आनन्द मठ/ग्यारहवाँ परिच्छेद

विकिस्रोत से

[ ३५ ]

ग्यारहवां परिच्छेद।

रात बीती, सवेरा हुआ। वह निर्जन वन जो अबतक अंधकारमय और सूनसान था, प्रकाशमय हो गया और पक्षियोंकी चहचहाहटसे आनन्दमय हो उठा। उसी आनन्दमय प्रभातमें, उस आनन्द काननके 'आनन्द मठ' में सत्यानन्द ब्रह्मवारी मृगचर्मपर बैठे साध्या कर रहे हैं। पासमें जीवानन्द बैठे हुए हैं। इसी समय भवानन्द महेन्द्रसिंहको साथ लिये हुए आ पहुंचे। पर ब्रह्मचारीजी एकाग्रचित्त सन्ध्या कर रहे थे, इससे किसीको बोलनेका साहस न हुआ। कुछ देर बाद जब इनकी सन्ध्या समाप्त हुई, तब भवानन्द और जीवानन्द दोनों ही उन्हें प्रणाम कर, उनके पैरोंकी धूल सिरपर चढ़ा, विनम्र होकर बेठ रहे। सत्यानन्दने भवानन्दको इशारेसे अपने पास बुलाया और उन्हें बाहर ले गये। क्या बातचीत हुई, नहीं मालूम, पर जब वे दोनों मन्दिरमें लौट आये, तब ब्रह्मवारीने अपने मुंहपर दया भरी हंसी लाकर महेन्द्रसे कहा,-"बेटा! मैं तुम्हारे दुःखसे स्वयं बड़ा [ ३६ ] दुःखी हो रहा हूं। कल एकमात्र दीनबन्धु भगवानको हो दयासे मैं तुम्हारी स्त्री कन्याके प्राण बचा सका हूं।" यह कह, ब्रह्मचारी ने कल्याणीकी रक्षाका सारा हाल कह सुनाया। इसके बाद बोले,-"चलो, अब वे दोनों जहां बैठी हैं, वहीं तुम्हें ले चलूंगा।"

यह कह, ब्रह्मचारीजी आगे आगे चले और महेन्द्र उनके पीछे। दोनों देवालयके भीतर गये। वहां पहुंचकर महेन्द्रने देखा, कि बड़ाही लम्बा चौड़ा और ऊंचा कमरा है। उस बालसूर्यकी किरणोंसे जब साराका सारा जंगल प्रस्फुटित मणि की भांति जगमगा रहा है, उस लम्बे चौड़े कमरे में प्रायः अंधेरा ही छाया हुआ है। पहले महेन्द्रको यह न मालूम पड़ा, कि उस घरमें क्या रखा है, पर आंखें गड़ाकर देखनेसे उन्हें दिखलाई पड़ा कि एक विशाल चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है, जिसके चारों हाथोंमें शंख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं, हृदयपर कौस्तुभमणि शोभा पा रहा है और सामने सुदर्शन चक्र मानों घूम रहा है। सामने दो सिरकटी मूर्तियां है जिनके शरीर रक्तरञ्जित है, सामने पड़ी हुई है जो शायद मधु और कैटभकी है। बाई ओर बिखरे केश कमलकी मालासे सुशोभित लक्ष्मी भयभीत सी खड़ी हैं।दाहिनी ओर सरस्वता पुस्तक, वीणा और मूर्तिमत् राग-रागि-नियोंसे घिरी हुई खड़ी हैं। विष्णुकी गोद में एक मोहिनी मूर्ति पड़ी हुई है, जो लक्ष्मी और सरस्वतीसे कहीं अधिक सुन्दरी और ऐश्वर्य और प्रतापमें बढ़ी चढ़ा मालूम पड़ती है। गन्धर्व, किन्नर, देव, यक्ष, सब उसकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारीने अति गम्भीर और अति भीत स्वरसे पूछा, "क्यों महेन्द्र! सब, देख रहे हो न?"

महेन्द्र-"हां, देख रहा हूं।"

ब्रह्म-विष्णुको गोदमें कौन है?"

महेन्द्र-“देखता तोहूं, पर वे कौन हैं?" [ ३७ ] ब्रह्म॰ "मां।"

महेन्द्र-"मां कौन?"

ब्रह्म॰—"हमलोग जिसकी सन्तान हैं।"

महेन्द्र-“वे कौन हैं?"

ब्रह्म० -"समय आनेपर उन्हें पहचान लोगे, बोलो, “बन्दे मातरम्"। अब चलो, तुम्हें और कुछ दिखलाऊ।" यह कह, ब्रह्मचारी उन्हें एक दूसरे कमरेमें ले गये। वहां जाकर महेन्द्रने देखा, कि एक अपूर्व, सर्वाङ्गसम्पन्ना, सर्वाभरण भूषिता जगद्धात्रीकी मूर्ति रखी है। महेन्द्रने पूछा-"ये कौन हैं?"

ब्रह्मा-“मां, जैसी पहले थी, उसीकी वह मूर्ति है।"

महेन्द्र-मांने हाथी और सिंह आदि जंगली जानवरोंको पैरों तले कुचलकर जंगली जानवरोंके रहनेके स्थानमें अपना पद्मासन जमाया था। उस समय वह सर्वालङ्कारभूषिता और हास्यमयी सुन्दरी थीं। इनकी बाल सूर्यकी तरह कान्ति थी, ये सब ऐश्वर्यों से भरी पूरी थीं। इन्हें प्रणाम करो।"

महेन्द्रने बड़ी भक्तिसे जगद्धात्रिरूपिणी मातृभूमिको प्रणाम किया। तब ब्रह्मवारीने उन्हें एक अंधेरो सुरंग दिखलाते हुए कहा-"इसी रास्तेसे चले आओ।" यह कह वे स्वयं आगे आगे वले। महेन्द्र डरते डरते उनके पीछे हो लिये। भूगर्भके अंधेरे कमरेसे न जाने कैलो रोशनी आ रही थी। उस हलकी रोशनामें उन्होंने एक काली मूर्ति देखी।

ब्रह्मचारीने कहा,-"देखो यह मांका वर्तमान रूप है।"

महेन्द्रने डरते हुए कहा,-"मां काली हो गयी हैं?

ब्रह्म-"हां, काली हो हा गयी हैं-एकदम अन्धकारसे घिरी हुई कालिमामयी हो रही हैं। इनका सर्वस्व लुट गया है, इसीसे नंगी हो रही है। आज सारा देश श्मशान तुल्य हो रहा है इसीलिये माने कंकालकी माला धारण कर ली है। [ ३८ ] अपने सौभाग्यको अपने ही पैरों तले कुचल रही हैं। हाय मां!" यह कहते कहते ब्रह्मचारीकी आंखों से आंसुओंकी धारा बह चली।

महेन्द्रने पूछा-"हाथमें खड्ग-खप्पर क्यों है?"

ब्रह्म-"हम उनकी सन्तान हैं, इसीसे हमने मांके हाथमें यही अस्त्र दे दिये हैं। बोलो-बन्दे मातरम्।”

“बन्दे मातरम्” कहकर महेन्द्रने कालीको प्रणाम किया। तब ब्रह्मचारोने कहा,-"इधर आओ।" यह कह, वे दूसरी सुरंगमें घुसे और उसी राहसे ऊपर चढ़ने लगे। सहसा उनकी आंखें प्रातःकालके सूर्यको किरणोंसे चमक उठीं। चारों ओरसे पक्षी सुरीले गीत गाने लगे। महेन्द्रने देखा कि एक संगमर्मरके बने हुए लम्बे चौड़े मन्दिरके अन्दर एक सोनेकी बनी हुई दशभुजी मूर्ति, बालसूर्यकी किरणोंसे देदीप्यमान मानों हंस रही। ब्रह्मवारीने प्रणाम कर कहा,--“देखो, मांका यही भविष्य रूप होगा। दशों दिशाओं में दशों भुजाए फैली हुई हैं, जिनमें हथियारके स्थान तरह तरहकी शक्तियां सुशोभित हैं, पैरों तले शत्रु विमर्दित होकर पड़ा हुआ है, उनके चरणोंकी सेवा करने वाले बड़े बड़े वीर केसरी शत्रु संहार करनेमें लगे हुए है। “दिग्भुजा" कहते कहते सत्यानन्दका गला भर आया और वे रोने लगे,-"दिग्भुजा, नाना आयुधधारिणो शत्रु मर्दिनी वीरेन्द्र-पृष्ठ-विहारिणी; दक्षिण भागमें भाग्यरूपिणी लक्ष्मी और वाम भागमें वाणो, विद्या-विज्ञान-दायिनी सरस्वती मौजूद हैं। साथ ही बलरूपी कार्तिकेय और कार्य-सिद्धि-रूपी गणेश भो विराजमान हैं। आओ; हम दोनों ही मांको प्रणाम करें।"

तब वे दोनों व्यक्ति ऊपरको सिर उठा; हाथ जोड़; एक स्वरसे प्रार्थना करने लगे।

“सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके!

[ ३९ ]

शरण्ये त्र्यम्बिके गौरि! नारायणि! नमोऽस्तु ते।"

दोनों व्यक्तियोंने भक्ति भावसे प्रणाम किया। तब महेन्द्रने गद्गद कंठसे पूछा,-"मांकी यह मूर्ति कब दिखाई देगी?"

ब्रह्मचारीने कहा,-"जिस दिन मांकी सभी सन्तान उन्हें मां कहकर पुकारने लगेंगी; उसी दिन वे प्रसन्न होंगी।"

सहसा महेन्द्र पूछ बैठे,-"मेरी स्त्री कन्या कहां हैं?"

ब्रह्मचारी-चलो दिखलादूं।"

महेन्द्र-"उन्हें एक बार देखकर ही मैं बिदा कर दूंगा।"

ब्रह्मचारी-“क्यों?"

महेन्द्र-“मैं यह महामन्त्र ग्रहण करूगा।"

ब्रह्म०-"उन्हें कहां भेजोगे?"

महेन्द्र कुछ देर सोचनेके बाद बोले-"मेरे घरपर कोई नहीं है और कोई दूसरा स्थान भी नहीं है। इस महामारीके जमानेमें उन्हें रखनेको और स्थान ही कहां पाऊंगा।"

ब्रह्म-“जिस राहसे तुम यहां आये हो, उसी राहसे मन्दिरके बाहर जाओ। मन्दिरके दरवाजेपर ही तुम्हारी स्त्री और कन्या बैठी हैं। कल्याणीने अबतक भोजन नहीं किया है। जहां वेदोनों मां बेटी बैठी हैं, वहीं खाने पीनेको चीजें भी रखी हैं। उन्हें खिला पिलाकर, तुम्हारी जो इच्छा हो करना। हममें से किसीको न देख सकोगे। तुम्हारा मन यदि ऐसा ही रहा, तो उपयुक्त समय मानेपर मैं आ मिलूंगा।"

यह कहकर, ब्रह्मचारी न जाने किस पथसे जाकर अन्तर्धान हो गये। महेन्द्रने बतलाये हुए रास्तेसे बाहर आते हो देखा कि कल्याणी कन्याको गोदमें लिये नाट्यशालामें बैठी है।

इधर सत्यानंद एक दूसरी सुरंगसे नीचे उतरकर तहखानेके कमरेमें चले आये। वहाँ जीवानन्द और भवानन्द रुपये गिन गिनकर उनकी अलग अलग, गड्डीयां लगा रहे थे। उस घरमें ढेरके ढेर सोना, चांदी, तांबा, हीरा, मूंगा और मोती आदि [ ४० ] रखे ये दोनों कल रातके लूटे हुए रुपयोंकी गड्डियां लगानेमें लगे हुए थे। सत्यानन्दने कमरेमें प्रवेश करते ही कहा-"जीवानन्द! महेन्द्र भो हमारे दलमें आनेवाला है। उसके मिल जानेसे सन्तानोंका विशेष उपकार होगा, क्योंकि उसके बाप दादोंका सञ्चित सारा धन मांकी सेवामें लग सकेगा, पर जबतक वह काय मनो वाक्यसे मातृभक्त नहीं बन जाता उसे ग्रहण न करना। अपना अपना काम करके तुम लोग भिन्न भिन्न समयपर उसका अनुसरण करते रहना। अवसर देखकर उसे श्रीविष्णु भगवानके मण्डपमें ले आना। समय कुसमयमें उसकी रक्षा बराबर करते रहना; क्योंकि दुष्टोंका शासन करना जैसा धर्म है वैसा ही शिष्टोंकी रक्षा करना भी है।