आनन्द मठ/4.1

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(आनन्दमठ/4.1 से अनुप्रेषित)

[ १५२ ] [ १५३ ] बन्द सिपाही बड़ी सावधानीसे पहरा देने लगे। सब लोग रात-रातभर जागे जागे रहते और प्रत्येक क्षण आगन्तुक विपत्तिकी सम्भावनाले कांपते रहते। हिन्दू लोग कहने लगे-"आये, संन्यासी बाबा लोग आयें तो सही-मां दुर्गा करें, वह दिन शीघ्र देखना नस्लीव हो।" मुसलमान कहने लगे-“या खुदा! इतने दिनों बाद क्या आज कुरानशरीफ झूठा हो गया? हम पांव वक्त नमाज़ पढ़ते हैं, तोभी इन माथेमें चन्दन लगानेवाले हिन्दुओंको न हरा सके। दुनियामें किसी बातका भरोसा नहीं है।"

इसी तरह किसीने रोते हुए और किसीने हंसते हुए वह रात बड़ी घबराहटके साथ बितायी।

यह सब बातें कल्याणोके कानोंमें भी पड़ी; क्योंकि यह बातें तो इस समयतक औरत, मर्द, बच्चे सबके कानोंतक पहुंच चुकी थीं। कल्याणीने मन-ही-मन कहा-"जय जगदीश्वर! आज तुम्हारा कार्य सम्पूर्ण हो गया। अब आज ही मैं अपने स्वामीको देखने जाऊंगी। हे मधुसूदन! आज तुम मेरे सहायक बनो।"

अधिक रात बीतनेपर कल्याणी शय्या छोड़कर उठी और चुपचाप खिड़की खोलकर देखने लगी। जब उसने कहीं किसीको न देखा, तब चुपकेसे धीरे धीरे गौरी देवीके मकानके बाहर आयी, उसने मन-ही-मन इष्टदेवताको याद कर कहा,-"प्रभो! ऐसा करना, जिसमें पदचिह्न पहुंचकर मैं उन्हें देख सकूं।"

कल्याणी नगरके द्वारके पास आ पहुंची। वहाँ पहरेवालेने पूछा-“कौन जा रहा है?” कल्याणीने डरते-डरते कहा-“मैं स्त्री हूं।" पहरेवालेने कहा-“जानेका हुक्म नहीं है।" बात दफादारके कानमें पड़ी; उसने कहा-“बाहर जानेकी मनाई नहीं है, भीतर जानेको रोक है।" यह सुन, पहरेवालेने कल्याणी- से कहा,-"जाओ माई! चले जाओ, बाहर जाने की मनाई नहीं है। पर आजकी रात बड़ी आफ़तकी है। माता! रास्तेमें क्या हो जाय। कौन जाने, कहीं तुम्हें डाकुओं के [ १५४ ] हाथमें पड़ जाना पड़े या गड्ढे में गिरकर प्राण गंवाने पड़े। आजकी रात तो माईजी! तुम कहीं न जाओ।"

कल्याणीने कहा, "बाबा! मैं भिखारिन हूं। मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। डाकू मुझसे कुछ न बोलेगें।"

पहरेवालेने कहा-"माँ! अभी तुम्हारी नयी उमर है। भरी जवानी है। दुनियामें इससे बढ़कर धन-दौलत कुछ भी नहीं है। इसके डाकू तो हम भी हो जा सकते हैं।” कल्याणीने देखा कि यह तो बड़ी विपद् आयी! इससे बिना कुछ कहे-सुने, चुपचाप वहांसे दबे पांवों खिसक पड़ी। पहरेवालेने देखा, उसकी माईजीने तो उसकी दिल्लगीका मतलब ही नहीं समझा। इससे उसके दिलको बड़ी चोट पहुँची। दुःख भुलानेके लिये उसने गांजेका दम लगाया और राग झिंझोटी खम्माचमें सोरी मियाँका टप्पा गाना शुरू किया। कल्याणी चली गयी।

उस रातको रास्ते में दल-के-दल पथिक नज़र आ रहे थे। कोई 'मारो मारो' कह रहा था, कोई 'भागो भागो' के नारे बुलन्द कर रहा था। कोई रो रहा था, कोई हंस रहा था। जो जिसे देख पाता, वह उसीको पकड़ने दौड़ता था। कल्याणी बड़े चक्करमें पड़ी। एक तो राह नहीं मालूम, दूसरे, किसीसे कुछ पूछने लायक भी नहीं; क्योंकि सभी लड़नेको ही तैयार नज़र आते थे। वह लुक-छिपकर अंधेरेमें रास्ता चलने लगी; पर हजार छिप-छिपकर चलनेपर भी वह एक अत्यन्त उद्धत विद्रोही-दलके हाथमें पड़ ही गयी। वे शोर-गुल मचाते हुए उसे पकड़नेको लपके। कल्याणी दम साधे हुए भाग चली और जङ्गलके भीतर घुस गयी। वहांतक एक दो डाकुओंने उसका पीछा किया। एकने उसका आँचल पकड़कर कहा- “अब कहो, प्यारी!” इसी समय अकस्मात् किसोने पीछेसे आकर उस दुष्टको एक लाठी मारी। वह मार खाकर पीछे हट गया। इस व्यक्तिका वेश संन्यासियोंका सा था। छाती काले [ १५५ ] मृगकी खालसे छिपी हुई थी उम्र अभी बिलकुल ही थोड़ी थी। उसने कहा,-"देखो, डरो मत। मेरे साथ-साथ आओ। तुम कहां जाओगी?"

कल्याणी- "मुझे पदचिह्न जाना है।"

आगन्तुक अचरज आकर चौक पड़ा; बोला,- "क्या कहा? पदचिह्न ?” यह कह, उसने कल्याणोके दोनों कन्धोंपर हाथ रखकर अँधेरे में उनका चेहरा देखना शुरू किया।

अकस्मात् पुरुषका स्पर्श होनेसे कल्याणीकी देहके रोंगटे खड़े हो गये। वह डर गयी, शर्मा गयी, अचरज में पड़ गयी और रोने लगी। वह ऐसी डर गयी, कि उससे भागते भी न बन पड़ा। आगन्तुकने जब अच्छी तरहसे उसे देख-भाल लिया तब कहा,-"हरे मुरारे! अब मैंने तुम्हें पहचाना। तुम वही मुहजली कल्याणी हो न?”

कल्याणीने डरते-डरते पूछा-"आप कौन हैं ?"

आगन्तुकने कहा,-"मैं तुम्हारा दासानुदास हूं। सुन्दरी! मुझपर प्रसन्न हो जाओ।"

बड़ी तेजीके साथ वहांसे हटकर कल्याणीने तनककर कहा,-"क्या इस तरह मेरा अपमान करनेके लिये ही आपने मेरी रक्षा की थी? मैं देख रही हूं , कि आप ब्रह्मचारियोंका-सा वेश बनाये हुए हैं। क्या ब्रह्मचारियोंकी यही करनी है? आज मैं निस्सहाय हो रही हूं, नहीं तो आपके मुहपर लात मारती।"

ब्रह्मचारीने कहा-"अरी मन्द मुसकानवाली! मैं न जाने कबसे तुम्हारे इस सुन्दर शरीरको स्पर्श करनेके लिये तड़प रहा था।" यह कह, ब्रह्मचारीने लपककर कल्याणीको पकड़ लिया और उसे अपने कलेजेसे लगा लिया। अब तो कल्याणी खिलखिलाकर हंस पड़ी और झटपट बोल उठी,-"अरी वाह री मेरी किस्मत! बहन! तुमने पहले ही क्यों नहीं कह दिया कि तुम्हारा भी मेरा ही जैसा हाल है?" [ १५६ ]शान्तिने कहा-"क्यों, क्या महेन्द्रको खोजने चली हो?"

कल्याणीने कहा-"तुम कौन हो? देखती हूं कि तुम्हें तो सब कुछ मालूम है?"

शान्तिने कहा, "मैं ब्रह्मचारी हूं, सन्तान सेनाका अधिनायक हूं, बड़ा भारी वीर पुरुष हूं। मुझे सब कुछ मालूम है। आज रास्तेमें सिपाही और सन्तान दोनों ही ऊधम मचाये हुए। आज तो तुम पदचिह्न नहीं जा सकोगी।"

कल्याणी रोने लगी। शान्तिने आँखें नचाकर कहा-"डरने की क्या बात है? हमलोग नयनवाण चलाकर ही शत्रु-वध किया करती हैं। चलो, अभी पदचिह्न चलें।"

कल्याणीने ऐसी बुद्धिमती स्त्रीकी सहायता पाकर समझा, मानो उसे हाथों स्वर्ग मिल गया। वह बोल उठी-"चलो, तुम मुझे जहाँ ले चलोगी, वहीं चलूंगी।"

तब शान्ति कल्याणीको साथ लिये हुई जंगली रास्तेसे जाने लगी।