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अहिल्याबाई होलकर/बारहवाँ अध्याय

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पृष्ठ १३३ से – १४८ तक

 



बारहवाँ अध्याय ।
मुक्ताबाई का सहगमन ।

अहिल्याबाई के चरित्रों के अवलोकन मात्र से ज्ञात होता है कि जिस प्रकार उनका राजत्व काल कौटुंबिक दुःखों से उलझे हुए समय में प्रारंभ हुआ था, उसी प्रकार उनके अंतिम समय में भी वह दुःखों से पूरी तरह भरा हुआ था । वस्तुतः उन्होंने अपना तन, मन और धन ईश्वर-पूजन, अर्चन और दान-धर्म इत्यादि में अर्पण करके अपने जीवन को हिमालय के बर्फ के समान स्वच्छ और गंगाजल के समान पवित्र बना रखा था और वे अपने धर्म से भी च्युत नहीं हुई थीं । इन सब बातों पर दृष्टि डालने से तो यही प्रतीत होता है कि उनका चरित्र किसी तपस्विनी के समान उन्नत था। परंतु इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि उनका संसारी जीवन अत्यत हृदयद्रावक दुःखों में व्यतीत हुआ था।

बाई का जन्म एक सामान्य पुरुष के यहां होने के कारण माता पिता के स्वाभाविक वात्सल्य के अतिरिक्त और अधिक लाड़ चाव और सुख की प्राप्ति की उनके लिये क्या संभावना थी ? परंतु दैववश अपने पूर्व सुकृत के बल से उन्हें मल्हारराव की पुत्र वधू बनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था, किंतु अपने संचित कर्मों के योग से उन का सौभाग्यकुसुम छोटी ही अवस्था में कुम्हला गया था। विधवा होने के उपरांत वे अपने पुत्र और कन्या ही के मुख देख अपनी वैधव्य-यातनाओं

को भूली हुई थीं; पर दुर्भाग्यवश यह भी चिरकाल तक न रहा। पुत्र की जिस प्रकार मृत्यु हुई थी, उसका वर्णन तो पिछले भाग में दिया जा चुका है; परंतु उनकी वृद्धावस्था में उनकी पुत्री मुक्ताबाई का पुत्र जिसका नाम नत्थु (नत्थोबा) था और जिसको बाई ने सांसारिक सुख का आधार मान रखा था, तथा जिसके जन्म से लेकर मरण पर्यंत उसके लाड़चाव में अधिक धन का भी व्यय किया था, वह बीस वर्ष की अवस्था को प्राप्त होते ही स्वर्ग को चल बसा । इतना ही नहीं वरन् उसने अपने माता पिता को भी इस संसार रूपी भव सागर से मुक्त कर दिया ।

हम ऊपर कह चुके हैं कि मुक्ताबाई के लड़के को बाई अपना सर्वस्व माने हुए थीं । इस कारण बालकपन से ही उन्होंने उसको अपने पास रखा था । समय समय पर जब कभी मुक्ताबाई चाहती थीं, नत्थू को बुलवा भेजती थीं । इसी प्रकार मुक्ताबाई ने अपने पुत्र को महेश्वर में इंदौर से बुलवा भेजा जिसको बाई ने भी सहर्ष बिदा कर दिया और कुछ काल वहाँ व्यतीत कर पुनः अपने पास आने को कह दिया था । महेश्वर पहुँच कर नत्थू कुछ दिन आनंदपूर्वक रहा । परंतु फिर उसको शीत ज्वर हो गया और थोड़े समय के पश्चात् यह ज्वर काल ज्वर में परिणत होकर उसको सदा के लिये उठा ले गया । एकाएक उनके जीवन के आधार प्राणप्यारे एकमात्र पुत्र का श्वास बंद हो गया । उस समय अभागे माता-पिता दुःख से संतप्त हो विलाप कर छाती पीटने लगे, माथा फोड़ने लगे, परंतु सब व्यर्थ था । पुत्रशोक के कारण पिता यशवंतराव के अंतःकरण पर ऐसा आघात पहुँचा कि वे अत्यंत दुःख से मूर्छित हो गये और जब मूर्छा टूटी तब पिता प्रेम से होनहार एकमात्र पुत्र के शांत हो जाने के कारण विकल हो करुणा भरे शब्दों से कहने लगे---नत्थू ! मेरे हृदय के भूषण, शरीर के बलदाता, प्राणों के आधार, तू इस प्रकार निठुर हो गया ! क्या तुझे तनिक भी दया नहीं आती, बेटा क्षण भर के लिये ही उठकर मेरे संतप्त हृदय को शीतल कर दे । तेरी माता तुझे बार बार जोर जोर से पुकार रही है । उसकी तू तनिक भी सुध नहीं लेता । हा प्राण के प्यारे वत्स ! एक बार मुख से बोल, धीरज बँधा । तू क्यों मौन हो गया । उत्तर क्यों नहीं देता ? बच्चे, तुम सदा मेरे साथ भोजन करते थे, मेरे सोने के उपरांत सोचे थे, तुम सब कार्य मुझ से आज्ञा लेकर ही करते थे, फिर आज तुम्हें क्या हो गया, तुमने किस प्रकार अनीति का अवल्चन किया । मेरे पहले तुम क्यों स्वर्ग का चल बसे । क्या तुमको ऐसा करना उचित था ? प्यारे ! एक बार भी अपने प्रिय मधुर बातों को सुनाकर धीरज दो । बेटा ! तुम्हारी नानी तुम्हें बुलाने के लिये सवारी भेजेगी तब में उनको क्या उत्तर दूँगा ? क्या तुम उनसे अब मिलने नहीं जाओगे ? क्या तुम चक्षु हीन हो गये हो, देख भी नहीं सकते ? प्यारे पुन्न, मैं और तुम्हारी माँ बार बार तुमको पुकार रहे हैं । तुम तो तनिक भी आँख खोलकर नहीं देखते हो । दैव ! अब मेरा प्राण किस लालच से इस अनित्य शरीर में ठहरा हुआ है, ओह, अब यह दारुण दुःख नहीं सहा जाता । रे अधम हृदय ! जैसे पंकज

अपने प्रियतम जल के वियोग से बिखर जाता है, वैसे ही तू प्राण प्यारे एक मात्र पुत्र के बिछोह से दूक टूक हो छिन्न भिन्न क्यों नहीं हो जाता ? यह कहते कहते यशवंतराव पृथ्वी पर गिर छटपटाने लगे । सारे शरीर में धूल ही धूल दिखाई देने लगी । आँखों से अश्रुओं का स्रोत बड़े वेग से बहने लगा ।

बेचारी मुक्ताबाई अपने प्राणप्यारे पुत्र को मृत्यु-शय्या पर लेटे देख व्याकुल हो नाना प्रकार से अपने अंतःकरण का दुःख हृदयविदारक शब्दों में गला फाड़ फाड़ कर प्रकट करने लगीं । प्यारे पुत्र, मैंने तुम्हारे हितार्थ कितने देवी देवता पूज तुमको चिरंजीव रखने का यत्न किया । मैंने प्रसव काल की यातनाओं को केवल तुम्हारे प्रेम के कारण ही भुला दिया था । तुम मेरे घर के, कुल के और अंत:करण के प्रकाश थे । बचपन की तुम्हारा मंद मंद मुसकान, हाथ पाँव का पसारना, तोतली और मधुर बोली और वह मनमोहन हास्य, किसी वस्तु को पाने के लिये मचल कर पृध्वी पर लेट जाना, तुम्हारी प्रेम भरी चीख, मेरी उँगली पकड़ कर अटक अटक कर चलना, सब आज मेरे हृदय में प्रगट होकर मुझे रसातल में ले जा रहे हैं । मैंने केवल तुम्हारे मुखचंद्र के दर्शन के सहारे माता से, पिता और भाई के दुःख रूपी शोक समुद्र को पार कराया था । हे! परम तेजस्वी नत्थू, तुम्हारे अभाव से अब माता की क्या दशा होगी ? अब कौन उसे प्रति पल, प्रति घड़ी, और प्रति दिन चंद्रकमल सदृश प्रतापवान् मुख का दर्शन देगा । मेरे प्राणों के प्राण, बुद्धि की शक्ति और उन्नति के सेतु नत्थ, तुम्हारी नानी की क्या दशा होगी ? बेटा तुम उसके जीवन में

सुख के आधार थे, तुम्हारे चंद्रानन को देख वह प्रसन्नचित्त रहती थी । भैय्या, अब कौन उसकी दुःख की दावाग्नि को संतोषदायक वचनों के जल से सींच कर शांत करेगा ? जब दु:ख और शोक के कारण माता के नयनों से उष्ण अश्रुओं का प्रवाह बड़े वेग में निकलने लगता था, तब तुम अपने कोमल हाथों से पोंछ उसे अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे और अपने मृदु वचनों में प्रसन्न कर देते थे । बेटा, यद्यपि माता को पुत्र सुख का यथेच्छ स्वाद नहीं प्राप्त हुआ था तथापि वह तुम सा अमूल्य धन और आज्ञाकारी पुत्र पाकर सुख का पूरा अनुभव करती थीं । बच्चे, माता सब दु.खों को उठाकर कष्टों का आधार हो रही थी तो भी तुम्हारे प्रेम के कारण वह दु:खित देखने में न आई ! वह तुमको सब प्रकार के ऐश्वर्य का जनक समझती थी । जब वह गाय की तरह अपने बछड़े को चूमने चाटने के लिये दौड़कर आवेगीं तब तुम बिन उनकी क्या दशा होगी ? प्यारे पुत्र, इस संसार में ऐसा कौन साधन हैं जिसको देकर तुमको जीवित कर लूँ ? हा प्यारे नत्थू तुम अपने पिता को, माता को और मुझको इस अथाह संसार में डुबाने की चेष्ट मत करो । क्यों मौन हो गये ? उत्तर क्यों नहीं देते ? यह कहते कहते पुत्र की लोथ को छाती से लिपटा कर रुदन करने लगीं ।

अपने पुत्र के एकाएक देह त्यागने का समाचार यशवंत राव ने अहिल्याबाई के पास भिजवाया । उसे सुन वे एकाएक स्तब्ध हो निर्जीव सी हो गई और मुखमलीन अति दीन हो अपना मस्तक पीटने लगीं । इस समय उनका

हृदय रूपी कमल दुःख पर दुःख और शोक पर शोक सहने के कारण चलनी के सदृश हो छार छार हो गया था । परंतु इस हृदयविदारक कष्ट को भी बाई के भग्न हृदय ने किसी प्रकार सहन कर लिया और अंत में वे अपनी पुत्री मुक्ताबाई पर ही विवश हो अंतिम आशा रख काल व्यतीत करने लगीं । पर इतने पर भी पूर्व जन्मों के दुष्कृत फल का अंत नहीं हुआ था ।
यह संपूर्ण जगत प्रेम से व्याप्त है और विशेष कर मनुष्यों के जीवन का तो आधार ही है । पृथ्वी पर ऐसी कोई वस्तु नहीं दिखाई देती जो कि प्रेम के अंतर्गत न हो । और की तो कथा ही क्या है, इसी पृथ्वी और आकाश का कितना घनिष्ट प्रेम दृष्टिगत होता है जिसका नाम विद्वानों ने "गुरुत्वाकर्षण" बतलाया है । इसी प्रकार जब हम सांसारिक वस्तुओं की ओर दृष्टि डालते हैं तो सिवाय प्रेम के और कुछ नहीं भासता । घर, द्वार, पशु, पक्षी, नाले, वन, उपवन, द्वार, घाट, लता, वस्त्र, आभूषण, जंगल, पहाड़, नदी, माता, पिता, स्त्री, पुत्र यह सब प्रेम के बंधन हैं । और सब को जाने दीजिये, इस शरीर के जितने अवयव हैं उनका कितना घनिष्ट प्रेम जीव से और जीव का अवयवों से रहता है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है । तात्पर्य, प्रेम सज्जनों का आनंद, बुद्धिमानों का आश्चर्य और देवताओं का कौतुक है । प्रेम ही से कोमलता, सुख, इच्छा, ममता, मार्दव और सौंदर्य आदि गुणों की उत्पत्ति प्रतीत होती है । प्रेम ही हमारे जन्म की सार वस्तु है और जब

मनुष्य का मन उधर खिंच जाता है तो उसको अत्यंत सुख, होता है, परंतु उसके बिछोह से उसको अत्यंत कठिन दुःख और कष्ट होता है। और कोई कोई तो प्रेमी के अभाव अथवा बिछोह के कारण अपना शरीर तक नष्ट कर देते हैं। पर जितना इसमें सुख भरा है उतना ही दुःख भी है।

अपने एकमात्र पुत्र के बिछोह के कारण प्रेमवश हो यशवंतराव एक वर्ष पश्चात् (सन् १७९१ ई० में) काल कवलित हुए। अपने प्राणेश्वर जीवन के आधार प्राणप्यारे पति की मृत्यु शैय्या पर देख मुक्ताबाई भी प्रेम के कारण दुःख से दुःखित हो पृथ्वी पर छटपटाने लगी।

यह वृत्तांत सुन सारे नगर में हा हाकार मच गया। नवयौवना मुक्ताबाई की कमल सी आँखों से अश्रुओं का स्त्रोत बह चला और प्रेमवश हो कहने लगी, नाथ! प्राणेश्वर! मेरे जन्मांतर की तपस्या के फल! क्या तुम सत्य ही मुझे छोड़कर परलोक सिधार गये? प्रियतम! मुझ अबला को किसे सौंप कर स्वयं निपट निठुर हो किस गुप्त स्थान को चले गये? प्राणनाथ, तुमने जो कुछ मुझसे कहा था उसको ठीक स्मरण तो करो, तुमने प्रण किया था कि तुमको नेत्रों से कभी दूर न करूंगा। नाथ, वह प्रतिज्ञा आज कहाँ गई;? क्या तुमको अपनी असहाय स्त्री को दुःख सागर में छोड़ना उचित था? प्राणेश! नेक ध्यान देकर जरा देखो, तुम्हें छोड़कर मेरी दूसरी गति नहीं है। मैं तुम्हारी शरण में हूँ, तुम शरणागत के प्रतिपालक हो, तुम्हें मेरे साथ, मुझे प्रेमपात्री बनाकर, ऐसा बर्ताव करना उचित नहीं था।

नाथ ! बतलाओ अब मैं कहाँ जाऊँ, किसको अपने दुःख की कहानी सुनाऊँ, और किसकी शरण में जाकर आश्रय लूँ? इस संसार में केवल दुखिया माता को छोड़ अब मेरा कोई नहीं है । नाथ, स्त्री का पति ही परम आराध्य देव और आधार गति तथा मुक्ति का कारण है । प्राणेश ! अब मैं कहाँ जाकर ठहरूँ? क्या दुखिया माता के यहाँ? वहाँ कितने दिवस? सूर्य बिना नलिनी की जैसी दशा होती है, तुम उसे खूब जानते हो । कुमुदनी को सुधाकर ही आनंद देनेवाला है, लता का केवल तरु ही आधार है । उसी प्रकार स्त्री का आधार केवल एक मात्र पति ही है । नाथ बतलाओ, मैं पतिविहीना कहाँ जाऊँ, और किधर ठहरूँ? अंत को मुक्ताबाई अत्यंत प्रेमवश हो सती होने के लिये उत्कंठित हो गई और अपनी माता से जो कि वहाँ पर उपस्थित थीं, पति के साथ सती होने की आज्ञा माँगने लगी । अपनी एक मात्र पुत्री को इस संकल्प से निवृत्त कराने के लिये अहिल्याबाई ने यथासाध्य प्रयत्न किये । परंतु सब निष्फल जान दुःख से दुःखित हो और प्रेम के कारण मोहवश होकर बार बार अपनी पुत्री से विनय की कि मुक्ता ! अब अकेली तू ही मेरे इस बुढ़ापे की आधार है । बिना तेरे क्षणभर इस दुःखमय जगत में मेरा निर्वाह न होगा । हा दैव ! अब मेरे जीवन का एक भी आधार नहीं है, जिसके सहारे यह प्राण टिक सकें। बेटी मुक्ता, तू इस संकल्प को, मेरी दुःखमय दशा को देख, छोड़ दे। यदि मेरी ओर तेरी सचमुच कुछ भी भक्ति है तो तू मुझे इस भवसागर रूपी संसार में अकेली, निराश्रित, जो कि दुखःमय हो रही हूँ, मत छोड़ जा ।
इस तरह अनेक प्रकार से बाई ने मुक्ता को सती होने से रोका।

मुक्ताबाई भी अपनी माता के समान दयालु और पाप-भीरु थीं। जब स्वयं अहिल्याबाई पर यह समय आकर उपस्थित हुआ था तब अपने ससुर मल्हारराव के अनुरोध से और प्रजापालन अपना कर्तव्य समझ कर स्वर्ग सुख को तिलांजलि दे, नाना प्रकार की यातनाओं को सहन करने को उद्यत हो गई थीं। परंतु मुक्ताबाई की ऐसी स्थिति कहाँ थी? उन्हें किस लालसा से इस भवसागर रूपी संसार में दुःख भोगना उचित था? इस कारण अपने देवतुल्य पति के साथ सती होने के श्रेष्ठ धर्म पर विश्वास रख मुक्ताबाई ने बाई के अल्प जीवन को सुखी रखना अनुचित समझकर ही सती होना निश्चित किया था। वह अपनी माता को समझाने लगीं-

माँ, अब मेरा यहाँ रहना उचित नहीं है। जिनको बिना मेरे देखे एक घड़ी भी चैन नहीं होता था, वह मेरी बाट अवश्य जोहते होंगे। तुमको केवल मेरा यह शरीर ही दिखाई देता है। परंतु मेरे प्राण तो इन्हीं के पास हैं। तुम मेरे इस शुभ संकल्प में विघ्न न डालो। तुम मेरी शीघ्र तैयारी कर दो।

इन हृदयद्रावक शब्दों को सुन अहिल्याबाई पागल की भाँति हो गई और धैर्य रख मुक्ताबाई को माता और रानी इन दोनों संबंधों से कई प्रकार से समझाया और अनुरोध किया और अंत को कहने लगी कि मुक्ता! नहीं नहीं, तू मुझे छोड़कर सती मत हो। तू तो रह। तुम सब लोगों का भार

मैं इस वृद्धावस्था में किस प्रकार सहूँ ? बेटी सुन ले, मान ले, अब हठ न कर।

यह सुन सती मुक्ताबाई ने अपनी माता से कहा:-

कर्म वचन मन पति सेवकाई ।
तियहिं न इहि सम आन उपाई ॥
अस जिय जानि कहि पति सेवा।
तिहि पर सानुकूल मुनि देवा ॥१॥

माँ ! तुम्हारी वृद्धावस्था हो चुकी है। इस जगत से तुम दुःख के कारण शीघ्र ही मुक्त हो जाओगी । परंतु मेरी अवस्था अभी तरुण है और यदि मैं तुम्हारे कहने से अपना सती होने का संकल्प कदाचित त्याग भी दूँ तो एक ही वर्ष पश्चात् तुम भी स्वर्गधाम को सिधार जाओगी। तब मैं निराधार और निराश्रित हो अपने वैधव्य को पल्लू में बाँध कर कहाँ जाऊँगी, किसके साथ रहूँगी ? मुझे इस जगत में कहीं जाने का ठौर ही नहीं दिखाई देता । इस समय तो प्राणपति के साथ जाकर अपने जन्म को सफल कर लूँगी; और पश्चात् में मरने से मेरे कारण कुत्ता तक भी रोनेवाला नहीं है। माँ ! इस जगत् के माया जाल में व्यर्थ न पड़ तुम्हें अधिक दु.ख न करना चाहिए। दु:ख सुख प्रारब्ध के अनुसार सभी भोगते हैं। एक का दुःख दूसरे का दुःख सुनने अथवा देखने से दूर होता है। देखो माँ ! राजा सुहोत्र कैसे थे कि जिनके राज्य में इंद्र ने सुवर्ण की वर्षा की थी। सारी नदियो में जीव जंतु सब सुवर्ण के थे कि जिनको उसने यज्ञ में ब्राह्मणों को दक्षिणा में दिया। वह राजा दशरथ से भी अधिक

यशस्वी था । उसको भी मृत्यु ने 'न छोड़ा । दूसरे मरुत् धर्मात्मा थे कि जिनका यश इंद्र से भी बढ़कर था । उनके राज्य में बिना जोते ही भूमि धान्य से परिपूर्ण होती थी । उनको भी कराल काल ने न छोड़ा। फिर देखो कि अंग देश का राजा बृहद्रथ कैसा पुण्यशील और उदार था । एक बार उसने बड़ी धूमधाम से यज्ञ किया था और दक्षिणा में, दश लक्ष श्वेत घोड़े, दश लक्ष कन्याओं को संपूर्ण आभूषण सहित, दश लक्ष हाथी सुवर्ण की साँकलों से शोभित, एक कोटि बैल, सहस्र गौ इत्यादि दिये थे। परंतु उनको भी मृत्यु ने न छोड़ा । राजा शिवि जो संपूर्ण पृथ्वी का राजा था, जिसने यज्ञ में सर्वस्व दान दे दिया था; राजा भगीरथ जो गंगाजी लाये थे और जिन्होंने दश लक्ष कन्याओं को सुवर्ण और धन देकर दान किया था; राजा दिलीप जिन्होंने सरत्न पृथ्वी दान की थी; राजा पृथु जो बड़े प्रजा-शील थे, जिनके समय में पृथ्वी पर धन धान्य पुष्पपत्र स्वयं उत्पन्न होते थे और जिन्होंने यज्ञ में सुवर्ण के २१ पर्वत दान दिये थे; भला जब ऐसे ऐसे राजा जिनकी साक्षी देने वाली पृथ्वी वर्तमान है, कालकवलित हो चुके हैं, तो भी, तुम मेरे इस शरीर के नष्ट न होने देने के लिए क्यों इतना हठ करती हो? यह मोह, यह माया जाल सब वृथा है। माँ ! शरीरधारी अवश्य नाश को प्राप्त होते हैं। संपत्ति में दुःख भरा है, संयोग के साथ ही वियोग है और जो उत्पन्न हुआ है उसका अवश्य नाश है। यह शरीर क्षण क्षण में घटता है। परंतु दृष्टि में नहीं आता। मां, यौवन, धन, ऐश्वर्य पुत्रादि से मोह

न करना चाहिये । जैसे नदी में काठ के लट्ठे अपने आप प्रवाह में बहते हुए मिल जाते हैं और फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य का स्त्री पुत्रादि के साथ मिलना है। और जैसे कोई पथिक मार्ग में वृक्ष की छाया में बैठ विश्राम कर चला जाता है, वैसे ही प्राणियों का इस संसार में समागम होता है । और दूसरे यह शरीर तो पंचतत्वों से बना हुआ है, और फिर वह उसमें लीन हो जाता है । इस का पछतावा ही क्या ? मनुष्य जितना स्नेह बढ़ाता है उतना ही हृदय पर शोक के अंकुर जमाता है। और जैसे नदी के प्रवाह जाते हैं और लौटकर नहीं आते, वैसे ही रात्रि दिन प्राणियों की आयु लेकर चले जाते हैं। माँ ! जिस दिन प्राणी गर्भ में आता है, उसी दिन से वह मृत्यु के समीप सरकता जाता है। इस कारण मेरी प्रार्थना है कि शोक की बार बार स्मृति न करो, यही इसकी ओषधि है । इसलिये माता, मेरी भलाई और मेरे यश और मेरे कल्याण के हेतु मुझे आज्ञा दो और विदा करो जिससे मैं तुम्हारे संमुख स्त्री-धर्म का पूरा निर्वाह करती हुई सुख और शांति के साथ चिरकाल के लिये अपने सत से सतीलोक में जा बसूँ ।

जब अहिल्याबाई ने जाना कि मैं किसी प्रकार से भी मुक्ता को सती होने की प्रतिज्ञा से विचलित नहीं कर सकती, तब उन्होंने विवश हो कातर स्वर परंतु प्रेमयुक्त शब्दों से पुत्री को सती होने की आज्ञा दे दी । आज्ञा के होते ही सब सामग्री का प्रबंध होने लगा और अंत को अपने जामाता का अंतिम संस्कार और अपनी पुत्री को सत्यलोक को विदा करने के हेतु

बाई नर्मदा के तटपर उपस्थित हुईं । जीव मात्र पर दया और रक्षा करनेवाली पुण्यशीला बाई अपनी एकमात्र जीवनावलंबन प्रतिमा को विसर्जित करने के हेतु नर्मदा के घाट पर पहुँची । शव के लिए चंदन, अगर, कपूर आदि सुगंधित वस्तुओं से चिता बनाई गई और पातिव्रत्य पर आरूढ़ रहनेवाली सत्यशीला मुक्ताबाई विधिपूर्वक अपने प्राणनाथ के मस्तक को अपनी गोद में लेकर हर्षित मन और गदगद हृदय से चिता पर विराजमान हुईं । पश्चात् चिता का अग्नि संस्कार कराया गया । घृत, कपूर आदि के स्पर्श से शीघ्र ही देखते देखते चहुँ ओर से वह चिता धकधकाती और लपलपाती हुई अग्नि की ज्वाला से तुरंत परिपूर्ण हो गई और मुक्ताबाई के कोमल अंग को भस्मीभूत करने लगी । उस समय,चारों ओर से शंख, घंटा, भेरी, नरसिंहा आदि के नाद से संपूर्ण आकाश गूंज उठा । परंतु गगन को भी भेद करता हुआ बाई का हृदयविदारक विलाप दर्शकों को विकल और विह्वल कर रहा था । बाई अपनी पुत्री के मोह के वशीभूत होकर बार बार चिता में कूदकर तुरंत भस्म होने का प्रयत्न करती थीं परंतु दोनों ओर से दो ब्राह्मण उनकी भुजाओं को दृढ़ता से बलपूर्वक थामे हुए थे । जब चिता केवल अग्नि की ढेरी सी हो चुकी, उस समय बाई पृथ्वी पर मूर्छित हो गिर पड़ीं । अंत को थोड़े समय के उपरांत जब उनको सुध आई तब भी उनके चित्त की भ्रांति और विकलता ज्यों की त्यों बनी रही । सेवकगण और इतर लोग उनको बड़े कष्ट से राजभवन में लाये, परंतु उनके शोक में कुछ भी न्यूनता न हुई ।
बाई शोकातुर हो तीन दिन तक बिना अन्न जल के भग्न हृदय से बिलखतीं और करुणा करती रही थीं । अनेक दास, दासी, राजकर्मचारी और ब्राह्मण आदि उन्हें अनेक प्रकार से धैर्य दिलाते और शान्त करते रहे । परंतु बाई का दुःख से पूर्ण और संतप्त हृदय किसी प्रकार शांत ही न होता था । अंत को कई दिनों के उपरांत उनका चित्त स्वयं क्रम से शांत हो चला था; और जब शांति हुई तब बाई ने अपने जामाता और पुत्री के स्मरणार्थ एक उत्तम और रमणीय छत्री बनवाई थी जिसके शिल्प और नैपुण्य को देख आज दिन भी बड़े बड़े शिल्प-विद्या निपुण चकित और विस्मित होते हैं।

इस संबंध में मालकम साहब ने लिखा है कि "अहिल्याबाई के अंत समय में एक अत्यंत शोकप्रद घटना हुई थी जिसका उल्लेख किये बिना नहीं रहा जाता । बाई के पुत्र की शोकदायक मृत्यु के पश्चात् उनकी एक पुत्री मुक्ताबाई नाम की थी जिसका विवाह हो गया था और जिसे एक पुत्र भी हो चुका था। परंतु जब वह लड़का (नत्थू ) सोलह वर्ष की अवस्था को प्राप्त हुआ, तब वह अचानक महेश्वर स्थान पर कालवलित हो गया और पुत्रशोक के कारण मुक्ताबाई के पति यशवंतराव भी एक वर्ष पश्चात् परलोकवासी हो गए, तब मुक्ताबाई ने भी अपना विचार पति के साथ सती होने का दरसाया । धर्मशीला अहिल्याबाई ने पुत्री के सती होने के विचार को जान, माता और राजरानी दोनों अधिकारों से समझा बुझाकर उसको अचल संकल्प से विचलित करना चाहा था ।

परंतु वह निष्फल हुआ जान अंत को बाई ने अत्यंत शोकातुर, और दुःखित हो पुत्री को साष्टांग प्रणाम कर देवता-तुल्य समझ कर कहा कि मुझ अबला और अनाथ को इस दुःख-सागर में डुबाकर सती मत हो । यद्यपि मुक्ताबाई प्रेमल और शांत थी तथापि उसने अपना सती होने का विचार निश्चित कर लिया था । उसने बाई से कहा कि "माता ! तुम अब वृद्ध हो चुकी हो और थोड़े ही दिनों में तुम्हारा धार्मिक जीवन समाप्त हो जायगा । मेरा एकमात्र पुत्र और पति तो मृत्यु के ग्रास हो चुके हैं और जब तुम भी स्वर्गवासिनी बन जाओगी, तब मेरा जीवन असहाय हो जायगा और यह सती होने का समय हाथ से निकल जायगा । अंत को अहिल्याबाई ने अपना अनुरोध व्यर्थ जान अंतिम हृदय विदीर्ण दृश्य अवलोकन करना निश्चित किया और सती के साथ चलकर वे चिता के पास खड़ी हो गईं । वहाँ पर उनको दो ब्राह्मणों ने उनकी बाँहें पकड़कर सँभाल रखा था । यद्यपि बाई का हृदय दुःख से संतप्त हो रहा था तयापि वे बड़ी दृढ़ता के साथ चिता की पहली ज्वाला के उठने तक खड़ी रहीं । परंतु पश्चात् उनका धैर्य नष्ट हो गया और उनके हृदय को भेदनेवाली करुणापूर्ण गगनभेदी चिल्लाहट ने संपूर्ण दर्शकों का हृदय, जो वहाँ पर असंख्य थे, दुःख से कंपायमान कर दिया और जिन ब्राह्मणों ने उनको पकड़ रखा था, इनके हाथों से प्रेमवश हो छुटने के लिये और अत्यंत दुःख के कारण चिता में कूदने के लिये प्रयत्न करती थीं । जब चिता में दोनों के शरीर भस्म हो चुके तब

अधिक सान्त्वना करने पर बड़ी कठिनता से वे नर्मदा में स्नान करने योग्य सचेत हुई थीं। पश्चात् राजभवन में जा बिना अन्न जल के तीन दिन व्यतीत किये थे। इस दुःख से वे इस प्रकार दुःखमय हो गई थीं कि उन्होंने एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला था। और जब वे इस चिंता से निवृत्त हुई तब उन्होंने उन दोनों के स्मरणार्थ एक अत्यंत सुंदर और विशाल छत्री बनवाई थी।"

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