अतीत-स्मृति/१८ प्राचीन भारत में राज्याभिषेक
१८-प्राचीन भारत में राज्याभिषेक
प्रस्तावना
प्राचीन भारत में किस तरह राज्याभिषेक होता था, इसका संक्षिप्त वर्णन नीचे किया जाता है।
चुनाव
प्राचीन नरेश जब राज करते करते वृद्ध हो जाते थे और अपने पुत्र को राजकार्य अच्छी तरह चला सकने योग्य देखते थे तब उसे युवराज बना देते थे और उस पर राज्य का भार देकर स्वयं एकान्त सेवन करते हुए प्रभु-भजन में अपना समय व्यतीत किया करते थे। युवराज केवल उन्हीं की इच्छा से नहीं चुना जाता था। उसके लिए ब्राह्मणो से, अधीन मण्डलेश्वरों से, तथा प्रजा से भी सम्मति ली जाती थी। इस विषय में लोकमत का बड़ा आदर किया जाता था। यदि पुत्र राजा बनने योग्य न होता था तो उसका परित्याग कर दिया जाता था, चाहे फिर वह औरस ही क्यों न हो।
औरसानपि पुत्रान्हि त्यजन्त्यहितकारिणः।
समर्थान् सम्प्रगृह्णन्ति जनानपि नराधिपाः॥
(वाल्मीकि)
करना चाहा तब उन्हें भी लोकमत का आश्रय लेना पड़ा था। उन्होंने अनेक नरपालों को बुलवाया; उनका यथेष्ट सत्कार किया; उनके पास बहुमूल्य वस्तुयें और अलङ्का्र आदि भेजे। उनका
यथायोग्य सम्मान करके उनसे वे मिले—
नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि।
समानिनाय मेदिन्यः प्रधानात्पृथिवीपतीन्॥
ताम् वेश्मनानाभरणैर्यथाहै प्रतिपूजितान्।
ददीलंकृतो राजा...................॥
इसके बाद दरबार किया गया। भांति भांति के आसनों पर सब राजे और रईस इस तरतीब से बिठाये गये कि सब के मुख
दशरथ को ओर रहें। वहां पर वहो महीपाल थे जो लोक-सम्मत थे, और जो वहांं आने योग्य थे—
ततः प्रविबिशु सर्वे राजानो लोकसम्मतः।
.................................................
अथ राजवितीर्णोषु विविधेस्वासनेषु च।
राजानमेवाभिमुखा निषेदुर्नियता नृपाः॥
दरबार मे नगर के मुख्य निवासी और प्रजाजन भी थे। सब के सामने दशरश ने प्रस्ताव किया कि अब मैं वृद्ध हुआ हूँ। राम सुयोग्य हैं। मैं इसे युवराज किया चाहता हूँँ। यदि मेरी यह सम्मति ठीक है तो आप सब अनुमति दीजिए और जो ठीक न हो तो कहिए मैं क्या करूं? यह काम मैं पुत्र-प्रीति के वशीभूत होकर कर रहा हूँ, पर यदि यह ठीक न हो तो और कोई राज्य के हित की बात सोचिए-
यन्नेदं मेऽनुरूपार्थे मया साधु सुमंत्रितम्।
भवन्तो मेऽनुमन्यन्तां कथां वा करवाण्यहम्॥
यद्यप्येषा मम प्रीतिर्हितमन्यद्विचिन्त्यताम्। (वाल्मीकि)
उपस्थित दरबारियों ने राजा के भाव को समझ लिया। उन्होंने आपस में सलाह की। यह कहा गया कि दशरथ अब वृद्ध
हो गये हैं। इन्हे शान्ति मिलनी चाहिए। राम वास्तव में योग्य हैं। अच्छी तरह विधिपूर्वक उसने विद्या पढ़ी है। सांग वेद जानता है। सज्जन है। मधुरभाषी है। प्रजा के सुख से सुखी होनेवाला है। सत्यवादी है। जितेन्द्रिय है। पराक्रमी है। बुद्धिमान है। प्रसन्न-मुख है। गाँव या नगर के लिए लड़ाई करने जाता है तो जीत कर ही लौटता है। लौट कर आते समय नगरवासियों से आत्मीय जनों की तरह कुशल-समाचार पूछता है। मुसकरा कर बात करता है। व्यर्थ किसी पर कृपा नहीं करता, और न व्यर्थ किसी पर क्रुद्ध ही होता है। नीतिज्ञ है। धीर है। गम्भीर है। प्रजापालन के तत्वों को खूब जानता है। मोह में फँसने वाला नहीं है। तीनों लोकों को भागने में समर्थ है। प्रजा के हित के सभी गुण इसमें मौजूद हैं। बड़ों की सेवा करता है। सब को कल्याण का मार्ग बतलाता है। इत्यादिसभ्यग्विद्याव्रतस्नातो यथावत्साङ्गवेदवित्।
सत्यवादी महेष्वासो वृद्धसेवी जितेन्द्रियः॥
प्रजापालनतत्वज्ञो न रागोपहतेन्द्रियः।
शक्त त्रैलोक्यमप्येको भोक्तुं.........॥
पौरान् स्वजनवन्नित्यं कुशलं परिपृच्छति।
शान्तैः सर्वप्रजाकान्तैः प्रोतिसंजननैर्नृणाम्।
गुणैविरुहचे रामः................।
(वाल्मीकि)
अन्त को सब एकमत हुए। उन्होंने दशरथ को सम्मति दी कि महाराज आप वृद्ध हैं राम का अभिषेक कर दीजिए। हम चाहते हैं कि महापराक्रमी राम की महागज पर सवारी निकाली जाय और उस पर छत्र लगाया जाय, इत्यादि-
ब्राह्मणा जनमुख्याश्च पौरजानपदैः सह।
समेत्य मन्त्रयित्वा तु समतां गतबुद्धयः॥
ऊचुश्च मनसा ज्ञात्वा वृद्धं दशरथं नृपम्।
अनेकवर्षसाहस्रो वृद्धस्त्वमसि पार्थिव॥
स रामं युवराजनमाभिषिश्वस्त पार्थिवम्।
इच्छामो हि महाबाहु रघुवीरं महाबलम्।
गजेन महता यार्न्त रामं छत्रावृताननम्॥
(वाल्मीकि)
प्राचीन भारत में प्रायः इसी तरह चुनाव हुआ करते थे। और, इस प्रकार का चुनाव होने से सब प्रसन्न रहते थे। कभी किसी को किसी प्रकार की शिकायत का मौका न मिलता था। राजसूय-यज्ञादि में जितने मनुष्य निमन्त्रित होते थे उनका सारा खर्च सम्राट् की ओर से ही दिया जाता था। उनके रहने, खाने-पीने, मनोरजन आदि का सारा प्रबन्ध भी सम्राट के नियत किए हुए सम्बन्धी ही करते थे। बड़ी धूमधाम से उत्सव किया जाता था। सब कोई राजा के मिहमान होते थे।
अभिषेकक्रिया
इस प्रकार चुनाव हो चुकने पर, स्थिर नक्षत्र में, योग्य मुहूर्त आने पर, उस भाग्यशाली व्यक्ति को तिल, सरसों के अमिमंत्रित तेल से मालिश कर स्नान कराते थे। एक दिन पहले उसे सस्त्रीक उपवास करना पड़ता था। स्नान करके वह सब प्राणियों को अभयदान देता था । इन्द्र के निमित्त शान्ति की जाती थी। इसके बाद फिर सुगन्धित तेल से मर्दन करके वह स्नानागार में लाया जाता था। वहां पर्वत के ऊपर की मिट्टी से उसके सिर को, बांमी की मिट्टी से कानो को, देवस्थान की मिट्टी से मुख को, हाथी के दांतों से खुदी हुई मिट्टी से भुजाओं को, इन्द्र-धनुष के नीचे की मिट्टी से ग्रीवा को, राजाङ्गण को मिट्टी से हृदय को, गंगा-यमुना के संगम की मिट्टी से उदर को, तालाब की मिट्टी से पीठ को, नदी-तीर की मिट्टी से पसलियों को, गोशाला की मिट्टी से जघाओ को, गज-शाला की मिट्टी से जानु को, अश्वशाल की मिट्टी से चरणतलो को, मलते थे। तदनन्तर सारी मिट्टियों को मिलाकर समस्त शरीर को मलते थे। इसके बाद उसे सिंहासन पर बिठा कर घी, दूध, दही, शर्करा और मधुमिश्रित पंचामृत से उसका अभिषेक किया जाता था। तदन्तर औषधि मिले हुए जल से स्नान कराया जाता था। जिन घड़ों से स्नान कराया जाता था वे सोने के होते थे और उनमें सहस्र धारायें होती थीं। पुरोहित अग्न्याधान करके अभिषेक करते थे। तीर्थों और समुद्र से अभिषेक के लिए जल लाया जाता था। जलाशयों का पानी भी उसमें रहता था। अभिषेक के समय मन्त्र पढ़े जाते थे। उनका आशय-
प्रजापति ने जिस पवित्र जल से सोम, वरुण, इन्द्र, मनु को राजा बनाया-अभिषेक किया-था उसी राष्ट्र को बढ़ाने वाली और राष्ट्र को अमर रखने वाली जलधारा से, तुझे राष्ट्रोचित बल के लिए, सम्पत्ति के लिए, यश के लिए और धान्यादि की समृद्धि के लिए मैं अभिषिक्त करता हूँ। तू महाराजाधिराज हो। इत्यादि-
इमा आपः शिवतमाः
इमा राष्ट्रस्य भेषजीः
इमा राष्ट्रस्य वर्द्धिनीः
इमा राष्ट्रभृतोऽमृतः
यामिरिन्द्रमभ्यपिञ्चत् प्रजापतिः
सोमराजानं वरुणो यमं मंनु
ताभिरद्भरभिषिञ्चामि त्वामहं
राज्ञां त्वमधिराजो भवेऽर्हे
बलाय, श्रियै यक्षसेऽन्नाद्याय।
महान्तं त्वा महीनां
सम्राजऺ चर्षणीनां
देवी जनित्र्यजीजनत´
भद्रा जनित्र्यनीजनत्
इसके बाद वस्त्र-धारणा की जाती थी। तिलक किया जाता था। भाई-बान्धवों में से योग्य पुरुष छत्र चामर आदि लगाते थे। छत्रपात्र, तेलपान आदि का दान होता था। ब्रह्मभोज होते थे। भांति भांति के दान दिये जाते थे। सब लोग नमस्कार करते थे:-
राजाधिराजाय ग्रसहाय साहिने
नमो वयं वैश्रमणाय कुर्महे
समे कामान् कामकामाय मह्यं
कामेश्वरो वैश्रमणो ददातु
वैश्रमणाय कुबेराय महाराजाधिराजाय नमः।
इसके अनन्तर बड़े ठाठ से हाथी पर सवारी निकलती थी। शहर अच्छी तरह सजाया जाता था। जगह जगह अगर जला कर सुगन्धि की जाती थी। ध्वजा-पताकायें और वन्दनवारें लटकाई जाती थीं। झरोखो से स्त्रियां भी सम्राट् पर पुष्पों की वर्षा करती थीं-
हर्म्यवातायनस्थाभिर्भूषितामिः समन्ततः।
कीर्यमाणः सुपुष्पौधैर्ययौ स्त्रीभिररिन्दमः॥ (वाल्मीकि)
से और कोई तपोबल से:-
जित्वा जय्यान् यौवनाश्चिः पालनाच भर्गारथः।
......................................सम्राजत्त्वनुथुश्रुमाः॥
भारत ने सदैव ही वीरों और योग्य व्यक्तियों को हृदय से अपना राजा माना है और उनका यथेच्छ सम्मान भी किया है। यदि कोई राजमद से उन्मत्त होकर अपने कर्तव्य से विमुख हो गया तो वह मारा गया। बहुत दिन तक वह अपने आसन पर नहीं जम सका। भारत सदैव न्याय का पक्षपाती रहा है।
[दिसम्बर १९११