अहिल्याबाई होलकर/चौदहवाँ अध्याय
चौदहवाँ अध्याय ।
आख्यायिका अर्थात लोकमत ।
नाना प्रकार के वस्त्र आभूषणों से जैसे शरीर का श्रृंगार किया जाता है वैसे ही विवेक, विचार तथा राजनीति से अंतःकरण को भूषित करना चाहिए। शरीर चाहे जैसा सुंदर हो, सतेज और वस्त्राभूषण से सजा हो, परंतु यदि अंत:करण में चातुर्य नहीं है तो वह कदापि शोभा नहीं पा सकता। सर्वदा एक ही प्रकार का अवसर नहीं आता, और न नेम भी सहसा काम देता है। अत्यंत नेम रखनेवाले को राजनैतिक दाँव पेचों में धोखा हो जाता है। “अति सर्वत्र वर्जयेत" इस कारण विचार पूर्वक काम करना चाहिए। विवेकी पुरुष को दुराग्रह में न पड़ना चाहिए। ईश्वर सर्व कर्ता है। उसने जिसे अपना लिया है, उस पुरुष का विचार विरला ही जान सकता है। न्याय, नीति, विवेक, विचार, नाना प्रकार के प्रसंग और दूसरे का मन परखना ईश्वर की देन है। महा यत्न, सावधानी, समय आ पड़ने पर धैर्य, अद्भुत कार्य करना, ईश्वर की देन है। यश, कीर्ति, प्रताप, महिमा, असीम उत्तम गुण और अनुयमता और देव ब्राह्मण पर श्रद्धा रखना, आचार विचार से चलना, अनेकों को आश्रय देना, सदा परोपकार करना ये सब परमात्मा की देन हैं। यह लोक परलोक सम्हालना, अखंड सावधान रहना, परमात्मा का पक्ष ग्रहण करना, ब्राह्मण की
चिंता रखना, अनाथों को पालना और उत्तम गुणग्राहकता, तीक्ष्ण तर्क, विवेक, धर्मवासना आदि का होना परमात्मा की असीम कृपा बिना दुर्लभ है।
(१) “मल्हारराव की पुत्रवधू अहिल्याबाई" ने जो अपनी तारुण्यावस्था ही में विधवा हो चुकी थी इसवी सन् १७६८ से सन् १७९८ तक अर्थात २८ वर्ष पर्यंत एकछत्र राज्य किया था। बाई के न्याय करने और प्रजा को सुख देने की ऐसी विलक्षण शैली थी कि यद्यपि भील लोग न तो इनके स्वजातीय थे और न इनके संबंधी थे परंतु वे भी इनके सतगुणों का ज्ञान और पवित्र नाम का उच्चारण आज दिन भी गान रूप से करते हैं। जब से वे राज्यासन पर बैठीं तब से उन्होंने अपने अंत समय तक धर्मराज्य के समान राज्य किया था। उनके धर्म की इतनी प्रबल कीर्ति सारे भारत में फैली हुई है, कि समस्त भारतवासी और दूसरे देशवासी एक स्वर हो उनके उत्तम उत्तम गुणों का बखान कर तल्लीन होते हैं। ऐसी कोई भी दिशा नहीं है जहाँ बाई के पवित्र नाम की ध्वनि न गूँजती हो। सनातन धर्म की डगमगाती हुई दशा को अहिल्याबाई ने ही धर्म रूपी जल से सींच कर हरा भरा बनाया था। उनकी जितनी कीर्ति कही जाय थोड़ी है।
(२) अनंतफंदी और अहिल्याबाई– अनंतफंदी धोलप नाम का एक यजुर्वेदी ब्राह्मण संगमनेर में रहता था। इसके पूर्वजों का धंधा गोपालन था। परंतु अनंतफंदी गौ पालने के अतिरिक्त दुकानदारी भी करता था। और इसको लावनी बनाकर दूसरों को सुनाने और खेल-तमाशे की
ऐसी विलक्षण रुचि थी कि लावनियों को सुनकर और इसके तमाशे को देखकर लोग इसकी अधिक सराहना और आदर किया करते थे। इसने अहिल्याबाई के न्यायशीला और धर्म पर आरूढ़ रहने की कीर्ति सुन यह विचार किया कि एक समय चलकर अपने खेल तमाशे के बहाने से बाई के दर्शन कर आवें और यदि बाई तमाशे को देख प्रसन्न हो गई तो बहुत कुछ द्रव्य भी हाथ आवेगा। कुछ समय व्यतीत होने के उपरांत अनंतफंदी अपने साथियों को ले महेश्वर के लिये चल पड़ा। परंतु जब यह मंडली सतपुड़ा पहाड़ के पास से होकर निकल रही थी कि अचानक इनको भीलों ने आ घेरा और इनके कपड़े-लत्ते तथा तमाशे की वस्तुएँ छीन ली। इतना ही नहीं परंतु फंदी को बाँधकर वे ले जाने लगे। जब फंदी और इनके साथी लोग घिरे हुएँ एक स्थान पर भीलों के नायक के पास लाकर उपस्थित किए गए तब तुरंत फंदी ने एक लावनी छेड़ दी जिसके सुनने से नायक बहुत प्रसन्न हुआ और इनको मुक्त कर उसने लावनी कहने का आग्रह किया। फंदी ने कई लावनियों के कहने के अतिरिक्त अपना खेल भी नायक को दिखाया जिससे नायक ने इनपर अत्यंत प्रसन्न हो फंदी को एक पोशाक और कुछ द्रव्य देकर उसका बड़ा सत्कार किया। जब नायक को यह विदित हुआ कि ये लोग अहिल्याबाई के ही दरबार में जा रहे हैं तब इन सब से उसने विनयपूर्वक अपने अपराध की क्षमा माँगी और इनके साथ में चार पाँच भील देकर महेश्वर तक पहुँचा देने को कहा।
अहिल्याबाई के सद्गुणों और प्रेमपूर्ण वर्ताव को सुनकर दूर दूर से व्यापारी लोग, नाट्यकला के लोग और कई एक हुनर वाले आते थे और अपनी अपनी वस्तु, तथा हुनर दिखला दिखला कर और भाग्यानुसार यथोचित द्रव्य पाकर लौटते थे । पर बाई का यह नियम था कि जो कोई बाहर से आवे उसको भोजन और जाते समय उसकी योग्यतानुसार पुरस्कार उसको दिया जाय । कोई उनकी राजधानी में आया हुआ पथिक विमुख न जाने पाता था । यद्यपि बाई बहुतों को स्वयं अपने हाथ से द्रव्य देती थीं, तथापि कई एक ऐसे भी थे जिनको बाई के दर्शन भी नहीं होने पाते थे । परंतु आया हुआ विमुख न जाने पाता था।
इसी प्रकार जब फंदी अपने साथियों के साथ वहाँ पहुँचा तब कुछ दिनों के ठहरने के उपरांत इसके खेल दिखाने की भी बारी आई । उस दिन भाग्यवशात् बाई स्वयं इसका तमाशा देखने और लावनियाँ सुनने को उपस्थित थीं । जब फंदी अपना खेल दिखा चुका और कई एक उत्तम उत्तम और अनोखी अनोखी लावनियाँ सुना चुका जिनको बाई ने बड़े ध्यानपूर्वक देखा और सुना तब फंदी को बाई ने अपने समक्ष उपस्थित होने की आज्ञा दी । सब ब्योरा सुनकर इनको बाई ने यह उपदेश दिया कि "तुम ब्राह्मण और कवि होकर अपना जीवन और कवित्व इस प्रकार क्यों नष्ट कर रहे हो । इसकी अपेक्षा यदि तुम स्वार्थ और परमार्थ दोनों बनाओ तो तुम्हारा तथा दूसरे लोगों का बड़ा हित हो ।" और उसको उसकी योग्यता के अनुसार द्रव्य दे विदा किया। फंदी के मन पर बाई के दिए हुए उपदेश की तत्काल
ही उत्तम परिणाम हुआ । उसी दिन से उसने अपना डफला (एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा हुआ रहता है) फोड़ इस तमाशे को तिलांजलि दे दी और वह अपने ग्राम को लौट गया।
संगमनेर ग्राम जिसमें फंदी रहता था वहां पर स्वामी फदी नाम से एक प्रख्यात स्थान था । इस स्थान पर फदी (स्वामी) के स्मरणार्थ वार्षिक उत्सव इस ग्रामवाले बड़े प्रेम और श्रद्धा के साथ मनाया करते थे जिसमें दूर दूर के ग्रामीण आ कर अपना गाना बजाना और क्रीड़ा किया करते थे। इसी प्रकार इस उत्सव का दिवस फिर प्राप्त हुआ । परंतु इस वर्ष फदी न अपनी लावनी और खेल करने का विचार ही त्याग दिया था जिससे ग्रामीण और दूसरे प्रमुख प्रमुख लोगों ने इससे इतना आग्रह और विनय किया कि बेचारा फंदी हाँ के अतिरिक्त और कुछ न कह सका। जब सब लोगों को विदित हो गया कि फंदी आज अपना खेल दिखावेगा और लावनी सुनावेगा तो आदमियों की भीड़ पर भीड़ होने लगी । फंदी ने भी स्वामी जी के स्मरणार्थ इसी दिन के लिये अपना खेल करना तथा लावनी सुनाना निश्चय कर अपना काम प्रारंभ किया। खेल के बीच बीच में इसकी लावनी होती थी जिसके कारण अधिक लोगों का जमाव होते हुए भी शांति रहती थी और लोग इसके नृत्य और कवित्व से मुग्ध हो हो कर प्रेममय हो रहे थे । अकस्मात् उसी दिन अहिल्याबाई की सवारी पूना जाने को उसी
मार्ग से निकली और जब बाई ने रास्ते पर मनुष्यों की अधिक भीड़ देखी तो प्रश्न किया कि यह जमाव किस कारण से हो रहा है । उत्तर में मालूम हुआ कि अनंतफंदी अपना खेल कर रहा है । अनंतफंदी के नाम के श्रवणमात्र से बाई को ऊपर कहा हुआ उपदेश स्मरण हो आया । वे विचार करने लगीं कि इसने अपनी वृत्ति उसी प्रकार धारण कर रखी है । इसको फिर शिक्षा देनी चाहिए । यह सोच बाई भी उसी स्थान पर पालकी में पहुँच गईं जहाँ पर खेल हो रहा था । अहिल्याबाई यहाँ आ रही हैं, जब यह बात वहाँ के प्रमुख प्रमुख मनुष्यों को और अनंतफंदी को ज्ञात हुई तब उसने अपने साथी खेलवालों का अलग वैठा कर वह आप बड़े प्रसन्न चित्त से इस पद को गा कर नृत्य करने लगे।
मुख मुरली मनमोहन मूरत, देखत नैन सिरावत हैं ।
ग्वाल बाल संग वृंदावन ते, वेणु बजावत आवत हैं ॥
नटवर भेष अलौकिक शोभा, कोटिन मदन लजावत हैं ।
निरखि निरखि बलवंत श्याम छवि, रैन दिना सुख पावत हैं ॥
अनंतफंदी बड़े प्रेम के साथ कीर्तन गा रहा है, और सारा समाज बड़े शांत भाव से कभी बाई की पालकी का और कभी फंदी के नृत्य का अवलोकन कर रहा है--यह दृश्य देख सुन कर बाई का हृदय प्रेम से गदगद हो गया । फंदी के लिये यह कीर्तन का पहला ही समय था । परंतु ईश्वर की इच्छा से उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो स्वयं आनंद ही देह धारण करके उपस्थित हो गया हो । जब कीर्तन समाप्त
हुआ तब बाई ने फंदी को अपने समक्ष बुलवाया, और बड़े प्रेम भरे मधुर शब्दों से भाषण कर अपने हाथ में का सुवर्ण का कंकण पारितोषक में दिया । अनंतर बार बार फंदी की सराहना करके बाई ने अपनी सवारी आगे बढ़ाई ।
तात्पर्य यह है कि अहिल्याबाई स्वयं भक्तिमार्ग पर चलती थीं, और औरों को भी इसी प्रकार का उपदेश देती थीं । बाई भक्ति ही को सदा सुख मानती थीं ।
तजि मदमोह कपट छल नाना, करौं सखा तेहि साधु समाना ।
(३) एक समय एक विद्वान् ब्राह्मण ने अहिल्याबाई के सत्य सत्य उत्तम उत्तम गुणों की और धर्मयुक्त न्याय करने की प्रशंसा करते हुए एक ग्रंथ लिख कर बाई को भेंट किया, जिसको उन्होंने सुना और अंत में उस ब्राह्मण को अपने पास बुला कर कहा कि "तुमने मुझ सरीखी दीन पामर की व्यर्थ स्तुति क्यों की, मैं बड़ी पापिनी हूँ मैं इस योग्य नहीं हूँ कि मेरी इस प्रकार स्तुति की जाय । इसकी अपेक्षा यदि तुम अपना अमूल्य समय परमात्मा की स्तुति में लगाते हो वह समय अवश्य सार्थक होता और उसका पुण्य भी तुमको अवश्य होता ।
कोई कोई यह भी कहते हैं कि उस पुस्तक को बाई ने नर्मदा जी में डुबवा दिया था। परंतु बाई को आत्मस्तुति से बहुत घृणा थी, वे अपनी स्वयं प्रशंसा नहीं चाहती थीं । बुद्धिमानों का यही लक्षण है । क्या कभी सांच को आंच आ सकती है; यदि हम आज कल के बहुत से मनुष्यों की ओर ध्यान न देते हैं तो छल, कपट, असत्य और द्वेषभाव करके
चार दिन के लिये अपना गौरव बढ़ाने में व्यग्र रहते हैं, और बिचारे भोले भाले मनुष्यों पर छल, कपट करके अपना स्वार्थ साधते हैं । दूसरों का द्रव्य हरण करना अथवा दूसरों की मानहानि करके स्वयं अधिकारी बननाही ये अपना उत्तम कर्म और गौरव समझते हैं । उनके आचार, विचार और व्यवहार से सदा लोगों को कष्ट होता रहता है । परंतु दुःख की बात है कि वे अपना अंतिम परिणाम भूले हुए हैं, बहुधा देखा गया है कि आज कल के रक्षक ही भक्षक होते हैं ।
(४) इंदौर और महेश्वर के मध्य में एक प्रसिद्ध प्राचीन जामघाट नाम का स्थान है । यहाँ पर एक दरवाजा है जो लगभग २५ गज लंबा २० गज चौड़ा और ४०-५० फुट ऊँचा है । इस दरवाजे के दोनों ओर बड़े बड़े भव्य दो खंभे हैं ! दूसरे मंजिल पर छज्जे हैं और दक्षिण की तरफ दीवाल में तीन खिड़कियाँ हैं । दरवाजे की छत पर शामयाने लगाने के गट्टे आज दिन भी जैसे के तैसे ही हैं । उस छत पर से अत्यंत प्रेक्षणीय दृश्य दृष्टिगोचर होता है ।
लगभग २००० फुट नीचे की ओर जौर दरवाजे से लगभग १८ मील के अंतर पर जगतप्रख्यात नर्मदा जी बहती हैं। यहाँ से सतपुड़ा और विंध्याचल पर्वतों की विशाल छवि, तथा सघन अरण्य ऐसा प्रतीत होता है, मानो सृष्टि ने महात्माओं के हितार्थ अपनी ओजस्विनी और सुंदर छवि धारण की हो। यह स्थान दर्शन करने के योग्य है । इस दरवाजे पर जो सामने पत्थर पर लेख लिखा हुआ है, वह इस प्रकार है--
"श्रीगणेशायनमः स्वस्ति श्री विक्रमार्कस्य सम्वत १८४७ सत्पाब्धि' नागभूशके १७१२ युग्म कुसत्पैकपिते द्रुमति वत्सरे माघे शुक्रत्रयोदश्यां पुष्याकें बुधवासरे स्नुपा मेल्हारि रावस्य खंडेरावस्य वल्लभा शिवपूजापरनित्यं ब्राह्मणधर्मतत्परा अहल्याख्या यबेद्येदं मार्गद्वारं सुशोभनम्.”
भावार्थ--श्रीगणेशायनमः स्वस्तिश्रीविक्रमार्क संवत् १८४७ शके १७१२ द्रुमति नाम संवत्सरे माघ शुकुत्रयोदशी पुष्य के सूर्य बुधवार के दिन मल्हारराव की पुत्रवधू खंडेराव भी धर्मपत्नी नित्य शिवपूजापरायणा ब्राह्मण-धर्मतत्परा अहिल्या ने यह सुन्दर मार्गद्वार बंधाया ।
इस दरवाजे के संबंध में एक दंतकथा भी इस प्रकार है कि गणपतराव नाम के एक गृहस्थ ने इस मार्ग से जाने आने वाले बैल, गाड़ी घोड़ा आदि पर कर लगा कर अपना निर्वाह प्रारभ किया था । परंतु जब बाई को ये समाचार मालूम हुए तब उन्होंने इसी इकत्रित धन से यह दरवाजा बँधवा दिया था ।
(५) अहिल्याबाई जिस समय राजसिंहासन की शोभा बढ़ा रही थीं उस समय इंदौर में एक धनवान तथा निपुत्र साहूकार का देवलोक हो गया । कुछ समय के पश्चात् उसकी विधवा स्त्री ने एक अर्जी अहिल्याबाई के दरबार में दत्तक पुत्र लेने के आशय से भेजी । उसमें विधवा ने स्पष्ट रूप से लिख दिया था कि मेरे पास अधिक संपति होते हुए भी वारिस कोई नहीं है। यदि मुझे आज्ञा हो जाये तो स्वजाति के एक पुत्र को गोद ले लूं और उसको संपति का अधिकारी बनाऊं। इस
अर्जी पर राजकर्मचारियों की यह सम्मति हुई कि विधवा से दत्तक पुत्र लेने के लिये नजराना लेकर उसको पुत्र लेने की आज्ञा दी जाय, परंतु जब यह अर्जी बाई के समक्ष उपस्थित हुई तब बाई ने कहा कि पुत्र लेने की परवानगी देना मैं भी उचित समझती हूं । परंतु नजराना किस कारण से लिया जाय यह मेरी समझ में नहीं आया, उसके पति ने मेहनत करके और नाना प्रकार के कष्ट सहन कर द्रव्य संचित किया है, उस द्रव्य पर दूसरे का क्या अधिकार है । इसके अतिरिक्त यदि विधवा के पति ने इस धन को अनीति तथा असत्य व्यवहार से एकत्रित किया हो तो वह द्रव्य दूसरे के सर्वनाश का भूल होगा, इस कारण नज़राना लेने की कोई आवश्यकता नहीं है । विधवा को शास्त्र में दत्तक पुत्र लेने का पूर्ण अधिकार है । इतना कह उन्होंने उस विधवा की अर्जी पर आज्ञा लिख दी कि तुम अपने इच्छानुसार दत्तक पुत्र लेलो, इस बात से हम को अत्यंत हर्ष है । पहले से जिस प्रकार तुम्हारी लौकिक रीति चली आ रही है । उसी को सम्हाल कर अपना कार्य करो, इससे सरकार को भी सतोष होगा ।
बाई को अपनी प्रजा पर प्रेम करने तथा उनकी राज्यकार्य करने की प्रणाली और अपना अधिकार स्थापित रखने की कितनी योग्यता थी सुयोग्य जन भली प्रकार जान सकते हैं ।
(६) सीरोज में एक धनाढ्य साहूकार खेमदास नामक रहता था । उसके निपुत्र होने के कारण चिंता करते करते उसका स्वर्गवास हो गया । उसकी विधवा को छोड़ उसके कुल में उस
की संपत्ति का कोई अधिकारी न था। यह जान सीरोज के अधिकारी ने उस विधवा से कहला भेजा कि तेरा संपूर्ण धन सरकार में जब्त कर लिया जायगा क्योंकि इसका अधिकारी एक स्त्री के अतिरिक्त कोई नहीं है, इस कारण यदि तू मुझको तीन लाख रूपया दे देगी तो सारी संपत्ति का अधिकार तेरे ही नाम पर मैं कर दूंगा। खेमदास की स्त्री जिसकी अवस्था छोटी थी, और जो राजदरबार के नाम से डरती थी अपने धन में से तीन लाख रुपया अधिकारी को उसकी धमकी में आकर देने को उद्यत हुई । यह जान उसकी जाति के एक शुभचिंतक ने यह सारा वृत्तांत अहिल्याबाई के पास जाकर सुनाने की अनुमति दी आर किसी को गोद लेकर धन का अधिकारी बनाने को भी कहा । अधिकारी जो धन मांगता है वह बहुत है इसलिये पहले उसको विधवा ने कुछ द्रव्य देकर शांत करना चाहा परंतु सब निष्फल हुआ। यह देख अंत को उस विधवा ने अपनी बहन के लड़के को साथ लेकर अहिल्याबाई से यह सारा हाल जाकर सुनाने का और उस लड़के को गोद लेने की प्रार्थना करने का निश्चय किया । जब अहिल्याबाई को यह सारा हाल उसने रो सुनाया तब बाई ने तत्काल उस अधिकारी को पदच्युत कर इस लड़के का दत्तक होना मंजूर कर लिया । इतनाही नहीं परंतु बाई ने उस लड़के को अपने पैर पर बैठाल कर उसको वस्त्र और पालकी दी ।
जब यह हाल लोगों को मालूम हुआ तब सारी प्रजा बाई को मुक्त कंठ से धन्यवाद देने लगी और यही कारण है कि
आज दिन भी मालवे के निवासी बाई के नाम मात्र के श्रवण से ही आनंदित हो जाते हैं ।
(७) अमेरिका निवासिनी एक महिला मिस जान वेली ने मुक्ताबाई के सती होने का हाल काव्य में इस प्रकार उत्तम रीति से और सुंदरता से लिया है कि उसके पढ़ने से वे संपूर्ण दृश्य आँखों के सामने देख पड़ने लगते हैं जो उस समय हुए होंगे । उसको हमने भी अपने सुहृदय पाठकों के लिये यहाँ छाया रूप अनुवाद में लिखा है ।
जिस समय अहिल्याबाई ने अपनी पुत्री मुक्ताबाई को उस के प्राणपति के साथ सती होने से रोका था उस समय मुक्ताबाई ने अपने भग्न हृदय से करुणा भरे हुए शब्दों में कहा--ऐ मेरी माता ! तुम मुझे इस प्रकार से दुःखी मत कर, मेरा सर्वस्व छिन गया, अब मेरे लिये यह शरीर त्यागना ही श्रेयस्कर हैं । क्या मेरे कुलीन स्वामी अकेले चिता में भस्म कर दिए जायेंगे, और मैं जो कि उनकी एकमात्र प्रेमपात्री और अर्धांगिनी थी, और जिसको वे अपने भवन में देख सर्वदा प्रसन्न चित्त रहते थे और लाड़चाव से मेरा पालन पोषण करते थे, उनकी भाग्यहीना पत्नी हो कर उनके अंतिम प्रेम को क्या आज इस प्रकार नीचता से कुचलूंगी; हे ब्रह्म परमेश्वर सर्वव्यापी तुम मुझ अबला को इस प्रकार की अल्पबुद्धि न दो । ओ मेरे सत और प्रेम मुझे अपने प्राणपति के साथ जाने से विचलित न करो ।
तब अहिल्याबाई ने कहा--प्यारी मुक्ता ! जिस समय मैंने निराश्रित और उदास हो तेरे कुलीन पिता की मृत्यु के पश्चात
अपने जीवन को संकट में चलाने का प्रयन्न किया था उस समय क्या मैंने ब्रह्म की इच्छा को धार्मिक पन से पूर्ण नहीं किया था और क्या उसका हार्दिक आशीर्वाद मेरे समान उस स्त्री को जो अपने स्वामी के साथ सती होने से वंचित रही न मिला होगा ? जिस समय मेरे राज्य में मेरी संपूर्ण दुखी प्रजा मेरे संतान के समान थी उस समय सब बातें स्पष्ट रीति से और सुंदरता से मेरे जीवित रहने के लिये उसकी आज्ञा प्रगट करती थी । हां ! यद्यपि मैं एक विधवा अभागिनी थी तथापि मेरा कोमल हृदय अपने अन्य कर्तव्यों से पराडमुख नहीं होने पाया था । तू उस समय मेरी नितांत एक छोटी लता के समान बालिका थी और तेरा प्रेम मुझ पर उस समय कुछ न था किंतु तिस पर भी मम्र मग्न हृदय में तेरा जो कि मेरी प्यारी और अत्यंत सुंदरपुत्री थी, विचार था, सो आज क्या तु मुझे उदास और अकेली छोड़ जावेगी; जब तू सती होकर चली जावेगी तो मैं किस प्रकार जीवित रह सकूंगी, मैं किसको इतने लाड़ चाव से प्रेम करूंगी और किसपर अपना विश्वास रखूंगी । ओ मेरी प्यारी पुत्री तू मुझे इस वृद्धावस्था में दुःखी करके धूल में न मिला जा ।
तब पुत्री मुक्ता ने कहा-अरे माँ यही तेरी रक्षा से रक्षित तेरी संतान तो प्रत्येक स्थान पर उपस्थित है, उन पर प्रतिदिन जो परोपकार तुम करती हो उसके प्रति सर्व शक्तिमान परमेश्वर तुम पर नित्यप्रति अखण्ड शांति प्रदान करता ही है, तुम्हारी वृद्धावस्था होने के कारण तुम्हारे जीवन का आधार मुझे बहुत काल तक नहीं हो सकता, इस कारण मेरी भविष्य
में क्या दशा होगी ? मेरे मृत पति मुझको पुनः प्राप्त तो नहीं हो सकते। यदि मैं जीवित रही तो मुझे अकेले इन विशाल भवनों में भूत के समान निवास करना पड़ेगा क्योंकि मेरे अंतःकरण का निवास तो मेरे मृत पति के साथ ही रहेगा। इम कारण मेरी प्यारी और श्रेष्ठ माता मेरी विपत्ति पर पूर्ण विचार करो और मेरे दुःखों का आदरपूर्वक अंत होने दो।
यह सुन अहिल्याबाई ने अपने निस्वार्थ प्रेम के वेग से पुत्री को सती जाने से रोकने के लिये तीक्ष्ण शब्दों में कहा कि जो अच्छी और सदाचारी स्त्रियाँ होती हैं उनकी जब मृत्यु होती है तब इनका प्रतिष्ठित अंत उसी समय हो जाता है, चिता की अग्नि में प्राण देने से केवल निरर्थक लोक व्यवहारिक प्रसिद्धि के और कुछ प्राप्त नहीं होता।
यह सुन मुक्ताबाई ने कहा- माता मैं प्रसिद्ध होना नहीं चाहती। तुम ऐसे कठोर शब्दों का उपयोग कर मेरे कष्टों को जो पहले ही से असहनीय हो रहे हैं मानसिक वेदना न पहुँचाओं, जीवित रहना तो मेरे लिये मृत्यु और उससे भी अत्यंत दुखदाई होगा। मेरे पश्चात्ताप की भीतरी वेदना मेरे जीवन को अंधकार में परिणत करेगी। और मुझे रात्रि में अत्यंत भयंकर स्वप्नों की वेदना होगी। क्योंकि मेरे स्वप्न में मेरे पति सर्वदा मेरे पास ही निवास करते हुए दृष्टिगत होंगे और उस समय उनकी धिक्कारने वाली दृष्टि मुझे इस विशेष कारण से भयभीत प्रतीत होगी कि उन पर मेरा प्रेम, एक क्षण भर के नीच दुःखों से अचल न रह सका, किंतु मैंने उनके अंतिम प्रेम से और अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ उनकी
चिता को अकेली छोड़ कर निरादरपूर्वक भस्म होने दिया ।
पश्चात् अहिल्याबाई ने पुत्री को अधिक समझा कर सती होने के दृढ संकल्प को विचलित करना असंभव जान कर कुछ उत्तर नहीं दिया, वरन अपनी प्रेमभरी दृष्टि को अपनी पुत्री पर कुछ समय तक स्थिर रक्खा जो कि बाई के प्रेम भरे हुए अंतःकरण के भावों को पूर्ण रूप से दरसाती थी, जिसको शब्दों में बतलाना अत्यत कठिन और अशक्य था । वरताव में भी बाई ने अपनी पुत्री को अत्यंत विनीत तथा दया भाव से मनाया परंतु अंत को सब निष्फल हुआ और पुत्री के संतप्त हृदय और प्रेममय दृढ़ प्रतिज्ञा को विचलित न होते हुए देख बाई अपनी पुत्री को उस संकट में छोड़ कर उस भयानक प्रासाद के कमरे से अपने निज भवन में पधारी और वहां पर बाई की दुःखित आत्मा और मम्र हृदय ने पश्चात्ताप करते हुए परमात्मा से अत्यंत दीन हो प्रार्थना की और पश्चात् मगीपवर्ती हृदयविदारक दुःख को अवलोकन तथा सहने करने को वे उद्यत हो गई । उस समय बाई की प्रार्थना सुन ली गई और दयालु परमेश्वर ने समीपवर्ती दुःख को सहन करने की शक्ति बाई को प्रदान की ।
मुक्ताबाई का अपने प्राणपति के साथ सत्यलोक में जाने का समय आ उपस्थित हुआ और प्रसाद के राजमार्ग से दुःखित दशा में एक भव्य दृश्य निकलना आरंभ हो गया ।
पहले पहल ऊँचे ऊँचे विशाल झंडे पवन में लहराते हुए जिन पर नाना प्रकार के और भिन्न भिन्न रंगों के चिन्ह थे दृष्टिगत हुए । तदुपरांत दिव्य ब्राह्मणगण ढ़ीले ढ़ीले चोगे
पहने हुए और पृथ्वी की ओर उदास चित्त से देखते हुए निकले । इनके पीछे पीछे पगड़ी पहने हुए, अस्त्र शस्त्र से तथा पोशाक से सुसज्जित कमर में शालजोड़ियों की कमर पेटी बाँधे हुए और हाथ में चमचमाती तलवारें लिए हुए उदास सरदारगण दिखाई दिए । पश्चात् पदाधिकारी वर्ग, और अन्य राज्यों के प्रतिनिधि लोग तथा कारकून वर्ग के लोग अनेक कतारों में उदास चित्त से मार्ग पर धीरे धीरे धीमी चाल से चलते हुए और दुखित दशा में पृथ्वी की ओर देखते हुए देख पड़े । इस समय पृथ्वी से भी इनके चलने के कारण एक प्रकार की उदास ध्वनि निकलती थी ।
पश्चात् महलों के द्वार से एक भव्य अर्थी मित्रों से और कौटुंबिक जनों से चहुँ ओर घिरी हुई, जिस पर यशवत राव का मृत देह मूल्यवान और चमकीले वस्त्रों से ढँका हुआ था, देख पड़ी । मृत यशवंत राव के अवयवों में उस समय भी कटे हुए पत्थर के समान आदरणीय सौंदर्य भरा हुआ था, उस समय दर्शकों ने अपनी अपनी दृष्टि उस ओर जमाई और वे नाना प्रकार से अनेक शब्द उसकी प्रशंसा में एक दूसरे से बहुत समय तक गुनगुनाने लगे । तदुपरांत अर्थी के पीछे वरुण विधवा को अवलोकन करतें ही संपूर्ण जनसमूह ने अपनी अपनी दृष्टि पृथ्वी की और नाची कर ली । विधवा की मैं और चाल से वह पूर्णरूप से दुःखसागर में डूबी हुई जान पड़ती थी ।
पश्चात् हृष्ट पुष्ट पुरोहितों और ब्राह्मणों के मध्य चलती हुई अपनी देवतुल्य रानी को अब संपूर्ण दर्शकों ने अवलोकन
किया तब संपूर्ण उत्सुक दृष्टियाँ उनकी ओर एकाएक झुक गई
और प्रत्येक मनुष्य के हृदय में बाई के निमित्त करुणा का दीपक जलने लगा । दर्शकों के अंत:करण का भीतरी दुःख किसी प्रकार न रुका और चहुँ ओर से ऊँची और मिली हुई करुणा भरी ध्वनि निकलने लगी और जैसे जैसे लंब्रा दृश्य स्मशान की ओर बढ़ता जाता था वैसे वैसे अनेक वाद्यों की विचित्र दुःस उत्पन्न करनेवाली ध्वनि आकश में गूंजती हुई सुनाई देने लगी ।
अंत को जब यह दृश्य उस अंतिम स्थान (स्मशानभूमि) पर पहुंच गया तब इस कोमल हलचल में एक प्रकार की गहरी और गंभीर शांति छा गई जो कि एक चमत्कारिक और अनोखे भय से मिली हुई थी ।
किन शब्दों में बाई के अपनी पुत्री से अंतिम मिलाप का हृदयविदारक दुःख वर्णन किया जाय जब वह युवा विधवा अपनी माता से हृदय को हृदय लगा कर मिली और उसने अपनी अंतिम विदा मांग !
उपरांत विधवा अपने मृत पति की देह को हृदय से लगा अपनी गोद में भयभीत और कांपते हुए हाथो से, कि कहीं जीवन के आधार प्राणपति का मृत शरीर हाथ से न छूट पड़े, रख चिता पर विराजमान हुई, पश्चात् चिता के उस ऊँचे ढेर को जो कि संपूर्ण सुवासित सामग्रियों से रची गई थी जलती हुई आँच लगा दी गई ।
इस समय लकड़ियों के ढे़र से पीले टेढ़े मेढे धुएँ के बादल नींद से जागे हुए सर्पा के तुल्य निकलते हुए दृष्टिगत
होने लगे । पश्चात् वह धुँआ ऊपर चौड़ा और ऊँचा हो काला भयानक छत्र सा बनने लगा और नीचे से लंबी लंबी जीभवाली अग्निज्वालाएँ उमड़ पड़ी और शीघ्र ही एक साधारण धधक से भयानक लाल और गर्जती हुई भरम करनेवाली अग्नि ने चिता को घेर लिया । पश्चात् ढाल वांसुरी, झाँज, घड़ियाल आदि वाद्यों का कर्कश, तीक्ष्ण और बेसुरा शब्द एक ऊँची और बहिरा करनेवाली ध्वनि में प्रारंभ हुआ । उस समय जलती हुई चिता में से चिल्लाहट की अस्पष्ट ध्वनि सुनाई देने की कल्पना होती थी, परंतु भयंकर चिल्लाहट की एक स्पष्ट ध्वनि सुनाई दी जो कि चिता में से नहीं वरन् निराशा को प्राप्त हुई कोमल हृदयवाली अहिल्याबाई की थी ।
बाई यद्यपि ब्राह्मणों-के द्वारा की जा रही थी तथापि दुःख के वेग से स्वतंत्र होकर अपनी छाती पीट रही थी और बाल नोच रही थी और उनके किचकिचाते हुए दात से और प्रेमवश होकर चिता में कूदने के लिये अत्यंत व्याकुल होने में ऐसा स्पष्ट रूप से भासता था कि उनकी आत्मा का आधिपत्य उनके ऊपर कुछ नहीं रहा था और उनकी सर्वदा की मानसिक शक्ति विलीन हो गई थी ।
इस प्रकार कहा जाता है कि बाई का उदार अंतःकरण थोड़े काल के लिये स्तब्ध और मूर्छित हो गया था परंतु उस सर्व शक्तिमान कृपासागर दयालु परमेश्वर ने बाई के मानसिक दुःख को शीघ्र ही एक ओर कर के शांत कर दिया और उसने उनके दुःख से मुर्झा कर झुके हुए मस्तक को पुनः ऊपर उठा दिया । रोला छंद *
डंका संग निशान दु:ख की ध्वजा उड़ावत ।
त्योंही वाद्य अनेक, शोकभरि गुणगन गावत ।।
पूज्य विप्रवर वृन्द दुःख से भरे लखाते ।।
नैन नवाए चले भिन्न मारग में जाते ॥ १।।
तिन पाछे सरदार सकल आतक गवाँए ।
राजपुरुष मतिमान चलत हैं शोक समाए ।।
औरहु सेवक शूर, भूमि पै दीठि गड़ाए ।
मंद मंद पग धरत, वणिक ज्यो मूर गवाँए । २ ।।
इनके पाछे लखहु भव्य अर्थी है आवति ।
पुरजन परिजन मित्र भीर सँग माहि लगावति ।।
मृत शरीर यशवंत राव को आज जात है।
अजहूँ तन सो तेज कढ़त वाहर लखात है ।। ३ ।।
अर्थी पाछे लखो तरुण विधवा है वाकी ।
लखि तिनको तहँ फाटति नहि छाती है काकी ।।
अरे ! दैव मतिमद कहा याकी गति कान्ही ?
कुसुमकली नव छेदि, अग्नि में मानहुँ दीन्ही ।। ४ ।।
इतने ही में देखि परी, महरानी आवति ।
वृद्ध ब्राह्मण साथ, परम करुणा दरसावति ।।
दर्शकगण की दु:खधार हू उमड़ति जहँ तहँ ।
जाय मिलति है शोकसिंधु में वहि मारग महँ ॥ ५ ॥
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बह्मो धीर तरु मूल कूल साहस को टूट्यो ।
बहु बाजन के संग, बाँध दृढ़ता को फुट्यो ।।
घोर नाद चहुँ ओर, शोक ही शौक लखान्यो ।
गई भूमि भरि जयै शोक नभ जाय समान्यो ।। ६ ।।
पहुँचे सबै मसाने भूमि पै अब नियाराई ।
लहर थमी जब पढी़ शोक की तहँ गहराई ।।
वाजन को गभीर नाद हूँ शात भयो है ।।
हाय 'हाय' को शब्द क्षणिक विश्राम लयो है ।। ७ ।।
पाठकवृंद सचेत थाम ले अपनी छाती ।
शाक लहर गभीर सिंधु की अब आती ।।
विधवा पुत्री लखौ बिदा माता से लेती ।
भारताय आदर्श प्रेम की शिक्षा देबी ।। ८ ।।
वाको अतिम मिलन, कहो कैसे दरसाऊँ ।
शोक सिंधु की थाह, कहॉ कर सो समझाऊँ ।।
है यह नहिं सो विदा सुता जब पति घर जाती ।
अक भरत ही जवै मातु की भरती छाती ।।९।।
है यह ऐसी विदा फेरि मिलनों नहि ह्वैहै ।
काले सिधु में चूडि फेरि को ऊपर ऐहै ।।
परम कठिन यह दृश्य, पहुँच बानी की नाहीं ।
जो तुम सो बनि परै करो अनुभव मन माहीं ।१०।।
है सचेत अब सुता चिता की ओर निहारी ।
हिए अनि करतव्य तजे रोवति गहँतारी ।।
निज पति मस्तक गोद राखि यों हिये लगायो ।
लह्यो रंक जनु पारस अथवा फणि मणि पायो।।११।।
वह चन्दन की चिता, अग्नि संयुक्त भई जब ।
करुणा को प्रत्यक्ष मेघ बनि धूम उठो तब ।।
मनहुँ नींद सो जागि, फुँकारैं विषधर कारे ।
घोर सिंधु सो उठैं, बलाहक मनौ धुँधारे ॥१२॥
बहुरि शेष की जीभ सरिस ज्वाला लहरानी ।
करत चिता को भस्म, अग्नि चहुँ दिशा घहराने ।।
ढोल वाँसुरी झाँझ, और घटा घहराने ।
चहुँ ओर घन घोर, शोर यों जात न जाने ॥१३॥
एक दिशा सो घोर करुणा धुनि उठिकै आई ।
होत चिता सो शब्द पन्यो यह सबहिं सुनाई ।।
अरे सुनो वह शब्द, सवै अब ध्यान लगाई ।
रोवत हैं बिलखाय अहिल्या सुता गवाँई ।।१४।।
रोवति रोवति परी, मूर्छि महि पै महरानी ।
ह्वै गई संज्ञीहीन, मृत कवत प्रगद लखानी ।।
अति ही हाहाकार, पन्यो सब शोर मचायो ।
जगदीश्वर की कृपा, चेत् रानी को आयो ।।१५।।
राधाकृष्ण जायसवाल ।
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मुद्रक-गणपति कृष्ण गुजर लक्ष्मीनारायण प्रेस, काशी । १९०-२१