ऊषा-अनिरुद्ध/अंक तीसरा

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ऊषा-अनिरुद्ध  (1925) 
द्वारा राधेश्याम कथावाचक
[ १०१ ]

अंक तीसरा

पहला दृश्य

(स्थान द्वारिकापुरी)

[रूक्मिणी और कृष्ण का प्रवेश]
 

रूक्षेम० नाथ, कितनी बार मैंने आप से कहा, परन्तु आप यानही नहीं देते हैं ! क्या आपके हृदय में अनिरुद्ध की ममता नहीं है ?

श्रीकृ०--प्रिये, मैं सब सुनचुका ! ग़ाफिल नहीं हूं। तुम्हें यह न भूल जाना चाहिए कि अनिरुद्ध की सहायता को उद्धव के साथ स्वयं बलदाऊ भैया गये हुए है !

रुक्मि०--यह मैं भी जानती हूं। परन्तु मेरा कहना तो यह है कि आप क्यों नही गये ? [ १०२ ]श्रीकृ०--ग्यारी रुक्मिणी, सुनो, संसार में हानिलाभ, जीवन- भारण, यश और अपयश, यह सब बात तो रोज ही होती रहेगी। मैं कहां कहां जाऊ ? पुत्र पौत्र सब प्राप्त होगए अब भी घर म बैठकर शान्ति न पाऊँ ?

रुक्मि०--शान्ति और मुख प्राप्त करो, परन्तु कब ? जब पुत्र और पौत्र की रक्षा करचुको । संतान को अपने समान बनाने की चेष्टा करचुको--

जो समझदार हैं यूं काम किया करते हैं।
घर बना चुकने पै सन्यास लिया करते हैं ।।

श्रीकृ०--तुम तो पीछे ही पड़गई। तुम्हें यह भी न भूल जाना चाहिए दि अनिरुद्ध की सहायता को बारह अक्षौहिणी सना भी गई हुई है।

रुक्मि०--सेना गई है तो क्या हुआ,वह सब तारोंके समान है। युद्ध का श्राकाश उस समय तक पूर्ण प्रकाश न पाएगा, जबतक पूर्णचन्द्र वहां अपन प्रकाश न फैलाएगा : नाथ, वृन्दावन के न बछड़ो के लिए जब आप स्वयं ब्रह्माजी तक से लड़ने को तैयार होगये थे तो क्या आज अपने पौत्र अनिरुद्ध की रक्षा के लिए आप कुछ न करेगे ?-

जनक कारण नस्त्रपर तुमन गिरि गोवर्धन धाराथा ।
अधम अघासुर नीच बकासुर कुटिल कंस को माराथा ।।
काली का मदमर्दनवाले, अपना बल फिर दिखलाओ।
पौत्र घिरा है जो संकट में, उसे छुड़ाकर लं आओ ।।

श्रीकृ०--यह जो तुमने मेरे बालकाल के चरित्रों का बखान [ १०३ ]किया है, सो इस बखान के समय इस बात पर ध्यान नहीं दिया है कि मैंने वह जो कुछ किया था उसका लक्ष्य था परोपकार !

रुक्मि०--प्रशो, यदि वह सब काम आपने परोपकार के लिए किए तो यह काम गृहोपकार के लिए कीजिए। नहीं तो मैं यह कहूंगी कि संतान पर माता जितना प्यार रखती है, पिता उतना नहीं रखता।

श्रीकृ०--तो क्या तुम यह कहोगी कि पिता के नाम का पहला प्रज्ञर 'पा पुत्र का पालन पोषण सूचित नहीं करता है ?

रुक्मि०--करता है, परन्तु माता के नाम का 'म' तो साक्षात् ममता की मूर्ति होता है । यदि विश्वास न हो तो प्रत्यक्ष देखलीजिए, वह देखिए, मातृ-स्नेह की सजीव मूर्ति आपके सामने इधर ही प्रारही है !

श्रीकृ०--हैं । यह कौन आरही है ? क्या रुक्मावती ?

रुक्मि०--हां, प्रद्युम्न की स्त्री,अनिरुद्धकी माता और आपकी पुत्रवधू पुत्रो रुक्मावती !

[खमावती का प्रदेश ]
 

रुक्मावती-भाह अनिरुद्ध । बेटा अनिरुद्ध !
रुक्मि०- द्वारिकानाथ, देख रहे हैं आप !

यह आँसुमों की धारा माता की मामता है।
इस प्यार के कृजे में सागर भरा हुधा है।

रुक्मा०-(कृष्ण से) भगवन् , मैंने आजतक कुल की मर्यादा को ध्यान में रखकर आपके सामने मुंह भी नहीं खोला है, परन्तु भाज पुत्र पर संकट जानकर मेरा रुओं रुआँ डोला है। इसीलिए [ १०४ ]आज के पर्दे को हटाकर 'रक्षा' की प्रार्थना करने के लिए मेरा आत्मा आपके सामने इस प्रकार बोला है :-

दया करिये दयामय पुत्र पै सकट न आजाये ।
वहां खुद जाइये जिससे विजय वह बाल पाजाये ।।
जिन हाथों ने कि दावानल से अज अपनी उमारी है ।
उन्ही हाथों पै मेरे लाल की भी आज बारी है ।।

श्रीकृ०--पुत्री, बस,अब तुम्हाग यह करुणा भरा संताप नहीं देखा जाता है, मेरे हृदय सागर में ज्वारभाटा आता है । जाओ, तुम शान्ति पूर्वक अपन महलों में जाओ। अब मैं स्वयं शोणित- पुर जाता हूं और विजय पूर्वक अनिरुद्ध को लाता हूं।

रुक्मा०--उपकार, अनन्त उपकार ! [चलीजाती है]

श्रीकृ०--( रुक्मिणी से ) रुक्मिणी,तुम भी इसके साथ जाओ और इसका जी बहलाओ।

(रुक्मिणी का जाना)

श्रीकृष्ण(स्वात )--समय आगया,अब मुझे अवश्य शोणित- पुर जाना चाहिए और अनिरुद्ध को छुड़ाने के बहाने दुष्ट वारणासुर का मद मर्दन करके वहाँ पर होनवाले शैव वैष्णवों क माहों को भी मिटाना चाहिए :--

इधर अनिरुद्ध का इस कष्ट से उद्धार होजाये ।
अधर धर्मों के झगड़े का भी बेड़ा पार होजाये ॥

परन्तु अकेले चलना ठीक नहीं है। सुदर्शन को भी साथ लंघलना चाहिए। अच्छा तो सुदर्शन को इस समय स्मरण करना चाहिए। [स्मरण करना और सुर्दशन का आना] सुदर्शन [आकर] भगान्, प्रणाम ! [ १०५ ]श्रीकृष्ण०--आओ, सुदर्शन पायो । देखा तुमने । तुम्हारी एक छोटी सी भूल का कितना भयकर परिणाम हुआ ? यदि उस समय तुम पहरे पर से न हटते तो कभी ऐसा अवसर न भाता । तुम्हारे वहाँ मौजूद रहने पर कैसे कोई अनिरुद्ध को उठाकर लेजाता ?

सुदर्शन--भगवन् , मैं तो अपनी उस गल्ती पर स्वयं ही लजित हूं । अब लजे हुए को और क्यों लजा रहे हैं :-

अगर बदला हो उस गल्ती का कोई तो बता दीजे।
खड़ा है सामन दोषी, जो जी चाहे सजा दीजे ॥

श्रीकृ०--सज्जा तो नहीं, परन्तु उस गल्ती का एक नतीजा

तुम्हें भोगना ही पड़ेगा !

मुद०--वह क्या ?
श्राकृ०--भगवान शकर के त्रिशूल के साथ लड़ना पड़ेगा।
सुद०--सो किस प्रकार ?

श्रीकृ०--तुम्हें अभी हमारे साथ अनिरुद्ध की सहायता के लिए शोणितपुर चलना पड़ेगा। कदाचित्, वाणासुर की सहायता के लिए भगवान् शंकर आये तो हमें उनसे और तुम्हे उनके त्रिशूल से लड़ना पड़ेगा।

सुद०--तो क्या वहाँ भापका शंकर के साथ युद्ध होगा।

श्रीकृ०--हाँ, दुनिया के दिखाने को होगा। परन्तु वास्तव में हमारा उनसे न कभी युद्ध हुआ है और न कभीहोगा। देवताओं

के यह सब गुप्त रहस्य हैं, इन्हें समझकर तुम क्या करोगे ?[ १०६ ]

कभी उठते हैं मिलने को कभी धावे लड़ाई को।
सभी कुछ देवता करते हैं दुनिया की भलाई को।।

सुद०--अच्छा तो यह सेवक चलने को तैयार है।

श्रीकृ०--बस तो अब सिर्फ गरुड़ को बुलाने का इतिजार है। क्योंकि वहां पर शीघ्र पहुंचाने का उसी को अधिकार है।

[गरुड को स्मरण करना और उसका पाना ]
 

गरुड़--(आकर) भगवन् प्रणाम !

श्रीकृ०--आओ, गरुड़मी आओ !

गरुड़--क्या आज्ञा है स्वामिन् ?

श्रीकृ०--तुम्हारे मित्र सुदर्शन ने जो भूल की है वह तुम्हे मालूम है ?

गरुड़--हां महाराज, पहरेदार की ग़ल्ती मुझे मालूम है ।

श्रीकृ०--बस, तो उसी के परिणाम में इनके साथ साथ तुम्हे भी थोड़ा सा कष्ट उठाना होगा।

गरुड़ वह क्या ?

श्रीकृ०--मेरे साथ वाणासुर के नगर को चलना होगा । वहाँ अनिरुद्ध नागपाश में बंधा हुआ पड़ा है । तुम्हें उस पाश का खडन करना होगा।

गरुड--यह तो अपनी रोज़ की खुराक है। कट को क्यों यह तो दावत की बात है !

श्रीकृ०--अच्छा तो चलनेकी तैयारी करो। [दोनों का माना] [ १०७ ]

दृश्य दूसरा

(हरि मन्दिर)

गंगा०--[स्वगत] जय बोलो बेटा गङ्गादास, श्रीगुरुर्जी महाराज की जय बोलो, जिन्होंने धर्म की सच्ची कौड़ो थमाई ! कहाँ तो हम जैसे मूर्ख सौदाई और कहाँ गुसाई की पदवी पाई। ससारको चाहिए कि पुराने गुरुओं को छोड़कर मुझ जैसे नये व्यास को गुरु माने और मेरी सेवा में अपना सब तरह कल्याण जाता मैं तो नित्य सवेरे उठकर श्रीठाकुरजी से यही प्रार्थना किया करता हूं कि हे भगवन् , अब इन गुरुजी को शीघ्र अपनी सेवा में बुला लो और मुझे इनकी गद्दी पर बिठा दो।

हां,गुरुजी महाराज आज विष्णुपुराण का सत्संग सुनाएँगे और इस नगर के समस्त वैष्णव उसे सुनकर आनन्द पाए गे। किन्तु गुरुजी चतुर चेलियो ही की ओर ध्यान जमाएंगे-

{{block छंटेरचटक मटक भरी आती यहाँ पै चेली है। गुरू के बाग़ का हर फूल बस चमेली है ।।

(कुछ चलियो का आना)
 

महँत--[आकर] अरे बेटा गङ्गादास, खड़ा २ सोच क्या रहा है ? देखतो यह सुखदेई, हरदेई, रामदेई, आदि सब भागई, परन्तु माधवीजी अभी क्यों नहीं आई ?

गङ्गा०--[सामने देखकर ] सामने से वह शायद माधवी जी ही भारही हैं। (माधवी का आना)

महंत--क्यों माधवी, माज तुम इतनी देर से क्यों आई ? अबतक कहां थी? [ १०८ ]गङ्गा०--थी कहाँ, विधवा होने के लिए अखंड तपस्या कर रही होगी।

माधवी--पमा बताऊँ गुरकी महाराज, मेग तो ऐसे पति से पाला पड़ा है कि मैं कुछ कह ही नहीं सकती। जभी अपने मुंह से से गुरू मन्दिर का नाम निकालती हूं कि उनकी त्योरी चढ़ जाता है । मैने जैसे ही कहा कि गुरुजी के दर्शन कर भाऊ , सा तत्काल व गुरु-प्रथा की निन्दा करने लग गये !

गङ्गा०--तो उन्हे मोक्ष प्राप्त नहीं होगी !

माधवी--परन्तु मैंने उनकी एक न मानी और लड़ झगड कर सीधे यहाँ आने की ठानी। अब अगर वे नाराज होजायंगे तो मेरा क्या बिगाड लेगे ? दो चार दिन हाथ से ही थोप कर खालेगे।

महंत--बहुत अच्छा किया,तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए था। भगवान् श्रीकृष्णजी की भक्ती में "ब्रज वनितन पात त्यागे भइ जग मंगल कारी” अर्थात् जब ब्रज की स्त्रियों ने अपने पति को त्यागा, तभी वे मंगल कारी हुई । इस वास्ते जो मूर्ख नास्तिक पति या पुत्र गुरुचरणों की सेवा छुड़वाता है वह घोर नरक में जाता है। अच्छा श्रा, सावधान होकर सत्संग सुन । विष्णु पुराण में भगवान का ध्यान श्वेतवर्ण का लिखा हुभा है, और सब पुराणो मे श्यामरङ्ग को माना है । जैसा कि-

शुक्लाम्बर धरं विष्णु, शशिवर्ण चतुर्भुजं ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशीतये ।।

इसका अर्थ हमारे आचारीजी ने इस प्रकार किया है कि यथार्थ में यह दही भड़े का वर्णन है। क्योंकि शुक्लॉवर का [ १०९ ]अर्थ सफेद दही लगा हुभा और विष्णु का अर्थ विशेष रूप में बना हुआ है, शशिवर्ण का अर्थ चन्द्रमा की तरह गोलगोल और चतुर्भुज का अर्थ आहेसो चतुर लोगो का भोजन है । इस प्रकार जामो प्रसन्नवदन अर्थात जिसक ध्यान से मुख प्रसन्न होजाता है, अर्थात् मुस्खमे पानी भर भाता है उस दही बड़े को नमस्कार है।

स०--वाह, बाह, धन्य है, धन्य है, गुरुजी महाराज

महंत--परन्तु इस श्लोक का हमारे दादा गुरुने अर्थ यही किया है कि शुक्लॉबरधरं आत् सफेद र गबाला रुपया विशनू जी की तरह स्वच्छ और शशिवर्ण चन्द्रमा की तरह गोल एवं चतुर्भुजं कहिए चार मुजा बाला छार्थात एक रुपये की चार चौमनो होती हैं। सो ऐसे जिस रुपये के ध्यान ले मन प्रसन्न होता और विघ्न शांत होजाते हैं, उस रूपये का ध्यान करो। क्योकि यह रुपया मरने पर साथ नहीं जाता, यह बड़े शोक की बाल है। (गद्गद होकर) हमारे गुरुजी भी सब रुपया यहीं छोड़ कर चलेगये, जोहेसो इस रूपये की महिमा कहाँतक कही जाय । आंखो में आसू आजाते है और गला भर जाता है]

गङ्गा-परन्तु गुरुजी, आपकी यह बातें मेरी तो समझ मे बिल्कुल नहीं पाई!

महंत-चुपरह मूर्ख, सत्संग में विघ्न डालता है ?

एकदा नार दो योगी, परानुग्रह कान्छिया।
पर्यटनविदुधार लोटान ,विष्णु लोटे गवायनम् ।।

एक समय दूसनों की भलाई के समय जिन्होंने कान छिया है ऐसे दो योगियों ने ब्रह्माजी को एक बार लाके दी। तब ब्रह्मा [ ११० ]जी ने बहुत से लोटो में उस्को पर्यटन कराके विष्णुजी के लोटे में वह नार सौपदी । जोइसो वही लोटेवाली नार अक्तक श्रीविष्णु भगवान् के पास है।

गङ्गा०--और वह लोटा विष्णु भगवान ने गुरुजी महाराज के भडार में लौट दिया है।

महन--मानता नहीं मूर्ख, सत्संग में विघ्न डाले ही जाता है। हाँ,तो उस नार का क्या ही सुन्दर मुख था, जोहैसो वर्णन में नहीं प्राप्तकता।महा, नाक मुश्रा जैसी, गाल पुथा जैसे, आँख लङ्गमा जैसी और ... (गद्गद् होजात है)

[इतने म राधारानी का वहां आमा और महंत का उसे देखना]

राधा०--[स्वगत]मैंने सुना है कि यहाँ एक महंत अच्छा सत्संग करते हैं, सो मैं भी उसे सुनने की इच्छा से यहाँ भागई । परन्तु कहीं यह कोरा वकवादी तो नहीं है ? (खडी रह जाती है।

महंत--[गङ्गादास को इशार स टुलाकर धीरस] बच्चा, देख तो यह कोई नई नवेली, चटक चमेली कौन है ? क्या तू इसके विषय में कुछ जानता है ?

गङ्गा०--हाँ, गुरुजी जानता तो जुरूर हूं।

महंत--क्या जानता है बच्चा ?

गङ्गा०--यही कि मैं इसे जानता तक नहीं।

महंत--(राधा से) भाभी माई, तुम भी सत्संग सुनो।

सुखदेई--(राधा से) आइये, कर्मवीर श्रीकृष्णदासजी की धर्म- पत्नी श्रीराधारानीजी आइए !

महंत--हाँ तो, स्त्रियों को पति की सेवा ही करनी चाहिए । क्योंकि पति ही स्त्रियों का सब कुछ है, परन्तु इसके साथ साथ [ १११ ]गुरु की भी सेवा करनी चाहिए । क्योंकि गुरु सेवा भी जोहेसो त्रियों का मुख्य धर्म है।

गङ्गा--सतयुग और त्रेतामें तो पति सेका ही प्रधान रहती है, किन्तु द्वापर और कलियुग में गुरु सेवा. प्रधान होजाती है !

महंत--(गङ्गादास से) अरे चुपरह अज्ञान ! विघ्न डाले चला आता है (स्त्रियों से) हाँ, तो गुरु के लिए तो वेदों में जोहेलो ऐसा लिखा हुआ है-

गुरू स्वामी गुरू विष्णू गुरू देवो जनार्दनः ।
गुरू साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥

अर्थात् स्त्रियों का स्वामी कोई है तो गुरू है, और मुख्य देवता कोई है तो वह भी गुरु है। यहांतक कि साक्षात् परब्रह्म भो अगर कोई है तो गुरु है। इसलिए गुरु को अपना स्वामी जानकर नमस्कार करो, और अपना तनमन धन सब गुरु संवा मे लगाओ। (सब प्रणाम करती हैं, राधा नहीं करता है)

राधा--[ स्वगत ] निःसन्देह मुझे तो यह कोई धूर्त जान पड़ता है। ऐसे ही छलछंदी लोगों ने नारी समाज को वैष्णव धर्म की बातें मनमाने ढंग से समझा कर अपना मतलब साधना और वैष्णव धर्म को बदनाम करना शुरू किया है (प्रकट ) श्री महाराज, यह किस वेद का वचन है ?

महंत--[चौंक कर राधा की तरफ़ देखते हुए स्वगत] अब"आई मुश्किल बच्चा माधोदास, इसके प्रश्न का ठीक उत्तर नहीं दिया गया तो अभी सब पोल खुल जायगी। (प्रकट) धन्य माई धन्य, मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुम धर्मशारत्र की [ ११२ ]अच्छी तरह पूछ परख करलेने पर ही किसी बात को मानवी हो । जोहैसो यह वाक्य उस वेद का है जिसका नाम अर्थवेद है।

राधा०--[आश्चर्य से ] हय ! अर्थवेद या अथर्ववेद ? इस वेद का नाम तो मैंने आज ही सुना ।

गङ्गा--सुनती कैसे? वह तो ब्रह्माजी ने जब चारों वेदों को अपने मुख से छोड़ा, तब इस अर्थवेद का सार भाग हमार गुरुजी के ही मुख में गुप्तरूप से डाल दिया।

महत--जोईसो विसेस तर्क करने की आवश्यकता नही है, गुरुवचन को ही शास्त्र का प्रमाण मानना चाहिए । विष्णु पुराण मे लिखा है कि एक समय श्रीविष्णु भगवान् क्षीरसागर में सोये हुए थे कि इतने में वहाँ भृगु रिषी जा पहुंचे। वहाँ उन्होंने श्री विष्णु भगवान् को शेष शय्या पर सोया हुआ देखकर अपना अपमान समझा । और तत्काल विष्णु भगवान की छाती पर जोर से एक लात जमाई । लात के लगते ही विष्णु भगवान् छठ खड़े हुए और उन्होंने भृगुजी का पाँव पकड़ लिया,तथा कहने लगे कि हे रिषिराज मेरे इस कठोर शरीर पर लात मारने से आपके पॉवमें कहीं चोट तो नहीं आई !(गद्गद् होजाना और गला भराना) अहाहाहा ! ऐसे पर ब्रह्म विष्णु भगवान् की झांकी छोड़कर जो लोग शिव जी की पूजा करते हैं, वे बड़ी भूल करते हैं।

(इतने मे शैव संप्रदाय के एक मनुष्य का वहां आना )

शैव:--क्या बकता है मूर्ख ! इन भोले भालों को मनगढंत बाते सुनाकर धोखे में डालता है और शैवसम्प्रदाय की निन्दा के शुन्द मुंह से निकालता है ! [ ११३ ]महन्तः--अरे निकालो, निकालो, यह कौन विधर्मी यहाँ घुस आया है इसे अभी यहाँ से निकालो।

शैवः--रे नादान,क्यों नाहक जुबान चलाता है ! तू मुझे क्या कोई ऐसा वैसा समझता है जो इस तरह धमकाता है ?

महंतः--तो बता,तू कैसे हमें अनाड़ी बताता है । इसका प्रमाण दे नही तो अभी तुझे शास्त्रार्थ करना होगा !

गंगा--और यदि शास्त्रार्थ न किया वो मुझसे शस्त्रार्थ करना होगा।

शैव:--अरे, क्यों व्यर्थ बकवाद किये जाता है।

महंतः--अरे गङ्गादास, देखता क्या है ? मार डंडा और करदे दुष्ट को ठंडा।

(गङ्गादास का शव को मारने दौड़ना, इतने ही मे कृष्णदासका वहां आजाना)

कृष्णदासः--ठहरो,भाइयो ठहरो। सत्सङ्ग में तुम लोग कैसा श्सभङ्ग कर रहे हो !

गङ्गा:--यह दुष्ट यहाँ आकर गुरू जी महाराज को अपशब्द सुनाता है, और उन्हें मूर्ख अनाड़ी बताता है। हमारे सीधी तरह समझाने पर भी यहाँ से नहीं जाता है।

शैवः--नहीं, मैं यहां से कभी नहीं जाऊंगा, और अभी सब लोगोंके सामने तुम्हारे वैष्णव संप्रदायकी पोल खोलकर दिखाऊंगा। महंतः हैं ! फिर वही बात मुंह से निकाली !

कृष्णः--शाँत, शाँत, शांत हो जाओ, व्यर्थ के लिए इन साम्प्रदायिक झगड़ों में पड़कर बैर न बढ़ाओ। [ ११४ ]शैव:--यह आप क्या कहरहे हैं? इन वैष्णवों से हमारा मेल कैसे हो सकता है ? ये तो हमारे इष्टदेवकी निंदा करते हैं !

गङ्गा:--तो तुम हमारे इष्ट देव की निंदा नहीं करते हो?

कृष्ण:--तब तो मैं तुम दोनों की निंदा करूंगा जो आपुस । में झगड़ते हो!

शैवः--अच्छा तो आपही बताइये, परस्पर मेल होने का आप क्या उपाय बताते हैं ?

कृष्ण:--मुनिये, आप जो शैव सम्प्रदाय को ऊंचा बताकर वैष्णव सम्प्रदाय की निंदा करते हैं यह आप की भूल है । इसी प्रकार (महंत से ) आप जो वैष्णव सम्प्रदाय की श्रेष्ठता बताकर शैवों से बैर बढ़ाते हैं यह भी धर्म प्रति-कूल है। क्योंकि दोनों सम्प्रदायोंका एक ही लक्ष्य है। न तो शिव विष्णु से बड़े हैं और न विष्णु शिव से । बल्कि"शिवस्य हृदये विष्णुः विष्णोस्तु हृदये शिवः” के अनुसार शिव के हृदय में विष्णु विराजमान हैं और विष्णु का हृदय शिव जी का निवासस्थान है ! यही नहीं, बल्कि शिव जी के त्रिशूल चिन्ह को तिलक रूप में वैष्णव धारण करते हैं, और विष्णु के धनुष को उसी रूप में शैव धारण करते हैं।

सबलोग:--धन्य, महाराज धन्य ! आपने आज हमसब का अज्ञान दूर करदिया है और हम पर बड़ा भारी उपकार किया है।...बोलो, संगठन की जय, एकता की जय, शिव विष्णु की जय, हरी हर की जय !

कृष्णदास.. [ ११५ ]

गाना

उसी का जीवन है धन्य जगमें, जो सेवा व्रतमें लगा हुआ है।
सिखाया दुनियाको धर्म उसने, जो धर्मपै खुद मिटाहुना है।
उसीका है तेज नभ के ऊपर, उसीका सप भूमि के है भीतर ।
सदा जो परमार्थ की अनल में, सुवर्ण जैसा तपा हुआ है।
जिया है जो दूसरोंकी खातिर, मरा है जो दूसरोकी खातिर ।
अमर सदा है वह इस जगत में, जगल उसीपर खड़ा हुआ है ॥
जहाँ के तख्ते पै नाम उसका, सदैव स्वर्णाक्षरों में चमका ।
असत पै जिसने कदम न रक्खा,सदो जोसतपर डटा हुआ है।
उसीने पाया है उस सुधा को, वही रिझाता है देवता को ।
मिटाई है जिसने अपनी रगत, अमिट के रङ्ग में रंगा हुआ है ॥
समान है हर्ष, शोक उसको, है एकसे दोनों लोक उसको ।
लगाके लौ 'राधेश्याम' प्रभुमें, सदा को जो टहलुबा हुआ है ॥

दृश्य तीसरा

(कारागार)

(अनिरुद्ध का नागपाश में बॅधेहुए रिखाई देना)

अनिरुद्धः-(स्वगत)

विधना कहां हुमा है, आकर मेरा ठिकाना ।
पिंजड़े में लाया मुझको, मेराही चहचहाना ।।

[ ११६ ]

डर वाण का नहीं है, जब ध्यान में ऊषा है ।

ऊषा:--(गुप्त वेश मे चित्रेरखा के साथ आकर)

जब ध्यानमें ऊषा है, तो नागपाश क्या है ?

भनि:--कौन ? नागपाश का नाम लेनेवाली तुम कौन हो ? इस समय कारागार में आने वाली तुम कौन हो ? देवी हो या दानवी ! किन्नरी हो या मानवी ! कल्याणी हो या भैरवी ! छाया हो या माया ! पतामो तुम कौन हो ?

चित्र:--(आगे बढ़कर)

न छाया हैं न माया है न देवी दानवी हम हैं ।
जो दम भरता है दमदम पर उसी हमदमकी हमदम हैं ।।

भनि०:--मैं नहीं समझा, स्पष्ट कहो तुम कौन हो!

चित्र:--हम वो हैं जो आप जैसे निरपराधी को कारागार में नहीं देख सकती हैं, और आप के हृदय में जिसका प्यार है उससे भी बढ़कर रूपवती, गुणवती नारी से आपका विवाह करा सकती हैं !

अनि०:--चन्द कीजिए,बन्द कीजिए, ये वाक्य रूपी प्रहार बंद कीजिये । ये शब्द वाण मुझे तीक्ष्ण वन की तरह सतावे हैं। तक्षक पाश से भी अधिक कष्ट पहुंचाते हैं।

चित्र:--इसीलिए तो हम तुम्हें छुड़ाना चाहती हैं। हमारी बात पर ध्यान दीजिए और ऊषा का विचार छोड़कर हमारे साथ चलने की तैयारी कीजिए। [ ११७ ]अनि०--क्षमा कीजिए, बारबार उसी बात को दुहरा कर मेरी आत्मा को दुःख न दीजिए । ऊषा के विषय मे आपके चित्त मे जो बुरा भाव है उसे निकाल दीजिए :--

ऊषा का प्यारा नाम मुझे, दुखमें भी सुख पहुंचाता है
इस कारागार में ऊषा ही, विरही की जीवनदाता है

ऊषा--(चित्रलेखा से ) बहन चित्रलेखा, देख ! विरही का विरह देख ! प्रेमी का प्रेम देख ! मेरा दिल तो अब नहीं मानता!

चित्र--तो क्या करोगी?

ऊषा--यह माया का पट हटाकर चकोरी अपने चंद्र का दर्शन करेगी!

चित्र०--सखी, तनिक धीरधरो, इसतरह एकदम अधीरता प्रकट न करो। [अनिरुद्ध से] राजकुमार यह तुम्हारी भूल है, उषा ही तुम्हारे सारे दुखों की मूल है !

अनि०--हैं, फिर वही बात ! फिर वही ढाक के तीन पात ! तुम्हारा उपदेश मेरे धर्म के प्रतिकूल है।

जब ऊषा जैसा रत्न नहो तो व्यर्थ ये मनमंजूषा है।

चित्र०--मनमंजूषा की भूषा है...

ऊषा--[बुर्का हटाकर आगे बढ़ते हुए ] तो लो हाजिर यह ऊषा है।

[ऊषा का प्रकट होजाना और वाणासुर का आना ]

वाणा०--[आश्चर्य से ] हैं ! ऊषा !! महल मे भी ऊषा, मूले पर भी ऊषा, वायुयान पर भी ऊषा और कारागार में भी ऊषा ? सब जगह ऊषा ही ऊषा! [ ११८ ]अनि०--हां, तेरी अभिमान रूपी रात्रि का अंत करके अब यह ऊषा रूपी प्रकाश संसार के सामने भाता है, इसीलिए तुझे ऊषा का नाम नहीं सुहाता है।

बाणा०--ओ जिद्दी लड़के तू क्यों अपनी शामत बुलाता है ! ' नागपाश में बंधा रहने पर भी तू अनिरुद्ध कहाता है ?

अनि०--हाँ हाँ, नागपाश में बँधा रहने पर भी अनिरुद्ध अनिरुद्ध कहाता है !

वाणा०--घरे अनिरुद्ध का अर्थ तो स्वतंत्र है, परन्तु तू यहाँ परतंत्र दिखाता है :-

पड़के कारागार में स्वाधीन स्वर वेकार है ।
जिस्मपे नागों के फन्दे सरपे ये तल्वार है।

ऊषा--अगर उस सर पर तल्वार है तो ऊषा के जीवन पर भी धिक्कार है ! उस शीस के बदले यह शीस तल्वार की भेंट होने के लिए तैयार है :-

तल्वार का करना ही है तो वार कीजिए।
पुत्री को पहले, हे पिता बलिहार कीजिए।

वाणा०--अच्छा तो आज इस दुधारी तल्वार से तुम दोनों के सर उड़ाता हूं:--

[यह कहकर मारने को झपटना और उद्धव बलराम का आपहुंचना]

[ ११९ ]बलराम--ठहरजा, दुष्ट ठहरजा:--

तल्वार उठा करके न बढ़ बाल के भागे।
लड़ना है तो लड़ भाके तू इस काल के धागे ।

बाणा०--[आश्चर्य से] हैं ! तुमलोग यहाँ कैसे आगये ?

बल०--जैसे पुराने मकान के छिद्रों में होकर सूर्य की धूप आजाती है, उसी प्रकार तेरे पापों से कमजोर होजानेवाले किले में प्रवेश करके आज यादवों की सेना अपना जयघोष सुनाती है ।

वाणाo--तो मेरे सब शैव वीर कहाँ हैं १ अर धूम्राक्ष ! (वैष्णव वेष में धूम्राक्ष का पाना ) हैं ! तेरे मस्तक पर वैष्णष तिलक ? पिंगाक्ष ? (वैष्णव देष में पिंगाक्ष को मात देखकर ) हैं !तू भी वैष्णव होगया ? वज्रमूर्ति १ ( उसे भीवेष्णव वेष में देखकर ) अरे, इधर भी वैष्णव ! वक्रशक्ति । (वैष्णव वेष में देखकर ) उधर भी वैष्णव ?

बल०--हां,सब वैष्णवही वैष्णव ! बोलोवैष्णव धर्म की जय।

वाणा--कुछ पर्वाह नहीं, मैं अभी अग्निवाण द्वारा सब को भस्म किए देता हूं।

[वरण चढाना और उसीसमय सीन बदलकर गरुड पर कृष्ण भगवान् का आना अनिरुद्ध के नागपास के बंधन खुलजाना]

श्रीकृ०--अधर्मी वाणासुर तेरे पापका आज अंत है। इसीलिए इससमय यहाँ भयंकर भूकंप होगा।

वाणा०--भूकंप होता है तो होने दो ! प्रलय भी होता हो तो होजाने दो। तुम यदि अनिरुद्ध के सहायक हो तो मेरा [ १२० ]सहायक तुमसे भी बढ़कर है। तुम यदि सुदर्शनधारी कृष्ण हो तो मेरा स्वामी त्रिशूलधारी शकर है !

श्रीकृ०--अच्छा तो देखना है मेरे चक्र के सामने कौन अढ़ सकता है।

शिव० [एक क़दम आकर और त्रिशूल उठाकर] उस चक्र से यह त्रिशूल लड़ सकता है।

[त्रिशूल और सुदर्शन चक्र का युद्ध होनेलगता है ]
 

वाणा०--धन्य, त्रिपुरारी धन्य ।

नारद--[आकर] त्राहिमाम् , त्राहिमाम् ! रोकिए, भगवन् शाँत कीजिए ! इन दिव्य अस्रो के भयँकर युद्ध से ब्रह्माण्ड भस्म होजायगा। इस भयङ्कर लीला के कारण संसार आपके एक म्वरूप को द्वैतभाव से देखने लगजायगा। अतएव इस माया को समेटिए।

चक्र और त्रिशून के बदले बजादो हरीहर ।
ज्ञानका डमरू उपर और प्रेमकी वंशी इधर ॥

शिव--कृष्ण-एवमस्तु !

[अस्त्रों का युद्ध बंद होकर अलग होजाते हैं]
 

श्रीकृ०--वीर वाणासुर! हम और शिव वास्तव में एक हैं, वे मूर्ख हैं जो दोनों में भेद समझते हैं । यह तो एक होनहार बात थी जो होकररही, किंतु अब हमारामाशीर्वाद है किं तुम्हारा राज्य भटल रहेगा, और तुम्हारे हृदय से अज्ञान का पर्दा हटकर कान का श्रोत बहेगा! [ १२१ ]वाणाo--[प्रसन्न होकर] जय, जय, चक्रधारी की जय । आज मेरे धन्य भाग्य है जो मेरे द्वार पर चक्रधारी और त्रिशूलधारी दोनों आये हैं, पुत्री ऊषा के कारण मैंने हरिहर के एकसाथ दर्शन पाये हैं। [कृष्णदास और अन्यान्य शैव वैष्णवों का वहां आना]

कृष्णदास--देखो, हरिहर मे भेद समझनेवालो, देखो ! जिस प्रकार संगम पर गङ्गा और यमुना में द्वैत नही है, उसी प्रकार विष्णु और शिव में भेद नहीं है। एक ओर यमुना-तट-विहारी हैं तो दूसरी ओर गङ्गधारी हैं, और बीच मे सरस्वती के समान यह ऊषा कुमारी हैं। इसलिए इस एकतो की त्रिवेणी में स्नान करके संगठन रूपी अक्षयवट का दर्शन करो और अपने समस्त रापों का अघमर्षण करो।

श्रीकृ०--भक्तराज कृष्णदास ! तुमने अपने प्रण को खब निभाया है । शैव और वैष्णव का मगड़ा मिटाकर एकता का झंडा फहराया है । तुम्हार पिता की आत्मा को इससे पूर्ण स्त प्राप्त होगी और अंतमें तुम्हें भी मेरे धाम की प्राप्ति होगी।

शिव--भक्त वाणासुर, अब देवर्षि नारदजी के हाथ से कुमारी ऊषा का अनिरुद्ध के साथ पाणिग्रहण करात्रो और इस रूप में शैव वैष्णव के संगठन का प्रत्यक्ष प्रमाण संसार को दिखाओ।

श्रीकृ०--पुत्री ऊषा, मेरा वरदान है कि भारत की नारियाँ सदैव तुम्हारा गुण गायेंगी और चैत्र मास मे तुम्हारा चरित्र श्रवण कर अचल सौभाग्य का फल पायेंगी।

[नारद ऊषा और अनिरुद्ध का पाणिग्रहण कराते हैं]
 
[ १२२ ]नारद--

जब तक रवि और शशि रहें, जबतक महि आकाश ।
तब तक ये दम्पति करे, जग में सुयश प्रकाश ।।

कृष्णदास :--

ऊषा और अनिरुद्ध का, पूर्ण हुआ सब काम ।
जय हरिहर,जयविष्णुशिव,जय श्री राधेश्याम।।

[अंत में फ्लाट फटकर हरिहर स्वरूप का दर्शन ]
 

समाप्त

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"श्रीराधेश्याम पुस्तकालय, बरेली" की
सवप्रिय, और भारत-विख्यात
*रामायण*
(ले॰–प॰ राधेश्याम कथावाचक)

यह 'रामायण' की कथा आज सैकड़ों कथावाचक बांच रहे हैं। यह कथा कितनी उत्तम है इसका अनुमान केवल एक इसी बात से हो सकता है कि आज तक कोई पन्द्रह लाखके क़रीब इसकी पुस्तकें भारत में पहुंच चुकी है। यह रामायण की पुस्तकें बीस हैं। अर्थात् बीस भागों में रामायण पूरी हुई हैं। अभी एक जिल्द में यह बीसो भाग नहीं छापे गये है। आप बीसों भाग मंगाकर जिल्द बंधवालीजिए।

नाम और दाम इस प्रकार हैं:—

जन्म ///) सीताहरण ///)
पुष्पवाटिका ///) रामसुग्रीव की मित्रता ।)
धनुष-यज्ञ ।) अशोकवाटिका ///)
विवाह ///) लङ्कादहन ///)
दशरथ का प्रतिज्ञा पालन ///) विभीषण की शरणागति ///)
कौशल्या माता से विदाई ///) अङ्गद रावण का सम्बाद ///)
वनयात्रा ///) मेघनाद का शकिप्रयोग ।)
सूनी अयोध्या ///) सती सुलोचना ///)
चित्रकूट में भरतमिलाप ///) रावण-वध ।)
पञ्चवटी ///) राजतिलक ///)

नोट…इन्हीं दामोंमें यह सब किताबें उर्दू में भी मिलती हैं,


पता…श्रीराधेश्याम पुस्तकालय, बरेली। [ विज्ञापन ]

वीर अभिमन्यु

(लेखक-प० राधेश्याम कथावाचक)

बम्बई की 'न्यू अलफ्रेड थियेट्रिकल कम्पनी' का यह लोकप्रसिद्ध नाटक है । इस नाटक की बदौलत कम्पनी ने खूब धनार्जन और यशार्जन किया है। हिन्दी में अपनी शान का यह पहलाही नाटक है जो पारसी नाटक मञ्चपर खेला भी जाता है और पाय विश्वविद्यालय की "हिन्दी भूषण" तथा 'एफ़, ए० क्लास की परीक्षा की पाठ्य पुस्तकों में भी स्वीकृत हुश्रा है।

संयुक्त प्रान्त के शिक्षा-विभागने मी अब इस नाटक पर दृष्टि डाली है, और इसे 'ऐङ्गलो वर्नाक्यूलर, सथा 'वर्नाक्यूलर स्कूलों में पारितोषिक देने एवम् लाइब्रेरियों में रखने के लिये

हिन्दी के मशहूर अखबारों ने भी इसके लिये बढ़िया २ रायें दी है । देखियेः-

सरस्वती--'नाटक मे वीर और करुणारस का प्राधान्य है।'

भारतमित्र--'वीर-अभिमन्यु हिन्दू आदर्श को सामने उपस्थित करन- वाला नाटक है।"

ब्रह्मचारी--“रोचकता और रसपरिपोष का तो यह हाल है कि पढते २बीच में छोड देना किसी विरले ही पुरुष पुङ्गव का काम होगा।"

आज--"अपने पुरुषों के गौरव तथा कर्तव्य परायणता का चित्र उत्तम रीति से खींचागया है।"

सनातनधर्म पताका--"इसके पुरातन भाव और नई पद्य रचना से हिन्दी साहित्य के प्रेमियों को अवश्य ही यथेष्ट लाभ पहुंचेगा।'

प्रताप--'स्टेजपर सफलता पूर्वक खलाजाचुका है,हम लेखककोवधाई देते है

प्रतिभा--'नाटक बहुत अच्छा है। बड़ी सफलता सं खेला जाता है।

तीसरीवार दसहजार छपकर तयार हुआ है। दाम १) रु०


पता श्रीराधेश्याम पुस्तकालय, बरेली। [ विज्ञापन ]

श्रवणकुमार

(ले०-५० राधेश्याम कथावाचक )

(यह नाटक संयुक्त-प्रान्त के शिक्षा विभाग द्वारा 'ऐगलोवर्नाक्यूलर तथा वर्भाक्यूलर स्कूलों की लाइब्रेरियों मे रक्खे जाने एवम् पारितोषिक दिये जाने के लिये स्वीकृत हुआ है)

"श्रीसूरविजय नाटक" समाज के स्टेज पर खेला जाने वाला यह वह नाटक है जिसकी तारीफ़ लिखकर नहीं हो सकती। जिन्हाने उक्त नाटक समाजमें जाकर इसका खेल देखा है वे ही जानते हैं कि यह नाटक क्या चीज़ है।

दिल्ली के दैनिक "विजय" ने इसपर यह राय दी हैः- 'नाटक मनोरम्जक और शिक्षादायक है।'

मथुरा के मासिक पत्र "गौड़हितकारी” की राय है:- 'इस पुस्तक के पढने पर श्रवण वालक के विचारों का' उसकी मातृ-पितृ भक्ति का वह चित्र हृदय पर खिचता है कि जिससे चित्त गद्गद् हो जाता है।

काशो के दैनिक पत्र "आज" ने राय दो है कि--

'इस नाटक के नायक रामायण वर्णित प्रसिद्ध मातृ-पितृ-भक्त श्रवणकुमार है, और उनकी आदर्श मातृ-पितृ-भक्ति तथा उसके परिणाम हा इसमे देिखाये गये हैं। कांवरत्नजी को नाटक के रोचक और परिणामकारा बनाने मे अच्छी सफलता हुई है। अपनी ओर से उन्होंन जिन पात्रो की कल्पना की है उनके चरित्र नाटक की उद्देश्य-सिद्धि में पूर्णरूप से सहायक है। अर्थात् उनके द्वारा माता पिता का सेवादि स सन्तुष्ट रखने और इसके विपरीत श्राचरण की भलाई और बुराई का चित्र दर्शकों के मन पर अधिक स्पष्ट रूप में अकित होजाता है।

श्रीसूरविजय नाटक समाज बरसों से इस नाटक को बड़ी सफलता के साथ खलरहा है। इस नाटक की भाषा साधु और ओजस्वी है, पद्य भाग भी अच्छा है। यह नाटक चौथीबार छपकर तैयार हुआ है । दाम ।।।।)


पता-श्रीरधेश्याम पुस्तकालय, बरेली।