आवारागर्द/६-तसवीर
तसवीर
बहस का मुद्दा यह था कि फ़ोटोग्राफी चाहे भी जितनी उन्नति करले, यह चित्रकला नहीं कहला सकती। चित्रकला एक महान्क ला हैं। कला विकास मस्तिष्क से होता हैं जिसमे जीवित विचार होते हैं, मशीन से नहीं, जिसमे सिर्फ छाया ही को अङ्कित किया जा सकता हैं। फ़ोटोग्राफी तो सिर्फ उन चीजों की एक मुर्दा नकल हैं जिन्हें आँखों से देखा जा सकता हैं, परन्तु चित्रकला चलते-फिरते विचारों की रूप रेखा हैं। एक फ़ोटोग्राफर उन्हीं चीजों की छाया उतार सकता है जिन्हें अपनी आँखों से देख सकता हैं; परन्तु सच्चा चित्रकार वह हैं जो विचारों की तस्वीर खींचता हैं। वे विचार जिनकी कोई मूर्ति नहीं हैं, सिर्फ चित्र- कार की कूची से ही जैसे अवतार बन कर आँखों के सामने आते हैं और तब हम देखते हैं कि उसमें अमूर्त को मूर्त बनाने का गुण हैं, जो केवल ईश्वर में हैं।
मिस्टर भरूँचा जोश में आकर ये बातें कह रहे थे। उनके हाथ मे चाय का प्याला था। बीच-बीच में वह उसकी चुस्की भी लेते जाते थे। अपनी बात पूरी करके उन्होने गर्म-गर्म चाय की दो-तीन घूंट गले के नीचे उतारी और चश्मे से घूर-घूर कर मिस्टर वेदवार की ओर देखने लगे।
मिस्टर वेदवार सुन रहे थे और मुस्करा रहे थे। असल बात यह थी कि एक बार उन्होंने मिस्टर भरूँचा की तस्वीर उतारने से इन्कार कर दिया था। इन्कार भी ऐसा वैसा नहीं, यह कह कर इन्कार किया था कि आप तस्वीर उतारने के काबिल ही नहीं हैं। वास्तव में मिस्टर वेदवार कुछ पेशेवर फ़ोटोग्राफ़र तो थे नही। घर के रईस थे। फ़ोटोग्राफी वे सिर्फ शौकिया करते थे। इसकी उन्हें सनक थी। इस सनक के पीछे उन्होंने दो-तीन लाख रुपया फूक किया था। इटली, जर्मनी, जापान, रूस और न जाने कहाँ-कहाँ की खाक छान आये थे। फ़ोटोग्राफी के मामले में वे अब एक प्रमाण माने जाते थे। उन जैसा फ़ोटोग्राफ़र उन दिनों बम्बई शहर में न था। मगर उनकी सनक में एक लहर होती थी। प्रायः वे पुरुषों के फ़ोटो तो यह कहकर खींचने से इन्कार कर दिया करते थे कि पुरुष सोचने-विचारने और काम करने का जानवर है फ़ोटो उतरवाने का नहीं। स्त्रियों की वह लता से उपमा दिया करते थे। उनका कहना था, जैसे लता बिना सहारे खड़ी नहीं हो सकती, जैसे लता मे—कोमलता, मरोड़, मृदुल-माधुर्य और शोभा है, वैसी ही स्त्रियों में है। इसी से वे स्त्रियों का फ़ोटो सीधी खड़ी करके नही लेते थे, खास खास पोज लेते थे। यद्यपि वे बहुत ऊँचे दर्जे के फ़ोटोग्राफर थे, फिर भी स्त्री-पुरुष दोनों ही उनसे फ़ोटो उतरवाने में घबराते थे। रुपया-पैसा तो वे किसी से लेते-देते नहीं थे, पर फ़ोटो उतरवाने वालों को हलाक़ कर डालते थे, मैंने कहा न कि पुरुषों को तो वे देखते ही धता बता देते थे—ख़ास कर उन पुरुषों को जो देखने मे सुडौल और सुन्दर नहीं होते थे। स्त्रियाँ जब उनके पास इस मतलब से आती तो वे उन्हें बड़ी देर तक घूर घूर कर ऊपर से नीचे तक देखते, किसी से तो साफ इन्कार कर देते—कोई वजह बताते ही नहीं। किसी की आँख, कान, नाक, कमर, कपड़ा-लत्ता आदि की ऐसी आलोचना करते कि वे बुरा मान कर चिढ़ जातीं और फिर मिस्टर वेदवार से तस्वीर उतरवाने का नाम नही लेती थीं। जिन सौभाग्यशालियों का फ़ोटो लेना वे स्वीकार कर लेते थे, उनकी शामत आ जाती थी, उन्हें वे नचा मारते थे। पहले तो वे उनके कपड़े-लत्तो' के कट, रङ्ग-मैच पर बहस करते और उन्हें मजबूर करते कि वे उनकी मर्जी और रुचि के अनुसार ही तैयार करावे, फिर वे बैकग्राउण्ड की तलाश मे उन्हें लिये लिये जङ्गल-जङ्गल न जाने कहाँ-कहाँ मारे-मारे फिरते थे। इतना होने पर लाइट, रुख, बैठने का तरीका आदि सौ झंझट निकाल बैठते थे। ग़रज कोई हिम्मतवर माई का लाल ही उनसे फ़ोटो उतरवाने का साहस कर सकता था। पर जिसका फ़ोटो वे उतार देते थे, वह वम्बई शहर भर में फैशनेबुल सुन्दरियों की ईर्षा की केन्द्र हो जाती थी। यदि मिस्टर वेदवार अधेड़ उम्र के एक बुजुर्ग और गम्भीर आदमी न होते, तो जिस तरह वे युवती लड़कियों को फ़ोटो के मामले मे नाच नचाते थे, उसे देख कर लोग कुछ और ही अनुमान करने लगते। मगर ग़नीमत यही थी कि उन पर विश्वास और श्रद्धा सब की थी। लोग कौतूहल से उनकी बाते सुनते थे। कोई उनकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते थे।
मिस्टर भरूँचा एक अजब लमढींक आदमी थे। दोनो गालों की हड़ियों उभरी हुई, एक आँख छोटी एक बड़ी, खिचड़ी व मोटे-मोटे सूअर के-से बाल, बेतरतीबी से छितराई हुई मूँछे, ढीला और लापरवाही से बदन पर डाला हुआ सूट। अब कहिए उनकी तस्वीर मिस्टर वेदवार खींच कैसे सकते थे? सो उन्होंने उनसे साफ कह दिया—'जाइए-जाइए, लड़कों को फिलाँसफी पढ़ाइये और बीबी के हाथ पर हर महीने पाँच सौ रुपये गिन दिया कीजिये, उन लोगों की नजर में और जँच जायेंगे। मगर आप फ़ोटो खिचवाने की हिमाकत कीजिए। इससे कला दूषित हो जायगी।' और सुनिए, यह बात भी उन्होंने कही चार दोस्तो में, जिससे मिस्टर भरूचा का खूब ही मजाक उड़ा, सो इस बार उन पर वार करके उन्होंने कसर पूरी कर ली।
डाँक्टर गोयल भी मिस्टर वेदवार से खार खाये बैठे थे, बोल उठे—'अब आप कहिये क्या कहते हैं? मैं समझना हूँ प्रोफेसर साहब की बात मे एक गहरी सचाई हैं।'
मिस्टर वेदवार ने सिगार में एक गहरा कश लगाया। धुँए का बादल ऊँचा मुँह कर के छोड़ा। फिर कहा—'मुश्किल क्या हैं, कैमरे से भी उसी प्रकार विचारों की तस्वीर खींची जा सकती हैं, जिस प्रकार कोई चित्रकार कूंची से खींचता हैं। वास्तव में कैमरा और कूँची दोनों ही तो एक साधन मात्र हैं, तस्वीर तो कलाकार का दिमाग ही खींचता हैं?'
सर फाज़ल-भाई जरा चैतन्य हो कर बोले—'तो आपका यह मतलब हैं कि आप रत्नयालात की तस्वीर खीच सकते हैं?' 'जरूर, यदि मुनासिब दाम मिले। मिस्टर वेदवार ने इस तरह मुस्कुरा कर यह जवाब दिया कि सर फाज़लभ-ाई एकदम उत्तेजित होकर बोले—'यदि आप मेरे एक शेर का फ़ोटो खींच सके तो मैं आप को मुँह माँगा दाम दूँगा।'
मिस्टर वेदवार ने हाथ का सिगार फेक दिया, जेब से पाँकेट बुक निकाल कर कहा—'बहुत अच्छा, आप यही बात इस नोट बुक मे लिख दे और वह शेर भी।'
सर फ़ाज़ल-भाई ने तैस मे आकर वादा भी लिख दिया और वह शेर भी। मिस्टर वेदवार ने एक सरसरी नज़र उस पर डाली, मुस्कराये, पाँकेट बुक जेब मे डाल कर कहा—"बहुत अच्छा, छः महीने मे आपको तस्वीर मिलेगी।'
'बहुत अच्छा, मै कयामत तक इन्ज़ार करूंगा।'
सब लोग हँस पड़े, सिर्फ मि° वेदद्वार नहीं हँसे। सभी मित्र चाय-पान खतम कर बिदा हुए।
[२]
वह शेर औरङ्गजेब की बेटी ज़ेबुन्निसाँ का एक प्रसिद्ध फ़ारसी शेर था। वह शेर फ़व्वारे के उछलते हुये जल को लक्ष्य कर पढ़ा गया था। उसका अभिप्राय यह था,—
'तेरी भौहों में बल पड़े हुये हैं, तू गुस्से से ताव-पेच खाकर ऊपर उठता है, और पत्थर पर सिर दे दे मारता है, तेरे दिल में ऐसा क्या दर्द है, तेरी प्रकृति ठण्डी हैं और स्वभाव शान्त।'
इस शेर की तस्वीर खींचने के इरादे से मिस्टर वेदवार ने बम्बई से पञ्जाब और काश्मीर तक की यात्रा करने की ठानी। वे दिल्ली-पञ्जाब घूमते हुये काश्मीर पहुंचे। शालीमार बाग़ में अंब वे चक्कर काटने और वही शेर गुन-गुनाने लगे। सामने सङ्गमर्मर के फ़व्वारे चल रहे थे। स्वच्छ सङ्ग-मर्मर की चौकियों पड़ी थीं। चांदनी रात थी। एक चौकी पर एक फ़व्वारे के सामने बैठ कर वे सोचने लगे—ऐसी ही सुहावनी चाँदनी रात होगी, ऐसी ही ठण्डी हवा चल रही होगी, ऐसा ही यह फ़व्वारा जल बखेर रहा होगा—देखो तो फ़व्वारे का पानी कैसा ताव-पेच खाकर ऊपर उछल रहा हैं, कैसे इसके माथे में बल पड़े हुये हैं। और किस तरह यह पत्थर पर सर पटक रहा हैं। अपने प्यारे के वियोग में जलती-भुनती भग्रहृदया जो ज़ेबुन्निसाँ ने यहीं, इसी पटिया पर बैठ कर अपने दिल के दर्द से इन पानी की धार के दर्द की कल्पना की होगी। कदाचित शाहजादी भी पत्थर पर सर दे मारना चाहती हो।
इन्हीं विचारो मे मिस्टर वेदवार उस फ़व्वारे को देखते रहे कई बार देखा और अन्त मे एक विचार उन्होंने तय किया। एक जे़बुन्निसाँ की मूर्ति तलाश की जाय, उसे इसी चौकी पर बैठाया जाय और उसके मस्तिष्क मे यही विचार उत्पन्न किया जाय और तब उसका एक फोटो ले लिया जाय।
अब मिस्टर वेदवार अपनी ढीली-ढाली पतलून में हाथ डाले, रूप के बाजार की सैर को निकले, काश्मीर भर की सुन्दरियाँ देख डालीं, मगर जो जे़बुन्निसाँ की आकृति की कोई लड़की उन्हे न मिली। वे हताश हो लाहौर आये। वहाँ भी घूमते रहे, तस्वीर खींचने से निराश हो रहे थे। एक दिन शाम को उन्होंने एक युवती को मोटर से उतर कर एक दुकान मे घुसते देखा। देखते ही उछल पड़े। वैसी ही नाक वैसी तीखी-आँखे, चौड़ा माथा, लम्बी गर्दन हू-ब-हू जैसे शाहजादी जे जे़बुन्निसाँ हो, वे खुशी-खुशी दुकान में घुस गये। घूर घूर कर ऊपर से नीचे तक युवती को देखने लगे। भीड़-भाड़ में किसी ने उनकी बेहूदगी पर गौर नहीं किया। युवती जब सौदा खरीद कर चली तो आप भी टेक्सी लेकर पीछे-पीछे चल दिये। और जब वह अपने बगले मे चली गई, तो आपने पता लगाया कि वह कोई सेशन जज हैं, जिनका यह बँगला है, उन्हीं की वह पुत्री है।
आपने खट से अपना कार्ड जज साहब को भेज दिया। मिलने पर आपने संक्षेप में अपना परिचय देकर कहा,—'कृपा कर आप अपनी पुत्री का एक फोटो खींच लेने की आज्ञा दे दीजिये।' जज साहब बहुत भड़के-भन्नाये; परन्तु वेदवार साहब भला कहाँ छोड़ने वाले थे, जब बड़ी-बड़ी सिफारिशें और परिचय-पत्र उन तक पहुँचे। और मिस्टर वेदवार की आयु, सौजन्य सनक और उद्देश उन्हें मालूम होगया तो वे उनके दोस्त हो गये और इस शर्त पर राजी हो गये कि फ़ोटो हमारे ही सामने खींचा जायगा।
जब जज साहब राजी हो गये तब मिस्टर वेदवार ने यह पख लगाई कि फ़ोटो यहां नही, शालीमार वाग़ मे खींचा जायगा। जज साहब किसी तरह राजी न होते थे, पर अन्त मे जब सब खर्च का भार मिस्टर वेदवार ने लिया तो राज़ी हो गये। एक महीने की छुट्टी ली, और पूरी पार्टी काश्मीर जा पहुंची।
जे़बुन्निसाँ के उपयुक्त पोशाक और जेवर तैयार कराने में, लड़की के मस्तिष्क में, वही भाव भरने में मिस्टर वेदवार को कई दिन लग गये। रुपया भी बहुत खर्च हो गया। परन्तु इसकी उन्हें परवाह न थी, किसी भांति तस्वीर खिच जाय। जज साहब को भी अब उनकी सनक में मजा आने लगा था। और लड़की भी रस लेने लगी थी। इससे मिस्टर वेदवार की कठिनाइयां कुछ हल्की हो गई थी।
सब तैयारी कर चुकने पर अन्त मे एक दिन फोटो खींचने का इरादा पक्का कर सब लोग शालीमार बाग़ पहुँचे। जज साहब ने देखा, काफी रुपया खर्च करके वेदवार ने वहां आवश्यक परिवर्तन किये हैं। ऐसा मालूम होता था, शाहजादी जे़बुन्निसां, इसी बाग़ मे आजकल रह रही हैं।
परन्तु जब फ़ोटो लेने का समय आया और सब तैयारियां होगईं तो फोकस लेने के बाद मिस्टर वेदवार ने उदास होकर कहा—'अफसोस है, आज फ़ोटो नहीं खिच सकता।'
जज साहब बौखला उठे। उनकी छुट्टियों के बहुत कम दिन रह गये थे। बोले—'अब क्या हुआ?'
मिस्टर वेदवार ने समझाया। फ़ोटो उस समय लिया जायगा जब सूरज के नीचे एक वादल का टुकड़ा होगा। हमे यहां रोज़ आना होगा, उसकी प्रतीक्षा करनी होगी। बिना ऐसा हुए चांदनी रात का राइट-शेड चित्र मे नही आ सकता, और कृत्रिम बन्दोबस्त भी नहीं किया जा सकता।
जज साहब बहुत चीखे चिल्लाये। पर मिस्टर वेदवार की बेबसी, विनय और इतने दिन की मुरव्वत ने आखिर उन्हें पिघला दिया। वे मिस्टर वेदवार के पीछे खूब ही नाचे और अन्त में एक दिन ठीक फ़ोटो खिच गया। फ़ोटो देख कर मिस्टर वेदवार आनन्द से बिह्वल हो गये। वे दौड़े दौड़े गये और जज साहब के गले से लिपट गये। चित्र क्या था मानो स्वयं शाहजादी जे़बुन्निसाँ चाँदनी रात मे अपने उदास और एकाकी जीवन के लिए फ़व्वारे के सामने बैठी उसके प्रति संवेदना प्रकट कर रही हैं। और वह शेर जैसे अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ा हैं।
(३)
बम्बई पहुंच कर चित्र मित्र-मण्डली के सामने सर फाज़ल-भाई को दिया गया। बम्बई के सब कलाकार बुलाये गये। सबने मुक्त-कण्ठ से चित्र की प्रसंसा की। जब सर फाज़ल-भाई ने उसका मूल्य पूछा तो मिस्टर वेदवार एक ठण्डी सांस लेकर बोले—'वादा कर चुका हूँ, इसलिए देना पड़ा। इस चित्र का कोई मूल्य नहीं हैं। छत्तीस हज़ार रुपया मेरा जो इसके बनाने से खर्च हुआ हैं, दे दीजिये।'