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अतीत-स्मृति/१६ प्राचीन भारत में शस्त्र-चिकित्सा

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प्रयाग: लीडर प्रेस, पृष्ठ १७८ से – १८७ तक

 

१६-प्राचीन भारत में शस्त्र-चिकित्सा

डाक्टर गिरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, बी॰ ए॰, एम॰ डी॰ ने भारतीय आयुर्वेद में वर्णित शस्त्र-चिकित्सा और उसके यन्त्र आदि के विषय में एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक अंगरेज़ी में है। कलकत्ता-विश्वविद्यालय ने उसे प्रकाशित किया है। उसका नाम है-"The Surgical Instruments of the Hindus"-अर्थात् हिन्दुओं के चिकित्सा-शख।

पुस्तक लिखने मे लेखक ने अच्छा परिश्रम और अनुसन्धान किया है। हर्ष की बात है कि अब भारतवासी भी भारत के प्राचीन महत्व को ढूँढ़ निकालने में तत्पर हुए हैं। अभी तक तो यह काम विदेशियों ही के हाथ मे था। डाक्टर वाइज़, रयेल, हार्नले, जाली, कडियार, ओसानोसी आदि यूरोप के विद्वानो की तरह डाक्टर उदयचाँद दत्त, गोडाल के ठाकुर साहब और डाक्टर राय आदि भारतीयों ने भी आयुर्वेद की कितनी ही बातों का बहुत कुछ अनुसन्धान किया है। डाक्टर मुखोपाध्याय ने तो उपर्युक्त पुस्तक लिख कर बड़ा ही उपकार किया है। जो लोग कहते हैं कि आयुर्वेदीय प्रणाली के अनुसार प्राचीन काल में शस्त्र-चिकित्सा का प्रचार न था उनका भ्रम अब अवश्य दूर हो जायगा। प्राचीन भारत में शस्त्र-चिकित्सा का केवल प्रचार हो रहा हो सो नहीं वह उन्नत दशा में थी।

भारत में आयुर्वेदीय प्रणाली के अनुसार अब शस्त्र-चिकित्सा या जर्राही नहीं होती। उसका विशेष प्रचार सुश्रुत के समय से लगा कर वाग्भट के समय तक था। वाग्भट के समय से ही उसका प्रचार घटने लगा। मुखोपाध्याय जी की पुस्तक में हिन्दुओं के प्राचीन शास्त्रों आदि के चित्र देख कर अब तो लोगों को इस बात का विश्वास ही नहीं होता कि दो ढाई हजार वर्ष पहले कभी उनका उपयोग होता था।

शारीरिक विद्या (Anatomy) और शस्त्र-चिकित्सा की उत्पत्ति वास्तव में साम-वेद से हुई है। पर कायिक चिकित्सा का उत्पत्ति-स्थान अथर्ववेद है। अथर्ववेद में "आयुष्यानि" और “भैषज्यानि" आदि कई मन्त्र इस विषय के हैं। वैदिक साहित्य में शारीरिक और अस्त्र-चिकित्सा-सम्बन्धिनी बातों का वर्णन कई जगह है। जान पड़ता है, यज्ञों में मारे गये पशुओं के‌ अङ्ग-प्रत्यङ्गों के नाम ही से आयुर्वेदीय शारीरिक विद्या का उद्भव हुआ है।

वैदिक काल से लगाकर सुश्रुत के समय तक शस्त्र-चिकित्सा की अच्छी उन्नति हुई। सुश्रुत ने शस्त्र-चिकित्सा का महत्वपूर्ण वर्णन किया है। पर इस चिकित्सा में वैदिक काल से लगा कर सुश्रुत के समय तक जो उन्नति हुई उसका इतिहास मिलना कठिन है। केवल इतना ही जाना जाता है कि स्वर्गवैद्य भगवान् धन्वन्तरि के अवतार काशिराज दिवोदास शस्त्र-चिकित्सा के सब से पहले प्रवर्तक हैं। उनके बारह शिष्य थे-सुश्रुत, औपधेनव, वैतरण, औरभ्र, पौष्कलावत, करवीर्य, गोपुर, रक्षिव, तिमि, काङ्कायन, गार्म्य और गालव। इनमे से औपधेनव, औरभ्र और पौष्कलावत के शल्यतन्त्रो (शस्त्रचिकित्सा-शास्त्रों) का उल्लेख सुश्रुत में है। ये सब तन्त्र अब लुप्त हो गये है। वे सुश्रुत के समकालीन थे या उसके पहिले भी मौजूद थे, इसके जानने का कोई उपाय नहीं। पर इसमे सन्देह नही कि वैदिक काल के बाद और सुश्रुत के समय के पहले शस्त्र-चिकित्सा विषयक बहुत से ग्रंथ थे।

भारत में शस्त्र-चिकित्सा का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ सुश्रुत है। सुश्रुत ही की शस्त्र-चिकित्सा का सार वाग्भट ने अपने ग्रन्थ में लिखा है। वाग्भट ने शस्त्र-चिकित्सा के कुछ नवीन शस्त्रो का भी वर्णन‌ किया है। यही दोनो प्रन्थ भारतीय शस्त्र-चिकित्सा के आधार हैं। इनका और इन पर रची गई टीकाओं ही का आधार लेकर डाक्टर गिरीन्द्रनाथ ने अपनी पुस्तक लिखी है। अच्छा तो सुश्रुत और वाग्भट का समय कौन सा है। हानले साहेब ने सुश्रत को चैदिक युग का अन्थ ठहराया है। पर हमारी समझ में अथर्ववेद से पहले का वह नहीं हो सकता। सुश्रुत और परक के ग्रन्थ वैदिक युग मे बनें, यह सम्भव नहीं। अथर्ववेद का समय ईसा से एक हजार वर्ष पहले माना जाता है। अथर्ववेद में मन्त्रों द्वारा रोग-निवृत्ति का उपाय बताया गया है। चरक और सुश्रुत की जैसी नियमबद्ध चिकित्सा का वर्णन उसमे नही। अतएव अथर्ववेद की रचना के सात आठ सौ वर्ष बाद चरक और सुश्रुत की रचना हुई होगी। इसी बीच मे रोग-चिकित्सा-ज्ञान की अच्छी‌ उन्नति भारत मे हुई। चरक की भाषा ब्राह्मण-युग के अन्तिम समय की है और सुश्रुत की उससे भी पीछे की। चरक के विषय में लोग कहते है कि पतञ्जलि ने उस पर टीका की है। कोई कोई तो कहते है कि पतञ्जलि ने उसका पुनः संस्कार ही किया‌ है। पतञ्जलि ईसा के पहले दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे। यदि यह मान लें कि चरक उनसे दो सौ वर्ष पहले विद्यमान थे तो उनका समय ईसा से ४०० वर्ष पहले होता है।

सुनते है, बौद्ध विद्वान नागार्जुन ने सुश्रुत का प्रतिसंस्कार किया था। वे सुश्रुत के उत्तर-तन्त्र के रचयिता भी माने जाते हैं। नागार्जुन ईसा से पूर्व पहली या दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे। इससे सुश्रुत का काल भी ईसा के पूर्व तीसरी या चौथी शताब्दी मानना चाहिये। ईसा की पांचवी शताब्दी में लिखी गई, बावर साहेब की आविष्कृत पुस्तक ही (Bower Manuscript) से जाना जाता है कि उस शतब्दी में सुश्रुत की बहुत प्रसिद्धि हो चुकी थी और वह बहुत ही प्राचीन ग्रन्थ माना जाता था।

वाग्भट का समय भी अनिश्चित है। हार्नली साहेब का मत है कि वाग्भट दो थे-अष्टाङ्गसङ्ग्रह बनाने वाला वाग्भट पहला और अष्टाङ्गहृदय वाला दूसरा। इसी मत का अनुसरण डाक्टर गिरीन्द्रनाथ ने भी किया है। जिस श्लोक के आधार पर दो वाग्भट माने गये हैं उसका अर्थ ठीक नहीं किया गया। वह श्लोक अष्टाङ्गहृदय के अन्त में है। यथा-

आष्टाङ्गवैद्यकमहोदधिमन्थनेन
योऽष्टाङ्गसङ्ग्रहमहामृतपशि रातः।
तस्मादनल्पफलमल्पसमुद्यमानां
प्रीत्यर्थमेतदुदितं पृथगेव तन्त्रम्।

इसी की व्याख्या करते हुए गिरोन्द्र बाबू लिखते हैं- In the Uttarsthan, Bagbhat, the younger, distinctly states that his compendium is based on the compilation of Bagbhata, the elder."

अर्थात् द्वितीय वाग्भट साफ़ साफ़ कहता है कि उसने प्रथम वाग्भट के संग्रह के आधार पर अष्टाङ्गहृदय का सङ्कलन किया।

पर श्लोक का अर्थ यह नहीं है। अर्थ यह है कि आयुर्वेद के अष्टाङ्ग-भाग-रूप महासमुद्र को मथ कर आष्टाङ्गसंग्रह-रूप से जो महा अमृत मैंने पाया है उसी से सामग्री लेकर मैंने बहु-फल के दाता इस पृथक् प्रन्थ की रचना, अल्प परिश्रम करने वालों की प्रीति के लिए, की है। *[] अतएव दो वाग्भटों की कल्पना निराधार है। दोनों ग्रन्थों का कर्त्ता बौद्ध-धर्मावलम्बी था। बुद्ध,


तथागत, अर्हत आदि को उसने ग्रन्थ के प्रारम्भ ही में नमस्कार किया है। अष्टाङ्गसंग्रह की रचना गद्य और पद्य में है, अष्टाङ्गहृदय को केवल पद्य में है। संग्रह वाग्मट का पहला ग्रन्थ है, हृदय दूसरा। गद्य-भाग याद नहीं रहता। इस कारण वाग्भट ने अष्टाङ्गहृदय की रचना केवल पद्य मे की और उसमें अनेक मनोहर छन्दों का प्रयोग किया।

अच्छा तो वाग्भट किस समय हुए? वाग्भट के पिता का नाम सिन्धुगुप्त और जन्मस्थान सिन्धु-देश था, पर जन्मकाल का कुछ पता नहीं चलता। हार्नली साहेब कहते है कि वाग्भट सातवीं शताब्दि में हुआ। वे बताते हैं कि चीन का इत्सिंग नामक संन्यासी सातवीं शताब्दी में भारत आया था। उसने लिखा है-"पहले आयुवद के आठों भाग अलग अलग थे। अब (सम्प्रति) एक आदमी ने उन्हें एक ही स्थान पर एकत्र कर दिया है।" इसी "अब" से वे अनुमान करते हैं कि वाग्भट का समय वही था। पर इत्सिंग का बतलाया हुआ व्यक्ति और कोई भी हो सकता है। वाग्भट भी हो सकता है। केवल "अब" पर अधिक जोर देना ठीक नहीं। वाग्भट के समय-निरूपण के लिये नीचे लिखे हुए प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं-

(१) वाग्भट नागार्जुन के पीछे और निदानकार माधव के पहले हुए। माधव ने अपने निदान में अष्टाङ्ग-हृदय से कुछ अंश उद्धृत किया है।

(२) वाग्भट और माधवनिदान का अरबी-अनुवाद आठवीं शताब्दी में हुआ। यदि ये प्राचीन और प्रमाणिक ग्रन्थ न होते तो अरबी वाले अपनी भाषा में इनका अनुवाद न करते। अतएव अनुमानतः माधव पाँचवी या छठीं शताब्दी में हुए और वाग्भट उन से सौ वर्ष पहले।

(३) तिब्बत की एक ग्रन्थावली में चरक, सुश्रुत और वाग्भट का अनुवाद तिब्बती भाषा में है। यह ग्रन्थावली आठवीं शताब्दी के मध्यकाल में बनी थी। चरक और सुश्रुत से वाग्मट बहुत पीछे हुए थे। तथापि पूर्वोक्त ग्रन्थावली के रचनाकाल से वे ४-५ सौ वर्ष पहले अवश्य हुए होंगे। ऐसा न होता तो चरक सुश्रुत के साथ उनके ग्रन्थ को उक्त ग्रन्थावली में स्थान न मिलता। इन प्रमाणों से मालूम होता है कि वाग्भट तीसरी या चौथी शताब्दी में विद्यमान थे।

इससे अनुमान किया जा सकता है कि ईसा से तीन चार सौ वर्ष पहले और इतने ही समय पीछे तक भारत में शस्त्र-चिकित्सा का खासा प्रचार था। शस्त्र-चिकित्सा के विषय में वाग्भट के परवर्ती कोई अच्छे ग्रन्थ नहीं मिलते। केवल पिष्टपेषण और टीकाओं की टीकायें ही मिलती हैं।

बहुत लोगों का ख्याल है कि भारत में, प्राचीन समय में, आज कल की तरह अस्पताल और औषधालय न थे। औषधालयों और अस्पतालों का अस्तित्व यहाँ अंगरेजों के समय से ही हुआ। कोई कोई उन्हें अरबवालों का आविष्कार बतलाते हैं। पर हमारी समझ में अरब-जाति से हिन्दू-जाति अधिक पुरानी है। हिन्दुओ में ईसा के पूर्व चौथी-पाँचवी शताब्दी से शस्त्र-चिकित्सा का ज्ञान मौजूद था। अतएव यह न मानना कि प्राचीन आर्यों ने औषधालयों की स्थापना की थी, ठीक नहीं। सुश्रुत मे स्पष्ट लिखा है कि वैद्य की 'भेषजागार' में काष्टनिर्मित ताकों पर औषधियां आदि रखनी चाहिए। चरक-संहिता मे शुश्रूषागार, सूतिकागार आदि का बड़ा सुन्दर वर्णन है। इस सम्बन्ध में डाक्टर गिरीन्द्रनाथ ने अपनी पुस्तक में जो कुछ लिखा है वह बड़े ही महत्व का है। उन्होने औषधालयों और अस्पतालों के अस्तित्व के जो प्रमाण‌ दिये हैं वे अखण्डनीय है। राजा अशोक ने तो मनुष्यों ही के लिए नहीं, किन्तु पशुओ तक के लिए, स्थान स्थान पर, चिकित्सांलय स्थापित किये थे। उस समय ये चिकित्सालय "आरोग्यशाला" और "भेषजागार" कहलाते थे। अंगरेजी में‌ इन दोनों का अर्थ क्रमशः Hospital और Dispensary के सिवा और कुछ नहीं हो सकता।

शस्त्र-चिकित्सा करते समय रोगो को मूर्छित करना पड़ता है। मूर्छित करने के लिए सुश्रुत और चरक ने मद्यपान कराना लिखा है। कभी कभी गांजे का धुआँ सुँघा कर भी रोगी मूर्छित किया जाता था। राजा भोज की शस्त्र-चिकित्सा का वृत्तान्त भोजप्रबन्ध में है। वह भी इसी ढंग से मूर्छित करा कर की गई थी। उस सम्मोहनी ओषधि का नाम था मोह-चूर्ण।

डाक्टर गिरीन्द्र नाथ ने अपनी पुस्तक मे शस्त्र-चिकित्सा के उपयोगी शास्त्रों का खूब वर्णन किया है। आप ने चरक, सुश्रुत आदि ग्रंथों के लेखानुसार शस्त्रों के रूपों की कल्पना की है। साथ ही प्राचीन काल के यूनानी चिकित्सा-शस्त्रों का भी कुछ वर्णन किया है। पुस्तक के द्वितीय भाग में शस्त्रादि के कोई ८० चित्र हैं। वे अस्त्र-शस्त्र, यन्त्र-उपयन्त्र और बन्धनों की पट्टियों (Bandage) आदि के हैं।

शस्त्रादि-रूपों की कल्पना में डाक्टर गिरीन्द्र नाथ ने बड़ी सावधानी से काम किया है। उनके यन्त्रों और शस्त्रास्त्रों को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि ये प्राचीन काल के नहीं है। आयुर्वेद में बताई प्रणाली का कहीं परित्याग नहीं किया गया।

अब विचार इस बात का करना है कि भारत से शस्त्र-चिकित्सा का लोप कैसे हुआ। वास्तव में इतनी बढ़ी-चढ़ी विद्या का नाम शेष हो जाना बहुत ही आश्चर्यजनक है। पर सच पूछा जाय वो यही कहना होगा कि जिस तरह भारत की प्राचीन कलाओं का लोप हो गया उसी तरह उसकी यह विद्या भी नष्ट हो गई।

शस्त्र-चिकित्सा की अवनति के मुख्य कारण ये हो सकते हैं। स्मृतियो में मुर्दों को चीरने-फाड़ने का निषेध है। बौद्ध धर्म का मूलमन्त्र "अहिंसा परमो धर्मः" है। इसी से जान पड़ता है कि इस विद्या की अवनति आरम्भ हुई और जैसे जैसे स्मार्त और बौद्धधर्म का संचार बढ़ा वैसे ही वैसे शस्त्र-चिकित्सा का ह्रास होता गया। फल यह हुआ कि लोग मुर्दा चीरने-फाड़ने में घृणा करने लगे। मुसलमानों के शासन समय में हिन्दुओं के शास्त्रों का जब अनादर शुरू हुआ तब यह विद्या बिलकुल ही विस्मृत हो गई। इन के सिवा दो कारण और भी हैं। एक तो औषधियों के द्वारा चिकित्सा-मान की उन्नति, दूसरे भारत में मूर्छा लाने योग्य किसी उत्तम औषधि का न होना।

जो कुछ हो, आज से कोई एक हज़ार वर्ष पहले भारत का चिकित्सा शास्त्र खूब उन्नति पर था। इसमे सन्देह नहीं। हज़ारों युद्ध होते थे, लाखों लोग घायल होते और मरते थे। क्या उस समय अंगच्छेदन (Amputation) और मरहम- पट्टी आदि का प्रबन्ध न था? ऐसा तो संभव नहीं जान पड़ता। जो ये बातें न होती तो सैनिकों को बुरी दशा होती। यह सब अवश्य था। नाई तक देहात में जर्राही करते थे। यह अभी कुछ ही दिन पहले की बात है।

हम अपने देश के डाक्टरों को सलाह देते हैं कि डाक्टर गिरीन्द्रनाथ को शल्य-चिकित्सा-विषयक अँगरेज़ी पुस्तक को अवश्य पढ़ें*[]

[मई १९१५


  1. * बैँगला लेख के लेखक नियोगी महाशय ने डाक्टर गिरीन्द्रनाथ के किये हुए अर्थ में जो त्रुटि दिखाई है वह ठीक है। पर अनल्प का अर्थ "अल्प" नहीं, अल्प का उलटा अर्थात् बहुत है।
  2. * बँगला की मासिक पुस्तक "भारतवर्ष"" में प्रकाशित श्री पंचानन नियोगी, एम॰ ए॰, के एक लेख से संकलित।