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आनन्द मठ

विकिस्रोत से
आनन्द मठ  (1922) 
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ आवरण पृष्ठ से – प्राग्भाषण तक

 
 
आनन्द मठ๛
 
 

स्वर्गीय बंकिमचन्द्र चटर्जी।

 
सस्ती ग्रन्थमाला-संख्या १।

स्वर्गीय बाबू वकिमचन्द्र चटर्जी कृत
आनन्द मठ


 

अनुवादक
आरा निवासी

पण्डित ईश्वरीप्रसाद शर्मा


 

सम्पादक
पण्डित छविनाथ पाण्डेय, बी॰ ए॰ एल॰ एल॰ बी॰


 

हिन्दी पुस्तक एजेन्सी
१२६,हरिसन रोड,
कलकत्ता।

 

द्वितीयवार]सं° १९८२[मूल्य।।।)

 
प्रकाशक—

हिन्दी पुस्तक एजेन्सी

१२६, हरिसन रोड,
कलकत्ता।
 

मुद्रक—

किशोरीलाल केडिया

"वणिक् प्रेस"

१, सरकार लेन कलकत्ता।

 
 

प्रकाशक का निवेदन


आज हम हिन्दी-संसार के सामने सस्ती उपयोगी ग्रन्थ माला का प्रथम रत्न, आनन्द-मठ लेकर उपस्थित होते हैं। इतनी ग्रन्थ-मालाओं के होते हुए भी इस ग्रन्थ-माला के निकालने का एकमात्र यही उद्देश्य है कि उपयोगी और अलभ्य पुस्तकों को पाठकों के पास स्वल्प मूल्य में पहुंचाने की अधिकाधिक चेष्टा की जाय। प्रकाशन की व्ययसायिक वृत्तिपर ध्यान न देकर केवल प्रचार के उद्देश्य से हो इस माला के रत्न निकाले गये हैं।

'आनन्द-मठ' को इस माला का प्रथम रत्न बनाने का यही कारण है। इस पुस्तक की उपयोगिता सर्वविदित है। इसका प्रचार घर-घर होना चाहिये। पर इसके लिये कोई उपयुक्त साधन पहला अनुवाद, जो वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से निकला था, दुष्प्राप्य है, दूसरा अनुवाद भी अभी एक अन्य स्थान से निकला है, जिसमें मूल ग्रन्थ से बहुत काट-छांटकर अनुवाद करने पर भी मूल्य बहुत अधिक रखा गया है, अर्थात् उपयोगिता का ख्याल न कर लाभ पर विशेष दृष्टि रखी गयी है। इसलिये हमने यह तीसरा अनुवाद निकालने का प्रयत्न किया है जो बहुत ही कम मूल्य पर पाठकों की सेवा में उपस्थित किया गया है। आशा है, हिन्दी के उदार पाठक इस माला को सर्वथा उपयोगी समझकर इसे अपनाने की चेष्टा करेंगे।

अन्त में हम पण्डित जगन्नाथप्रसाद जी चतुर्वेदी के अतिशय कृतज्ञ हैं, जिन्होंने असीम कृपा कर बंगला 'वन्दे मातरम्' गान का अपना हिन्दी पद्यमय अनुवादउद्धृत करने की आज्ञा दी है।

विनीत

प्रकाशक


 

प्राग्भाषण

स्वर्गीय बङ्किमचन्द्रका नाम बंगालके आबाल-वृद्ध-वनिता सभी जानते हैं। उनके उपन्यास वहां सभी श्रेणी और सभी अवस्थाके लोगोंके प्रिय हैं। उनके समान प्रतिभाशाली औपन्यासिक भारतके किसी प्रान्तमें पैदा नहीं हुआ। उनका एक-एक उपन्यास बहुमूल्य रत्नके समान है। हिन्दीमें भी उनके उपन्यासोंके अनुवाद हो चुके हैं और हिन्दी पढ़ने वालों में उनकी पुस्तकों का कैसा प्रचार है, वह इसी से समझ लीजिये कि उनकी एक-एक पुस्तक के भिन्न-भिन्न अनुवाद भिन्न-भिन्न स्थानों से निकल कर बराबर बाजार में बिकते रहते हैं।

यों तो उनके सभी उपन्यास प्रशंसनीय, पठनीय और सुविख्यात हैं, तथापि जबसे लार्ड कर्जनने १९०५ ई॰ में बंगाल के दो टुकड़े किये, तब से 'आनन्दमठ' का नाम सर्वापेक्षा प्रसिद्ध हो गया है। जो 'वन्देमातरम्' मन्त्र इस समय सारे देश की जबान पर हर जगह हर घड़ी मौजूद रहता है, जिस 'वन्देमातरम्' गानको हम अपना राष्ट्रीय गान मानते हैं, जिस 'वन्देमातरम्' ध्वनि को मुंह से निकालने के अपराध पर ही बंगाल के दो टुकड़े किये जाने से दुखित बंगालियों को पुलिस और न्यायालयों से बड़े-बड़े दण्ड दिये गये, वह मन्त्र और गान इस पुस्तक में दिया हुआ है। इसी ग्रन्थ में पहले पहल भारतीय राष्ट्रको जन्मभूमि में मातृभाव रखना सिखलाया गया था और कविके मुखसे निकले हुए इस दिव्यादेशकी अभिव्यक्तिका अवसर प्रदान करने ही के लिये मानों बंगालके टुकड़े किये गये और बंगालियों ने इस आदेशको सारे देशमें फैला दिया। इस समय बङ्किम केवल बंगाल की ही सम्पत्ति नहीं; सारे देश की सम्पत्ति हैं। इस गौरव को उन्होंने 'आनन्द मठ' लिखकर ही प्राप्त किया है।

इसी कारण 'आनन्द मठ' का इतना आदर है। कुछ दिन हुए, इसका अनुवाद भी हिन्दी में निकला था; पर इधर वह दुष्प्राप्य हो रहा था, इसी से हमारा विचार इसका अनुवाद करने का हुआ। कुछ कापी लिखी जानेपर हमें हालका छपा हुआ एक दूसरा अनुवाद भी देखने को मिला। परन्तु जब हमने उन दोनों अनुवादों को मूल से मिलाया, तो कुछ भूलें नजर आयीं, इसलिये हमने अनुवाद का काम न रोककर इसे पूरा कर डाला। उन अनुवादों में क्या क्या त्रुटियां हैं, वह सब हम यहां बतलाने की कोई जरूरत नहीं समझते। सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि हमने इस अनुवादमें मूल का रस-भङ्ग नहीं होने दिया। कहीं कोई वाक्य, शब्द था वाक्यखण्ड समझ में न आने के कारण, छोड़ने को चेष्टा नहीं की, तथा अनुवाद की भाषा अत्यन्त सरल रखने का प्रयास किया है। साथ ही मूल में जो दो परिशिष्ट अंगरेजी में हैं, उनका हिन्दी-अनुवाद भी दे दिया है; क्योंकि यदि उन्हें अंगरेजी में ही रहने दिया जाता, तो वह भाषा न जानने वाले उससे कुछ भी लाभ नहीं उठा सकते। आशा है, पाठकों को हमारा यह परिश्रम प्रिय प्रतीत होगा।

आरा,
आषाढ़ शुक्ला १ सं १९७९

निवेदक
ईश्वरीप्रसाद शर्मा

यह कार्य अपने मूल देश एवं ऐसे सभी देशों में सार्वजनिक डोमेन में है जहाँ मुद्राधिकार शर्तें लेखक के जीवन+80 वर्ष अथवा कम के लिए लागू हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि इसका प्रकाशन (अथवा सं.रा. मुद्राधिकार कार्यालय में पंजीकरण) १ जनवरी १९२९ के पहले हुआ था।