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अतीत-स्मृति/३ आदिम आर्य्य

विकिस्रोत से
अतीत-स्मृति
महावीरप्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: लीडर प्रेस, पृष्ठ २३ से – ३२ तक

 
३-आदिम आर्य्य

बिलासपुर के श्रीयुक्त बी॰सी॰ मजूमदार, बी॰ए॰, अच्छे पुरातत्ववेत्ता है। उनके लेख विद्वता तथा गवेषणा-पूर्ण होते हैं। अगस्त १९१२ के "माडर्न रिव्यू" मे मजूमदार महाशय का एक लेख बड़े महत्व का निकला है। उसमें उन्होंने यह दिखाने की चेष्टा की है कि भारत के प्राचीन आर्य्य कहीं बाहर से नही आये थे, वे यहीं के निवासी थे और इसी देश के पूर्वी और दक्षिणी भागों से चल कर वे उत्तर-पश्चिमाञ्चल में जा बसे थे। अक्तूबर १९१२ के "माडर्न रिव्यू" में उनके इस कथन के कुछ अंश का खण्डन भी श्रीयुत रामचन्द्र के॰ प्रभू नाम के एक सज्जन ने किया है। लगभग सभी इतिहासकारों का मत है कि भारतीय आर्य्य कहीं बाहर से भारत मे आये। मजूमदार महाशय इस सिद्धान्त के विरोधी है। हम संक्षेप मे, उनकी उन युक्तियों को नीचे लिखते हैं जिनके आधार पर उन्होंने अपना पूर्वोक्त मत स्थिर किया है।

वैदिक मन्त्रों से इस बात का बिलकुल पता नहीं लगता कि उनके रचयिता आर्य्य भारतवर्ष मे कही बाहर से आये। अध्यापक मेकडानल ने तो यहाँ तक लिखा है कि वेदो से यह बात प्रकट ही नहीं होती कि भारतीय आर्य्यों को अन्य किसी देश का कुछ भी पता था। आदिम मनुष्य-जातियों में एक यह विशेषता थी कि वे अपने प्राचीन इतिहास को न भूलती थीं। वे उसकी रक्षा, किसी न किसी रूप में, अवश्य करती थीं। यदि यह मान लिया जाय कि आर्य्य लोग भारत में कहीं बाहर से आये तो यह बड़े ही आश्चर्य की बात है कि वे अपने पूर्व इतिहास को अपनी प्राचीन भूमि छोड़ने की बात को बिल्कुल ही भूल गये। अध्यापक हापकिन्स का मत है कि अधिकांश वेदमन्त्रों की रचना उन देशों में हुई थी जो पंजाब के पूर्व में हैं। तब यह कैसे कहा जा सकता है कि प्राचीन आर्य्य, सिन्धु नदी को जिसे वे उस समय समुद्रवत् ही समझते थे, पार करके बाहर से भारत में आये? वेदों से यह प्रकट नहीं होता कि भारतीय आर्य्यों को कभी सिन्धु पार करना पड़ा। उस काल के प्रारम्भ में और उससे पहले भी मध्य एशिया का कुछ खण्ड जल के भीतर मग्न था और भारतवर्ष एक द्वीप के सदृश था। बलूचिस्तान और ब्रह्मदेश पानी में डूबे हुए थे। सिन्धु साधारण नदी की तरह नहीं, किन्तु समुद्र की तरह थी। उस समय वही जाति भारत में आने का साहस कर सकती जिसे और कहीं ठिकाना न होता और जिसके ऊपर कोई बड़ी भारी विपत्ति पड़ी होती।

यदि यह कहा जाय कि आर्य्य लोग हिमालय के किसी दर्रे से होकर आये होंगे तो यह बात भी ठीक नहीं मालूम होती। ऐसी हालत में काश्मीर उनके रास्ते में अवश्य पड़ता। अतएव ऐसे रमणीक स्थान को वे अपना उपनिवेश अवश्य बनाते। परन्तु आर्यों के जितने प्राचीन ग्रन्थ हैं उनमें काश्मीर का जिक्र तो दूर रहा, उसका नाम तक नहीं है। आर्य्य लोग पीछे से काश्मीर में जा बसे थे; पहले उन्हें उसकी कुछ भी खबर न थी। उन ग्रन्थो मे जो वेदो से पीछे बने अनेक अन्यान्य देशों के नाम पाये जाते है। परन्तु, वेदो मे भारत के बाहर का एक भी भौगोलिक नाम नहीं।

भिन्न भिन्न देशो की भिन्न भिन्न जातियों में कितने ही तद्भव और तत्सम शब्द, एक ही अर्थ में, व्यवहृत होते हैं। उन्हीं शब्दों के इतिहास के आधार पर शब्द-शास्त्र-वेत्ताओं ने यह परिणाम निकाला है कि प्राचीन काल में, आदिम आर्य्य, एकही स्थान से कितने ही जत्थों में बंट कर, पृथ्वी के अन्य भागो में फैल गये। यदि ऐसा हुआ हो तो इसमें सन्देह नहीं कि अपनी प्राचीन भूमि छोड़ने के पहले ही आर्य्य लोग बहुत कुछ सभ्य हो चुके थे, क्योंकि जिन शब्दो से शब्द-शास्त्र-वेत्ता अपना यह मत पुष्ट करते है उनमे से कितने ही शब्द ऊँचे दर्जे की सभ्यता के सूचक हैं। आजकल की असभ्य जातियो को भी थोड़ा बहुत दिशाओं का ज्ञान होता है। वे दिशाओ के कुछ न कुछ नाम अवश्य रख लेती हैं। इसलिए मानना पड़ेगा कि सभ्य आर्य्य-जाति ने अपनी प्राचीन भूमि छोड़ने के पूर्व्व, दिशाओं का नाम अवश्य कुछ न कुछ रख लिया होगा। परन्तु हम देखते है कि बात ऐसी नहीं है। जितनी आर्य्य भाषायें, आज कल संसार मे प्रचलित हैं उनमे दिशाओं के सूचक एक से शब्द नहीं। भारतीय आर्य्यों की भाषा में दिशाओं के नाम "उत्तर", "दक्षिण", "पूर्व " और "पश्चिम" हैं। ये चारों शब्द और किसी भाषा में नहीं पाये जाते। यदि आर्य्य लोग बाहर से भारत में आये तो यह नहीं माना जा सकता कि उन्होंने, भारत में आने के पूर्व, दिशाओं का कुछ नाम ही न रक्खा था, या उन्होंने दिशाओं का नाम रख तो लिया था, पर भारत में आते ही उन्होने उन नामों को बदल डाला था। मिश्र के प्राचीन निवासियों ने दिशाओं के नाम नील नदी के प्रवाह के अनुसार गढ़े थे। "ऊपरी प्रवाह" से वे उत्तर का मतलब लगाते थे और "नीचे के प्रवाह" से दक्षिण का। यदि प्राचीन आर्य्यों द्वारा रक्खे गये दिशाओं के नामों का पता लग जाता तो उनके पूर्वनिवासस्थल की स्थिति और उनका उसे छोड़ कर आगे बढ़ने का कुछ न कुछ पता भी अवश्य ही चल जाता।

लोगो का खयाल है कि सूर्य्योदय और सूर्य्यास्त के हिसाब से हमारे दिशा-सूचक शब्दो की रचना हुई। पूर्व और पश्चिम, इन दोनों शब्दों से सूर्योदय और सूर्यास्त का अर्थ लिया जा सकता है। परन्तु उत्तर और दक्षिण से सूर्य की गति का कुछ भी संबंध नहीं। यह भी सम्भव नहीं कि आदिम काल मे दिशाओं के लिए जिन शब्दों का उपयोग किया गया हो उनका दिशाओं से कोई सम्बन्ध ही न रहा हो।

'उत्तर' शब्द का अर्थ है ऊँचा। 'उत्तर' शब्द के स्थान में 'उदीच्य' शब्द का भी प्रयोग होता है। उसका भी वही अर्थ है जो 'उत्तर' का है। भारतवर्ष के उत्तर में हिमालय पर्वत है। वह बहुत ऊँचा है। आर्य्य लोग जब और जहाँ से पहिले चले होंगे, हिमालय पर्वत के नीचे अवश्य पहुँचे होंगे तो हिमालय किसी तरह उत्तर दिशा में नहीं पड़ सकता। पुरातत्त्व-वेत्ताओं का मत है कि प्राचीन समय में, हिमालय के नीचे, उत्तर-पूर्व के कोने में, किसी सभ्य जाति की बस्ती रही होगी। यदि हम यह मान लें कि भारत के दक्षिणी भाग से कोई जाति, हिमालय के नीचे, उत्तर-पूर्व्व के कोने में, जो बसी और वहाँ उन्नति करके देश के पश्चिमी भाग मे, जहाँ की भूमि बड़ी ही उर्वरा थी, जो फैली तो, हमें चारो दिशाओं के सूचक इन चारों शब्दो के अर्थ, भारत-भूमि की तत्कालीन स्थिति के अनुसार, समझने में कोई दिक्क़त नहीं पड़ती।

'दक्षिण' शब्द 'दक्ष' धातु से बना है। 'दक्ष' का अर्थ है-बढ़ना'। उसका अर्थ 'दाहिना' भी होता है, परन्तु इस अर्थ में वह पहले व्यवहृत न होता था। वैदिक काल में एक देवता का नाम भी दक्ष था। वह अदिति का पिता था। इसलिए उसका दूसरा नाम 'आदित्य' भी था। 'आदित्य' शब्द के अर्थ हैं-निस्सीम दृग्गोचर। जो लोग हिमालय के पूर्व से उत्तर की ओर गये होंगे उन्हे, आगे चल कर, उक्त पर्वत की ऊँचाई के कारण, अवश्य रुकना पड़ा होगा। इधर दक्षिण की ओर से भी लोगों के झुण्ड के झुण्ड आते रहे होंगे। उस समय, दक्षिण ही विस्तृत दिशा रही होगी और वहां लोगों का निवास भी अधिक रहा होगा। इसीसे प्रत्यक्ष किवा दृग्गोचर, परन्तु निस्सीम, विस्तार के कारण ही, उस समय उसका नाम 'आदित्य' पड़ा होगा। इसी प्रकार हिमालय की ऊँचाई के खयाल से 'उत्तर' की, और दक्षिण दिशा के निस्सीम विस्तार के खयाल से 'दक्षिण' शब्द की दृष्टि हुई होगी।

ग्रीक और लैटिन भाषाओं में जो शब्द 'दक्ष' से मिलते जुलते से हैं उनके वही अर्थ हैं जो, आजकल, संस्कृत में, इस शब्द के होते हैं। परन्तु संस्कृत के 'दक्षिण' और ज़ेन्द भाषा के 'दर्शन' शब्द के वही अर्थ हैं जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है।

'पूर्व' शब्द के अर्थ ये है-'पहला'-'पहले का' और 'मृत-काल' का। यह शब्द 'नूतन' शब्द का प्रतिकूलार्थवाची है। 'पूर्व' और 'नूतन' का प्रयोग ऋग्वेद के पहले ही सूक्त की दूसरी ही ऋक् मे हुआ है। इससे इन दोनों शब्दों का अन्तर अच्छी तरह प्रकट होता है। 'पश्चिम' का अर्थ है 'पुराना'। अब यदि हिमालय के उत्तर-पूर्व में रहने वाले लोग ही भारत के उत्तरी भाग में निवास करने वाले वैदिक ऋषियों के पूर्वज रहे होंगे, तो उनका उत्तर मे बस कर 'पूर्व' और 'पश्चिम' दिशाओं के नाम रखना सर्वथा सार्थक था।

यदि यही मान लिया जाय कि दिशाओं का नाम सूर्य की गति के अनुसार ही रक्खा गया होगा, तो, फिर 'उत्तर' शब्द की ठीक व्याख्या नहीं हो सकती, और, साथ ही साथ, भारतीय लोगों के निर्दिष्ट किये हुए दिशाओं के नामों से उन जातियों की, दिशाओं के नामों में कोई समानता नहीं पाई जाती जिनका प्राचीन सम्बन्ध हिन्दुओ से बतलाया जाता है। कृष्णयजुर्वेद में लिखा है:

प्राचीनवशं करोति देवो मनुष्या दिशो व्यभजन्त।
प्राची देवा दक्षिणां पितरः प्रतीची मनुष्या उदीची रुद्रः॥

इससे प्रकट है कि प्राचीन लोग दक्षिण दिशा ही से आगे बढ़े थे। पूर्व मे देवताओ का वास था। वे लोग जाकर उनसे मिले। फिर जो निरे मनुष्य ही थे वे पश्चिम में सुख भोगने के लिए गये। उत्तर में भी भीषण रुद्र का राज्य था। ये सब बातें पूर्वोक्त सिद्धान्त को अच्छी तरह पुष्ट करती हैं।

ये तो हुई मजूमदार महाशय की युक्तियां। अब उनके मत के विरोधी श्रीयुक्त रामचन्द्र के॰ प्रभू की बातें भी, संक्षेप में सुन लीजिए :-

मजूमदार महाशय का मत है कि भारतीय आर्य्य कहीं बाहर से नहीं आये। सबसे बड़ी दलील जो वे अपने इस मत की पुष्टि में पेश करते है वह यह है कि जिन अन्य देशो और जातियो से भारतीय आर्य्यों का प्राचीन सम्बन्ध बताया जाता है उनके यहां वही या उनसे मिलते जुलते दिशा-सूचक शब्द नहीं हैं, जो भारतीय आर्य्यों के हैं। परन्तु बात ऐसी नहीं है। 'पूर्व' और 'दक्षिण'-इन दो शब्दों से अन्य देशो में भी उन्हीं दिशाओ से मतलब है जिनके वे भारत में बोधक है। पारसियों के प्राचीन ग्रन्थ अवस्ता में 'पूर्व' शब्द का अर्थ है-'पहला' अथवा 'सब से पहले'। पारसी लोग हिन्दुओ की तरह सूत्र धारण करते है। वे लोग सूत्र को 'कुश्ती' कहते हैं। कुश्ती के उत्सव में ज़न्दअवस्ता का एक मन्त्र पढ़ा जाता है, जिसमें "यौव्वीनीम" शब्द आता है। विद्वान लोग इस शब्द का अर्थ 'पहला' ही करते हैं। प्राचीन पारसी भाषा में पर, परवा, परवीं, परवीज़, पौर्य्य, पौर्येनी आदि कितने ही शब्द हैं जिनसे ताराओं का अर्थ लिया जाता है, परन्तु उन्ही ताराओं का जो सूर्य-मण्डल मे 'प्रथम' अर्थात् श्रेष्ठ समझे जाते हैं। संस्कृत के 'पूर्व' शब्द से इन शब्दों का घनिष्ठ सम्बन्ध मालूम पड़ता है।

मजूमदार महाशय स्वयं स्वीकार करते हैं कि 'दक्षिण' का ज़न्द रूप दार्शन है। वे यह भी मानते हैं कि लैटिन और ग्रीक भाषाओं में भी उसके सदृश और उसीके आधुनिक अर्थों के जैसे अर्थ रखने वाले शब्द मौजूद हैं। यदि ऐसा है तो, क्या यह संभव नहीं कि लैटिन और ग्रीक भाषाओं के इन शब्दों के अर्थ, प्राचीन काल में, वही रहे होंगे जो इस समय संस्कृत में थे? रोमन, ग्रीक, ड्रड आदि योरोप की प्राचीन जातियों मे प्रदक्षिणा की प्रथा जोरों पर थी। प्राचीन गैलिक भाषा में इस प्रथा को "डीजिल" और रोमन भाषा में 'डेक्सट्रेटिस' कहते थे। 'डीजिल' शब्द की धातु गीज़ के अर्थ हैं-'दक्षिण' तथा दक्षिण दिशा। प्राचीन आयरिश शब्द 'डेस', वेल्श शब्द 'डेहौ', लैटिन शब्द 'डेक्स्ट्रा', ग्रीक शब्द 'डेक्सियस' आदि भी इसी अर्थ के बोधक हैं। इन मे संस्कृत शब्द 'दक्षिण' का बहुत कुछ सादृश्य है और इनके अर्थ भी इसके आधुनिक अर्थ से मिलते जुलते हैं।

मजूमदार महाशय का यह कहना भी ठीक नहीं कि प्राचीन आर्य्य दक्षिण से चल कर उत्तरी भारत में पहुंचे। उनके इस कथन का समर्थन किसी भी प्राचीन ऐतिहासिक कथा से नहीं होता। कुरु और पाञ्चाल नाम की आर्यजातियां उत्तरी भारत ही की थीं। उत्तर-कुरु और उत्तर-पाञ्चाल के नाम से ही पुकारी जाती थीं। उपानिषदों से यही पता चलता है कि उत्तर-कुरु-जाति का निवास हिमालय पर्व्वत माला के उत्तर में था। ऋग्वेद में 'पूर्व्व-देव' शब्द है। जिस मन्त्र में यह शब्द आया है उसका अर्थ है-"पूर्व्वी देवी ने पाश्चात्य देवो की रीति का अनुसरण किया, जिससे वे समृद्धिशाली हो गये। भाष्यकारों ने पूर्व-देव, का अर्थ 'असुर' किया है। अमर-कोश के रचयिता ने भी इस संयुक्त शब्द के यही अर्थ किये हैं। इससे स्पष्ट है कि पूर्व में असुरो का निवास था, जिन्होंने पश्चिमी देवो से सभ्यता सीखी। जब पूर्व में असुर रहते थे तब मजूमदार महाशय का यह कहना कैसे मान लिया जाय कि भारतीय आर्य पूर्व से पश्चिम की ओर गये।

सूर्य्य की गति के अनुसार ही दिशाओ के नाम रक्खे गये थे। यह बात ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त ९५, मन्त्र ३ से स्पष्ट है-

पूर्व्वामनु प्रदिंश पार्थिवानामृतून् प्रशासद्धिद-धावनुष्ठु।


अर्थात्-ऋतुओं की रचना करके वह (सूर्य्य) पृथ्वी की पूर्वादि दिशाओं की रचना करता है। अतएव मजूमदार महाशय की कल्पना समीचीन नहीं जान पड़ती।

नवंबर के माडर्न-रिव्यू में मजूमदार महोदय ने प्रभू-महा शय की इस खण्डनात्मक अलोचना पर एक नोट प्रकाशित कराया है। उसमे आपने प्रभू महाशय के कोटि-क्रम का विरोध न करके केवल इतना ही लिखा है कि ईरानियों के विषय मे भी आपने एक लेख लिखा है। यदि वह प्रकाशित हो जाता तो प्रभु महाशय को अपना लेख लिखने का कष्ट न उठाना पड़ता। परन्तु अस्वस्थता के कारण वे अब तक उसे प्रकाशित नहीं कर सके। आप के इस कथन से सूचित होता है कि ईरानियों के विषय में अपना मत प्रकट करके आप अपनी कल्पना का सामञ्जस्य सिद्ध करने के लिए तैयार हैं।

[जनवरी १९१३