आग और धुआं/4

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मीरजाफर नवाब हुआ और धूर्त स्क्वेफन उसका एजेण्ट बनकर दरबार में विराजा। वारेन हेस्टिग्स उसका सहायक बनाया गया। कुछ दिन बाद जब स्क्वेफन कौंसिल में सभ्य नियत हुआ-तब, उक्त गौरव का पद वारेन हेस्टिग्स को मिला। यह पद बड़ी जिम्मेदारी का था। एजेण्ट के ऊपर दो बातों की कठिन जिम्मेदारियाँ थीं-एक यह कि कम्पनी की आय और उसके स्वार्थ में विघ्न न पड़े। दूसरे, नवाव कहीं सिर उठाकर सबल न हो जाय। नवाब यदि वेश्याओं और शराब में अधिकाधिक गहराई में लिप्त हो, तो एजेण्ट को कुछ चिन्ता न थी। उनकी चिन्ता का विषय सिर्फ यह था कि कहीं नवाब सैन्य को तो पुष्ट नहीं कर रहा है? राज्य-रक्षा की तरफ तो उसका ध्यान नहीं है?

इन सबके सिवा जाफर ने नकद रुपया न होने पर सन्धि के अनुसार अंग्रेजों को कुछ जागीरें दी थीं। उनकी मालगुजारी वसूली का भी उसी पर भार था। साथ ही, फ्रांसीसियों की छूत से नवाब को सर्वदा बचाना भी आवश्यक था। हेस्टिग्स ने बड़ी मुठमर्दी से उक्त पद के योग्य अपनी योग्यता प्रमाणित की।

पर मीरजाफर देर तक नवाब न रह सका। लोगों से वह घमण्डपूर्ण व्यवहार और झगड़े करने लगा। मुसलमान-हिन्दू, सब उससे घृणा करते थे। उधर अंग्रेजों ने रुपये के लिये दस्तक भेज-भेजकर उसका नाक-दम कर दिया। मीरजाफर को प्रतिक्षण अपनी हत्या का भय बना रहता था। निदान, तीन ही वर्ष के भीतर मीरजाफर का जी नवाबी से ऊब गया और अन्त में अंग्रेजों ने उसे अयोग्य कहकर गद्दी से उतार, कलकत्ते में नजर-बन्द कर दिया। उसका दामाद मीरकासिम बंगाल का नवाब बना। जाफर
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की पेन्शन नियत की गई।

गद्दी पर अधिकार तो मीरन का था जो मीरजाफर का पुत्र था, पर वहाँ अधिकार की बात ही न थी। वहां तो गद्दी नीलाम की गई थी। अंग्रेज बनियों की पैसे की प्यास भयंकर थी। मीरकासिम ने उसे बुझाया।

अंग्रेजों की अमित धन की मांगों को पूरा करने के लिए नवाबी खजाने में रुपया नहीं था। इसलिये उन्हें अपनी पहले की शर्तों की रकम में से आधा ही लेकर सन्तोष करना पड़ा। इस रकम की भी एक-तिहाई रकम नवाब के सोने-चांदी के बर्तन वेचकर संग्रह की गई, और इस भुगतान के बाद नवाबी खजाने में फूटी कौड़ी न बची थी। मीरकासिम के नवाब होने पर हेस्टिग्स कौंसिल का मेम्बर होकर कलकत्ते आ गया और उसकी जगह पर एलिस साहब एजेण्ट बने। एलिस साहब कलह-प्रिय एवं बहुत ही बुरे आदमी थे, और वे जिस पद पर नियुक्त किये गये थे, उसके योग्य न थे।

नवाब और एजेण्ट की न बनी। बात-बात पर दोनों में झगड़े होने लगा। आखिर तंग आकर नवाब ने कलकत्ते की कौंसिल को लिखा-

"अंग्रेज गुमाश्ते हमारे अधिकार की अवमानना करके प्रत्येक नगर और देहातों में पढदारी, फौजदारी, माल और दीवानी अदालतों की ज़रा भी परवा नहीं करते; बल्कि सरकारी अहलकारों के काम में बाधा डालते हैं। ये लोग प्राइवेट व्यापार पर भी महसूल नहीं देते, और जिनके पास कम्पनी का पास है, वे तो अपने को कर्ता-धर्ता ही समझते हैं। सरकारी और अंग्रेज कर्मचारियों की परस्पर की अनबन का कड़ आ फल प्रजा को चखना पड़ा रहा है, और उस पर असह्य निष्ठुर अत्याचार हो रहे हैं।"

उस समय कम्पनी के कर्मचारियों का केवल यही काम था, कि किसी देशी से सौ-दो-सौ पाउण्ड वसूल करके जितना शीघ्र हो सके, यहाँ की गर्मी से पीड़ित होने से पूर्व ही विलायत लौट जायें और वहाँ किसी कुलीन धनी की कन्या के साथ विवाह कर, कॉर्नवाल में छोटे-मोटे एक-दो गाँव खरीदकर सेण्ट-जेम्स-स्क्वेयर में आनन्दपूर्वक मुजरा देखा करें।

मीरकासिम अपने श्वसुर की तरह नीच, स्वार्थी तथा द्रोही न था। वह सब रंग-ढंग देख चुका था। उसने नवाबी मोल ली थी। वह नवाब ही बनना चाहता था और अंग्रेजों से प्रजा की तरह व्यवहार करना पसन्द

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[ ४७ ]करता था। साथ ही अंग्रेजों के अत्याचार से प्रजा की रक्षा करने की सदा चेष्टा करता था।

जब उसने देखा कि अंग्रेज बिना महसूल अन्धाधुन्ध व्यापार करके देश को चौपट कर रहे हैं, किसी तरह नहीं मानते, तो उसने अपनी लाखों की हानि की परवा न करके महसूल का महकमा ही उठा दिया; प्रत्येक को विना महसूल व्यापार करने का अधिकार दे दिया। अंग्रेजों ने नवाब के इस न्याय और उदार कार्य का तीव्र विरोध किया, पर कासिम ने उसकी कुछ परवा न की।

अब अंग्रेज कासिम को भी गद्दी से उतारने का प्रबन्ध करने लगे, पर मीरजाफर की तरह कासिम अंग्रेजों का पालतू न था। उसने सन्धि की शों का पालन न होते देखकर अपनी तैयारी शुरू कर दी। पहले तो वह अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से उठाकर मुंगेर ले गया, और सेना को सज्जित करने लगा—साथ ही अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सहायता के लिए पत्र-व्यवहार करने लगा।

इतने ही में अंग्रेजों ने चुपचाप पटने पर धावा कर दिया। पहले तो नवाबी सेना एकाएक हमले से घबराकर भाग गई, पर वाद में उसने आक्रमण कर नगर को वापस ले लिया। बहुत-से अंग्रेज कैद हो गये। बदमाश एलिस भी कैद हुआ। नवाब ने जब पटने पर एकाएक आक्रमण होने के समाचार सुने, तो उसने अंग्रेजों की सब कोठियों पर अधिकार करके, वहाँ के अंग्रेजों को कैद करके मुंगेर भेजने का हुक्म दे दिया।

अंग्रेजों ने चिढ़ कलकत्ते में आप-ही-आप मीरजाफर को फिर नवाब बना दिया। इसके पीछे मुर्शिदाबाद सेना भेज दी गई। मुर्शिदाबाद को यद्यपि मीरकासिम ने काफी सुरक्षित कर रखा था, फिर भी विश्वास-घाती, नीच और स्वार्थी सेनापतियों के कारण नवाबी सेना की हार हुई। नवाब के दो-चार वीर सेनापति अन्त तक लड़कर धराशायी हुए। अन्त में उदयालन का मुख्य युद्ध हुआ। पलासी में मीरजाफर सेनापति था। यहाँ विश्वासघाती गुरगन सेनापति बना। नवाब की ५० हजार सेना उसके आधीन थी। उस पर अंग्रेजों के सिर्फ ५ हजार सैनिकों ने ही विजय प्राप्त कर [ ४८ ]
ली। धीरे-धीरे नवाब के सभी नगरों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। पटना और मुंगेर का भी पतन हुआ। कासिम भागकर अवध के नवाब शुजाउद्दौला की शरण गया। एक बार अवध के नवाब की सहायता से पटना और बक्सर में फिर युद्ध हुआ। परन्तु विश्वासघात और घूस की घोर ज्वाला ने मुसलमानी तख्त का विध्वंस किया। इस बार प्रयाग तक मीरकासिम खदेड़ा गया। फल यह हुआ कि प्रयाग भी अंग्रेजों के हाथ आ गया।

मीरकासिम का क्या हाल हुआ, यह नहीं कहा जा सकता। दिल्ली की सड़क पर एक दिन एक लाश देखी गई थी-जो एक बहुमूल्य शाल से ढकी हुई थी। उसके एक कोने पर लिखा था-'मीरकासिम।

मीरजाफर फिर नवाब बन गया। अंग्रेजों ने कासिम की लड़ाई का सब खर्चा और हर्जाना मीरजाफर से वसूल किया। सबको भेट भी यथा-योग्य दी गई। बंगभूमि के भाग्य फूट गये। उसके माथे का सिन्दूर पोंछ लिया गया।

मराठों ने प्रथम ही बंगाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था। अब इस राज्य-विप्लव के पश्चात् मानो बंगाल का कोई कर्ता-धर्ता ही न रहा। मीरजाफर फिर गद्दी से उतारकर कलकत्ते भेज दिया गया। इस बार किसी को नवाब बनाने की जरूरत न रही। ईस्ट इण्डिया कम्पनी बहादुर ही बंगाल की मालिक बन गई।