामदास सेन का लिखा हुआ एक लेख बँगला में है। उसका अनुवाद तेली-समाचार में निकला था। उसी का यह यत्र-तत्र परिवर्तित और परिष्कृत रूप है।