अतीत-स्मृति/१३ बौद्धों के द्वारा अमेरिका का आविष्कार

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१३-बौद्धों के द्वारा अमेरिका का आविष्कार

सारे सभ्य संसार का यह विश्वास है कि सन् १४९२ ईसवी में कोलम्बस साहब ही ने पहिले पहल अमेरिका का आविष्कार किया था। उनके पहले कोई बाहरी मनुष्य अमेरिका में न गया था। यह विचार केवल यूरोपियनों ही का नहीं, किन्तु एशिया-वालों का भी है। पर सर्वसाधारण का यह मत भ्रमात्मक है। कोलम्बस के सैकड़ो वर्ष पहले बौद्ध-धर्म-प्रचारक-गण अमेरिका गये थे और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म और एशियाई सभ्यता का प्रचार किया था। अमेरिका के कई स्थानों में इस बात के प्रमाण पाये गये है।

अमेरिका में हारपर्स मैगज़ीन (Harpers Magazine) नाम का एक मासिक पत्र निकलता है। उसमें, कई साल हुए, पूर्वोक्त विषय पर एक महत्त्वपूर्ण लेख निकला था। उसके लेखक अध्यापक जान फ़्रायर ने उसमे यह सिद्ध किया था कि अमेरिका का पता पहले पहल बौद्धों ही ने लगाया था और वहाँ के मेक्सिको देश में बौद्ध धर्म और सभ्यता का प्रचार भी किया था। फ़्रायर साहेब के लेख का सारांश सुनिए-

बौद्ध लोगों ने अपने धर्म का प्रचार करने में बड़े ही अपूर्व साहस का परिचय दिया है। एशिया में शायद ही ऐसा कोई देश [ १५० ] हो जहाँ उन्होंने अपने धर्म का प्रचार न किया हो। भारतवर्ष, लंका, ब्रह्मदेश, सुमात्रा, जावा, चीन, जापान, तुर्किस्तान, अफ़गानिस्तान, एशिया माइनर आदि न मालूम कितने देशों में घूम घूमकर उन लोगों ने अपने मत का प्रचार किया था। ईसा की पाँचवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म एशिया में उन्नति की चरम सीमा पर पहुंच गया था। इसी समय काबुल, चीन और जापान के कुछ बौद्धो ने अमेरिका के मेक्सिको राज्य में जाकर अपने धर्म का प्रचार किया।

मेक्सिको से पूर्वोक्त मत के प्रमाणस्वरूप बौद्धों के बहुत से चिह्न पाये जाते है। उनमें से वहाँ के बौद्ध-युग का भास्कर्य्य और स्थापत्य सबसे अधिक विश्वसनीय है। इसके चिह्न मेक्सिको के घर घर में पाये जाते है। इसके सिवा वहाँ के नगरों और ग्रामो से भी यह मालूम होता है कि मेक्सिको में बौद्ध धर्म का प्रभाव बहुत दिनो तक रहा। उदाहरणार्थ ग्वाटीमाला (Guatimala) को लीजिए। वह "गौतमालय" का अपभ्रंश है। Oaxaca, Zacaticas, Sacatepee, Zacattond, Sacapulas आदि स्थानों के नाम भी शाक्य शब्द की छाया पर बने हैं। इस बात को सब लोग जानते हैं कि संस्कृत का 'श' अक्षर अन्य भाषाओं में 'ह', 'ज' अथवा 'ख' बन जाता है। इसलिए शाक्य से साका और ज़ाकरा आदि हो जाना कुछ विचित्र नहीं। मेक्सिको में पाल के नाम एक स्थान है। वहाँ बुद्ध को एक मूर्ति मिली है। उस मूर्ति पर लिखा है-'शाकोमल'। हमारी समझ में यह शब्द [ १५१ ] 'शाक्यमुनि' का अपभ्रंश है। तिब्बत के बौद्ध लोग अपने पुरोहित को 'लामा' कहते हैं। मेक्सिको में बौद्ध मत और बुद्ध-मूर्तियाँ सैकड़ों की तादाद में पाई गई है। इसके सिवा वहाँ ऐसे कई प्राचीन शिलालेख भी मिले है जिनसे यह मालूम होता है कि प्राचीन मेक्सिकोवासी बौद्धधर्मावलम्बी थे और गौतमबुद्ध की पूजा करते थे।

चीन के इतिहास-लेखक मातवानलिन कहते हैं कि-"कफिन देश (काबुल) का निवासी हुईशेन (इयसेन) नामक एक बौद्ध सन्यासी, ४९९ ईसवी में फुसॉग देश से चीन में आया था। उसने चीन के तत्कालीन सम्राट् युंग़युआन को बहुत कुछ नजर भी दी थी। सम्राट् ने युको नाम के मन्त्री को हुईशेन का भ्रमण-वृत्तान्त लिखने की आज्ञा दी थी"। चीनी भाषा में लिखा हुआ हुईशेन का भ्रमण-वृतान्त अब तक मौजूद है। उसमें हुईशेन ने कहा है कि सम्राट तामिंग के राजत्वकाल (४५८ ईसवी) मे काबुल बौद्ध का केन्द्र स्थान था। उसके पहले वहाँ के पाँच बौद्ध मिक्षु फुसाँग देश को गये थे और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया था।

फुसाँग देश चीन से कोई २०००० ली, अर्थात् ६५०० मील दूर है। वह १०००० ली, अर्थात् ३२५० मील, चौड़ा है और चारो ओर समुद्र से घिरा हुआ है।

फुसाँग एक प्रकार का वृक्ष होता है। यह वृक्ष पूर्वोक्त फुसाँग देश में बड़ी कसरत से होता है। हुईशेन ने उसी वृक्ष के नाम [ १५२ ] पर पूर्वोक्त देश का नाम फुसाँग देश रक्खा था मेक्सिकोवाले आज कल फुसाँग वृक्ष को आगेबी कहते हैं। उपर्युक्त चीनी ग्रन्थ में फुसाँग वृक्ष का जो वर्णन लिखा है वह आगेवी से बिलकुल मिलता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि फुसाँग देश और मेक्सिको देश एक ही हैं और काबुली बौद्धों ने वहाँ जाकर बुद्ध धर्म का अवश्य प्रचार किया था। कहते हैं कि फुसाँग वृक्ष की छाल में एक प्रकार का जन्तु होता है। वह रेशम की तरह होता है। हुईशेन ने अन्यान्य बहुमूल्य वस्तुओं के साथ उसे भी चीन सम्राट को भेंट किया था। हुईशेन ने एक जगह कहा है कि फुसांग प्रदेश में चाँदी, सोना, लोहा, ताँबा बहुत होता है। कोलम्बस ने भी इस बात को प्रत्यक्ष देखा था। वह तो अपने साथ बहुत सा सोना-चाँदी स्पेन को लाया भी था।

फुसाँग देश और मेक्सिको एक ही हैं। इसका एक और भी प्रमाण सुनिए। मेक्सिकोवाले कहते है कि प्राचीन काल में एक श्वेतकाय दीर्घपरिच्छदधारी महापुरुष मेक्सिको में आया था। वह लोगों को नीति और धर्म की शिक्षा दिया करता था। उसका नाम हुई-शीयेकोको था। मालूम होता है कि यह नाम हुईशेन भिक्षु का अपभ्रंश है। मेक्सिको के एक और महापुरुष के सम्बन्ध मे भी ऐसी ही किंवदन्ती है। इन लोगों की शिक्षा और धर्म-प्रचार का जैसा वर्णन पाया जाता है उससे मालूम होता है कि ये लोग बौद्ध थे।

काबुल, चीन और जापान के बौद्ध संन्यासी देश-देशान्तरों [ १५३ ] में सदा धर्म्म प्रचार करते फिरते थे। पहले वे निकट के द्वीपो में प्रचार करने जाते थे। वहाँ से आगे के अन्य द्वीपो का संवाद पाकर वे वहां भी जाया करते थे। योही धीरे-धीरे आगे बढ़ते बढ़ते वे दूर दूर के द्वीपो और देशो मे पहुँच जाते थे और वहाँ अपने धर्म का प्रचार करते थे। मालूम होता है कि इसी तरह प्रचार करते करते वे अमेरिका पहुँचे थे। अमेरिका का अलास्का प्रदेश चीन के निकट है। बहुत संभव है कि इसी रास्ते बौद्ध लोग वहाँ गये हों। क्योंकि अलास्का से मेक्सिको तक समुद्र के किनारे किनारे जितने प्रदेश है उन सब में बौद्ध धर्म और सभ्यता के चिह्न पाये जाते हैं। यद्यपि इनमे से अधिकांश चिह्न स्पेनिश लोगों ने नष्ट कर दिये हैं, तथापि अभी बहुत कुछ अवशिष्ट है।

यह लिखा जा चुका है कि मेक्सिको के स्थानों और पुरोहितो के नामों में बुद्ध धर्म की मलक पाई जाती है । इसके कुछ उदाहरण भी दिये गये हैं। एकाध और भी सुनिए । मेक्सिको वाले अपने प्रधान पुरोहित को देशाका या शाका पुरुष कहते हैं। यह कहने को आवश्यकता नहीं कि यह शब्द शाक्य का रूपान्तर मात्र है। एक अन्य पुरोहित का नाम कौनर शाका था । यह शब्द गौतम शाक्य का विगड़ा हुआ रूप मालूम होता है।

मेक्सिको मे जितने शिला-लेख, मूर्तियां और मन्दिर आदि मिले है उनमे से अधिकांश बौद्ध धर्म से सम्बन्ध रखते है। बौद्ध-मन्दिर और दीर्घपरिच्छ-धारी बौद्ध पुरोहित मेक्सिको में [ १५४ ] जगह जगह देखे जाते हैं। नाना प्रकार की बुद्ध-मूर्तियों की भी वहाँ कमी नहीं है। सुनते हैं कि गणेश और राहु आदि को मूर्तियाँ भी मेक्सिको में मिली हैं।

पर जितने प्रमाण दिये गये हैं उन सब से सिद्ध है कि प्राचीन काल में एशिया के बौद्ध संन्यासी अमेरिका गये थे और वहाँ उन्होने बौद्ध-धर्म का प्रचार किया था। साथ ही साथ यह भी मालूम होता है कि वही लोग अमेरिका के वास्तविक आविष्कारक थे, न कि कोलम्बस और उसके साथी। इसलिए उस यश के सच्चे अधिकारी बौद्ध संन्यासी ही हैं जो इस प्रसंग में कोलम्बस को प्राप्त हुआ है।

[दिसम्बर १९०९