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आवारागर्द/२-तिकड़म

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आवारागर्द
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
२ तिकड़म

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ १८ से – २७ तक

 

तिकड़म

'अजी, हुआ यह कि एक दोस्त की शादी मे मुझे औरगाबाद जाना पड़ा। छुट्टी नहीं मिलती थी, फिर भी कुछ तिकड़म भिड़ा कर बड़े साहब को झाँसा-पट्टी दे छुट्टी वसूल ही ली। सच तो यों है होनी खीच ले गई! 'इतना कह कर मि० रामनाथ ने एक गहरी साँस ली, और मित्रों की ओर एक वार नैराश्य-पूर्ण दृष्टि से देखकर आकाश की ओर ताकने लगे।

मित्र-मण्डल खिलखिला कर हँस पड़ा। "आपको दोस्त की शादी में जाना पड़ा, माल उड़ाने पड़े, बरात का मजा लूटना पड़ा। इस के लिये आप लुहार की धोंकनी की तरह साँस खींच रहे है और फाते है होनी खीच ले गई। भई वाह! यह होनी हम गरीबों की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखती।"

मि० रामनाथ एकदम गुस्से से बौखला उठे। उन्होंने झुंझला कर हाथ की सिगरेट फैक दी और आँखे निकाल कर दोस्तों पर बरस पड़े।

दोस्तों ने कहा-"तो कहते क्यों नहीं? तुम हो तिकड़मबाज, कही उलझ पड़े होगे, और चाँद गरमा गई होगी, लो हम ने कह दिया। पूरब के देहाती जरा बेढब होते हैं" रामनाथ ने कहा-"अब सुनोगे भी या अपनी ही बके जाओगे? पहिले दिन ब्याह हुआ, दूसरे दिन बढ़ार हुई, तीसरे दिन बिदा। बस उसी वक्त कयामत बर्पा हो गई।"

एक दोस्त ने कहा-"हम शर्त बाॅधते हैं, बस हज़रत की ऑखे लड़ गई-और चॉद पर......"

रामनाथ उठकर जाने लगे। दोस्तों ने मिन्नते करके कहा- "नाराज़ मत हो यार, सब सुना जाओ, यहाॅ दोस्त लोग हैं, जान पर खेल जायेगे। लो अब सुना दो कच्चा चिठ्ठा।"

रासनाथ ने फिर एक सॉस ली और कहना शुरू किया- "कोई दस बजे का समय था। बाजे बज रहे थे,दूल्हा-दुलहिन पलग पर बैठे थे, औरतों ने उन्हें घेर रखा था। कोई गा रही थी, कोई वकबाद कर रही थी। एक चकल्लस मची हुई थी। इतने में एक वाला पर मेरी बदनसीब नज़र पड़ गई।"

"वाह दोस्त, हमने क्या कहा था," एक बोल उठा। दोस्तों ने कहा-"ज़रूर वह सैकड़ों में एक ही होगी, फिर आपने कोई तीर-ऊर फेका?"

सैकड़ों मे ? म्यॉ, लाखों में।" रामनाथ ने जोश में आकर कहा। फिर कुर्ते की आरतीने चढ़ाई और सिगरेट निकाल कर जलाई। दोस्त लोग दम रोके बैठे थे। रामनाथ बोले "बस मैं देखता ही रह गया! वह ऑख, वह नाक, वह रंग, वह कद कि क्या कहूॅ, किससे कहूॅ, कैसे कहूॅ, क्यों कर कहूॅ, तुम सब गधे हो। समझोगे क्या?"

एक ने कहा-"ठीक कहते हो भई। हम गधे इन बातों को समझ ही नही सकते। लेकिन यार, झटपट यह कह दो- कुछ इशारा किया, शेर पढ़े बाते की, पुर्जा लिखा, किसी तरह अपने दिल का हाल-चाल भी उसे बताया, उसके दिल की भी जानी?"

"कहता तो हूँ, तुम सब गधे हो। तुम होते तो यही करते और चांद पिटाते। मैंने तिकड़म से काम लिया, तिकड़म से?"

"भई वाह, जरा हम सुने वह तिकड़म।" सब दोस्त हॅसी रोक कर बैठ गये। रामनाथ ने एक कश सिगरेट का खीचा और कहा "यह तो मै कह ही चुका हूँ कि वह बड़ी ही खूबसूरत थी, उम्र १६,१७ साल की थी। वह वास्तव में मेरे दोस्त की साली थी और अभी क्वाॅरी थी।"

एक दोस्त बीच ही मे चिल्ला उठे, वोले "अरे यार, यह कहो, थी ही या अभी है? है तो फिर दोस्त के बन जाओ साढू और यारों को चलने दो बारात में। लो दोस्तो, होनी आप को भी औरंगाबाद खींचने वाली है।"

सब दोस्तों ने उसे रोक कर कहा "चुप रहो भाई! बकवाद न करो। जरा सुनने तो दो। हॉ जी, उस तिकड़म की बात कहो अब।"

"वही तो कह रहा हू । उस वक्त तो मै जिगर पर तीर खाकर चला आया। घर आकर मैने घर वाली का ग़ाजियाबाद रहने का बन्दोवस्त कर दिया। पूछा तो कह दिया कि 'दिल्ली की आबो-हवा खराब है। मकानों के किराये ज्यादा हैं, चीजे मँहगी हैं। नौकरों की किल्लत है', ग़रज हर तरह उसका दिल रख दिया। मगर दिल्ली भी मकान कायम रखा। दफ्तर से छुट्टी पाकर गाजियाबाद चला आता। कभी-कभी दिल्ली रह जाता। दिल्ली मे पड़ोसियों और दोस्तों से कह दिया कि घर वाली बहुत बीमार है। परेशान हू। डाक्टरोंने आबो-हवा बदलने को कहा है। कुछ दिन यह धन्धा चला। और एक दिन वह मर गई।"

मित्रगण एकदम चौक पड़े "क्या मर गई? मगर बीमारी तो महज़ बहाना ही था; फिर..."

रामनाथ ने एक कश खीचकर धुॅये के बादल बनाये, फिर धीरे से कहा "मतलब यह कि यहाँ दिल्ली मे मशहूर कर दिया गया कि मर गई। बाकायदा क्रिया-कर्म हुये, तेरह ब्राह्मण आये और खा गये, पिता जी आये और रो-पीट गये। उसके भाई-वाप माँ भी सब दस्तूर कर गये।"

यारों की समझ में नही आ रहा था कि हॅसे या रोये, यह सच कह रहा है या गप उड़ा रहा है? वे आँखे फाड-फाड़ कर रामनाथ की ओर देख रहे थे। और रामनाथ कह रहा था "इस काम से निपट कर अब व्याह की बात चली। मैने साफ इनकार कर दिया। दिन मे तीन चार बार प्याज का टुकड़ा ऑख मे लगा लेता था, खूब वहते थे, आँखे सूजी रहती थीं। खाना रात को खाता था, दिन मे सिर्फ चटाई पर पड़ा रहता था। वलदेव से पूछिये ना, यह तो रोज ही आता था। बेवकूफ, यह भी मेरे साथ रोता था। बाजार से मिठाई ला-ला कर खिलाना चाहता, सिनेमा ले जाना चाहता, मगर मै था कि चटाई से उठना हेराम समझता था।"

बलदेव ने कहा "अरे जालिम। तो यह सब मेरा एक्टिङ्ग था? यार, फिर तो किसी फिल्म मे जाकर अभिनेता वन। क्लर्की की कलम घिसने मे क्या धरा है? मगर यार, गजब का एक्टिङ्ग था।"

"एक्टिङ्ग नही था, वह तिकड़म थी।" रामनाथ ने गम्भीरता से कहा।

चारों ने कहा "वह भी तो सुनाओ, तिकड़म क्या थी?

"शादी की चर्चा चलती ही रही। पिता जी सिर खारहे थे। मै 'ना-ना' कर रहा था। मगर मैने पिताजी से दोस्त की साली की ओर इशारा करा दिया था। यह वैठे हैं हज़रत रघुनाथ, कहते

क्यों नहीं? पिता जी से खूब नमक मिर्च लगा कर तुम्ही ने तो उसकी चर्चा की थी।"

रघुनाथ ने गुर्राकर कहा "मगर मुझे क्या मालूम था कि तुम पक्के पाजी हो! दगाबाज, बेईमान..."

"पाजी-ऊजी तुम हो! मै सिर्फ तिकड़म-बाज हूँ। तुम सुनते हो या मै चला जाऊं?"

सब ने कहा "सुनाओ यार, यह तुम्हारी तिकड़म बड़ी बेढब रही।"

धीर-गम्भीर स्वर मे रामनाथ कहने लगा। सिगरेट बुझ गई थी उसे फेक दिया। "सगाई पक्की हो गई। सुन कर मेरी बांछे खिल गई। गाजियाबाद अब मै तीन चार दिन मे जाता था। घर वाली कहती-सुनती तो मैं दो-चार गालियां दफ्तर वालों को सुना देता था 'इतना काम दे रखा है कि नाक मे दम हैं।' आखिर सगाई चढ़ी, लगन आई, और सब टेहले भुगते गये। बारात मे इने-गिने आदमी थे, भण्डा फोड़ होने के डर से दिल्ली से दोस्तो का वायकाट कर दिया था। दस-पांच बडे-बूढ़े ले लिये थे। हमारे साले साहब भी बुलाये गये थे, उन्होंने लिखा था, 'छुट्टी मिल सकी तो आने की कोशिश करूंगा।' गरज ठीक समय पर बारात चली। जरा देर की फुरसत निकाल कर गाजियाबाद हो आया। घरवाली से कहा "एक बारात मे जाना पड़ रहा है। दो-तीन दिन लगेंगे, जरा होशियार रहना।" और फिर मै उबटना करा, जामा पहिन, झट नौशा वन, नई सुसराल को बारात ले चल दिया!"

(२)

मि° रामनाथ दिल्ली की एक बैंक मे क्लर्क हैं। वे मेरे बहनोई होते हैं। मेरी छोटी बहिन उन्हे व्याही है। रङ्गीली तबियत के आदमी हैं। दो महीने पहिले खबर मिली थी कि बहिन का इन्तकाल हो गया, बड़ा अफसोस हुआ। मै तब न आ सका था। पिता जी और वड़े भाई आये थे।

अब जो शादी का निमन्त्रण पहुॅचा तो फिर मुझे आना ही पड़ा। टूटे रिश्ते का बहुत ख्याल रखना पड़ता है। पिता जी ने भी लिख दिया कि जरूर जाना। मै वक्त के वक्त ही पहुँचा। पता लगा, बारात इसी गाड़ी से जा चुकी है। लाचार मोटर से जाने का इरादा किया और लारी मे बैठ कर चल दिया। गाज़ियाबाद मे लारी कुछ देर को रुकी। गरमी तेज थी, सोचा—एक गिलास शरबत पीकर पान खा लूँ। सामने ही दूकान थी। शरबत पी रहा था कि एक लड़के ने आकर कहा "आपको बीबी जी बुला रही हैं।"

मै बड़ा अकचकाया, पूछा 'कौन बीबी जी?'

उसने सामने के चिक पडे एक दुमंजिले बरांडे की ओर जंगली उठाई। कोई स्त्री चिक उठा कर हाथ से इशारा करके बुला रही थी। दूर होने के कारण पहिचान न पाया। पास जाकर देखा तो बहिन है। पहिले आँखों को धोखा हुआ। मै पैर बढ़ाकर एक एक ही सॉस में ऊपर चढ़ गया। बहिन ही थी। वह हस रही थी, और मेरी आँखों से 'धड़ाधड़' ऑसू बह रहे थे।

बहिन की हसी ओठों में रह गई। उसे घर में किसी अनिष्ट की आशका हुई। उसने घबरा कर कहा "भैया, हुआ क्या है, कहो तो? घर मे सब अच्छे तो हैं?"

मैने सिर हिला कर कहा, "सब अच्छे हैं। पर बीबी तू तो मर गई थी। "

"मै मर गई थी? यह खूब कही। मैं तो यह खड़ी हूँ। तुम से किसने कहा?"

मैने आँखे पोंछी, फिर मलीं और आँखे फाड़-फाड़ कर बहिन को देखने लगा।

बहिन ने कहा "भैया, क्या तुम्हारा सिर फिर गया है?"

"तो तुम मरी नही हो?" मै धम्म से कुर्सी पर बैठ गया।

वह जल्दी से एक गिलास शरवत बना लाई और जबरदस्ती मुझे पिला दिया। फिर हँसकर कहा "अब़ देखो, जिन्दी हॅू या नहीं।"

मैने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और कहा—"बेशक तुम ज़िन्दी हो—मगरॱॱॱॱ"

"मगर क्या?"

"जीजा जी कहाँ हैं?"

"वे एक बरात में गये हैं।"

"यहाँ कब आये थे?"

"अभी सुबह ही तो गये हैं।"

" वे यहाॅ रोज़ आते है?"

"आज-कल दफ्तर में काम बहुत है, इसीसे अक्सर रातको वहीं रह जाते हैं। आज़-कल नौकरी का मामला ऐसा ही है भैया।"

अब मै मामला कुछ-कुछ समझा, मैने कहा "जीजा जी ने तो खेल अच्छा खेला। खैर देखा जायगा, तुझे अभी मेरे साथ चलना होगा। अभी इसी दम।"

"कहाँ?"

"घर।"

"क्यों? क्या बात है?"

"कुछ बात ही है, तू तैयार हो, नीचे मोटर खड़ी है।"

"लेकिन वे तो घर पर हैं नहीं।"

"तू चल तो सही।"

बस, मै उसे ले सीधा गाँव पहुंचा। बहिन को देखते ही पिता जी ने छाती से लगा लिया। मैने कहा "पिता जी, यह सारी कारिस्तानी नई शादी करने की है। जल्दी चलो, शादी रुकवानी होगी।" बस हम लोग गॉव के दो तीन आदमियों को ले बहिन को साथ कर, सीधे औरंगाबाद जा धमके।

(३)

"फिर क्या हुआ?"

"जो होनी थी, वही हुआ।"

"यानी?"

"बारात चढ़ चुकी थी। बरोठी हो रही थी, पकवान बन रहे थे। बैड बज रहे थे। बन्दा मुसकरा रहा था। दिल धड़क रहा था कि सब गुड़ गोबर हो गया। सालिगराम घर वाली और सुसर साहब को ले धूमधाम से जा धमके। रंग में भंग पड़ गया। हमारे नये सुसर साहब जरा भलेमानुस थे। वे तो सोचते ही रहे, पर हमारे नये तीनों साले और सालिगराम चीते की तरह झपट पडे। मोहर-बोहर तोड़ डाला। घोड़ी से उतार, जामा फाड़, लात घूँसों से वह पूजा की कि यह देखो।" रामनाथ ने कुरता उघाड़ अपना बदन दिखा दिया। जगह-जगह नीलै दाग पड़े थे। एक घूसा ऑख पर भी पड़ा था, मगर आँख फूटी नहीं, बच गई थी।

यार लोग अब ज़ब्त न कर सके। वेतहाशा हॅस पडे। परन्तु रामनाथ निर्विकार रूप से सिगरेट जलाकर चुपचाप पीने लगे।

वलवीर ने कहा—"यह आँख पर भी शायद घूंसा लगा है, क्यों?"

"हॉ, छोटे साले के दस्तखत हैं। पता नहीं, हाथ था। कि हथौड़ा, देहाती है साला। अजी बानक ही बिगड़ गया। और दो घण्टे की बात थी कि जय गंगा। फिर यही साले पैर पूजते।"

दोस्त ने कहा "खैर हुई आँख बचगई। पर यार यह बुरा हुआ। मगर यह सब तुम्हारा ही गधापन है। तुम कहते हो कि हम गधे हैं, पर हम कहते हैं, तुम गधे हो!"

"मै गधा क्यों हॅू?"

"इसलिए कि यारों को नहीं ले गये। यार लोग गये होते तो तुम्हारी ऐसी पूजा होना क्या मज़ाक थी? ले लेकर हाकी-स्टिक जो टूट पड़ते तो कयामत वर्षा कर देते और लाखों में व्याह रचा कर आते।"

एक ने कहा—"मगर यार, तुम घरवाली और पुराने साले-सुसरों को देखकर झेप क्यों गये? कह देते-तुम भी मुकर्रिर रहो, ये भी रहें। विशाल उदार हिन्दू धर्म में सब के लिये जगह है, अग्रेज़ों ने भी क़ानून में दरवाजे़ खिड़कियाँ छोड़ रखीं हैं।"

"मैने बहुत कहा यार, मगर साले लोगों ने अधेर मचा दिया। समझदार तो थे नहीं, बस लगे चरनदास से पूजा करने! एक तो देहाती, दूसरे जवान हट्टे-कट्टे, तीसरे उनका घर। लाचारी हो गई।"

दोस्तों ने मूछे मरोड़ीं और आस्तीने चढ़ाई—"वाह यार, चलो एक बार फिर। लाखों मे शादी कराये। नही तो डोला उठा लावे। भला जिसका तेलबान चढ़ गया उसकी शादी कही और हो सकती है?"

रामनाथ का चेहरा सफेद हो गया। सिगरेट फेंक कर उसने कहा—"वह मौका अब नहीं रहा। दोनों सुसरों ने मिल मिलाकर झगड़ा खतम कर लिया। सुसर नम्बर २ कहने लगे—'मेरी इज्जत अब कैसे बचे? इसी मंढे पर लड़की की शादी अब कैसे हो?' सुसर नम्बर १ बोले—'आपकी इज्जत हमारी इज्जत है। मेरा लड़का हाज़िर है।' झट देखते-देखते पाजी साले को जामा पहिना दिया गया। घोड़ी पर चढ़ाया गया, बाजे बजने लगे। सब नेग टेहले भुगतने लगे—मुझे जैसे सब भूल ही गये।"

"फिर तुमने क्या किया? क्या भाग आए?”

"भाग कैसे सकता था? सुसर नम्बर १ ने एक न सुनी; कहने लगे-तुम हमारे मान हो, जा कैसे सकते हो?"

"भई वाह, तुम सालिगराम के व्याह में दूल्हे से बराती बन गये। भई रहा खूब।"

रामनाथ बिगड़ गये। कहने लगे—"तुम्हें भी यही करना पड़ता।"

एक बार फिर दोस्तों मे कह-क़हा मचा। और मि° रामनाथ ठण्डी सॉस भरते, आह-ऊँह करते उठ कर रफू-चक्कर हुये।