उपयोगितावाद/तीसरा अध्याय
तीसरा अध्याय।
उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद।
बहुधा यह प्रश्न किया जाता है कि उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद क्या है? किन प्रयोजनों से हम इस सिद्धान्त को मानें? या हम इस सिद्धान्त को किस कारण मानने के लिये बाधित हों? अर्थात् इस सिद्धान्त का मूल आधार क्या है? किसी नैविक या आचार विषयक आदर्श या कसौटी के संबन्ध में ऐसा प्रश्न करना ठीक भी है। इस प्रश्न का उत्तर देना नैतिक दर्शन शास्त्र का आवश्यक अङ्ग है। किन्तु यह प्रश्न कभी २ उपयोगितावाद के विरुद्ध आक्षेप के रूप में किया जाता है मानो इस सिद्धान्त के सम्बन्ध ही में ऐसा प्रश्न हो सकता है। वास्तव में सब आदर्शों तथा कसौटियों के सम्बन्ध में ऐसा प्रश्न उठता है। उपयोगितावाद ही के विषय में ऐसा प्रश्न उठाने का कारण यह है कि जब किसी आदमी से कहा जाता है कि वह किसी चीज़ को आचार शास्त्र का आधार माने जिसको मानने का वह आदी नहीं है, अर्थात् जिस बात को अब तक वह आधार मानता हुआ नहीं पाया है, तो वह पहले पहल घबराता है क्योंकि आचार शास्त्र की वे बातें जो उसकी शिक्षा के कारण तथा दूसरे लोगों की देखा-देखी उसके दिल में बैठ गई हैं उसको स्वत: सिद्ध मालूम पड़ती हैं। जब उससे किसी ऐसे सर्वव्यापक सिद्धान्त को मानने के लिये कहा जाता है जिस पर प्रचलित रस्म-रिवाज़ (Custom) की वैसी मौहर नहीं लगी हुई है तो उसको ऐसे सिद्धान्त में विरोधाभास प्रतीत होता है। मूल सिद्धान्त की अपेक्षा कल्पित उप सिद्धान्तों को अनुकरणीय मानने की ओर अधिक प्रवृत्ति होती है। ऐसा मालूम पड़ता है कि ऊपरी इमारत नीव के आधार पर खड़ी रहने की अपेक्षा बिना नीव के ही अधिक अच्छी तरह खड़ी रह सकती है। वह अपने दिल में कहता है कि किसी की हत्या न करने या किसी का माल न लूटने तथा विश्वासघात न करने या धोखा न देने के लिये तो मैं बाधित हूं किन्तु सार्वजनिक प्रसन्नता या सुख बढ़ाने के लिये मैं क्यों बाधित हूं? यदि किसी बात में मेरा हित है तो मैं सार्वजनिक हित की अपेक्षा अपने ही हित को क्यों न अधिक अच्छा समझूं?
यदि आचार विषयक भावना (Moral Sense) के सम्बन्ध में उपयोगितावाद की कल्पना ठीक है तो इस प्रकार की कठिनाई उस समय तक सदैव उपस्थित होती रहेगी जब तक कि वे प्रभाव-जिन से चरित्र बनता है मूल सिद्धान्त पर भी उतना ही जोर न देने लगेंगे जितना ज़ोर मूल सिद्धान्त के कतिपय परिणामों पर देते हैं तथा जब तक शिक्षा के सुधार से हम अपने भाइयों के साथ एकता के सूत्र में न बंध जायेंगे अर्थात् उनके सुख दुःख को अपना सुख दुःख न समझने लगेंगे तथा जिस प्रकार साधारण युवक जुर्म के भय से कांपता है उसी प्रकार अपने समान सर्व प्राणियों को समझना (आत्मवत् सर्वभूतेषु) हमारी आदत ही में दाखिल न हो जायगा। किन्तु ऐसी दशा को प्राप्त होने से पहिले उपरोक्त कठिनाई उपयोगिता के सिद्धान्त पर ही विशेष रूप से लागू नहीं होती है। जब कभी भी हम आचार विषयक कार्यों का विश्लवण करके उनको सिद्धान्तों का रूप देने का प्रयत्न करेंगे, यह कठिनाई उस समय तक सदैव उपस्थित रहेगी जब तक कि मनुष्यों का मस्तिष्क मूल सिद्धान्त को भी मूल सिद्धान्त के उपयोगों (Applications) के समान ही प्रमाणिक न मानने लगेगा।
उपयोगितावादी भी अपने सिद्धान्त की प्रमाणिकता के सम्बन्ध में प्राचार-शास्त्र के अन्य सम्प्रदाय वालों के बराबर ही सनद (Sanctions) दे सकते हैं। ये सनद या तो बाह्य हैं या आन्तरिक। बाह्य सनदों के सम्बन्ध में यहां पर अधिक विस्तार से लिखना आवश्यक नहीं है। ये बाह्य सनद ये हैं अपने भाइयों या ईश्वर को प्रसन्न करने की आशा तथा उनकी नाराज़गी का डर तथा अपने भाइयों के प्रति न्यूनाधिक अंश में प्रेम और सहानुभूति तथा न्यूनाधिक अंश में ईश्वर का प्रेम और डर जिसके कारण हम अपने स्वार्थ का विचार छोड़ कर ईश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करने की ओर आकर्षित होते हैं। प्रत्यक्ष में कोई कारण नहीं मालूम कि अन्य प्रकार के आचार शास्त्रों के समान उपयोगितात्मक आचार शास्त्र का पालन करने में भी उपरोक्त प्रयोजन उतने ही पूर्ण रूप से तथा उतने ही ज़ोर से प्रवृत्त न करें। निस्सन्देह अपने भाइयों के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति के भाव मानसिक विकाश के अनुसार कम या अधिक होंगे। नैतिक कर्तव्य निर्धारित करने की सार्वजनिक सुख के अतिरिक्त चाहे और कोई कसौटी हो या न हो, किन्तु यह बात निस्सन्दिग्ध है कि मनुष्य सुख चाहते हैं। सुख के पाने के लिये मनुष्य स्वयं चाहे कैसे ही काम क्यों न करते हों, किन्तु वे चाहते हैं कि दूसरे उनके साथ ऐसा व्यवहार करें जिससे उनके विचारानुसार उनके सुख की बढ़ती होती हो। दूसरों के ऐसे ही कामों की वे प्रशंसा करते हैं। अब धार्मिक उद्देश्य को लीजिये। यदि मनुष्यों को ईश्वर की नेकी में विश्वास है जैसा कि बहुत से मनुष्य प्रगट करते हैं तो उस मनुष्य को, जो सार्वजनिक सुख को कर्तव्य निर्धारित करके की एकमात्र कसौटी मानता है, इस बात में भी विश्वास करना होगा कि कर्तव्य ऐसा काम होना चाहिये जिसको ईश्वर पसन्द करता है। इस कारण पुरस्कार की आशा तथा दण्ड का भय चाहे शारीरिक चाहे नैतिक तथा चाहे ईश्वर की ओर से चाहे अपने भाइयों की ओर से ये सब बातें तथा साथ में बिना मतलब के दूसरों के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति के न्यूनाधिक भाव जितने मनुष्य प्रकृति में होने सम्भव हों हमको इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य करने के लिये विवश करेंगे। शिक्षा तथा साधारण संस्कृति (Cultivation) ज्यूं २ इन उद्देश्यों की ओर अधिक झुकाती जायेंगी, ये सब कारण और भी अधिक ज़ोर से काम करने लगेंगे।
ये तो बाह्य कारण हुवे जो हम को इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य करने के लिये विवश करते हैं। अब प्रान्तरिक कारण लीजिये। चाहे हमारा कर्तव्य (Duty) का कुछ भी आदर्श या कसौटी क्यों न हो आन्तरिक कारण सदैव एक ही है। वह प्रान्तरिक कारण यह है कि हमारे ही मस्तिष्क में एक प्रकार की भावना है। कर्तव्य-पथ से विचलित होने पर कम या अधिक कष्ट होता है। उचित विकाश-प्राप्त तथा सदाचारी मनुष्यों में यह भावना इतनी प्रबल होती है कि विशेष दशाओं में उनको कर्तव्य-पथ से विचलित होना असम्भव हो जाता है। यह भावना ही, जब स्वार्थ भाव से रहित होकर अर्थात् निष्कामरूप से कर्तव्य का विचार करती है, अन्त:करण का सार है। निस्सन्देह अन्त:करण की बनावट बड़ी पेचीदा है। सहानुभूति, प्रेम, भय, धार्मिक विचार, बचपन तथा बीते हुवे जीवन की याद, आत्म-सम्मान, दूसरों का मान करने की इच्छा और कभी कभी आत्म-पतन (Selfabasement) भी इन सब बातों का प्रभाव अन्त:करण पर पड़ता है। अन्तःकरण कैसे बना है? यह प्रश्न बड़ा जटिल है। किन्तु इस विषय में हमारे चाहे कुछ भी विचार क्यों न हो यह बात निर्विवाद है कि अन्तःकरण ऐसे कामों को करने से, जो हमारे उस आदर्श के जिसको हमने ठीक मान रक्खा है विरुद्ध हैं रोकता है तथा अन्तःकरण की बात न मानने से एक प्रकार की वेदना होती है।
इस कारण सारे सदाचारों की अन्तिम सनद (Sanction) वाह्य प्रयोजनों को छोड़कर हमारे ही मस्तिष्क की एक आत्मगत Subjective) भावना है। जिन लोगों का आदर्श उपयोगिता है उनको इस प्रश्न का उत्तर देने में, कि इस सिद्धान्त की सनद क्या है, किसी प्रकार की अड़चन नहीं होनी चाहिये। हम उत्तर दे सकते हैं मनुष्य जाति की सदसद्विवेकिनी भावनायें। निस्सन्देह इस सनद से वे मनुष्य उपयोगितावाद को मानने के लिये वाधित नहीं किये जा सकते जिनमें इस प्रकार की भावनाएं नहीं हैं जिनको यह सिद्धान्त उत्तेजित करता है। किन्तु ऐसे आदमी तो अन्य किसी नैतिक सिद्धान्त के भी उपयोगितावाद के सिद्धान्त से अधिक आज्ञाकारी नहीं होंगे। ऐसे लोग तो वाह्य कारणों से ही किसी कार्य की प्राचारयुक्तता मान सकते हैं। किन्तु यह बात निस्सन्दिग्ध है कि इस प्रकार की भावनाएं मनुष्यों में हैं। अनुभव अर्थात् नजुरबा इस बात को प्रमाणित करता है कि ऐसी भावनाएं हैं तथा उन मनुष्यों पर, जिनमें इस प्रकार की भावनाओं का उचित रीति से विकाश किया गया है, प्रभाव डालती है। कभी इस बात का कोई कारण नहीं बतलाया गया है कि ये भावनाएं अर्थात अन्तगत्मा इस प्रकार विकसित क्यों नहीं की जासकती कि जिससे अन्य प्राचार विषयक नियमों के समान उपयोगितावाद के अनुसार कार्य करने के लिये भी समान शक्ति से उत्तेजित करे।
मुझे मालूम है कि कुछ लोगों का ऐसा विश्वास है कि ऐसे मनुष्य, जो प्राचाग्युक्तता का आधार किसी इन्द्रियातीत (Transcendental) बात को मानते हैं अर्थात् इस ही कारण से किसी कार्य को करना ठीक समझते हैं क्योंकि वह ठीक है, अपनी अन्तगत्मा ही को प्रमाणिकता का प्राधार मानने वाले मनुष्यों की अपेक्षा अपने पक्ष से कम विचलित होंगे। किन्तु अध्यात्म-शास्त्र की इस समस्या के संबन्ध में किसी मनुष्य की कोई सम्मति क्यों न हो, वह शक्ति जो वास्तव में मनुष्य को कार्य करने के लिये उत्तेजित करती है उस ही की आत्मगत भावना है। किसी मनुष्य का कर्तव्य के अनात्म सम्बन्धी (Objective) होने में ईश्वर के अनात्म-सम्बन्धी होने से अधिक विश्वास नहीं है। किन्तु फिर भी ईश्वर के विश्वास का पुरस्कार की आशा तथा दण्ड के भय की बात छोड़ कर चरित्र पर आत्मगत धार्मिक भावनाओं के द्वारा तथा उन्हीं के अनुसार प्रभाव पड़ता है। स्वार्थ-भाव से रहित होने की दशा में प्रमाणिकता का विचार बराबर मस्तिष्क में बना रहता है। किन्तु इन्द्रियातीत प्राचार-शास्त्रियों का ख्याल है कि यदि हम इस प्रमाणिकता का प्राधार मस्तिष्क से बाहर नहीं मानेंगे तो यह प्रमाणिकता कायम नहीं रहेगी। यदि कोई मनुष्य अपने दिल में कहने लगे कि जो चीज़ मुझे रोक रही है तथा जिसे मैं अपना अन्त:करण कहता हूं मेरे ही मस्तिष्क की भावना मात्र है तो यह नतीजा निकाल सकता है कि जब यह भावना नष्ट हो जायगी तो मैं उसके अनुसार कार्य करने के लिये वाध्य नहीं रहूंगा। इस कारण ऐसा मनुष्य अन्तरात्मा की उपेक्षा करने तथा उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करेगा। किन्तु क्या यह खतरा उपयोगितावाद तक ही संकुचित है। क्या नैतिक फ़र्ज़ या कर्तव्य का आधार मस्तिष्क से बाहर मान लेने के विश्वास से ही हमारी एतद् सम्बन्धी भावना इतनी दृढ़ हो जायगी कि फिर हम उससे छुटकारा न पा सकेंगे। किन्तु यह बात नहीं है। सारे आचार-शास्त्री इस बात को मानते हैं तथा इस बात पर खेद प्रगट करते हैं कि अधिकतर मनुष्य बहुत आसानी से अपने अन्त:करण को चुप कर सकते हैं। उपयोगितावाद को मानने वालों के समान वे मनुष्य भी, जिन्हों ने कभी उपयोगितावाद के विषय में कुछ नहीं सुना है, बहुधा प्रश्न करते हैं, "क्या मुझे अपनी अन्तरात्मा का आदेश मानना चाहिये?" यदि वे मनुष्य भी, जिनकी अन्तरात्मा इतनी कमज़ोर पड़ गई है कि ऐसा प्रश्न उठाते हैं, इस प्रश्न का उत्तर 'हां' में देते हैं और अपने कर्तव्य का पालन करते हैं तो इसका कारण उनका इन्द्रियातीत सिद्धान्त (Transcendental Theory) में निश्वास नहीं है वरन् इसकी वजह यह है कि वे वाह्य कारणों से जिनका विवेचन किया जा चुका है ऐसा करना ठीक समझते हैं।
इस समय इस बात का निर्णय करना आवश्यक नहीं है कि कर्तव्य की भावना नैसर्गिक है या कृत्रिम। नैसर्गिक मानने की दशा में प्रश्न उठता है कि कुदरती तौर से इस भावना का सम्बन्ध किन किन बातों से है?
नैसर्गिक मानने वाले तत्त्वज्ञानी इस विषय पर एकमत हैं कि नैसर्गिक भाव का संबंध प्राचार विषयक सिद्धान्तों ही से होता है, एतद् सम्बन्धी छोटी छोटी बातों से नहीं। यदि कोई भी भाव नैसर्गिक होता है तो इस बात की पुष्टि में कोई कारण नहीं दिया जा सकता कि वह नैमगिर्क भाव दूसरों के सुख दुःख के सम्बन्ध में नहीं हो सकता। यदि आचार विषयक किसी सिद्धान्त को मानने की प्रेरणा नैमर्गिक हो सकती है तो वह इसी सिद्धान्त की अर्थात दूसरों के दुःख का विचार रखने ही की हो सकती है। यदि नैसर्गिक आचार-नीति आचार शास्त्र की उस ही बात को बताने लगे जिस को उपयोगितात्मक प्राचार शास्त्र मानता है, तो फिर इन दोनों में आगे कुछ भी झगड़ा नहीं रहेगा। किन्तु मौजूदा हालत में भी, यद्यपि नैमर्गिक आचार-शास्त्री दूसरे मनुष्यों के सुख दुःख का विचार रखने की भावना ही को एक मात्र नैसर्गिक भावना नहीं मानते हैं किन्तु फिर भी इस प्रकार की भावना को अर्थात् दूसरों के सुख दु:ख के विचार को एक नैसर्गिक भावना अवश्य मानते हैं। वे एक मत होकर कहते हैं कि आचारयुक्त अधिकांश कार्यों में दूमरों के लाभ ही का ख्याल रहता है। इस कारण नैतिक कर्तव्य की उत्पत्ति अतीतात्मक मानने के विश्वास से यदि आन्तरिक प्रमाणिकता को किसी प्रकार की ओर अधिक पुष्टि मिलती है तो मेरे विचार में उपयोगितात्मक सिद्धान्त को भी इस का लाभ पहुंच रहा है।
इसके विपरीत यदि नैतिक भावनायें नैसर्गिक न हों वरन् अर्जिन हों, जैसा कि मेरा भी विश्वास है, तो भी अर्जित होने के कारण से इन भावनाओं को कम स्वाभाविक नहीं समझना चाहिये। मनुष्य के लिये बोलना, तर्क करना, शहर बनाना तथा ज़मीन जोतना बोना स्वाभाविक हैं, यद्यपि ये सब शक्तियां अर्जित हैं। इन अर्जित शक्तियों के समान नैतिक भावना भी, हमारी प्रकृति का अंग नहीं है, किन्तु इनके समान ही हमारी प्रकृति से स्वाभाविकतया उत्पन्न होती है तथा इन शक्तियों के समान ही, किन्तु कुछ कम अंश में, स्वतः उत्पन्न होकर संस्कृति द्वारा बहुत कुछ विकसित की जा सकती है। अभाग्यवश बाह्य कारणों का काफी प्रभाव पड़ने से तथा प्रारंभिक संस्कारों की वजह से नैतिक भावना प्रत्येक दिशा में मुड़ सकती है। अत: उन प्रभावों के द्वाग नैतिक शक्ति को इतना मज़बूत बनाया जा सकता है कि अन्तःकरण के समान ही यह शक्ति मनुष्य के मस्तिष्क पर अपना आधिपत्य जमा सकती है। मानुषिक प्रकृति में उपयोगितात्मक सिद्धान्त का भाव नैसर्गिक न होने पर भी इस सिद्धान्त का भाव उत्पन्न तथा विकसित कराया जा सकता है इस विषय में सन्देह करना अनुभव के बिल्कुल विपरीत जाना है।
किन्तु मानसिक संस्कृति बढ़ने पर शिक्षा द्वारा उत्पन्न किये हुवे पूर्णरूप से कृत्रिम नैतिक भावों के (Aribitrary) प्रतीत होने पर उपयोगितात्मक कर्तव्य की भावना के धीरे धीरे लुप्त हो जाने की आशंका है। इस कारण ऐसे शक्तिशाली स्थायी भाव होने चाहिये जिनके कारण हम को कर्तव्य की भावना नैसर्गिक प्रतीत हो तथा इस स्थायी भाव को केवल दूसरों ही में नहीं वरन् अपने में भी बढ़ाने की ओर रुचि हो। सारांश यह कि उपयोगितात्मक प्राचार शास्त्र के लिये स्थायी भाव का भी एक नैसर्गिक आधार होना चाहिये।
इस प्रकार के प्राकृतिक स्थायीभाव का आधार है और वह दृढ़ आधार मनुष्य जाति की सामाजिक भावना अर्थात् मनुष्य को अन्य मनुष्यों के साथ सम्बद्ध रहने की इच्छा है। मनुष्य-प्रकृति में इस समय ही यह इच्छा बहुन अन्श में विद्यमान है तथा सभ्यता की बढ़ती के साथ २ स्वयमेव ही अधिकाधिक होती जाती है। मनुष्य को सामाजिक दशा इतनी अधिक प्राकृतिक तथा इतनी अधिक ग्वाभाविक प्रतीत होती है कि सदैव अपने आपको समाज का सभ्य ही समझता रहता है। असाधारण परिस्थितियों की या उस समय की और बात है जब कि मनुष्य किसी कारण से जान बूझ कर समाज से पृथक होने की चेष्टा करता है। ज्यूं २ मनुष्य बर्बर अनपेक्षता की दशा से दूर होता जायगा, सामाजिक बन्धन भी अधिक दृढ़ होता जायगा। अब देखना चाहिये कि मनुष्य किस दशा में समाज में रह सकते हैं। स्वामी और सेवक के सम्बन्ध को छोड़कर मनुष्य उसी दशा में समाज में रह सकते हैं जब कि सब मनुष्यों के हिताहित का ध्यान रक्खा जाय। इसके अतिरिक्त और किसी आधार पर समाज का स्थिर रहना देखती पाखों असम्भव प्रतीत होता है। समान मनुष्यों का मेल इसी समझौते पर रह सकता है कि सब मनुष्यों के हित की ओर बराबर ध्यान दिया जायगा। सभ्यता की प्रत्येक दशा में, अनियन्त्रित शासक को छोड़ कर, प्रत्येक मनुष्य के समान अन्य मनुष्य भी रहते हैं। इस कारण प्रत्येक मनुष्य को अन्य मनुष्यों के साथ बराबरी का सम्बन्ध रखने के लिये विवश होना पड़ता है। दिन प्रति दिन हम ऐसी दशा के निकटतर पहुंचते जा रहे हैं जब सदैव के लिये किसी मनुष्य के साथ बराबरी के अतिरिक्त और किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना असम्भव होजायगा। इस कारण दिन प्रतिदिन हमको दूसरों के हित की बिल्कुल उपेक्षा का विचार कल्पनातीत प्रतीत होता जा रहा है। हम एक दूसरे के साथ काम करना सीखते जा रहे हैं तथा अपने कामों का उद्देश्य व्यक्तिगत हित के स्थान में सामाजिक हित (कम से कम इस समय के लिये) बताने लगे हैं। जब तक हम दूसरों के साथ काम करते रहेंगे तथा हमारे और उनके उद्देश्य एक रहेंगे उस समय कम से कम यह क्षणिक भावना अवश्य उत्पन्न होजायगी कि दूसरों का हित हमारा ही हित है। सामाजिक बन्धनों के दृढ़ होने तथा समाजके उन्नतावस्था को प्राप्त होने से दूसरों के सुख का ध्यान रखने की ओर केवल हमारी अधिक अभिरुचि ही नहीं हो जायगी वरन् हमारी भावनाएं उनकी भलाई के रंग में रंग जायेंगी। कम से कम व्यवहार रूप में दूसरों की भलाई का बहुत अधिक विचार रखने लगेंगी। अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के समान ही दूसरों की भलाई का ध्यान रखना भी स्वाभाविक तथा आवश्यक प्रतीत होने लगेगा। अस्तु। चाहे मनुष्य में इस प्रकार की भावना कितने ही अंश में क्यों न हो, वह लाभ तथा सहानुभूति के प्रयोजन से इस भावना को प्रगट करने के लिये उत्तेजित होता है तथा यथाशक्ति दूसरों में इस प्रकार की भावना को उत्तेजित करता है। यदि किसी मनुष्य में इस प्रकार की भावना बिल्कुल भी न हो तो ऐसा मनुष्य भी यह चाहेगा कि अन्य मनुष्यों में इस प्रकार की भावना पैदा हो। इन सब कारणों से इस भावना का छोटे से छोटा अंकुर भी जड़ जमा लेगा तथा शिक्षा की बढ़ती के साथ २ विकसित अवस्था को प्राप्त हो जायगा। वाह्य ज़बरदस्त कारण (Powerful external sanctions) इस भावना का अनुमोदन करते रहेंगे। सभ्यता की बढ़ती के साथ २ मानुषिक जीवन को इस रूप में देखना अधिक स्वाभाविक प्रतीत होता जायगा। प्रत्येक राजनैतिक उन्नति के साथ २ अर्थात् हिन-विरोध के कारणों के दुर होने तथा क़ानूनी रियायतों के कारण फैली हुई भिन्न २ व्यक्तियों तथा भिन्न २ जमानों की आममानता को मिटाने से, जिम के कारण बहुत से मनुष्यों के सुख की उपेक्षा करना अब भी संभव है, उपरोक्त भावना को प्राकृतिक समझना और भी अधिक संभव होता जा रहा है। ऐसे प्रभाव बराबर बढ़ते जा रहे हैं जिन के कारण प्रत्येक में यह भावना कि मैं तथा शेष मनुष्य एक हैं जड़ जमाती जा रही है। इस प्रकार की भावना जब पूर्णता को प्राप्त हो जायगी तो मनुष्य कभी ऐसे काम नहीं सोचेगा या ऐसे काम को करने की कभी इच्छा नहीं करेगा जिस से उसके लाभ के अतिरिक्त और किसी का लाभ न होता हो। अब यदि हम मान ले कि एकता की इस भावना को धर्म के समान सिखाया आयगा तथा शिक्षा, संस्थाओं और लोक-मत से इस भावना को दृढ़ करने में यथासंभव सहायता ली जायगी जैसी कि किसी समय में धर्म के लिये ली जाती थी तथा प्रत्येक मनुष्य बचपन ही से इस भावना का प्रचार तथा कार्यरूप में व्यवहार देखेगा तो मेरे ख्याल में किसी मनुष्य को जो इस प्रकार की स्थिति की कल्पना को समझ सकता है सुखवादी सदाचार की अन्तिम सनद के काफ़ी ज़ोरदार होने में सन्देह नहीं रहेगा। आचार-शास्त्र के जिन विद्यार्थियों के लिये इस प्रकार की स्थिति को ठीक २ समझना कठिन मालूम पड़े उन्हें कान्ट की (System de Politique Positive) नामक पुस्तक पढ़नी चाहिये। जिन मनुष्यों की मानसिक भावनाएं उपयोगितात्मक प्राचार शास्त्र को मानने की ओर प्रवृत्त करती हैं उनको उस समय की प्रतीक्षा करते रहने की आवश्यकता नहीं है जब कि सामाजिक प्रभाव इस प्रकार के हो जाएंगे कि अधिकांश समाज इस सिद्धान्त को मानने की ओर प्रवृत्त होने लगेगा। समाज उन्नति की आधुनिक आदिम अवस्था में मनुष्य के दिल में दूसरों के प्रति सहानुभूति का भाव इतना गहरा नहीं हो सकता कि जनमाधारण के हित के विपरीत कार्य करना उसके लिये असम्भव ही हो जाय। किन्तु आधुनिक स्थिति में भी कोई मनुष्य, जिमके दिल में समाज के विचार ने कुछ भी स्थान जमा लिया है, यह नहीं ख्याल कर सकता कि शेष मनुष्य सुख प्राप्ति के उद्देश्य में मेरे प्रतिद्वन्दी हैं तथा मेरी उद्देश्य सिद्धि के लिये उनकी प्रकृतकार्यता आवश्यक है। अब प्रत्येक मनुष्य अपने आपको समाज का एक सभ्य समझने लगा है और इस कारण अब प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस प्रकार के विचार स्वाभाविक रूप से स्थान जमाते जारहे हैं कि मेरी और अन्य मनुष्यों की भावनाओं तथा उद्देश्यों में समानता हो। यदि मत-विपरीतता तथा मानसिक संस्कृति के भेद के कारण एक मनुष्य की भावनायें अन्य मनुष्यों की बहुत सी भावनाओं से नहीं मिलती तथा कभी २ एक आदमी दूसरे आदमियों की बहुत सी भावनाओं को दूषित बताता है तथा उनका खण्डन करता है, किन्तु फिर भी उसको ध्यान रहता है कि उसके तथा अन्य मनुष्यों के उद्देश्य परस्पर-विरोधी नहीं हैं तथा वह जो कुछ कर रहा है अन्य मनुष्यों की भलाई के लिये ही कर रहा है उनकी बुराई के लिये नहीं। कुछ मनुष्यों में इस प्रकार की भावना बहुत कम मात्रा में होती है। स्वार्थ का ध्यान अधिक बना रहता है। कुछ मनुष्यों में इस प्रकार की भावना बिल्कुल भी नहीं होती। किन्तु जिन मनुष्यों में इस प्रकार की भावना होती है, उन्हें यह भावना नैसर्गिक ही प्रतीत होती है। वे यह नहीं समझते कि शिक्षा के कारण उनके मस्तिष्क में इस प्रकार के मूढ़ विश्वास (Superstition) ने स्थान कर लिया है। उनकी यह भी धारणा नहीं होती कि इस प्रकार की भावना समाज के नादिरशाही शासन का प्रभाव है। वे यही समझते हैं कि इस प्रकार की भावना का होना उचित ही है। इस प्रकार का निश्चय ही अधिक प्रसन्नतात्मक आचरण का अन्तिम हेतु या दलील है। इस ही निश्चय के कारण सुविकसित भावनाओं वाला मनुष्य दूसरों के हित का ध्यान रखता हुवा कार्य करता है। उनके हित की अवहेलना नहीं करता। बाहरी हेतुओं से भी, जिनका अभी वर्णन किया जा चुका है, ऐसा होता है। बाहरी हेतुओं की अनुपस्थिति तथा विपरीत लेजाने की दशा में यह निश्चय ही मार्ग से विचलित नहीं होने देता है। भिन्न २ मनुष्यों में उनकी प्रकृति के अनुसार इस प्रकार के निश्चय की शक्ति कम या अधिक अवश्य होती है किन्तु उन मनुष्यों के अतिरिक्त, जिन में नैतिक विचारों का बिल्कुल ही अभाव है, ऐसा आदमी कोई ही होगा जो केवल अपने मतलब ही से मतलब रक्खे और बिना मतलब के दूसरों के हित की ओर बिल्कुल भी ध्यान न दे।