उपयोगितावाद/भूमिका

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[ भूमिका ]

भूमिका

आधुनिक युग "युक्ति का युग" (Age of Rationalism)" है। प्रत्येक बात के लिये युक्ति माँगी जाती है। इस कारण आचार शास्त्र की भी सहेतुक कसौटी निश्चय करना अत्यन्तावश्यक हो गया है, क्योंकि अब पुरानी पुस्तकों से बचन मात्र उद्घृत करने से ही काम नहीं चलता है।

इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध तत्ववेत्ता स्टुअर्ट मिल ने अपनी संसार-प्रसिद्ध पुस्तक Utilitarianism अर्थात् उपयोगितावाद में इस ही विषय पर विचार किया है। आचार-शास्त्र का मूल अधार क्या होना चाहिये? कोई काम करना ठीक है या नहीं?-यह बात किस प्रकार निश्चित करनी चाहिये। मिल उपयोगितावादी थी। उस का विचार था कि जिस काम से जितने अधिक आदमियों का हित होता है वह उतना ही अधिक अच्छा है। इस सिद्धान्त को इस पुस्तक में बहुत अच्छी तरह प्रमाणित किया गया है। इस पुस्तक के पढ़ने से मालूम होगा कि इस सिद्धान्त की पुष्टि में मिल ने जिन दलीलों या युक्तियों से काम लिया है वे बहुत प्रबल तथा अकाट्य हैं।

इस पुस्तक में पांच अध्याय हैं। पहिले अध्याय में मिल ने इस सिद्धान्त के विषय में कुछ साधारण बातें कहीं हैं। इस अध्याय को मूल पुस्तक की भूमिका समझना चाहिये। [ १२ ]दूसरे अध्याय में मिल ने 'उपयोगितावाद' का अर्थ समझाया है। अन्य अध्यायों को समझने के लिये इस अध्याय को ध्यान पूर्वक पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है। मिल साहब के शब्दों में उपयोगितावाद का अर्थ यह है कि जो काम जितना आनन्द की ओर ले जाता है उतना ही अच्छा है तथा जो आनन्द से जितनी विपरीत दशा में ले जाता है उतना ही बुरा है। आनन्द का मतलब है सुख तथा कष्ट का न होना। किन्तु आनन्द भिन्न २ प्रकार के होते हैं। इस कारण प्रश्न उठता है कि भिन्न २ प्रकार के आनन्दों में एक को ऊंचा तथा दूसरे को नीचा किस प्रकार ठहरावें? परिमाण के विचार को छोड़ कर और किस प्रकार एक आनन्द दूसरे की अपेक्षा अधिक मूल्यवान ठहराया जा सकता है? इस प्रश्न का बहुत ही सन्तोषजनक उत्तर मिल ने इस प्रकार दिया है––यदि ऐसे सब मनुष्य जो दो भिन्न २ आनन्दों का अनुभव कर चुके हों बिना किसी प्रकार के नैतिक दबाव के उन में से एक आनन्द को दूसरे की अपेक्षा अधिक अच्छा आनन्द बतावें तो वही आनन्द अधिक इष्ट है। यदि वे मनुष्य, जो दो आनन्दों से परिचित हैं, एक आनन्द को––यह बात जानते हुवे भी कि उस आनन्द को प्राप्त करने में अधिक अशान्ति का सामना करना पड़ता है ––दूसरे आनन्द की अपेक्षा अच्छा समझें और उस आनन्द को दूसरे आनन्द के किसी भी परिमाण के लिये जिस का कि वे उपयोग कर सकते हैं छोड़ने के लिये तैयार न हों, तो ऐसी दशा में हम उस आनन्द को गुण की दृष्टि से इतना ऊंचा दर्जा देने में ठीक हैं कि जिस से तुलना करते समय परिमाण का विचार उपेक्षणीय रह जाय।

बहुधा मनुष्य प्रश्न करते हैं कि उपयोगितावाद के [ १३ ]सिद्धान्त की सनद क्या है? हम इस सिद्धान्त के मानने के लिये क्यों विवश हों? किसी की हत्या न करने, या किसी का माल न लूटने तथा विश्वास-घात न करने या धोखा न देने के लिये तो हम बाधित हैं किंतु सार्वजनिक प्रसन्नता या दुःख बढ़ाने के लिये हम क्यों बाधित हों? उपयोगितावाद के तीसरे अध्याय में मिल ने इस प्रश्न पर विचार किया है और उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद पेश की है।

संसार में दो प्रकार के मनुष्य देखे जाते हैं। एक तो वे जो ईश्वर की नेकी में विश्वास रखते हैं और उस की नाराज़ी से डरते हैं दूसरे वे मनुष्य कि जिन का ईश्वर में विश्वास नहीं है, और जो सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करना ही अपना लक्ष्य समझते हैं।

जिस मनुष्य का ईश्वर की नेकी में विश्वास है उस मनुष्य को इस बात में भी विश्वास करना होगा कि कर्त्तव्य ऐसा काम होना चाहिये जिस को ईश्वर पसन्द करता है। इस कारण ईश्वर की ओर से पुरस्कार की आशा तथा दण्ड का भय उसको इस सिद्धान्त––अर्थात् सार्वजनिक सुख के सिद्धान्त––के अनुसार कार्य करने के लिये विवश करेंगे।

अब रहे वे मनुष्य जिन का लक्ष्य केवल सुख की प्राप्ति है। ऐसे मनुष्य स्वयं चाहे कैसे ही काम क्यों न करते हों, किंतु वे यही चाहते हैं कि दूसरे उन के साथ ऐसा व्यवहार करें जिससे उनके विचारानुसार उनके सुख की वृद्धि होती हो। दूसरों के ऐसे ही कामों की वे प्रशंसा करते हैं। इस कारण अपने भाईयों की ओर से पुरस्कार की आशा तथा दण्ड का भय तथा दूसरों के प्रति निस्स्वार्थ प्रेम तथा सहानुभूति के [ १६ ]सब वस्तुवें सुख का साधन होने के कारण ही इष्ट हैं। इस प्रकार उपयोगितावाद का सिद्धान्त प्रमाणित हो जाता है। इस के अतिरिक्त उपयोगितावद की पुष्टि में और कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता और न कोइ प्रमाण देने की आवश्यकता ही है।

"प्रत्यक्षं किं प्रमाणम्'

प्राचीन काल से उपयोगिता या सुख को आचार-शास्त्र की कसौटी मानने में एक बड़ी रुकावट यह रही है कि बहुत से मनुष्यों के दिल में यह शङ्का बनी रहती है कि कहीं इस सिद्धानत को आचार-शास्त्र की कसौटी मानना न्याय-विरुद्ध तो नहीं है उपयोगितावाद के पांचवें अध्याय में मिल ने इस ही शङ्का को दूर करने का प्रयत्न किया है तथा बहुत ही योग्यता पूर्वक अनेक अकाट्य युक्तियां देकर प्रमाणित किया है कि न्याययुक्तता (justice) का आधार ही मुख्यतया उपयोगिता है तथा न्याय युक्तता कतिपय उन आचार-विषयक नियमों का नाम है जिनका मानुषिक भलाई की प्रधान बातों से सम्बन्ध है और जो इस कारण बिना और किसी बिचार के आचार विषयक साधारण नियमों से अधिक मान्य हैं।

उमराव सिंह कारुणिक बी. ए.