आदर्श हिंदू १

विकिस्रोत से
आदर्श हिंदू-पहला भाग।  (1922) 
द्वारा मेहता लज्जाराम शर्मा
[ आवरण-पृष्ठ ]
 

मनोरंजन पुस्तकमाला–४

 
सम्पादक⇒

श्यामसुंदर दास, बी॰ ए॰

 
प्रकाशक⇒

काशी नागरीप्रचारिणी सभा।

[ मुखपृष्ठ ]
 

आदर्श हिंदू।
पहला भाग।

 

लेखक
मेहता लज्जा राम शर्म्मा।

 

१९२२
भारतजीवन प्रेस, बनारस में मुद्रित।

मूल्य-१)

[ भूमिका ]
 

श्रीहरिः।
कस्यचित्किमपि नो हरणीयं मर्म्मवाक्यमपि नोऽच्चरणीयम्
श्रीपतेः पदयुगं स्मरणीयं लीलया भवनिधिं तरणीयम्।

भूमिका।

भारतवर्ष के प्राचीन विद्वान् ग्रंथारंभ में मंगलाचरण किया करते थे, कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिये इष्टदेव की प्रार्थना करते थे और पुस्तकरचना में अपनी अयोग्यता दिखला कर शिष्ट समुदाय से अपनी धृष्टता पर क्षमा माँगते थे। अब वे बातें भूमिका में बदल गई। अब थोड़ों को छोड़कर न कहीं यह मंगलाचरण है, न वह वंदना है और न वह क्षमाप्रार्थना। अब है प्रायः देशोन्नति की डींगें, परोपकार का आभास और आत्मश्लाघा की झलक, किंतु मुझ जैसा पाँचवाँ सवार न 'मंगलाचरण' करने में समर्थ है और न मुझ में भूमिका लिखने ही की योग्यता है। परंतु आज कल के सभ्य समाज में जब भूमिका लिखने का एक तरह का फैशन है और जब इस बिना पोथी अधूरी समझी आती है तब इस विषय में थोड़ा बहुत लिखना ही पड़ेगा।

जब बुरी और भली जैसी कुछ है—यह पोथी प्यारे पाठक [  ]पठिकाओं के सामने है तब इसमें क्या है सो बतलाने की आवश्यकता ही क्या है? हाँ। इतना मैं कह सकता हूँ कि जिस उद्देश्य से मैंने अब तक और उपन्यास लिखे हैं उसी से यह "आदर्श हिंदू" भी लिखा है। इसमें तीर्थयात्रा के व्याज से, एक ब्राह्मणकुटुंब में सनातनधर्म का दिग्दर्शन, हिंदूपन का नमूना, आज कल की त्रुटियाँ, राजभक्ति का स्वरूप, परमेश्वर की भक्ति का आदर्श और अपने विचारों की बानगी प्रकाशित करने का प्रयत्न किया गया है। यदि इस पुस्तक में मैं आदर्श हिंदू सा अच्छा ख़ाक़ा तैयार कर सका तो मेरा सौभाग्य और पाठकों की उदारता और यदि मैं फेल होगया तो यह प्रयत्न धरती में पड़े पड़े आकाशग्रहण करने के समान है ही। हाँ! मेरी नम्र प्रार्थना है कि जो महानुभाव मेरी पुस्तकों को पसंद करते हैं के इसे भी निज जन की जान अपनावें और जो हंसबुद्धि से समालोचना करनेवाले महाशय हैं वे इसकी त्रुटियाँ दिखलाकर मेरे लिये पथप्रदर्शक बनने का अनुग्रह करें।

श्रीमान् महाराव राजा सर रघुवीर सिंहजी साहब बहादुर जी. सी. आई. ई., जी. सी. वी. ओ., के. सी. एस. आई. बूँदीनरेश को मैं किन शब्दों में धन्यवाद दूँ? मैं असमर्थ हूँ। इस पुस्तक का आकिंचन लेखक उन महानुभाव का चिराश्रित है, उनकी मुझ पर वर्द्धमती कृपा है और उन्हीं की सेवा में संवत् १९६९ में मुझे उसके साथ श्री जगदीश [  ]पुरी की यात्रा का अलौलिक आनंद प्राप्त हुआ था। बस उसी यात्रा के अनुभव से इस पुस्तकरचना का बीजारोपण हुआ। उस बीज को प्रेमवारि से सींचकर भरतपुर राज्य के वकील मेरे प्रिय मित्र पंडित फतहसिंह जी ने फलित और पल्लवित करने के लिये समय समय पर सत्परामर्श से, तथा सामग्री देकर मेरी सहायता की। उनके लिये मेरा हार्दिक धन्यवाद है। बस यही संक्षेप से इस पोथी का इतिहास है।

परमेश्वर का लाख लाख धन्यवाद है कि उसकी अपार दया से हम भारतवासियों को ब्रिटिश गवर्मेंट की उदार छाया में निवास करके हजारों वर्षों के अनंतर सधे शांति सुख के अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इस असाधारण शांति और उदारता जमाने में सरकार से भारतवासियों को जो बोलने और लिखने की अभूतपूर्व स्वतंत्रता प्राप्त है उसका सदुपयोग होना ही इस अकिंचन लेखक को इष्ट है। भगवान सब को सुमति प्रदान करे और वे इस भूमिका के शीर्षक पर लिखे हुए श्लोक का अनुसरण करें यही नम्र प्रार्थना है।

आबू पहाड़

हिंदी का एक अकिंचन सेवक
लज्जाराम शर्म्मा

श्रावण कृष्ण ६ सोमवार
सं॰ १९७१ विक्रमीय
[ सूची ]

सूची।


विषय पृष्ठ
(१) पहला प्रकरण—दंपती की पहाड़ी सैर ... १—१०
(२) दूसरा प्रकरण—पुत्रकामना ... ११—१९
(३) तीसरा प्रकरण—बूढ़े का गृहराज्य ... २०—२८
(४) चौथा प्रकरण—प्रियंवदा की सुशिक्षा ... २९—३८
(५) पाँचवाँ प्रकरण—भूत की लीला ... ३९—४७
(६) छठा प्रकरण—कर्कशा सुखदा ... ४८—५६
(७) सातवाँ प्रकरण—रेल की हड़ताल ... ५७—६५
(८) आठवाँ प्रकरण—आलसी भोला ... ६६—७५
(९) नवाँ प्रकरण—निरक्षर पंडा ... ७६—८९
(१०) दसवाँ प्रकरण—बंदर चौबे और उनकी गृहिणी ... ९०—१०१
(११) ग्यारहवाँ प्रकरण—सुखदा-नहीं दुखदा ... १०२—११०
(१२) बारहवाँ प्रकरण—सुखदा की सहेली ... १११—११७
(१३) तेरहवाँ प्रकरण—गृहचरित्र ... ११८—१२७
(१४) चौदहवाँ प्रकरण—ब्रजयात्रा की झलक और कृष्णचरित्र ... १२८—१४३
(१५) पंद्रहवाँ प्रकरण—बूढ़े की घबड़ाहट ... १४४—१५७
[ सूची ]
(१६) सोलहवाँ प्रकरण—घबड़ाहट का अंत ... १५८—१६२
(१७) सत्रहवाँ प्रकरण—स्टेशन का सीन ... १६३—१७६
(१८) अठ्ठारहवाँ प्रकरण—प्रियंवदा से छेड़छाड़ ... १७७—१८६
(१९) उन्नीसवाँ प्रकरण—प्रयागी पंडे ... १८७—१९६
(२०) बीसवाँ प्रकरण—प्रयाग प्रशंसा ... १९७—२०६
(२१) इक्कीसवाँ प्रकरण—त्रिवेणी संगम ... २०७—२२१
(२२) बाईसवाँ प्रकरण—व्यभिचार में प्रवृत्ति ... २२२—२३०
(२३) तेईसवाँ प्रकरण—बच गई ... २३१—२४२
 

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