आग और धुआं/2

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दो

१२वीं शताब्दी में शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज चौहान को बन्दी करके दिल्ली की गद्दी गुलाम कुतुबुद्दीन को दी। उसके १० वर्ष बाद उसने अपने सेनापति बख्तियार खिलजी को बंगाल-विजय के लिए भेजा। उस समय [  ]बंगाल में राजा लक्ष्मणसेन राज्य करता था। उसे हटाकर बख्तियार ने बंगाल पर अधिकार कर लिया।

इसके बाद शमसुद्दीन अल्तमश ने बंगाल के विद्रोह को दमन कर, उस पर अपना अधिकार जमाया। फिर जब अलाउद्दीन मसऊद दिल्ली के तख्त पर था, तब मंगोलों ने तिब्बत के रास्ते से बंगाल पर आक्रमण किया था, पर पराजित होकर भाग गये।

इसके बाद खिलजी वंश का वहाँ कुछ दिन अधिकार रहा। बुगराखाँ वहाँ का सूबेदार था।

मुगल-काल में कभी हिन्दू और कभी मुसलमान शाहजादे और अमीर बंगाल के सूबेदार हजहाँ के जमाने में शाहजादा शुजा और औरंग-जेब के जमाने में प्रथम मीर जुमला और बाद में शाइस्ताखाँ वहाँ के सूबेदार रहे।

इसके बाद नवाब अलीवर्दीखाँ बंगाल, बिहार तथा बंगाल और उड़ीसा के सूबेदार रहे। जब उन पर मराठों की मार पड़ी और कमजोर दिल्ली के बादशाह ने उनकी मदद न की, तो नवाब ने दिल्ली के बादशाह को सालाना मालगुजारी देना बन्द कर दिया। परन्तु वह बराबर अपने को बादशाह के आधीन ही समझता रहा।

अलीवर्दीखाँ एक सुयोग्य शासक था, और उसके राज्य में प्रजा बहुत प्रसन्न थी। बंगाल के किसानों की हालत उस समय के फ्रान्स अथवा जर्मनी के किसानों से कहीं अधिक अच्छी थी। बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद शहर उतना ही लम्बा-चौड़ा, आबाद और धनवान था, जितना कि लन्दन शहर। अन्तर सिर्फ इतना था कि लन्दन के धनाढ्य से धनाढ्य मनुष्य के पास जितनी सम्पत्ति हो सकती थी, उससे बहुत ज्यादा मुर्शिदाबाद के निवासियों के पास थी।

अलीवर्दीखाँ के पास ३० करोड़ रुपया नकद था और उसकी सालाना आमदनी भी सवा दो करोड़ से कम नहीं थी। उसके प्रान्त समुद्र की ओर से खुले हुए थे। उसका राज्य सोने-चाँदी से लबालब भरा हुआ था। यह साम्राज्य सदा से निर्बल और अरक्षित रहा। बड़े आश्चर्य की बात है कि उस समय तक योरोप के किसी बादशाह ने, जिसके पास जल-सेना हो, [ १० ]बंगाल को फतह करने की कोशिश नहीं की। एक ही बार में अनन्त धन प्राप्त किया जा सकता था, जो कि ब्राजील और पेरू की सोने की खानों के मुकाबिले होता। मुगलों की राजनीति खराब थी। उनकी सेना और भी अधिक खराब थी। जल-सेना उनके पास नहीं थी। राज्य-भर में विद्रोह होते रहते थे। नदियाँ और बन्दरगाह दोनों विदेशियों के लिए खुले थे। यह देश इतनी ही आसानी से फतह हो सकता था, जितनी आसानी से स्पेनवालों ने अमेरिका के नंगे बाशिन्दों को अपने आधीन कर लिया था। तीन जहाजों में डेढ़ या दो हजार सैनिक इस शहर को फतह करने के लिए यथेष्ठ थे।

जब अंग्रेज बंगाल में आये और उन्होंने यहाँ के व्यापार से लाभ उठाना चाहा, तो वहाँ के हिन्दुओं से मिलकर उन्होंने मुस्लिमराज्य को पतित करने की चेष्टा की। एक पंजाबी धनी व्यापारी अमीचन्द को इसमें मिलाया गया, और उसके द्वारा चुपके-चुपके बड़े-बड़े हिन्दू-राजाओं को वश में किया गया। अमीचन्द को बड़े-बड़े सब्ज़ बाग दिखाये गये। अमीचन्द के धन और अंग्रेजों के वादों ने मिलकर, नवाब के दरबार को बेईमान बना डाला।

इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी सैनिक-शक्ति बढ़ानी और किलेबन्दी शुरू कर दी। दीवानी के अधिकार वे प्रथम ही ले चुके थे। अलीवर्दीखाँ अंग्रेजों के इस संगठन को ध्यान से देख रहा था, पर वह कुछ कर न सका और उसका देहान्त हो गया।

भाग्यहीन युवक नवाब सिराजुद्दौला २४ वर्ष की आयु में अपने नाना की गद्दी पर सन् १७५६ में बैठा। उस समय मुगल-साम्राज्य की नींव हिल चुकी थी और अंग्रेजों के हौसले बढ़ रहे थे। उन्हें दिल्ली के बादशाह ने बंगाल में बिना चुंगी महसूल दिये व्यापार करने की आज्ञा दे दी थी। इस आज्ञा का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग किया जाता था, और वे व्यापारिक आदेशपत्र किसी भी हिन्दुस्तानी व्यापारी को बेच दिये जाते थे; जिससे राज्य की बड़ी भारी हानि होती थी।

मरते वक्त अलीवर्दीखाँ ने सिराजुद्दौला को यह हिदायत दी थी-कि योरोपियन कौमों की ताकत पर नजर रखना। यदि खुद मेरी उम्र बढ़ा देता, तो मैं तुम्हें इस डर से बचा देता। अब मेरे बेटे! यह काम तुम्हें खुद करना होगा। तिलंगों के साथ उनकी लड़ाइयाँ और राजनीति पर नजर [ ११ ]रखो-और सावधान रहो। अपने-अपने बादशाहों के घरेलू झगड़ों के बहाने इन लोगों ने मुगल बादशाह का मुल्क और उनकी प्रजा का धन छीनकर आपस में बाँट लिया है। इन तीनों कौमों को एक-साथ जेर करने का खयाल न करना; अंग्रेजों को ही पहले जेर करना। जब तुम ऐसा कर लोगे, तो बाकी कौमें तुम्हें ज्यादा तकलीफ न देंगी। उन्हें किले बनाने या फौज रखने की इजाजत न देना। यदि तुमने यह गलती की, तो मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल जायगा।

सिराजुद्दौला पर इस नसीहत का भरपूर प्रभाव पड़ा था, और वह अंग्रेज-शक्ति की ओर से चौकन्ना हो गया। उसके तख्तनशीन होने पर नियमानुसार अंग्रेजों ने उसे भेंट नहीं दी थी। इसका अर्थ यह था कि वे उसे नवाब स्वीकार नहीं करते थे। वे प्रायः सिराजुद्दौला से सीधा सम्बन्ध भी नहीं रखते थे; आवश्यकता पड़ने पर अपना काम ऊपर-ही-ऊपर निकाल लेते थे।

धीरे-धीरे नवाब और अंग्रेजों का मन-मुटाव बढ़ता गया। अंग्रेजों ने जो कासिम बाजार में किलेबन्दी कर ली थी, नवाब उसका अत्यन्त विरोधी था। उसने वहाँ के मुखिया को बुलाकर समझाया-"यदि अंग्रेज शान्त व्यापारियों की भाँति देश में रहना चाहते हों तो खुशी से रहें। किन्तु सूबे के हाकिम की हैसियत से मेरा यह हुक्म है कि वे उन सब किलों को फौरन तुड़वाकर बराबर कर दें, जो उन्होंने हाल ही में बिना मेरी आज्ञा के बना लिये हैं।"

परन्तु इसका कुछ भी फल न हुआ। अन्त में नवाब ने कासिम बाजार में सेना भेजने की आज्ञा दे दी। अचानक कासिम बाजार में नवाबी सिपाही दीख पड़ने लगे। होते-होते और भी सैकड़ों सवार और बरकन्दाज आ-आकर शामिल होने लगे। सन्ध्या के प्रथम ही दो लड़ाके हाथी झूमते-झामते कासिम बाजार में आ पहुँचे। यह देखकर, अंग्रेजों के प्राण काँपने लगे। कोठी वाले अंग्रेज एक-एक करके भागने लगे। हेस्टिग्स भी भागकर अपने दीवान कान्ता बाबू के घर में छिप गया। सबने समझ लिया, रात्रि के अन्धकार के बढ़ने की देर है, बस नवाब की सेना बलपूर्वक किले में घुसकर अंग्रेजों के माल-असबाब का सत्यानाश कर, लूट-पाट मचा देगी। किले में जो नौकर [ १२ ]तथा गोरे-काले सिपाही थे, वे तैयार होकर दरवाजे पर आ डटे। परन्तु बुद्धिमान नवाब ने आक्रमण नहीं किया। उसका मतलब खून बहाने का न था। वह केवल उनकी राजनीति के विरुद्ध, किले बनाने की कार्यवाही का विरोध करने और अपनी आज्ञा के निरादर का दण्ड देने आया था।

सोमवार, मंगल, बुध, बृहस्पतिवार भी बीत गया। नवाब की अगणित सेना किला घेरे खड़ी रही, पर आक्रमण नहीं किया। उस क्षुद्र किले को राख का ढेर बनाना क्षण-भर का काम था। इस चुप्पी से अंग्रेज बड़े चकित हुए, घबराये भी। न मालूम नवाब का क्या इरादा है! अन्त में साहस करके डॉ० फोर्थ साहब को दूत बनाकर नवाब की सेवा में भेजा गया।

उमरबेग ने फोर्थ को समझा दिया-"घबराओ मत, नवाब का इरादा खून-खराबी का नहीं है। आपके प्रधान वाट्सन साहब को नवाब के दरबार में एक मुचलका लिख देना होगा और उसे वे यदि राजी से न लिखेंगे, तो जबर्दस्ती लिखाया जायगा। सिर्फ इतनी सेना इसीलिये यहाँ आई है।"

पर वाट्सन साहब को आत्म-समर्पण करने का साहस नहीं हुआ। उन्होंने अत्यन्त नम्रतापूर्ण लिख भेजा-

"नवाब साहब का अभिप्राय ज्ञात हो जाने-भर की देर है। पश्चात् जो उनकी आज्ञा होगी-अंग्रेजों को वह स्वीकार होगा।"

इस पत्र का नवाब के दरबार से यही उत्तर मिला-"किले की चार-दीवारी गिरा दो-बस, यही नवाब का एकमात्र अभिप्राय है।"

अंग्रेजों ने बड़े शिष्टाचार और नम्रता से कहला भेजा कि-नवाब का जो हुक्म होगा, वही किया जायगा।

परन्तु अंग्रेज रिश्वत और खुशामद के जोर से मतलब निकालने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने अमीर-उमरावों को रिश्वतें देकर अपने वश में कर लिया। अंग्रेज सिराजुद्दौला के स्वभाव और उद्देश्य को नहीं जानते थे। उन्होंने इस अभियान का यही मतलब समझा था कि रिश्वत और भेंट लेने के लिये यह नया जाल फैलाया गया है। काले लोगों को हीन समझने वाले इन बनियों के दिमाग में यह बात न आई कि सिराजुद्दौला युवक और ऐयाश है तो क्या है, वह देश का राजा है। विद्वान् सिराजुद्दौला, इन प्रलोभनों से ज़रा भी विचलित नहीं हुआ। [ १३ ]अन्त में वाट्सन साहब हाथ में रूमाल बाँधकर दरबार में हाजिर हुए। नवाब ने उनको अंग्रेजों के उद्दण्ड व्यवहार के लिये बहुत लानत-मलामत की। वाट्सन बेचारे भयभीत खड़े रहे। लोगों को भय था कि कहीं नवाब इन्हें कुत्तों से न नुचवा दे। परन्तु, उसने क्रोधित होने पर भी कर्तव्य का ख्याल किया। उसने साहब को अपने डेरे पर जाकर मुचलका लिखकर लाने की आज्ञा दी। वाट्सन साहब ने जल्दी-जल्दी मुचलका लिख दिया। उसका अभिप्राय यह था-

"कलकत्ते का किला गिरा देंगे। कुछ अपराधी, जो भागकर कलकत्ते जा छिपे हैं, उन्हें बांधकर ला देंगे। बिना महसूल व्यापार करने की सनद बादशाह से कम्पनी ने पाई है, और उसके बहाने बहुतेरे अंग्रेजों ने बिना महसूल व्यापार करके जो हानि पहुंचाई है, उसकी भरपाई कर देंगे। कलकत्ते में हॉलवेल के अत्याचारों से-देशी प्रजा जो कठिन क्लेश भोग रही है, उसे उनसे मुक्त करेंगे।"

मुचलका लिखवाकर वाट्सन और हेस्टिग्स को उसकी शर्तों के पालन होने तक मुर्शिदाबाद में नजरबन्द करके नवाब शान्त हुए। परन्तु पन्द्रह दिन बीतने पर भी मुचलके की शर्तों का कलकत्तेवालों ने पालन नहीं किया। वाट्सन की स्त्री और नवाब की माता में मेले-जोल था। वह अन्तःपुर में आकर बेगम-मण्डली में रोने-पीटने लगी। उसके करुण विलापों से पिघल-कर नवाब की माता ने पुत्र से दोनों को छोड़ देने का अनुरोध किया। माता की आज्ञा शिरोधार्य कर, नवाब को बिलकुल अनिच्छा से दोनों बन्दियों को छोड़ना पड़ा।

शीघ्र ही नवाब को मालूम हुआ कि अंग्रेज लोग मुचलके की शर्तों का पालन नहीं करेंगे। अतएव उसने व्यर्थ आलस्य में समय न खोकर कलकत्ते को एक दूत भेजा और स्वयं सेना ले चलने की तैयारी करने लगा।

अंग्रेजों ने यह समाचार पाकर झटपट ढाका, बालेश्वर, जगदिया आदि स्थानों की कोठियों को सूचना दे दी कि, बहीखाता आदि समेट-समाटकर सुरक्षित स्थानों में चले जाओ। कलकत्ते में गवर्नर ड्रेक नगर-रक्षा के लिये सैन्य-संग्रह और बन्दोबस्त करने लगे। वास्तव में वे सिराजुद्दौला को अस्थायी नवाब समझते थे। उनका ख्याल था, अनेक घरेलू शत्रुओं से घिरा [ १४ ]
रहकर वह हमारे इस तुच्छ काम पर क्या दृष्टि डालेगा? इसके सिवा, अभी तक अपनी घूस और रिश्वत पर उन्हें बहुत भरोसा था।

पर सिराजुद्दौला वास्तव में नीतिज्ञ पुरुष था। वह जानता था कि मेरे सभी सरदार मेरे विरोधी हैं। वे बार-बार उसे कलकत्ते न जाने की सलाह देते थे; क्योंकि प्रायः सभी नमकहराम और घूस खाये बैठे थे। पर नवाब ने किसी की न सुनी। वरन्, जिस-जिस पर उसे षड्यन्त्र का सन्देह हुआ, उस-उस को उसने अपने साथ ले लिया; जिससे पीछे का खटका भी मिट गया। राजवल्लभ, मीरजाफर, जगतसेठ, मानिकचन्द, सभी को अनिच्छा होने पर भी नवाब के साथ चलना पड़ा। अंग्रेजों ने स्वप्न में भी न सोचा था कि वह ऐसी बुद्धिमत्ता से राजधानी के सब झगड़े मिटाकर, बिलकुल बे-खटके होकर, इतनी सैन्य ले, कलकत्ते पर आक्रमण करेगा।

७ जून को खबर कलकत्ते पहुँची। नगर में हलचल मच गई। अंग्रेज लोग प्राणपण से तैयारी करने लगे। किले में अनेक तोपें लगा दी गई। जल-मार्ग सुरक्षित करने को, बागबाजार वाली खाई में लड़ाई के जहाज लगा दिये। १५०० सिपाही खाई के बराबर खड़े किये गये। चहारदीवारी की समस्त मरम्मत करवाकर उसमें अन्नादि भर दिया गया। मद्रास से मदद माँगने को हरकारा भेजा गया, और जिन फ्रांसीसी शत्रुओं के डर से किला बनाने का बहाना किया गया था, उनसे तथा डचों से भी सहायता मांगी गई।

डच लोग तो सीधे-सादे सौदागर थे। उन्होंने लड़ाई-झगड़े में फंसने से साफ इनकार कर दिया। परन्तु फ्रेंचों ने जवाब दिया-"यदि अंग्रेजी-शेर प्राणों से बहुत ही भयभीत हो रहे हैं, तो वे फौरन ही बिना किसी रोक-टोक के चन्दननगर में हमारा आश्रय लें। आश्रितों की प्राण-रक्षा के लिए फ्रांसीसी वीर सिपाही अपने प्राण देने में तनिक भी कातर न होंगे।"

इस उत्तर से अंग्रेज लज्जित हुए, और खीझे। कलकत्ता से ढाई कोस पर नंगा के किनारे नवाब का एक पुराना किला था। ५० सिपाही उसमें रहते थे। वह कभी किसी काम न आता था। अंग्रेजों ने दौड़कर उस पर हमला कर दिया। बेचारे सिपाही भाग गये। उनकी तोपें तोड़-फोड़कर अंग्रेजों ने गंगा में बहा दी, और बड़े गौरव से अपनी विजय-पताका उस पर [ १५ ]
फहरा दी। लोगों ने समझ लिया, बस, अब अंग्रेजों की खैर नहीं है। नवाब यह उद्दण्डता न सहन करेगा। दूसरे दिन २००० नवाबी सिपाही किले के सामने पहुंचे ही थे, कि अंग्रेज अफसर लज्जा को वहीं छोड़ किले से भागने लगे। भागते जहाजों पर तडातड़ गोले बरसने लगे। अंग्रेज अपना गोला- बारूद नष्ट कर, और अपनी झण्डी उखाड़, कलकत्ते लौट आये।

यहाँ आकर, उन्होंने कृष्णवल्लभ, जो राजवल्लभ का पुत्र था, और भागकर विद्रोह के अपराध में अंग्रेजों की शरण आ रहा था, उसे इस डर से कैद कर लिया कि कहीं यह क्षमा मांगकर नवाब से न मिल जाय।

अमीचन्द कलकत्ते का एक प्रमुख व्यापारी था। सेठों में जैसी प्रतिष्ठा जगतसेठ की थी, व्यापारियों में वही दर्जा अमीचन्द का था। यह व्यक्ति भारतवर्ष के पश्चिमी प्रदेश का बनिया था। अंग्रेजों ने उसी की सहायता से बंगाल में वाणिज्य-विस्तार का सुभीता पाया था। उसी की मार्फत अंग्रेज गाँव-गाँव रुपया बाँटकर कपास तथा रेशमी वस्त्र की खरीद में खूब रुपया पैदा कर सके थे। उसकी सहायता न होती, तो अंग्रेज लोगों को अपरिचित देश में अपनी शक्ति बढ़ाने और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का मौका कदापि न मिलता।

केवल व्यापारी कहने ही से अमीचन्द का परिचय नहीं मिल सकता। विशाल महलों से सजी हुई उसकी राजधानी, तरह-तरह की पुष्प-बेलियों से परिपूरित उसका वृहत्राज-भण्डार, सशस्त्र सैनिकों से सुसज्जित उसके महल का विशाल फाटक देखकर औरों की तो बात क्या है स्वयं अंग्रेज उसे राजा मानते थे। अनेक बार अमीचन्द ही के अनुग्रह से अंग्रेजों की इज्जत बची थी।

अमीचन्द का महल बहुत ही आलीशान था। उसके भिन्न-भिन्न विभागों में सैकड़ों कर्मचारी हर वक्त काम किया करते थे। फाटक पर पर्याप्त सेना उसकी रक्षा के लिये तैयार रहती थी। वह कोई मामूली सौदागर न था, बल्कि राजाओं की भाँति बड़ी शान-शौकत से रहता था। नवाब के दरबार में उसका बहुत आदर था और नवाब उसे इतना मानते थे कि कोई आफत-मुसीबत आने पर नवाब-सरकार से किसी तरह की सहायता लेने के लिये लोग प्रायः अमीचन्द की ही शरण लेते। [ १६ ]जिस समय नवाब की सेना कलकत्ते की तरफ आ रही थी, तो अमीचन्द के मित्र राजा रामसिंह ने गुप्त रूप से एक पत्र लिखकर अमीचन्द को चेता दिया था कि "तुम सुरक्षित स्थान में चले जाओ तो अच्छा है।" दैवयोग से यह पत्र अंग्रेजों के हाथ लग गया। बस, इसी अपराध पर धीर-वीर अंग्रेजों ने अमीचन्द को पकड़कर कैदखाने में लूंस देने का हुक्म अपनी फौज को दिया। अमीचन्द को इस विपत्ति की कुछ खबर न थी। एकाएक फौज ने उसे गिरफ्तार कर लिया, और अभियुक्तों की तरह बाँधकर ले चली। कलकत्ते के देशी लोगों में इस घटना से हाहाकार मच गया।

अमीचन्द का एक सम्बन्धी, जो सारे कारबार का प्रबन्धक था, अत्याचार से डरकर स्त्रियों को कहीं सुरक्षित स्थान में पहुँचाने का बन्दोबस्त करने लगा। अंग्रेजों ने जब यह सुना, तो अमीचन्द के घर पर धावा बोल दिया। अमीचन्द के यहाँ जगन्नाथ नामक एक बूढ़ा विश्वासी जमादार था। वह जाति का क्षत्रिय था। वह तत्काल अमीचन्द के नौकर बरकन्दाजों को इकट्ठा करके महल के फाटक पर रक्षा करने को कमर कसकर तैयार हो गया। अंग्रेजों ने आकर फाटक पर लड़ाई-दंगा शुरू कर दिया। दोनों पक्षों की मार-काट से खून की नदी बह निकली। अन्त में एक-एक करके अमीचन्द के सिपाही धराशायी हुए। मानुषिक-शक्ति से जो सम्भव था, हुआ। अंग्रेज बड़े जोरों से अन्तःपुर की ओर बढ़ने लगे। बूढ़े जगन्नाथ का पुराना क्षत्रिय-रक्त गर्म हो गया। जिन आर्य-महिलाओं को भगवान भुवन-भास्कर भी नहीं देख सकते थे, वे क्या विदेशियों द्वारा दलित होंगी? स्वामी के परिवार की लज्जावती कुल-कामिनियाँ भी क्या बाँधकर विधर्मियों की बन्दी की जायेंगी?

बस, पल-भर में बिजली तरह तड़पकर उसने इधर-उधर से टूटे-फूटे काठ किवाड़ और लकड़ी एकत्र कर आग लगा दी और नंगी तलवार ले, अन्तःपुर में घुस गया, तथा एक-एक कर १३ महिलाओं के सिर काट-काटकर आग में डाल दिए। अन्त में पतिव्रताओं के खून से लाल-वही पवित्र तलवार अपनी छाती में खोंस ली, और उसी रक्त की कीचड़ में गिर पड़ा।

देखते-ही-देखते आग और धुएँ का तूफान उठ खड़ा हुआ। बड़ी [ १७ ]
कठिनता से जगन्नाथ को सिपाहियों ने उठाकर कैद किया-उसके प्राण नहीं निकले थे। पर अंग्रेजों को भीतर घुसने का समय न मिला-धाँय-धाँय करके वह विशाल महल जलने लगा।

नवाब हुगली तक आ पहुँचा। गंगा की धारा को चीरती हुई सैकड़ों सुसज्जित नावें हुगली में जमा होने लगीं। डच और फ्रांसीसी सौदागरों ने नवाब से निवेदन किया कि 'योरोप में अंग्रेजों से सन्धि होने के कारण वे इस लड़ाई में शरीक नहीं हो सकते हैं।' नवाब ने उनकी इस नीति-युक्त वात को स्वीकार कर, उनसे गोला-बारूद की सहायता ले, उन्हें विदा किया।

नवाब के कलकत्ते पहुँचने की खबर बिजली की तरह फैल गई। अंग्रेज लोग किले में घुसकर फाटक बन्द कर, बैठे रहे। जिसको जिधर राह सूझी, भाग निकला। रास्तों, घाटों, जंगलों और नदियों के किनारों में दल-के-दल स्त्री-पुरुष कुहराम मचाते भागने लगे। पर सबसे अधिक दुर्दशा उन अभागों की हुई थी, जिन्होंने काले चमड़े पर टोप पहनकर अपने धर्म को तिलांजलि दी थी। इनसे देशवासी भी घृणा करते थे, और अंग्रेज भी निदान। उन्हें कहीं सब स्त्री, बच्चे, बूढ़े इकट्ठे होकर किले के द्वार पर सिर पीटने लगे। अन्त में उनके आर्तनाद से निरुपाय होकर अंग्रेजों ने उन्हें भी किले में आश्रय दिया।

नवाब की वृहदाकार तोपें भीषण गर्जन द्वारा जब अपना परिचय देने लगी, तो अंग्रेजों के छक्के छूट गये। उन्होंने अब भी मायाजाल फैलाने, घूस, देने, नजर-भेंट देने की बहुत चेष्टा की, पर नवाब ने इरादा नहीं बदला। उसका यही हुक्म था कि किला अवश्य गिराया जायेगा।

फोर्ट विलियम किला पूर्व की ओर २१० गज, दक्षिण की ओर १३० गज और उत्तर की ओर सिर्फ १०० गज था। मजबूत चहारदीवारी के चारों कोनों पर चार बुर्ज थे। प्रत्येक पर १० तोपें लगी थीं। पूर्व की ओर विशाल फाटक पर ५ वृहदाकार तोपें मुँह फैला रही थीं। इसके पश्चिम की ओर गंगा की प्रबल धारा समुद्र की ओर बह रही थी। पूरब की ओर फाटक के पास से गुजरती हुई लाल बाजार की सीधी और सुन्दर सड़क बलिया-घाट तक चली गई थी। इस किले पर पूर्व, उत्तर और दक्षिण की ओर तोपों के तीन मोर्चे और भी थे । कलकत्ते के तीन ओर मराठा-खाई थी। दक्खिन [ १८ ]
की ओर खाई न थी-घना जंगल था। पीछे गंगा में युद्ध-सज्जा से सजे जहाज तैयार थे। १८ जून को नवाब की तोप दगी। अंग्रेजों ने तत्काल किले और जहाजों से आग बरसानी शुरू की।

अंग्रेजों का ख्याल था कि लाल बाजार की ओर से ही नवाब आक्रमण करेगा। उस मोर्चे पर उन्होंने बड़ी-बड़ी तोपें लगा रखी थीं। पर अमीचन्द के उस जख्मी जमादार जगन्नाथ की सहायता से नवाब को यह भेद मालूम हो गया कि नगर के दक्षिण में मराठा-खाई नहीं है। अतएव नवाब ने उसी ओर आक्रमण किया।

लाल बाजार के रास्ते के ऊपर पूर्व की ओर जो तोपों का मंच बनाया गया था, उसके सामने ही कुछ दूर पर जेलखाना था। अंग्रेजों ने उसकी एक दीवार को फोड़कर कुछ तोपें जुटा रखी थीं। उनकी योजना थी कि लाल बाजार के रास्ते नवाबी सेना के अग्रसर होते ही जेलखाने और पूर्व वाले मोर्चों से आग बरसाकर सेना को तहस-नहस कर देंगे। परन्तु नवाब की सेना अनजानों की तरह तोपों के सामने सीधी नहीं आई। उसने सावधानी से सड़कवाला रास्ता ही छोड़ दिया। केवल पहरेदारों को मारकर वह उत्तर और दक्षिण को हटने लगी।

देखते-ही-देखते अंग्रेजी तोपों के तीनों मोर्चे घिर गये। अब तो नगर-रक्षा असम्भव हो गई। कलकत्ते के स्वामी हॉलवेल साहब और मोर्चे के अफसर कप्तान क्लेटन किले में भाग गये। मोर्चे नवाबी सेना के कब्जे में आ गये। अब उन्हीं तोपों से किले पर गोले बरसने लगे। किले में कुहराम मच गया।

किले के नीचे गंगा में कुछ नाव और हाज तैयार थे। उनके द्वारा स्त्रियों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देने की व्यवस्था शाम को हुई। स्त्रियों को जहाज तक पहुँचाने को दो अफसर मेनिहम और फ्रांकलेण्ड रात्रि के अन्धकार में चुपके-चुपके निकले। परन्तु जहाज पर पहुँचकर उन्होंने फिर किले में आने से साफ इन्कार कर दिया।

किले की भीतरी दशा अजीब थी। सब कोई दूसरों को सिखाने में लगे थे। पर स्वयं किसी की बात को कोई नहीं मानना चाहता था। बाहर तो नवाबी सेना उन्मत्तों की भाँति कूद-फाँद और शोर मचा रही थी, भीतर [ १९ ]
अंग्रेजों का आर्तनाद, सिपाहियों की परस्पर की कलह और सेनापतियों के मतिभ्रम इत्यादि से किले में शासन-शक्ति का सर्वथा लोप हो गया था।

बड़ी कठिनता से रात को दो बजे सामरिक सभा जुड़ी। इसमें छोटे-बड़े सभी थे। बहीखाता समेटकर भाग जाना ही निश्चय हुआ। प्रातःकाल जो भागने को एक गुप्त दरवाजा खोल गया, तो बहुत-से आदमियों ने उतावली से भागकर, किनारे पर आकर कोलाहल मचा दिया और नावों पर बैठने में छीना-झपटी करने लगे। परिणाम बुरा हुआ—नवाबी सेना ने सावधान होकर तीर बरसाने शुरू किये। कितनी नावें उलट गई। किसी तरह कुछ लोग जहाज तक पहुँचे। उस पर गोले बरसाये गये। फिर भी गवर्नर ड्रेक, सेनापति मनचन, कप्तान ग्राण्ट आदि बड़े-बड़े आदमी इस तरह से भाग गये।

अब कलकत्ते के जमींदार हॉलवेल साहब ही मुखिया रह गये। वे क्या करते? अंग्रेज समझते थे कि महामति ड्रेक घबराकर मति-भ्रम होने के कारण भाग गये हैं। शायद, वे विचार कर, सहकारियों को सज्जित करके अपने साथियों की रक्षा के लिये फिर आयें। पर आशा व्यर्थ हुई। ड्रेक साहब न आये। किलेवालों ने लौटने के बहुत संकेत किये-बराबर निवेदन किये। गवर्नर साहब न आये।

अब हारकर हॉलवेल साहब अपने पुराने सहायक अमीचन्द की शरण में गये, जो उन्हींके कैदखाने में बन्दी पड़ा था। अमीचन्द ने उस समय उनकी कुछ भी लानत-मलामत न कर, उनके कातर-क्रन्दन से द्रवीभूत हो नवाब के सेनानायक मानिकचन्द को एक पत्र इस आशय का लिख दिया-"अब नहीं। काफी शिक्षा मिल गई है। नवाब की जो आज्ञा होगी- अंग्रेज वही करेंगे।"

यह पत्र हॉलवेल साहब ने चहारदीवारी पर खड़े होकर बाहर फेंक दिया। पर इसका कोई जवाब नहीं आया। पता नहीं, वह पत्र ठिकाने पहुँचा भी या नहीं। एकाएक किले का पश्चिमी दरवाजा टूट गया, और धुआँधार नवाबी सेना किले में घुस आई। सब अंग्रेज कैद कर लिये गये। किले के फाटक पर नवाबी पताका खड़ी कर दी गई।

तीसरे पहर नवाब ने किले में पधारकर दरबार किया। अमीचन्द [ २० ]और कृष्णवल्लभ को खोजा गया। वे दोनों आकर जब नवाब के सामने नम्रतापूर्वक खड़े हुए, तो नवाब ने उनका आदर करके आसन दिया। यही कृष्णवल्लभ था जिसकी बदौलत इतने झगड़े हुए थे।

इसके बाद अंग्रेज कैदियों की तरह बाँधकर नवाब के सामने लाये गये। सामने आते ही हॉलवेल साहब से नवाब ने कहा-"तुम लोगों के उद्दण्ड-व्यवहार के कारण ही तुम्हारी यह दशा हुई है।" इसके बाद सेनापति मानिकचन्द को किले का भार सौंपकर दरबार बर्खास्त किया। थकी-माँदी सेना आराम का स्थान इधर-उधर खोजने लगी।

परन्तु हॉलवेल ने नवाब को बदनाम करने के लिए एक असत्य घटना, इस अवसर पर गढ़कर अपने मित्रों में प्रचारित की। उसने कहा-"नवाब ने १४६ अंग्रेज उस दिन रात को -१८ फुट आयतन की कोठरी में बन्द करवा दिये, जिसमें सिर्फ एक खिड़की थी और जिसमें लोहे के छड़ लगे हुए थे। प्रातःकाल जब दरवाजा खोला गया, सिर्फ २३ आदमी जिन्दा बचे।"

काल-कोठरी की यह बात इतनी प्रसिद्ध हो गई कि समस्त भारत और इंग्लैंड में बच्चा-बच्चा इस बात को जान गया। पर बाद में यह बात प्रमाणित हुई कि यह सिर्फ नवाब को बदनाम करने को हॉलवेल ने कहानी गड़ी थी, जो बड़ा मिथ्यावादी आदमी था।

अत्यन्त साधारण बुद्धिवाला व्यक्ति भी समझ सकता है कि १८ फुट की व्यासवाली कोठरी में १४६ आदमी, यदि वे बोरों की तरह भी लादे जाएँ, तो नहीं आ सकते। इसका जिक्र न तो किसी मुसलमान लेखक ने किया है, न कम्पनी के कागजों में ही कहीं इसका जिक्र है। उस समय मद्रासी अंग्रेजों और नवाब में जो पीछे हर्जाने की बात चली, उसमें भी काल-कोठरी का जिक्र नहीं है। क्लाइव ने जिस तेजी-फुर्ती के साथ नवाब से पत्र-व्यवहार किया था, उसमें भी काल-कोठरी के अत्याचार का जिक्र नहीं। यहाँ तक कि सिराजुद्दौला और अंग्रेजों की जो पीछे सन्धि-स्थापना हुई थी, उसमें भी इसका कुछ जिक्र नहीं है। क्लाइव ने नवाब को पद-च्युत करने पर कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स को, नवाब के अत्याचारों से परिपूर्ण जो चिट्ठी लिखी थी, उसमें भी काल-कोठरी का जिक्र नहीं है। अंग्रेजों ने मीरजाफर को अपने [ २१ ]
हरजाने का पैसा-पैसा भरपाई का हिसाब लिखा था, पर उसमें भी काल-कोठरी का जिक्र नहीं है।

किले पर आक्रमण करने से प्रथम किले में ९०० आदमी थे, जिनमें ६० यूरोपियन थे। इनमें से बहुतेरे ड्रेक के साथ भाग गये, ७० घायल पड़े थे। तिस पर भी १४६ आदमी कहाँ से बन्द किये गये?

हॉलवेल साहब इसका एक स्मृति-स्तम्भ भी बनवा गये थे, पर पीछे वह अंग्रेजों ने ही गिरा दिया। अंग्रेजी राज्य में इसी कल्पित काल-कोठरी की यातना प्रत्येक जेल में प्रत्येक कैदी को भुगतनी पड़ती थी।

हॉलवेल साहब पहले डॉक्टर थे, और अंग्रेजों की कम्पनी से इन्हें ६०० रुपये तनख्वाह मिलती थी। नजर-भेंट में भी खासी आमदनी होती थी। पर ये काले लोगों के प्रति बड़े ही निर्दयी थे। इसी से नवाब ने मुचलका लिखाया था। जब कलकत्ता फतह हुआ, तो हॉलवेल साहब का सर्वनाश हुआ। साथ ही वे बन्दी करके मुर्शिदाबाद लाये गये। पर पलासी-युद्ध में मीरजाफर से घूस में एक लाख रुपया इन्हें मिला। तब उन्होंने कलकत्ता के पास थोड़ी-सी जमींदारी खरीद ली। कुछ दिन कलकत्ते के गवर्नर भी रहे। पर शीघ्र ही विलायत के अधिकारियों से लड़ने-भिड़ने के कारण अलग कर दिये गये, और जिस मीरजाफर ने इतना रुपया दिया था, उसे झूठा कलंक लगाकर राज्य-च्युत किया। अन्त में इंगलैंड जाकर मर गये।

कलकत्ते का शासन-भार राजा मानिकचन्द को दे, नवाब ने कलकत्ते से चलकर हुगली में पड़ाव डाला। डच और फ्रांसीसी सौदागर गले में दुपट्टा डाले आधीनता स्वीकार करने के लिए सम्मानपूर्वक नजर-भेंट लाये। डचों ने साढ़े चार लाख और फ्रेंचों ने साढ़े चार लाख रुपया नवाब को भेंट किया। नवाब ने वाट्सन और क्लेट को बुलाकर यह समझा दिया कि-

"मैं तुम लोगों को देश से बाहर निकालना नहीं चाहता, तुम खुशी से कलकत्ते में रहकर व्यापार करो।"

नवाब राजधानी को लौट गये। अंग्रेज कलकत्ते में वापस आये और अमीचन्द की उदारता की बदौलत उन्होंने अन्न-जल पाया।

इस यात्रा से लौटकर ११ जुलाई को नवाब ने राजधानी में गाजे-बाजे से प्रवेश किया। तोपों की सलामी दगी। नाच-रंग होने लगे। नवाब रत्न[ २२ ]
जटित पालकी पर अमीर-उमरावों के साथ नगर में होकर जब गाजे-बाजे से मोती-झील को जा रहा था, उस समय रास्ते में स्थित कारागार में बन्द हॉलवेल साहब पर उसकी नजर पड़ी। उसने तत्काल सब बाजे बन्द करवा दिये और पालकी से उतर, पैदल कारागार के द्वार पर जाकर चोबदार को हॉलवेल की हथकड़ी-बेड़ी खुलवाने का हुक्म दिया और हॉलवेल और उसके तीन साथियों को सर्वथा मुक्त कर दिया।