अप्सरा/अगला भाग २

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[ ४५ ] किया हा। फिर धारधार नीच उतरने लगे। कथरिन से उन्हाने धीम शब्दों में कुछ कहा, नीचे उसे अलग बुलाकर । फिर अपनी मोटर पर बैठ गए। कनक ने अपनी माटर से हैमिल्टन और दारोगा को उनके स्थान पर पहुँचवा दिया। (८) अदालत लग रही थी। एक हिस्सा चारो तरफ से रेलिंग से घिरा था। बोच में उतने ही बड़े तख्त के ऊपर मेज और एक कुर्सी रक्खी थी। वहीं मि० रॉबिंसन मैजिस्ट्रेटे बैठे थे। सामने एक घेरे के अंदर बंदी राजकुमार खड़ा हुआ एक दृष्टि से बेंच पर बैठी हुई कनक का देख रहा था, और देख रहा था उन वकीलों, बैरिस्टरों और कर्म- चारियों को, जो उसे देख-देख आपस में एक दूसरे को खोद-खोदकर मुसकिरा रहे थे, जिनके चेहरे पर झूठ, फरेब, जाल, दगाबाजी, कठ- हुजती, दंभ, दास्य और तोताचश्मी सिनेमा के बदलते हुए दृश्यों की तरह आ-जा रहे थे, और जिनके पर्दे में छिपे हुए वे स्वास्थ्य, सुख और शांति की साँस ले रहे थे। वहाँ के अधिकांश लोगों की दृष्टि निस्तेज, सूरत बेईमान और स्वर कर्कश था। राजकुमार ने देखा, एक तरफ पत्रों के संवाददाता बैठे हुए थे, एक तरफ वकील, बैरिस्टर तथा और लोग। ___ कनक वहाँ उसके लिये सबसे बढ़कर रहस्यमयी थी। बहुत कुछ मानसिक प्रयत्न करने पर भी उसके आने का कारण वह नहीं समझ सका। स्टेज पर कनक को देखकर उसकी तरफ से उसके दिल में अश्रद्धा, अविश्वास तथा घृणा पैदा हो गई। जिस युवती को इडेन- गार्डन में एक गारे के हाथों से उसने बचाया, जिसके प्रति, सभ्य महिला के रूप में देखकर, वह समक्ति खिंच गया था, वह स्टेज की एक नायिका है, यह उसके लिये बरदाश्त करने से बाहर की बाव थी। कनक का तमाम सौंदयं उसके दिल में पैदा हुए इस घृण-भाव को प्रशमित तथा पराजित नहीं कर सका। उस दिन, स्टेज पर, [ ४६ ] राजकुमार दो पार्ट कर रहा था, एक मन से, दूसरा जबान से । इसलिये कनक के मुकाबले वह कुछ उतरा हुआ समझा गया था। उसके सिर्फ दो-एक स्थल अच्छे हुए थे। आज फिर कनक को बैठी हुई देखकर उसने अनुमान लड़ाया कि शायद पुलिस की तरफ से यह भी एक गवाह या ऐसी ही कुछ होकर आई है। क्रोध और घृणा से ऊपर तक हृदय भर गया। उसने सोचा कि इडेन-गार्डेन में उससे गलती हो गई, मुमकिन है, यह साहब की प्रेमिका रही हो, और व्यर्थ ही साहब को उसने दंड दिया । राजकुमार के दिल की दीवार पर जो कुछ अस्पष्ट रेखा कनक की थी, बिलकुल मिट गई । “मनुष्य के लिये खो कितनी बड़ी समस्या है इसकी सोने सी देह के भीतर कितना तीव्र जहर !” राजकुमार सोच रहा था-"मैंने इतना बड़ा घाखा खाया, जिसका दंड ही से प्रायश्चित्त करना ठीक है।" राजकुमार को देखकर कनक के आँस्था गए । राजकुमार तथा दूसरों की आँखें बचा रूमाल से चुपचाप उसने आँसू पोंछ लिए। उस रोज लोगों की निगाह में कनक ही कमरे की रोशनी थी, उसे देखते हुए सभी की आँखें औरों की आँखों को धोखा दे रही थी। सबकी आँखों की चाल तिरछी हो रही थी। ___एक तरफ़ दारोगा साहब खड़े थे। चेहरा उतर रहा था। राजकुमार ने सोचा, शायद मुझे अकारण गिरफ्तार करने के खयाल से यह उदास है । राजकुमार बिलकुल निश्चित था। दारोगा साहब ने रविवार के दिन रॉबिंसन का जैसा. रुख देखा था, उस पर शहादत के लिये दौड़-धूप करना अनावश्यक सममा, उलटे वह अपने वरखास्त होने, सजा पाने और न जाने किस-किस तरह की कल्पनाएँ लड़ा रहे थे। इसी समय मैजिस्ट्रटेने दारोगा साहब को तलब किया। पर वहाँ कोई तैयारी थी ही नहीं। बड़े करुण भाव से, दृष्टि में कृपा चाहते हुए, दारोगा साहब मैजिस्ट्रेट को देखने लगे। ___ अभियुक्त को छोड़ देना ही मैजिस्ट्रेट का अभिप्राय था। इसलिये [ ४७ ] उसी रोज उसके पैरवीकार मिस्टर जयनारायण से उसकी भलमसाहत के सुबूत लेना उन्होंने प्रारंभ कर दिया । सुबूत गुजरते वक्त कनक एकाग्र चित्त से मुकट्टमा देख रही थी। राजकुमार के मन का एकाएक परिवर्तन होगया । वह अपनी भलाई के प्रमाणों को पेश होते हुए देखकर चकित हो गया। कुछ उसकी समझ में न आया। उस समय का कनक का उत्साह देखकर वह अनुमान करने लगा कि शायद यह सब कार्रवाई उसी की की हुई है। उसकी भावना उसकी तरफ से बदल गई। आँखों में श्रद्धा आ गई, पर दूसरे ही क्षण, उपकृत द्वारा छटाए जाने की कल्पना कर, वह बेचैन हो गया। उसके जैसे निर्भीक वीर के लिये, जिसने स्वयं ही यह सब श्राफत बुला ली, यह कितनी लज्जा की बात है कि वह एक दूसरी बाजारू खी की कृपा से मुक्त हो । क्षोम और घृणा से उसका सवींग मुरझा गया। जोश में था उसने अपने खाने से साहब को आवाज़ दी। ___"मैंने कुसूर किया है।" मैजिस्ट्रेट लिख रहे थे। नजर उठाकर एक बार उसे देखा, फिर कनक को। ___ कनक घबरा गई । राजकुमार को देखा, वह निश्चित दृष्टि से साहब की ओर देख रहा था। कनक ने वकील को देखा । राजकुमार की तरफ फिरकर वकील ने कहा, तुमसे कुछ पूछा नहीं जा रहा, तुम्हें कुछ कहने का अधिकार नहीं। फैसला लेकर हँसते हुए वकील ने कनक से कहा, राजकुमार छोड़ दिए गए। एक सिपाही ने सीखचोंवाली कोठरी की ताली खोल दी। राजकुमार निकाल दिया गया। वकील को पुरस्कृत कर, राजकुमार का हाथ पकड़ कनक अदालत से बाहर निकल चलो। साथ-साथ कैथरिन भी चलीं। पीछे-पीछे हँसती हुई कुछ जनता। रास्ते पर, एक किनारे, कनक की मोटर खड़ी थी। राजकुमार और [ ४८ ]कैथरिन के साथ कनक पीछे की सीट में बैठ गई । ड्राइवर गाड़ी ले चला। एक अज्ञात मनोहर प्रदेश में राजकन्या की तलाश में विचरण करते हुए पूर्वश्रुत राजपुत्र की कथा याद आई। राजकुमार निर्लिसत द्रष्टा की तरह यह सोने का स्वप्न देखता जा रहा था।

मकान के सामने गाड़ी खड़ी हो गई। कनक ने हाथ पकड़ राजकुमार

को उतरने के लिये कहा। कैथरिन बैठी नहीं। दूसरे रोज आने का कनक ने उनसे आग्रह किया। ड्राइवर उन्हें पार्क स्ट्रीट ले चला। अपर सीधे कनक माता के कमरे में गई । बराबर राजकुमार का हाथ पकड़े रही । राजकुमार भावावेश में जैसे बराबर उसके साथ-साथ चला गया।

"यह मेरी मा हैं। राजकुमार से कहकर कनक ने माता को प्रणाम

किया। आवेश में, स्वताप्रोरित की तरह, अपनी दशा तथा परिस्थिति के ज्ञान से रहित, राजकुमार ने भी हाथ जोड़ लिए। प्रणाम कर प्रसन्न कनक राजकुमार से सटकर खड़ी हो गई। माता ने दोनो के मस्तक पर स्नेहस्पर्श कर आशीर्वाद दिया। नौकरी को बुलाकर हर्ष से एक-एक महीने की तनख्वाह पुरस्कृत की। कनक राजकुमार को अपने कमरे में ले गई। मकान देखते ही कनक के प्रति राजकुमार के भीतर संभ्रम का भाव पैदा हो गया था। कमरा देखकर उस ऐश्वर्य से वह और भी नत हो गया। कनक ने उसी गढ़ी पर आराम करने के लिये बैठाया। एक बराल खुद भी बैठ गई। "दो रोज से आँख नहीं लगी, सोऊँगा।" . “सोइए" कनक ने आग्रह से कहा । फिर उठकर हाथ की बुनी. बेल-बूटेदार एक पंखी ले आई, और बैठकर मलने लगी। “नहीं, इसकी जरूरत नहीं, बिजली का पंखा तो है, खोलव दीजिए। राजकुमार ने सहज स्वर से कहा। [ ४९ ]____ जैसे किसा ने कनक का कलेजा मल दिया हा'खालवा दीजिए" आह ! कितना दुराव! आँखें छलछला आई। राजकुमार आँखें मूंदे पड़ा था । सँभलकर कनक ने कहा, पंखे की हवा गर्म होगी। वह उसी तरह पंखा झलती रही। हाथ थोड़ी ही देर में दुखने लगे, कलाइयाँ भर आई, पर वह भलतीरही । उत्तर में राजकुमार ने कुछ भी न कहा । उसे नींद लग रही थी। धीरे-धीरे सो गया। राजकुमार के स्नान आदि का कुल प्रबंध कनक ने उसके जागने से पहले ही नौकरों से करा रक्खा था। राजकुमार के सोते समय सर्वेश्वरी कन्या के कमरे में एक बार गई थी, और उसे पंखा मलते हुए देख हँसकर चली आई थी । कनक माता को देखकर उठी नहीं, लज्जा से आँखें मुका, उसी तरह बैठी हुई पंखा झलती रही। . दो घंटे के बाद राजकुमार की आँखें खुली। देखा, कनक पंखा मल रही थी। बड़ा संकोच हुआ । उससे सेवा लेने के कारण लन्ना भी हुई। उसने कनक की कलाई पकड़ ली। कहा, बस आपको बड़ा कष्ट हुआ। फिर एक तीर कनक के हृदय के लक्ष्य को पार कर गया । चोट खा, कॉपकर सँभल गई। कहा-"आप नहाइएगा नहीं ?" "हॉ, स्नान तो जरूर करूँगा, पर धोती ?" कनक हँसने लगी। "मेरी धोती पहन लीजिएगा।" "मुझे इसके लिये लज्जा नहीं।" "तो ठीक है, थोड़ी देर में आपकी धोती सूख जायगी।" कनक के यहाँ मर्दानी धोतियाँ भी थीं। पर स्वामाविक हास्य-प्रियता के कारण नहाने के पश्चात् राजकुमार को उसने अपनी ही एक धुली हुई साड़ी,दी। राजकुमार ने भी अम्लान, अविचल भाव से वह साड़ी मदों की तरह पहन ली। नौकर मुस्किराता हुआ उसे कनक के कमरे में ले गया। [ ५० ]_हमारे यहाँ भोजन करने में आपको कोई एतराज तो न होगा?" कनक ने पूछा। ___“कुछ नहीं, मैं तो प्रायः होटलों में खाया करता हूँ।" राजकुमार ने असंकुचित स्वर से कहा। ___ "क्या आप मांस भी खाते हैं ?" __"हाँ, मैं सक्रिय जीवन के समय मांस को एक उत्तम खाद्य पदार्थ मानता हूँ, इसलिये खाया करता हूँ।" ___ "इस वक्त तो आपके लिये बाजार से भोजन मँगवाती हूँ, शाम को मैं पकाऊँगी। कनक ने विश्वस्त स्वर से कहा। राजकुमार ने देखा, जैसे एक अज्ञात, अब तक अपरिचित शक्ति से उसका अंग-अंग कनक की ओर खिंचा जा रहा था, जैसे चुंबक की तरफ लोहे की सुइयाँ । केवल हृदय के केंद्र में द्रष्टा की तरह बैठा हुआ वह उस नवीन प्रगति से परिचित हो रहा था। ___ वहीं बैठी हुई थाली पर एक-एक खाद्य पदार्थ चुन-चुनकर कनक ने रक्खा। एक तश्तरी पर ढकनदार ग्लास में बंद वासित जल रख दिया । राजकुमार भोजन करने लगा। कनक वहीं एक बग़ल बैठी हुई पान लगाने लगी। भोजन हो जाने पर नौकर ने हाथ धुला दिए।

पान की रकाबी कनक ने बढ़ा दी । पान खाते हुए राजकुमार ने कहा- आपका शकुंतला का पार्ट उस रोज बहुत अच्छा हुआ था। हॉ, धोती तो अब सूख गई होगी ?" ____ "इसे ही पहने रहिए, जैसे अब आप ही शकुंतला हैं, निस्संदेह आपका पाट बहुत अच्छा हुआ था। आप कहें, तो मैं दुष्यंत का पार्ट करने के लिये तैयार हूँ।"

मुखर कनक को राजकुमार कोई उत्तर न दे सका। कनक एक दूसरे कमरे में चली गई। धुली हुई एक मर्दानी धोती ले आई।

“इसे पहनिए, वह मैली हो गई हैं। सहज आँखों से मुस्किरा- कर कहा। [ ५१ ]राजकुमार ने धोती पहन ली। कनक फिर चली गई। अपनी एक रेशमी चादर ले आई। "इसे ओढ़ लीजिए।" राजकुमार ने ओढ़ लिया। एक नौकर ने कनक को बुलाया। कहा, माजी याद कर रही हैं। "मैं अभी आई।" कहकर कनक माता के पास चली गई। हृदय के एकांत प्रदेश में जीवन का एक नया ही रहस्य खुल रहा है। वर्षा की प्रकृति की तरह जीवन की धात्री देवी नए साज से सज रही है। एक श्रेष्ठ पुरस्कार को प्राप्त करने के लिये कभी-कभी उसके विना जाने हुए लालसा के हाथ फैल जाते हैं। आज तक जिस एक ही स्रोत से बहता हुआ वह चला आ रहा था. वह एक दूसरा मुख बदलना चाहता है। एक अप्सरा कुमारी, संपूर्ण ऐश्वर्य के रहते हुए भी, आँखों में प्रार्थना की रेखा लिए, रूप की ज्योति में जैसे उसी के लिये तपस्या करती हुई, आती है। राजकुमार चित्त को स्थिर कर विचार कर रहा था, यह सब क्या है ? क्या इस ज्योति से मिल जाऊँ ?-ना, जल जाऊँ तो ? इसे निराश कर दूं?--बुझा दूं ? न:, मै इतना कर्कश, तीव्र, निर्दय न हूँगा ; फिर ? श्राह ! यह चित्र कितना सुंदर, कितना स्नेहमय है-इसे प्यार करू ? नः मुझे अधिकार क्या ? मैं तो प्रतिश्रुत हूँ कि इस जीवन में भोग-विलास को स्पर्श भी नहीं करूँ प्रतिज्ञा की हुई प्रतिज्ञा से टल जाना महा पाप है, और यह स्नेह का निरादर! -

कनक के भावों से राजकुमार को अब तक मालूम हो चुका था कि वह पुष्प उसी की पूजा में चढ़ गया है । उसके द्वारा रक्षित होकर उसने अपनी सदा की रक्षा का भार उसे सौंप दिया है। उसके आकार, इंगित और गति इसकी साक्षी हैं। राजकुमार धीर, शिक्षित युवक था। उसे कनक के मनोभावों को समझने में देर नहीं लगी। जिस तरह से उसके उपकार का कनक ने प्रतिदान दिया, उसकी याद कर कनक के गुणों के साथ उस कोमल स्वभाव की ओर वह आकर्षित हो चुका [ ५२ ]अप्सरा

था। केवल लगाम अभी तक उसके हाथ में थी। उसकी रस-प्रियता के अंतर्लक्ष्य को ताड़कर मन-ही-मन वह सुखानुभव कर रहा था। पर दूसरे ही क्षण इस अनुभव को वह अपनी कमजोरी भी समझता था। कारण, इसके पहले ही वह अपने जीवन की प्रगति निश्चित कर चुका था। वह साहित्य तथा देश की सेवा के लिये आत्मार्पण कर चुका था। इधर कनक का इतना अधिक एहसान उस पर चढ़ गया था, जिसके प्रति उसकी मनुष्यता का मस्तक स्वतः नत हो रहा था। उसकी आज्ञा के प्रतिकूल आचरण की जैसे उसमें शक्ति ही न रह गई हो। वह अनुकूल-प्रतिकूल अनेक प्रकार की ऐसी ही कल्पनाएँ कर रहा था। सर्वेश्वरी ने कनक को सस्नेह पास बैठा लिया। कहा- ईश्वर ने तुम्हें अच्छा वर दान दिया है । वह तुम्हें सुखी और प्रसन्न करें। आज एक नई बात तुम्हें सुनाऊँगी । आज तक तुम्हें अपनी माता के सिवा पिता का नाम नहीं मालूम था । अब तुम्हारे पिता का नाम तुमसे कह देना मेरा धर्म है। कारण, तुम्हारे कार्यों से मैं देखती हूँ, तुम्हारे स्वभाव में पिता-पक्ष ही प्रबल है। बेटा, तुम रणजीतसिंह की कन्या हो। तुम्हारे पिता जयनगर के महाराज थे। उन दिनों मैं वहीं थी। उनका शरीर नहीं रहा । होते, तो वह तुम्हें अपनी ही देख-रेख में रखते । आज देखती हूँ, तुम्हारे पिता के कुल के संस्कार ही तुममें प्रबल हैं। इससे मुझे प्रसन्नता है । अब तुम अपनी अनमोल, अलम वस्तु सँभालकर रक्खो, उसे अपने अधिकार में करो। आगे तुम्हाय धर्म तुम्हारे साथ है।" माता की सहृदय बातों से कनक को बड़ा सुख हुआ। स्नेह-जल से वह सिक्त होकर बोली-"अम्मा, यह सब तो वह कुछ जानते ही नहीं, मैं कह भी नहीं सकती। किसी तरह इशारा करती हूँ, तो कोई जैसे मुझे पकड़कर दबा देता है। कुछ बोलना चाहती हूँ, तो गले से आवाज ही नहीं निकलती।" . "तुम उन्हें कुछ दिन बहला रक्खो, सब बातें आप खुल जायँगी : [ ५३ ] मै अपनी तरफ से कोई कार्रवाई करूंगी, तो इसका उन पर बुर, असर पड़ेगा।" नौकर से जेवर का बक्स बढ़ा देने के लिये सर्वेश्वरी ने कहा।

आज कनक के लिये सबसे बड़ी परीक्षा का दिन है। आज की विजय उसकी सदा की विजय है। इस विचार से सर्वेश्वरी बड़े विचार से सोने और हीरे के अनेक प्रकार के आभरणों से उसे सजाने लगी। बालों में सुगंधित तेल लगा, किनारे से तिरछाई माँग काढ, चाटी गूंथकर चक्राकार जूड़ा बाँध दिया। हीरे की कनी-जड़े सोने के फूलबार कॉट जूड़े में पिरों दिए । कनक ने अच्छी तरह सिंदूर माँग में भर लिया। उसकी ललाई उस सिर का किसके द्वारा कलम किया जाना सूचित कर रही थी। उस रोज सर्वेश्वरी ने वसंती रंग की साड़ी पसंद की। अच्छे-अच्छे जितने बहुमूल्य आमरण थे, सबसे सर से पैर तक कनक को सजा दिया।

"अम्मा, मुझे तो यह सब भार हो रहा है। मैं चल नहीं सकूँगी।" सर्वेश्वरी ने कोई उत्तर नहीं दिया। कनक राजकुमार के कमरे की ओर चली। जीने पर चढ़ने के समय आमरणों की मंकार से राजकुमार का मन आकर्षित हो गया। अलंकारों की मंजीर ध्वनि धीरे-धीरे नजदीक होती गई। अनुमान से उसने कनक के आने का निश्चय कर लिया। अब के दरवाजे के पास आते ही कनक के पैर रुक गए। सींग संकोच से शिथिल पड़ गया। कृत्रिमता पर बड़ी लजित हुई। मन को खूब दृढ़ कर होंठ काटती-मुसकिराती, वायु को केशों की सुरमि से सुगंधित करती हुई धीरे-धीरे चलकर गट्टी के एक प्रांत में राजकुमार के बिलकुल नजदीक बैठ गई।

राजकुमार ने केवल एक नजर कनक को देख लिया। हृदय ने प्रशंसा की। मन ने एकटक यह छवि खींच ली। तत्काल प्रतिज्ञा के अदम्य झटके से हृदय की प्रतिमा शून्य में परमाणुओं की तरह विलीन हो गई। राजकुमार चुपचाप बैठा रहा । हृदय पर जैसे पत्थर रख दिया गया हो। [ ५४ ] कनक के मन में राजकुमार के बहलाने की बात उठी। उठकर वह पास ही रक्खा हुआ सुस्बहार उठा लाई । स्वर मिलाकर राजकुमार से कहा-"कुछ गाइए। "मैं गाता नहीं। आप गाइए | आप बड़ा सुंदर गाती हैं।" 'आप' फिर कनक के प्राणों में चुभ गया । तिल मिला गई। इस चोट से हृदय के तार और दर्द से भर गए। वह गाने लगी- हमें जाना इस जग के पार । जहाँ नयनों से नयन मिले, ज्योति के रूप सहन खिले, सदा ही बहती रे रस-धार- वहीं जाना इस नग के पार। कामना के कुसुमों को कीट काट करता छिद्रों की बीट, यहाँ रे सदा प्रेम की इंट परस्सर खुलती सौ-सौ बार। डोल सहसा संशय में प्राण रोक लेते है अपना गान, . .. यहाँ रे सदा प्रेम में मान शान में बैठा मोह असार । दूसरे को कस अंतर बोल नहीं होता प्राणों का मोल, वहाँ के बल केवल वे लोल नयन दिखलाते निश्छल प्यार। अपने मुक्त पंखों से स्वर के आकाश में उड़ती हुई भावना की परी को अपलक नेत्रों से राजकुमार देख रहा था। स्वर के स्रोत में उसने भी हाथ-पैर ढीले कर दिए, अलक्ष्य अज्ञान में बहते हुए उसे अपार आनंद मिल रहा था । आँखों में प्रेम का वसंत फूट आया, संगीत में प्रमिका कोकिला कूक रही थी। एक साथ प्रेम की लीला में मिलन [ ५५ ]और विरह प्रणय के स्नेह-स्पर्श से स्वप्न की तरह जाग उठे। सोती हुई स्मृति की विद्य तु-शिखाएँ हृदय से लिपटकर लपटों में जलने जलाने लगीं । तृष्णा की सूखी हुई भूमि पर वर्षा की धारा बह चली । दूर की किसी भूली हुई बात को याद करने के लिये, मधुर अस्फुट ध्वनि से श्रवण-सुख प्राप्त करने के लिये, दोनो कान एकाग्र हो चले । मंत्र-मुग्ध मन में माया का अविराम सुख-प्रवाह भर रहा था! वह अकंपित-अचंचल पलकों से प्रेम की पूर्णिमा में ज्योत्स्नामृत पान कर रहा था। देह की कैसी नवीन कांति ! कैसे भरे हुए सहज-सुंदर अंग! कैसी कटी छटी शोभा ! इसके साथ मँजा हुआ अपनी प्रगति का कैसा अबाध स्वर, जिसके स्पश से जीवन अमद, मधुर, कल्पनाओं का केंद्र बन रहा है। रागिनी की तरंगों से काँपते हुए उच्छवास, तान मूच्छनाएँ उसी के हृदय के सागर की ओर अनर्गल विविध भंगिमाओ से बढ़ती चली आ रही हैं। कैसा कुशल छल! उसका सर्वस्व उससे छीन लिया, और इस दान में प्राप्ति भी कितनी अधिक, जैसे इसके तमाम अंग उसके हुए जा रहे हैं, और उसके इसके। राजकुमार एकाग्र चित्त से रूप और स्वर, पान कर रहा था । एक-एक शब्द से कनक उसके मर्म तक स्पर्श कर रही थी। संगीत के नशे में, रूप के लावण्य में अलंकारों की प्रभा से चमकती हुई कनक मरीचिका के उस पथिक को पथ से भुलाकर बहुत दूर-बहुत दूर ले गई । वह सोचने लगा-"यह सुख क्या व्यर्थ है ? यह प्रत्यक्ष ऐश्वर्य क्या आकाश-पुष्प की तरह केवल काल्पनिक कहा जायगा ? यदि इस जीवन की कांति हृदय के मधु और सुरभि के साथ वृक्ष ही पर सूख गई, तो क्या फल

"कनक, तुम मुझे प्यार करती हो?"

कनक को इष्ट मंत्र के लक्ष जप के पश्चात् सिद्धि मिली । उसके हृदय के सागर को पूर्णिमा का चंद्र देख पड़ा । उसके यौवन का प्रथम स्वप्न, सत्य के रूप में मूर्तिमान् हो, आँखों के सामने आ गया । चाहा कि जवाब दे, पर लज्जा से सब अंग जकड से गए। [ ५६ ]अप्सरा हृदय में एक अननुभूत विद्युत् प्रवेश कर गुदगुदा रही थी। यह दशा आज तक कभी नहीं हुई। मुक्त आकाश की उड़ती हुई रंगीन पये की विहग-परी राजकुमार के मन की डाल पर बैठी थी, पर किसी जंजीर से नहीं बँधी, किसी पीजड़े में नहीं आई। पर इस समय उसी की प्रकृति उसकी प्रतिकूलता कर रही है। वह चाहती है, कहें, पर प्रकृति उसे कहने नहीं देती । क्या यह प्यार वह प्रदीप है, जो एक ही एकांत गृह का अंधकार दूर कर सकता है ? क्या वह सूर्य और चंद्र नहीं, जो प्रति गृह को प्रकाशित करे ? ____इस एकाएक पाए हुए लाज के पाश को काटने की कनक ने बड़ी कोशिश की, पर निष्फल हुई। उसके प्रयत्न की शक्ति से आकस्मिक लज्जा के आक्रमण में ज्यादा शक्ति थी। कनक हाथ में सुरबहार लिए, रखों की प्रभा में चमकती हुई, सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही। इस समय राजकुमार की तरफ निगाह भी नहीं उठ रही थी। जैसे एक "तुम" तुम द्वारा उसने इसे इतना दे दिया, जिसके भार से आप-ही-श्राप उसके अंग दाता की दृष्टि में नत हो गए उस स्नेह सुख का मार हटाकर आँखें उठाना उसे स्वीकार भी नहीं। ___ बड़ी मुश्किल से एक बार सजल, अनिमेष हगों से, सर झुकाए हुए ही, राजकुमार को देखा। वह दृष्टि कह रही थी, क्या अब भी तुम्हे अविश्वास है ? क्या हमें अभी और मी प्रमाण देने की आवश्यकता होगी? उन आँखों की वाणी पढ़कर राजकुमार एक दूसरी परिस्थिति में आ गया, जहाँ प्रचंड क्रांति विवेक को पराजित कर लेती है, किसी स्नेह अथवा स्वार्थ के विचार से दूसरी श्रृंखला तोड़ दी जाती है, अनावश्यक परिणाम की एक भूल समझकर। संध्या हो रही थी। सूर्य की किरणों का तमाम सोना कनक के साने के रंग में, पीत सोने-सी साड़ी और सोने के रक्षाभूषणों में मिल- कर अपनी सुंदरता तथा अपना प्रकाश देखना चाहता था, और कनक [ ५७ ]अप्सरा चाहती थी, संध्या के स्वण-लोक में अपने सफल जीवन की प्रथम स्मृति को हृदय में सोने के अक्षरों से लिख ले। इंगित से एक नौकर को बुला कनक ने पढ़ने के कमरे से कागज, कलम और दावात ले आने के लिये कहा । सुर-बहार वहीं गट्टी पर एक बराल रख दिया। नौकर कुल सामान ले आया। ____कनक ने कुछ ऑर्डर लिखा, और गाड़ी तैयार करने की आज्ञा दी। ऑर्डर नौकर को देते हुए कहा-"यह सामान नीचे की दूकान से बहुत जल्द ले आओ।" राजकुमार को कनक की शिक्षा का हाल नहीं मालूम था । वह इसे साधारण पढ़ी-लिखी स्त्री में शुमार कर रहा था । कनक जब ऑर्डर लिख रही थी, तब लिपि से इसे मालूम हो गया कि यह अंगरजी लिपि है, और कनक अंगरेजी जानती है । लिखावट सजी हुई दूर से मालूम दे रही थी। "अब हवाखोरी का समय है। कनक एक भार का अनुभव कर रही थी, जो बोलने के समय उसके शब्दों पर भी अपना गुरुत्व रख रहा था। राजकुमार के संकोच की अर्गला, कनक के अदब के कारण, शिष्टता और स्वभाव के अकृत्रिम प्रदर्शन से, आप-ही-आप खुल गई । यों भी वह एक बहुत ही खुला हुश्रा, स्वतंत्र प्रकृति का युवक था। अनावश्यक सभ्यता का प्रदर्शन उसमें नाम मात्र को न था। जब तक वह कनक को समझ नहीं सका, तब तक उसने शिष्टाचार किया। फिर घनिष्ठ परिचय के पश्चात्, अभिनय से सत्य की कल्पना लेकर, दोनो ने एक दूसरे के प्रति कार्यतः जैसा प्रेम सूचित किया था, राजकुमार उससे कनक के प्रसंग को बिलकुल खुले हुए प्रवाह की तरह, हवा की तरह, स्पर्श कर बहने लगा । वह देखता था, इससे कनक प्रसन्न होती है, यद्यपि उसकी प्रसन्नता बाढ़ के जल की तरह उसके हृदय के फूलों को छापकर नहीं छलकने पाती । केवल अपने सुख की पूर्णता, अपनी अंतस्तरंगों की टलमल, प्रसन्नता, अपनी सुखद स्थिति का ज्ञान-मात्र कर देती है। [ ५८ ]अप्सरा "तुम अँगरेजी जानती हो, मुझे नहीं मालूम था।" फनक मुसकियई । "हाँ, मुझे कैथरिन घर पर पढ़ा जाया करती थी। थोड़े ही दिन हुए, मैंने पढ़ना बंद किया है। हम लोगों के साथ अदालत से आने के समय वह कैथरिन ही थीं।" राजकुमार के मानसिक सम्मान में कनक का दर्जा बढ़ गया। उसने उस ग्रंथ को पूर्णतः नहीं पढ़ा, इस अज्ञान-मिश्रित दृष्टि से कनक का देख रहा था, उसी समय नौकर कुछ सामान एक काराज में बँधा हुआ लाकर कनक के सामने रख गया। कनक ने खालकर देखा । फिर राजकुमार से कहा, लीजिए, पहन लीजिए, चलें प्रिंस-ऑफ-वेल्स घाट की तरफ, शाम हो रही है, टहल आवें। राजकुमार को बड़ी लब्बा लगी। पर कनक के आग्रह को वह टाल न सका। शट. वेस्ट कोट और कोट पहन लिया। टोपी दे ली। जूते पहन लिए! _____ कनक में कपड़े नहीं बदले। उन्हीं वसों से वह उठकर खड़ी हो गई। राजकुमार के सामने ही एक बड़ा शीशा दीवार से लगा था। इस तरह खड़ी हुई कि उसकी साड़ी और कुछ बाहने अंग राजकुमार के आधे अंगों से छू गए, और उसी तरह खड़ी हुई वह हृदय की ऑखों से राजकुमार की तस्वीर की आँखें देख रहो थी। वहाँ उसे जैसे लज्जा न थी । राजकुमार ने भी छाया की कनक को देखा । दोनी की असंकुचित चार आँखें मुसकिर पड़ीं, जिनमें एक ही मर्म, एक ही स्नेह का प्रकाश था। अलंकारों के भार से कनक की सरल गति कुछ मंद पड़ गई थी। राजकुमार को बुलाकर वह नीचे उतरने लगी। कुछ देर तक खड़ा वह उसे देखता रहा । कनक उतर गई । राजकुमार भी चला। गाड़ी तैयार खड़ी थी। अदली ने मोटर के पीछे की सीट का द्वार खोल दिया । कनक ने राजकुमार को बैठने के लिये कहा । राजकुमार बैठ गया लोगों की भीड़ लग रही थी' अवाक आँखों से पाला [ ५९ ]अदना सभी लोग कनक को देख रहे थे। राजकुमार के बैठ जाने पर कनक भी वहीं एक बगल बैठ गई। आगे की सीट में ड्राइवर की बाई तरफ अदली भी बैठ गया। गाड़ी चल दी। राजकुमार ने पीछे किसी को कहते हुए सुना, वाह रे तेरे भाग ! गाड़ी वेलिंटन स्ट्रीट से होकर धरम-तल्ले की तरफ चली गई।

सूर्य की अंतिम किरणें सीधे दोनो के मुख पर पड़ रही थी, जिससे कनक पर लोगों की निगाह नहीं ठहरती थी। सामने के लोग बड़े होकर उसे देखते रहते । इस तरह के मूषणों से सजी हुई महिला को अनवगुंठित, निस्वस्त्र-चितवन, स्वतंत्र रूप से, खुली मोटर पर विहार करते हुए प्रायः किसी ने नहीं देखा था ; इस अकाट्य युक्ति को क्टी हुई, प्रमाण के रूप में प्रत्यक्ष कर लोगों को बड़ा आश्चर्य हो रहा था। कनक के वेश में उसके मातृपक्ष की तरफ जरा भी इशारा नहीं था। कारण. उसके मस्तक का सिंदूर इस प्रकार के कुल संदेह की जड़ काट रहा था । कलकत्ते की अपार जनता की मानस-प्रतिमा बनी हुई,अपने नवीन नयनों की स्निग्ध किरणों से दर्शकों को प्रसन्न करनी कनक किले की तरफ जा रही थी।

कितने ही छिपकर आँखों से रूप पीनेवाले, मुंहचार, हवाखार उसकी मोटर के पीछे अपनी गाड़ी लगाए हुए, अनर्गल शब्दो में उसकी समालोचना करते हुए, उच्च स्वर से कभी-कभी सुनाते हुए मी, चले जा रहे थे । गाड़ी ईडेन-गार्डेन के पास से गुजर रही थी ।

"अभी वह स्थान देखिए-नहीं देख पड़ता।" कनक ने राजकुमार

का हाथ पकड़कर कहा।

"हाँ, पेड़ों की आड़ है, यह क्रिकेट-आउंड है, वह क्लब, पत्तियों में हर-हरा दीख रहा है। एक दमा फस्ट बटालियन से यहाँ हम लोगो का फाइनल कूचविहार-शील्ड-मैच हुआ था। भूली बात के आकस्मिक स्मरण से राजकुमार का स्वर कुछ मंद पड़ रहा था।

"आप किस टीम में थे?"

"विद्यासागर कॉलेज में तब मैं चौथे साल में था" [ ६० ]अारा "क्या हुआ ?" "३५६-१३० से हम लोग जीते थे।" "बड़ा डिफरेंस रहा।" "किसी ने सेंचुरी भी की थी ?" "हाँ, इसी से बहुत ज्यादा फर्क आ गया था। हमारे प्रो० बनर्जी बोलिं भी बहुत अच्छी करते थे।" "सेंचुरी किसने की ?" राजकुमार कुछ देर चुप रहा। धीरे साधारण गले से कहा, मैंने । गाड़ी अब प्रिंस-ऑफ-वेल्स घाट के सामने थी। कनक ने कहा-"इंडेन गार्डेन लौट चलो। ड्राइवर ने मोटर घुमा ली। राजकुमार किले के बेतार-के-तारवाले ऊँचे खंभों को देख रहा था। कनक की तरफ फिरकर कहा, इसकी कल्पना पहले हमारे जगदीशचंद्र वसु के मस्तिष्क में आई थी। मोटर बढ़ाकर गेट के पास ड्राइवर ने राक दी। राजकुमार उतरकर कलकत्ता-ग्राउंड का हल्ला सुनने लगा। ____ कनक ने कहा-"क्या आज कोई विशेष खेल था ?” ____ "मालूम नहीं, आज मोहनबगान-कलकत्ता, लीग में रहे होंगे; शायद मोहनबगान ने गोल किया। जीतने पर अँगरेज़ इतना हल्ला नहीं करते। दोनो धीरे-धीरे सामने बढ़ने लगे । मैदान बीच से पार करने लगे। किनारे की कुर्सियों पर बहुत-से लोग बैठे थे । कोई-कोई टहल रहे थे। एक तरफ़ पश्चिम की ओर योरपियन, उनकी महिलाएं और बालक थे, और पूर्व की कतार में बंगाली, हिंदोस्तानी, गुजराती, मराठी, मद्रासी, पंजाबी, मारवाड़ी, सिंधी आदि मुक्त कंठ से अपनी- अपनी मातृ-भाषा का महत्व प्रकट कर रहे थे। और. इन सब जातियों की दृष्टि के आकर्षण का मुख्य केंद्र उस समय कनक हो रही थी । श्रुत. अशुत, सुट, अफुट. अनेक प्रकार की. समीचीन [ ६१ ]अर्वाचीन पालोचना-प्रत्यालोचनाएँ सुनती हुई, निस्संकोच, अम्लान, निर्भय, वीतराग धीरे-धीरे, राजकुमार का हाथ पकड़े हुए, कनक फब्बारे की तरफ बढ़ रही थी। युवक राजकुमार की आखों में वीर्य, प्रतिमा, उच्छृखलता और तेज झलक रहा था। "उधर चलिए ।" कनक ने उसी कुंज की तरफ इशारा किया। दाना चलने लगे। दूसरा छोटा मैदान पाकर दोनो उसी कृत्रिम तालाववाले कुंज की ओर बढ़े। बेंच खाली पड़ी थी। दोनों बैठ गए। सूर्यास्त हो गया था। बत्तियाँ जल चुकी थीं। कनक मजबूती से राजकुमार का हाथ पकड़े हुए पुल के नीचे से डाँड बंद कर पाते हुए नाव के कुछ नवयुवकों को देख रही थी। वे नाव को घाट की तरफ ले गए । राजकुमार एक दूसरी बेंच पर बैठे हुए एक नवीन योरपीय जोड़े को देख रहा था। वह बेंच पुल के उस तरफ, खुली जमीन पर, खाई के किनारे थी। आपने नहीं मेरी रक्षा की थी।" सहज कुछ भरे स्वर में कनक ने कहा। "ईश्वर की इच्छा कि मैंने देख लिया" "श्रापको अब सदा मेरी रक्षा करनी होगी। कनक ने राजकुमार के हाथ को मुट्टी में जोर से दवाया। राजकुमार कुछ न बोला, सिफ कनक के स्तर से कला सजग होकर उसने उसकी तरफ देखा। उसके मुख पर बिजली की रोशनी पड़ रही थी। आँखें एक दूसरी ही ज्योति से चमक रही थीं, जैसे वह एक प्रतिज्ञा की मूर्ति देख रहा हो। "तुमने भी मुझे बचाया है।" "मैंने अपने स्वार्थ के लिये आपको बचाया।" "तुम्हारा कौन-सा स्वार्थ ? कनक ने सिर झुका लिया। कहा-"मैंने भी अपना धर्म पालन किया। [ ६२ ]अप्सरा "हाँ, तुमने उपकार का पूरे अंशों में बदला चुका दिया।" कनक काँप उठी। "कितने कठोर होते हैं पुरुष ! उन्हें सँभलकर वार्तालाप करना नहीं आता । क्या यही यथार्थ उत्तर है ?" कनक सोचती रही। तमककर कहा-हाँ. मैंने ठीक बदला चुकाया, मैं भी स्त्री हूँ।" फिर राजकुमार का हाथ छोड़ दिया । राजकुमार को कनक के कर्कश स्वर से सख्त चोट लगी। चोट खाने की आदत थी नहीं। ऑखें चमक उठी. हृदय-दर्शी की तरह मन ने कहा-'इसने ठीक उत्तर दिया, बदले की बात तुम्हीं ने तो उठाई।" राजकुमार के अंग शिथिल पड़ गए। ___कनक को अपने उत्तजित उत्तर के लिये कष्ट हुआ। फिर हाथ पकड़ स्नेह के कोमल स्वर से-"बदला क्या ? क्या मेरी रक्षा किमी आकांक्षा के विचार से तुमने की थी ?" __ "तुमने !” राजकुमार का संपूर्ण तेज पिघलकर "तुमने" में बह गया, हाथ आप-ही-आप उठकर कनक के गले पर रख गया। विवश कंठ ने आप-ही-श्राप कहा-"क्षमा करो, मैंने गलती की।" । ___सामने से बिजली की रोशनी और पत्तों के बीच से हँसती हुई आकाश के चंद्र की ज्योत्स्ना दोना के मुख पर पड़ रही थी। पत्रों के ममर से मुखर.बहती हुई अदृश्य हवा, डालियों, पुष्प-पल्लवों और दोनों के बँधे हुए हृदयों को सुख की लालसा से स्नेह के झूले में हिला- कर चली गई। दोनो कुछ देर चुपचाप बैठे रहे। दोनो स्नेह-दीप के प्रकाश में एकांत हृदय के कक्ष में परिचित हो गएकनक पति की पावन मूर्ति देख रही थी, और राजकुमार प्रेमिका की सरस, लावण्यमयी, अपराजित आँखें, संसार के प्रलय से बचने के लिये उसके हृदय में लिपटी हुई एक कृशांगी सुंदरी। "एक बात पूछू?" कनक ने राजकुमार के कंधे पर ठोढ़ी रक्खे हुए यूछा। "तुम मुझे क्या समझते हो?" [ ६३ ]"मेरे सुबह की पलकों पर ऊषा की किरण।" राजकुमार कहता गया- "मेरे साहित्यिक जीवन-संग्राम की विजय । कनक के सूखे कंठ की तृष्णा को केवल तृप्त हो रहने का अल था; पूरी तृप्ति का भरा हुआ तड़ाग अभी दूर था। राजकुमार कहता गया- "मेरी आँखों की ज्योति, कंठ की वाणी, शरीर की आत्मा, कार्य की सिद्धि, कल्पना की तस्वीर, रूप की रेखा, डाल की कली, गले की माला, स्नेह की परी, जल की तरंग, रात की चाँदनी, दिन की छाह......." ___ "बस बस, इतनी कविता एक ही साथ, जब मैं याद भी कर सकें। पर कवि लोग, सुनती हूँ, दो ही चार दिन में अपनी ही लिखी हुई पंक्तियाँ भूल जाते हैं।" ____ "पर कविता तो नहीं भूलते।" 'फिर काव्य की प्रतिमा दूसरे ही रूप में उनके सामने खड़ी होती है। ___ "वह एक ही सरस्वती में सब मूर्तियों का समावेश देख लेते हैं।” ___ "और यदि मानसिक विद्रोह के कारण सरस्वती के अस्तित्व पर भी संदेह ने सिर उठाया ?" ____तो पक्की लिखा-पढ़ी मी बेकार है। कारण, किसी भी अदालत का अस्तित्व मानने पर ही टिका रहता है।" जवाब पा कनक चुप हो गई। एक घंटा रात हो चुकी थी। उसे अपनी प्रतिज्ञा याद आई। कहा-"आज, मैंने कहा था, तुम्हें खुद पकाकर खिलाऊँगी। अब चलना चाहिए। राजकुमार उठकर खड़ा हो गया। कमक मी खड़ी हो गई। राज- कुमार का बाँया हाथ अपने दाहने हाथ में लपेट, चाँदनी में चमकती, लावण्य की नई लता-सी हिलती-डोलती सड़क की तरफ चली। "मैं अब भी तुम्हें नहीं समझ सका, कनक !" "मैं कोई गूढ समस्या बिलकुल नहीं हूँ। तुम मुमी से मुझे समझ [ ६४ ]अप्सरा सकते हो, उसी तरह जेसे अपने को आईने से, और तुम्हारे-जैसे आदमी के लिये, जिसने मेरे जीवन के कुछ अंक पड़े हों, मुझे न समझ सकना मेरे लिये भी वैसे ही रहस्य की सृष्टि करता है। और, यह जानकर तुम्हें कुछ लज्जा होगी कि तुम मुझे नहीं समझ सके, पर अब मेरे लिये तुम्हें समझने की कोई दुरूहता नहीं रही।" "तुमने मुझे क्या समझा ?" “यह मैं नहीं बतलाना चाहती । तुम्हें मैने...नः, नहीं बतलाऊँगी।” "क्यों नहीं क्यों नहीं बदलाइएगा, मैं भी सुनकर ही छोड़गा।" राजकुमार, कनक को पकड़कर, फव्वारे के पास खड़ा हो गया। उस समय वहाँ दूसरा और कोई न था। "चलो भी सच, बड़ी देर हो रही है मुझे अभी बड़ा काम है।" "नहीं, अब बतलाना होगा।" "क्या ?" "यही, आप मुझे क्या समझी।" "क्या समझी!" "हाँ, क्या समर्मी ?" "लो, कुछ नहीं समझे, यही समझे।" "अच्छा, अब शायरी होगी।" "तभी तो आपके सब रूपों में कविता बनकर रहा जायगा । नहीं, अब ठहरना ठीक नहीं। चलो। अच्छा-अच्छा, नाराजगी, मैंने तुम्हें दुष्यंत समझा । बात, कहो, अब भी नहीं साफ हुई ?" ___कहाँ हुई ?" ___ "और समझना मेरी शक्ति से बाहर है। समय आया, तो समझा दिया जायगा।" __राजकुमार मन-ही-मन सोचता रहा-“दुष्यंत का पार्ट जो मैने किया था, इसने उसका मजाक वो नहीं उड़ाया, पार्ट कहीं-कहीं बिगड़ गया था। और ? और क्या बात होगी ?" राजकुमार जितना है बुनता, कल्पना का जाल उतन्य ही जटिल होता जा रहा था। ढोने.