उपयोगितावाद/पहिला अध्याय

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उपयोगितावाद ।

पहिला अध्याय।

साधारण वक्तव्य

दर्शनशास्त्र के आरम्भ ही से अच्छे बुरे का प्रश्न या दूसरे शब्दों में आचार के आधार का प्रश्न दर्शनशास्त्र की मुख्य समस्या रहा है। बड़े २ प्रतिभाशाली विद्वानों ने इस पर विचार किया है और मत-भेद के कारण भिन्न २ शाखाओं में विभक्त हो गये हैं तथा एक दूसरे पर ख़ूब आक्षेप प्रत्याक्षेप किये हैं। आज दो सहस्र वर्ष पश्चात् भी वे ही झगड़े बने हुवे हैं। अब तक तत्त्वज्ञानी इस समस्या के सम्बन्ध में परस्पर विरोधात्मक विचार रखने वाली शाखाओं में बटे हुवे हैं। इस समस्याके सम्बन्ध में जितने भिन्न २ मत उस समय थे, जब कि युवावस्था [ २८ ]में सुकरात बूढ़े प्रोटोगोरास (Protogoras) का उपदेश सुना करता था—यदि प्लेटो के 'वाद विवाद' (Dialogue) का आधार वास्तविक बात चीत है-और उस समय के शास्त्री कहलाने वालों (Sophists) के जन साधारण में प्रचलित आचार विषयक सिद्धान्तों के विरुद्ध उपयोगितावाद का सिद्धान्त प्रमाणित किया करता था, उतने ही भिन्न २ मत इस समय भी हैं।

यह बात ठीक है कि ऐसा ही भ्रम तथा असन्दिग्धता तथा कुछ २ दशाओं में ऐसा ही वैमत्य सब विज्ञानों के मूल सिद्धान्तों में है। गणित शास्त्र तक—जिसके सिद्धान्त प्राय सब शास्त्रों के सिद्धान्तों से स्थिर समके जाते हैं—इस दोष से मुक्त नहीं है। किन्तु इस वैमत्य से इन शास्त्रों की विश्वसनीयता में कुछ बट्टा नहीं लगता । इस ऊपरी उच्छृङ्खलता का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है कि साधारणतया किसी शास्त्र के विस्तृत सिद्धान्त उन सिद्धान्तों से नहीं निकाले जाते हैं जिनको मूलसिद्धान्त कहा जाता है । न उनका अस्तित्व ही मूल सिद्धान्तों पर निर्भर रहता है। यदि ऐसा न होता तो वीज गणित से अधिक सन्दिग्ध तथा अपरियाप्त निष्कर्ष वाला कोई और शास्त्र नहीं होता क्योंकि वीज गणित का कोई भी असन्दिग्ध सिद्धान्त उन सिद्धान्तों से नहीं निकला है जो साधारणतया विद्यार्थियों को उसके मूल सिद्धान्त बताये जाते हैं। ये मूल सिद्धान्त-बीजगणित के बहुत से लब्ध प्रतिष्ठ शिक्षकों की व्याख्या के अनुसार-अंग्रेज़ी कानून शास्त्र के समान कल्पनात्मक तथा ईश्वर विद्या (Theology) के समान रहस्यमय हैं। वे सच्चाइयां, जिनको अन्त में किसी शास्त्र के मूल सिद्धान्तों के रूप में स्वीकार किया जाता है, वास्तव में उस शास्त्र के प्रारम्भिक विचारों के अध्यात्मिक वैयधिकरण का परिणाम [ २९ ]होती हैं। उन शास्त्रों से उनका सम्बन्ध ऐसा नहीं है जैसा बुनियाद और इमारत का होता है। उनका सम्बन्ध जड़ और वृक्ष का सम्बन्ध है। जिस प्रकार जड़ बिना खोदे हुवे तथा प्रकाश में लाये हुवे ही अपना काम करती रहती है, इसी प्रकार मूल सिद्धान्त कहाने वाले सिद्धान्त भी बिना पूर्णरूप से स्पष्टीकरण हुवे भी शास्त्र का पोषण करते रहते हैं। यद्यपि विज्ञान शास्त्र में विशेष २ घटनाओं से साधारण नियम बनाया जाता है, किन्तु व्यवहारिक शास्त्र में——जैसे आचार शास्त्र या क़ानून——इस का उल्टा भी हो सकता है। सब काम किसी ध्येय को लक्ष्य में रखकर किये जाते हैं। इस कारण यह मानना युक्ति–सङ्गत प्रतीत होता है कि काम करने के नियम उस ध्येय को ध्यान में रख कर बनाये जायें जिस ध्येय के लिये काम किया जाता है। जब हम किसी काम में लगते हैं तो सब से पहिली आवश्यक बात यह है कि हम को इस बात का ठीक २ तथा साफ़ साफ़ ज्ञान होना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं। पीछे के स्थान में हमको आगे की ओर दृष्टि रखनी चाहिये। इस कारण गलत और ठीक का निर्धारण इस प्रकार नहीं होना चाहिये कि हम पहिले ही से कुछ बातों को ठीक और कुछ बातों को गलत मान लें। ठीक और गलत की कसौटी ही से इस बात का निर्धारण होना चाहिये कि कौन काम ठीक है और कौन काम‌ ‌गलत।

यह कठिनाई जन साधारण में प्रचलित प्राकृतिक शक्ति‌ (Natural faculty) की कल्पना से दूर नहीं होती। प्राकृतिक शक्ति की कल्पना को मानने वालों का कहना है कि एक प्रकार की ज्ञानेन्द्रिय या नैसर्गिक बुद्धि होती है जो हम को ठीक [ ३० ]या ग़लत बता देती है। पहिले तो ऐसी नैसर्गिक बुद्धि का अस्तित्व ही विवादात्मक विषय है। इसके अतिरिक्त इस सिद्धान्त के वे पोषक, जो तत्त्वज्ञानी होने का भी दावा करते हैं, इस विचार को छोड़ देने के लिये विवश हुवे हैं कि नैसर्गिक बुद्धि किसी काम के ठीक या ग़लत होने को इसी प्रकार बता सकती है जैसे कि हमारी अन्य इन्द्रियां सामने की चीज़ को या आवाज़ को। उन सब पोषकों के अनुसार, जो विचारक कहे जाने के भी अधिकारी हैं, हमारी नैसर्गिक बुद्धि आचार संबन्धी निर्णय के सामान्य सिद्धान्त बताती है। यह हमारे हेतु की शाखा है, सचेतन शक्ति (Sensitive faculty) की नहीं। यह शक्ति आचार विषयक अमूर्त सिद्धान्तों को मालूम करने में सहायता दे सकती है, किन्तु उन सिद्धान्तों के अनुसार किसी काम के ठीक या ग़लत होने में नहीं। आचार शास्त्र में प्रत्यक्ष ज्ञान तथा परीक्षावाद के माननेवाले सामान्य नियमों की आवश्यकता पर जोर देते हैं। ये दोनों इस बात पर सहमत हैं कि केवल ऊपर से देखकर ही किसी काम को ठीक या गलत नहीं कहना चाहिये, प्रत्युत् किसी नियम के अनुसार उस कार्य विशेष के ठीक या ग़लत होने का निर्णय करना चाहिये। बहुत कुछ हद तक दोनों एक प्रकार के नैतिक नियम मानते हैं, किन्तु उन नियमों के पुष्टीकरण में भेद है। एक स्कूल के अनुसार तो आचार शास्त्र के सिद्धान्त स्वतः सिद्ध हैं। उनको मनवाने के लिये किसी प्रकार का प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है। केवल उन का अर्थ समझ लेना ही पर्याप्त है। दूसरे स्कूल के अनुसार ठीक और ग़लत तथा सत्य और असत्य निरीक्षा तथा अनुभव के प्रश्न हैं। किन्तु इस बात पर दोनों सहमत हैं कि आचार शास्त्र की [ ३१ ]भित्ती कुछ साधारण नियम होने चाहिये। दोनों का आचार शास्त्र के अस्तित्व में पूर्ण विश्वास है, किन्तु वे उन स्वतः सिद्ध सिद्धान्तों की सूची नहीं बनाते जो इस शास्त्र के पूर्वावयव का काम दें। उन सिद्धान्तों को एक मूल सिद्धान्त का अनुवर्ती सिद्ध करने का तो वे बिल्कुल ही प्रयत्न नहीं करते। या तो वे आचार शास्त्र के साधारण उपदेशों को स्वत: सिद्ध मान लेते हैं या उन सर्वतन्त्र सिद्धान्तों (उसूलों) की किसी समानता को मूल सिद्धान्त बता देते हैं। यह समानता उन सर्वतन्त्र सिद्धान्तों या उसूलों से भी कम प्रमाणिक जंचती है। इस ही कारण इस प्रकार के तत्वज्ञानियों के सिद्धान्तों को सर्व प्रियता प्राप्त नहीं हो सकती है। किन्तु फिर भी अपने कथन की शास्त्रीय पुष्टि के लिये या तो उन्हें कोई मूल सिद्धान्त या नियम बताना चाहिये जो सब प्रकार के आचार की भित्ती हो अथवा यदि कई सिद्धान्त हों तो उन में पहिले पीछे का क्रम निर्धारित करना चाहिये तथा एक ऐसा सिद्धान्त या नियम निश्चित करना चाहिये जिस के अनुसार भिन्न २ सिद्धान्तों में परस्पर विरोध होने की दशा में निर्णय किया जा सके। यह सिद्धान्त या नियम स्वतः प्रमाण होना चाहिये।

यह बात बताने के लिये——कि व्यवहार में इस कमी का बुरी प्रभाव कहां तक हुआ है या किस सीमा तक मनुष्य जाति के आचार विषयक विचार किसी निश्चित अन्तिम आदर्श न होने के कारण अनिश्चित हो गये हैं——आचार विषयक प्राचीन तथा अर्वाचीन सिद्धान्तों का वर्णन तथा उनकी आलोचना करनी पड़ेगी। किन्तु यह बात आसानी से प्रमाणित की जा सकती है कि इन आचार-विषयक विचारों में जो कुछ [ ३२ ]नियम-बद्धता पाई जाती है उसका कारण किसी न माने हुए आदर्श का अध्याहार्य प्रभाव है। यद्यपि किसी सर्व सम्मत मूल सिद्धान्त के न होने के कारण आचार शास्त्र ने पथ-प्रदर्शक का इतना काम नहीं किया है जितना मनुष्य की वासनाओं को पवित्र बनाने का; किन्तु फिर भी चूंकि मनुष्य की भावनाओं पर-रुचि तथा घृणा दोनों प्रकार की-इस बात का बहुत प्रभाव पड़ता है कि कौन २ सी वस्तुओं का मनुष्य की प्रसन्नता पर कैसा प्रभाव माना जाता है; इस कारण उपयोगितावाद के सिद्धान्त का-या उस सिद्धान्त का जिसको बाद में बैन्थम (Bentham) ने सब से अधिक आनन्द के सिद्धान्त का नाम दिया था-उन मनुष्यों के आचार विषयक सिद्धान्तों पर भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ता है जो उपयोगितावाद की प्रमाणिकता को घृणा पूर्वक अस्वीकार करदेते हैं। तत्वज्ञानियों का ऐसा कोई सा सम्प्रदाय नहीं है जो इस बात को नहीं मानता है कि आचार शास्त्र की बहुत सी छोटी २ बातों में कार्यों द्वारा प्रसन्नता के ऊपर पड़नेवाले प्रभाव पर विशेष ध्यान दिया जाता है; चाहे तत्त्वज्ञानी लोग इस बात को आचार शास्त्र का मूल सिद्धान्त तथा नैमित्तिक धर्म मानना कितना ही अस्वीकार क्यों न करें। बल्कि मैं तो यहां तक कह सकताहूं कि स्वतः सिद्ध सिद्धान्त के पोषक आचार शास्त्रियों के लिये उपयोगितावाद की दलीलों का मानना अनिवार्य है। इस प्रकार के तत्त्वज्ञानियों की आलोचना करने का इस समय मेरा विचार नहीं है। किन्तु उदाहरण के रूप से इस प्रकार के तत्त्वज्ञानियों में सब से प्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी कान्ट (Kant) की 'Metaphysics of Ethics' नामक पुस्तक का उल्लेख करने से [ ३३ ]नहीं रुकसकता। इस प्रसिद्ध मनुष्य ने, जिसकी विचार प्रणाली बहुत दिनों तक दर्शन शास्त्र के इतिहास में उल्लेखनीय बात रहेगी, अपनी उपरोक्त पुस्तक में एक सर्वतन्त्र मूल सिद्धान्त का वर्णन किया है। वह सिद्धान्त यह है-"इस प्रकार काम कर कि जिससे उस नियम को, जिसके अनुसार तू काम करता है, सब हेतुवादी क़ानून मान लें"। किन्तु जब उसने इस सिद्धान्त से आचार विषयक व्यवहारिक धर्मों (फ़रायज़) का निर्धारण किया है तो इस बात को प्रमाणित करने में बिल्कुल अकृतकार्य़ रहा है कि अत्यन्त दुराचारपूर्ण नियमों को सब हेतुवादियों का आचार के नियम मान लेना परस्पर विरोधात्मक है तथा तर्कशास्त्र (भौतिक का ज़िक्र नहीं है) की दृष्टि से असम्भव है। जो कुछ उसने प्रमाणित किया है बस यही है कि इन नियमों के सर्व सम्मत हो जाने का परिणाम यही होगा कि फिर कोई आक्षेप नहीं करेगा।

इस समय अन्य सिद्धान्तों पर और अधिक वाद-विवाद किये बिना ही मैं उपयोगितावाद या प्रसन्नतावाद को समझाने का प्रयत्न करूंगा और इस सिद्धान्त की पुष्टि में ऐसे प्रमाण दूंगा जो कि दिये जा सकते हैं। यह तो प्रत्यक्ष ही है कि जिस अर्थ में साधारणतया प्रमाण शब्द लिया जाता है उस अर्थ में किसी प्रकार का प्रमाण नहीं दिया जा सकता। अन्तिम ध्येय से सम्बन्ध रखने वाली समस्यों का साक्षात् प्रमाण (Direct Proof) नहीं दिया जा सकता। किसी चीज़ को इसी प्रकार अच्छा प्रमाणित किया जा सकता है कि उसके कारण अमुक वस्तु प्राप्त होगी और उस वस्तु का अच्छा होना स्वतः सिद्ध है अर्थात् उसका अच्छा होना प्रमाणित करने के लिये किसी [ ३४ ]प्रकार के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। वैद्यकशास्त्र इस ही कारण अच्छा है कि वह स्वास्थ्य प्रदान करता है। किन्तु यह प्रमाणित करना किस प्रकार सम्भव है कि स्वास्थ्य अच्छा है? सङ्गीतशास्त्र अच्छा है क्योंकि उसके अच्छा होने के प्रमाण में एक यह बात भी कही जा सकती है कि वह आनन्द प्रदान करता है। किन्तु आनन्द अच्छा है इस बात की पुष्टि में क्या प्रमाण देना सम्भव है। अब यदि ऐसा कहा जाय कि एक सूत्र हो जिसके अन्दर सब ऐसी चीजें आजायें जो स्वतः अच्छी हों तथा इसके अतिरिक्त जो कुछ अच्छा हो वह स्वतः अच्छा न हो प्रत्युत् इस कारण अच्छा हो कि किसी स्वतः अच्छी चीज़ की ओर ले जाने वाला है, तो ऐसे सूत्र को या तो मानलिया जा सकता है या मानने से इन्कार कर दिया जा सकता है किन्तु इस प्रकार का प्रमाण साधारण अर्थों में प्रमाण नहीं है। यह मतलब नहीं है कि ऐसे सूत्र को अन्ध आवेग या मन की मौज के कारण मान लेना चाहिये या अस्वीकृत कर देना चाहिये। प्रमाण शब्द के विस्तृत अर्थ भी हैं। इस अर्थ के अनुसार इस समस्या का भी दर्शनशास्त्र की अन्य विवाद-ग्रस्त समस्याओं के समान उत्तर दिया जा सकता है। यह विषय आनुमानिक शक्ति का विषय है। किन्तु इस शक्ति से भी बिल्कुल प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है केवल इस प्रकार के विचार उपस्थित किये जा सकते हैं कि जिन के प्रकाश में बुद्धि या तो इस सिद्धान्त को स्वीकार करले या अस्वीकृत करदे। यह बात भी प्रमाण ही के बराबर है।

हम अभी इस बात की परीक्षा करेंगे कि ये विचार किस प्रकार के हैं, किस प्रकार इस सिद्धान्त पर लागू होते हैं और [ ३५ ]इस कारण किन २ सहेतुक प्रमाणों के आधार पर उपयोगितावाद के सिद्धान्त को स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है। किन्तु सोच समझ कर उपयोगितावाद को मानने या न मानने से पूर्व उपयोगितावाद के ठीक २ अर्थ समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है। मेरे विचार में इस सिद्धान्त के फैलने में सब से बड़ी रुकावट यही पड़ी है कि साधारणतया इस के ठीक २ अर्थ नहीं समझे जाते हैं। उपयोगितावाद को समझने में जो बड़े २ भ्रम होरहे हैं यदि केवल उन का ही निवारण हो जाय तो भ़ी समस्या बहुत कुछ सीधी हो जाय तथा बहुत सी उलझनें दूर हो जायें। इस कारण उपयोगितावाद के आदर्श के समर्थन में शास्त्रीय कारण देने के पूर्व मैं उपयोगितावाद के सिद्धान्त ही के कुछ उदाहरण दूंगा जिस से साफ़ तौर से समझ में आ जाय कि इस सिद्धान्त के क्या अर्थ हैं तथा क्या अर्थ नहीं हैं तथा ऐसे आक्षेपों का उत्तर आजाय जो ऐसे मनुष्यों की ओर से किये जाते हैं जिन्होंने इस सिद्धान्त को ठीक तौर से नहीं समझा है। इसके बाद मैं दार्शनिक सिद्धान्त के रूप में उपयोगितावाद पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा।