सामग्री पर जाएँ

ऊषा-अनिरुद्ध/भूमिका

विकिस्रोत से
ऊषा-अनिरुद्ध
राधेश्याम कथावाचक

बरेली: राधेश्याम कथावाचक, पृष्ठ भूमिका से – ठ तक

 

भूमिका

प्राचीन समय से भारतवासी नाटक लिखने और देखने के प्रेमी रहे हैं। उन्होंने नाट्यशास्त्र में जो ख्याति प्राप्त की वह किसी से छिपी नहीं है। भरतमुनि नाटकशास्त्र के पिता माने जाते हैं, परन्तु संस्कृत का सबसे पहला नाटक भासमुनि ने लिखा। कालिदास और भवभूति ने काव्य और नाटक में जो उन्नति करके दिखाई, उसके सामने युरोप के बड़े २ नाट्यकार भी सर झुकाते हैं। जर्मनी का प्रसिद्ध कवि गेटे 'शकुन्तला' पर इतना मुग्ध था, कि उसने स्वयम् शकुन्तला के कुछ अंशों का छन्दोबद्ध अनुवाद किया। युरोप के कुछ नाट्यकारों ने कालिदास की रचना की इतनी प्रशंसा की कि उसके सामने वे चरित्र चित्रण और उच्चभाव प्रदर्शन में शेक्सपियर की रचना को भी हेच समझने लगे।

मुसलमानों के शासनारम्भ से संस्कृत भाषा की अवनति का काल शुरू हुआ। धीरे २ संस्कृत नाटकों की रचना बंद सी हो गयी। अरब और फ़ारिस के लोग नाटक के नाम से घृणा करते थे, इसलिए मुग़ल शासनकाल में भारत की किसी भाषा में नाटक न लिखे गये। हां, अंग्रेज़ों के हिन्दुस्तान में आने के समय से बङ्गभाषा ने विशेषोन्नति की और उसके पुजारियों में माननीय द्विजेन्द्र लाल राय जैसे अद्वितीय नाट्यकार हुए। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत की किसी अन्य भाषा में द्विजेन्द्र बाबू की प्रतिभाशाली रचना का उदाहरण न दिया। उर्दूभाषा तो अङ्गरेज़ी के अनुवाद और लौकिक प्रेम के छोटे मोटे गंदे ड्रामों से सन्तुष्ट रही। उस समय की जनता के लिये उत्तम मानसिक खाद्य न मिल सका। इसलिए उसकी रुचि गिरती ही गयी। इधर देवनागरी में संस्कृत के उत्तमोत्तम नाटकों के अनुवाद हुए और भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र राजा लक्ष्मणसिंह और बाबू बालमुकन्द गुप्त जैसे विद्वानों ने अपनी लेखनी उठाई। समय आया कि लोग अनुवाद के जूठे भोजन से घबड़ागये और मौलिक नाटकों की इच्छा प्रकट करने लगे। उर्दू लेखकों ने हिन्दी पढ़ना आरम्भ की। धार्मिक और पौराणिक कथानकों को लेकर नाटक लिखे जाने लगे। रामायण और महाभारत की छानबीन होने लगी। क्या यह हिन्दी भाषा और मुसलमान जाति के लिये कम गौरव की बात है कि श्रीयुत आग़ाहशर ने 'भक्त सूरदास' और 'मधुर मुरली' नामक अपने दो अच्छे नाटक हिन्दी में लिखे।

इस समय जो नाटक हमारे सामने है उसका नाम 'ऊषा अनिरुद्ध' है। नाटक पढ़कर भूमिका लिखने और नाटक को स्टेज पर देखकर भूमिका लिखने में उतना हो भेद है जितना बिना खाँड का दूध पीने और खाँड डालकर दूध पीने में है। मैंने इस नाटक को स्वयम् श्रीसूरविजय नाटक समाज के स्टेज पर खिलते देखा है। मैं तो सुना करता था कि नाटक लिखना महीनों और बर्षों का काम है, परन्तु यह नाटक बीसही दिन में लिख दिया गया, क्या यह अद्भत बात नहीं है? पंडित राधेश्यामजी अभिमन्यु और प्रह्लाद जैसे लोकप्रसिद्ध नाटकों के रचयिता हैं। यह दोनों नाटक पंडितजी के यश और कीर्ति को जितना बढ़ानेवाले हैं, उससे कम वे हिन्दी भाषा का भी मान बढ़ाने वाले नहीं हैं। उक्त पंडितजी द्वारा 'ऊषा अनिरुद्ध' का लिखा जाना नाटक की उत्तमता का पर्याप्त प्रमाण है!

नाटक का कथानक श्रीमद्भागवत से लिया गया है। ऊषा राजा बाणासुर की पुत्री है। वह अनिरुद्ध कुमार से विवाह करना चाहती है, दोनों के प्रेममार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं, परन्तु अन्त में सफलता प्राप्त होती है। नाटक में दूसरे अंक का चौथा दृश्य अर्थात् 'ऊषा का महल वाला सीन' मुख्य है। यही समस्त नाटक की कुंजी है, इस से पूर्व का सारा कार्य दोनों प्रेमी और प्रेमिका के मिलन के हेतु होता है और इसके आगे का सारा कार्य उस मिलन को सफलीभूत करने के हेतु। इस मुख्य कथानक की शोभा को द्विगुण करने के निमित्त शैव और वैष्णवों के मतमतान्तर के बाद विवाद का उपकथानक जोड़ दिया गया है।

इस नाटक से उपदेश जोमिलता है वह मार्ले के शब्दों मे इस प्रकार प्रकट किया जा सकता हैं :––"Love God, Love your neighbour, Do your work." अर्थात्––परमात्मा से प्रेम करो, अपने पड़ोसी से प्रेम करो और अपना कर्तव्य पालन करो। उपदेश कथानक में गूंथा हुआ है, इसलिये किसी स्थान पर दोनों का पृथक करके दिखाना सम्भव नहीं है।

नाटक शिव और पार्वती के सम्वाद से प्रारम्भ होता है। नाटक के शिवजी दयालु और भोलानाथ हैं। वे वाणासुर का कठोर तप देखकर उसको अजेय शक्ति प्रदान करदेते हैं, यद्यपि वे जानते हैं कि इससे संसार को कितनी हानि पहुंचेगी। वाणासुर और बलराम के युद्ध के समय शिवजी उस झगड़े को शान्त करते हैं और वाणपुत्री ऊषा और श्री कृष्ण के पौत्र राजकुमार अनिरुद्ध का विवाह कराते हैं। अंगरेजी के नाटककार इसे Deus Ex Machina कहते हैं। वे इसे एक प्रकार का दोष मानते हैं कि किसी कार्य को साधने के लिए सहसा किसी देवता अथवा अन्य अलौकिक शक्ति का आश्रय लिया जाय, परन्तु हिन्दी नाटकीय संसार इसमें कोई त्रुटि नहींदेखता।

श्रीमती पार्वतीजी का चरित्र एक देवी का चरित्र है। दया के वशमें होकर वे वाणासुर को एक कन्या का प्रसाद देती हैं।

इस नाटक के श्रीकृष्ण गीता के श्रीकृष्ण का पूर्वपरिचय दे रहे हैं। वे सुख दुःख में समान हैं। वे स्त्री, पुत्र, पौत्र और बन्धु बान्धवों के सारे कार्यों को उदासीन भाव से देख रहे हैं। वे वृद्ध हैं। उनमें योगियों की शान्ति है। वे शत्रु की प्रजा के हितचिन्तक हैं, और नहीं चाहते कि वाणासुर की धनहीन प्रजा, दरिद्री कृषक, और लाभदायक संस्थायें योद्धाओं के क्रोध का आखेट बनें। वे युद्ध में कूट नीति के पक्षपाती नहीं हैं, बल्कि वे उद्धव जी को नियमानुकूल लड़ने का उपदेश करते हैं। वे प्रत्येक काम केवल परोपकार की लालसा से करते हैं। उनका विचार है कि वृद्धावस्था त्याग और शान्ति का पाठ करने के लिये बनाई गयी है। अन्त में पुत्रवधू की करुणा भरी पुकार सुन कर वे युद्ध में जाने को तैयार होते हैं।

बलराम ज़रा सी बातमें क्रुद्ध होजाते हैं। उनमें सहनशीलता कम है। अनिरुद्ध के महल से अन्तर्ध्यान होने का समाचार सुनते ही वे आपे से बाहर होजाते हैं। वे तुरन्त सेना भेजने की सलाह देते हैं। वे कृष्ण की शान्ति और नियमपरायणता के विरुद्ध हैं।

रुक्मिणी भारत की नारी का आदर्श है। उसमें अपने स्वजनों के प्रति मोह और अनुराग है। वह पुत्र और पौत्र को संकट में देख कर चुप चाप नहीं बैठ सकती।

नारद जी देवर्षि हैं, परन्तु शोक है कि हिन्दी नाट्यकारों ने उनके आसन को नीचा गिरा दिया है। जहाँ आवश्यकता पड़ती है, उन्हें बुलाया जाता है। जहां कलह कराना हो वहाँ उनका प्रवेश कराया जाता है। यहां तक कि 'झगड़ालू' और 'नारद' पर्यायवाचक शब्द मान लिये गये हैं। हमें आशा है कि नाट्यकार नारद को हास्य पात्र न बनाकर, उनको उनका खोया हुआ सम्मान लौटाने की कृपा करेंगे। हर्ष की बात है कि इस नाटक में नारद फिर भी बहुत सम्भले हुए हैं।

जैसा नाटक के नाम से प्रकट होता है, नाटक की प्रधान पात्री ऊषा है। हम निस्संकोच कह सकते हैं कि श्रीमद्‌भागवत की ऊषा से इस नाटक की ऊषा सब बातों में बढ़ी चढ़ी है। पार्वती के प्रसाद से यह स्वप्न में अनिरुद्ध को देखती है। केवल इसी कारण वह उसको अपना वर चुन लेती है। विवाह से पूर्व दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं होता। वह अनिरुद्ध से प्रेम करती है, परन्तु उसका प्रेम

सच्चा और गहरा है। जैसा पार्वती जी ने मन में ठाना था कि 'वरउं शम्भु न तु रहउँ कुवाँरी' ठीक उसी प्रकार ऊषा भी मन में प्रतिज्ञा कर लेती है कि मैं इस जीवन में केवल अनिरुद्ध से विवाह करूंगी––

एक बार जिसको वरा, है वह ही भरतार।
झिंझरी नैया का वही, पति है बस पतवार॥

अत्याचारी पिता का भय उसको अपने प्रण से नहीं हटा सकता। वह क्षत्रिय बालिका है और किसी स्थान पर अपने क्षात्र धर्म से नहीं गिरती है, यहां तक कि पिता की खड्ग के सामने अपने पति को बचाने के निमित्त वह स्वयम् अपना शिर रख देती है।

चित्रलेखा वाणासुर के मन्त्री की पुत्री और ऊषा की सब से प्रिय सखी है। उसका चरित्र नाटक में सबसे अनोखा है। वह उड़ना जानती है, स्वप्न का अर्थ बतला सकती है और चित्र भी खींच सकती है। इससे विदित होता है कि प्राचीन समय में नारियां अनेकों कलायें जानती थीं और शास्त्र प्रवीणा होती थीं। उस समय मूर्खता का होना स्त्रियों का आभूषण न समझा जाता था और न उनकी पूजा केवल वाह्य सौन्दर्य और वस्त्रशृंगार के कारण होती थी। अपनी सखी ऊषा के हित साधनार्थ वह प्रत्येक कष्ट सहने को तैयार है। वह आकाश मार्ग से जाती, अपने को भयानक स्थिति में डालती अनिरुद्ध के राजभवन में बेधड़क घुस जाती और अनिरुद्ध को पलंग समेत ले आती है। ऊषा और अनिरुद्ध की प्रथम भेंट कराने में उसने जिस कौशल से काम लिया है वह उसी का अंश है। वह बात चीत करने में और विशेष कर हास्य रस में दक्ष है।

हमारी राय में नाटक का मुख्य पात्र अनिरुद्ध नहीं बल्कि वाणासुर है। वाणासुर एक अत्याचारी राजा है। वह शैव है और वैष्णवों को भरपूर दुःख देता है। शिवजी के प्रसाद से उसे अजेय शक्ति और पर्वती जी के प्रसाद से एक कन्यारत्न प्राप्त होता है। कन्या के जन्म पर राजा ऐसा ही प्रसन्न होता है जैसा कोई पुरुष पुत्रोत्पत्ति से होता है। कन्या के पैत्रिक प्रेम और भक्ति के विषय में वाणासुर ने जिन भावों को प्रकट किया है वे आजकल उन हिन्दू गृहस्थों के विचार करने योग्य हैं जो कन्या जन्म पर शोक करते और उसके आगम को सृष्टि की ओर से दुर्भाग्य का चिन्ह समझते हैं।

वाणासुर यह बात किसी प्रकार भी नहीं सह सकता कि उसकी कन्या किसी वैष्णव के साथ विवाही जाय। इसी निमित्त वह ऊषा को कैद करने की प्रतिज्ञा करता है, और अन्त में वह अनिरुद्ध को मारडालने का प्रयत्न रचता है। वह महादेव जी का अनन्य भक्त है, इस कारण उनकी आज्ञा उल्लंघन नहीं करता। शिव जी के समझाने पर कि 'हरी हर दानों एक समान' वह वैरभाव को त्यागकर अपनी कन्या अनिरुद्ध कुमार के साथ ब्याह देता है।

नाटकका तीसरा मुख्य पात्र अनिरुद्ध है। चित्रलेखा द्वारा वह आकाशमार्ग से ऊषा के महल में लाया जाता है। जागने पर वह अपने आपको बिलकुल नये स्थान में पाता है। ऊषाकी ओर दृष्टि पड़ते ही उसके हृदय में 'Love at first sight' प्रेम का भाव सहसा उदय होता है।

Dead shepherd! now I find thy saw of might,
Who ever loved, that loved not at first sight?

(As you like it.)

वह केवल कोरा प्रेमी ही नहीं है, बल्कि क्षत्रिय वीर है। उसके यह शब्द कि "मौत का ख़याल उन्हें होता है जो दौलत के कुत्ते हैं, हिर्स और हविस के बन्दे हैं" भली भाँति उसके आन्तरिक भावों को प्रकट करते हैं। अन्त में मनोवाँछित प्रिया ऊषा के साथ उसका विवाह होता है।

उग्रसेन उन राजाओं में से हैं, जिनके हृदय में प्रजाके सुख का विचार सर्वोपरि है। वे अपने भोग विलास में समय बिताना और प्रजा की सुध न लेना राजकीय कर्त्तव्य के विरुद्ध समझते हैं। उनमें क्रोध नहीं है। अनिरुद्ध के महल से ग़ायब होने की बातका वह पता तो चलाते हैं, परन्तु बड़ी सावधानी से। उन्हें अपने पुत्र पौत्र से उतना ही स्नेह है जैसा कि एक वृद्धको होना चाहिये। वह कृष्ण के प्रति अपना विशेषानुराग इस कारण दिखलाते हैं, क्योंकि कृष्ण सुख दुःख में समान हैं।

भगवान् कृष्ण का सुदर्शन चक्र अनिरुद्ध के शयनागार का पहरेदार है। सुदर्शन स्वामिभक्त और कर्तव्यपरायण है। जहाँ पर उसे नियुक्त कर दिया जाय, वहां से वह हटता नहीं है। वह चित्रलेखा की चाल में आ जाता है। मनमें यह विचारकर कि कहीं माता रुक्मवती अप्रसन्न न हो जाँय, उनकी आज्ञा से वह पहरे पर से हट कर नारद के पास जाता है।

विष्णुदास धर्म पर बलिदान होजाने वाला वीर है। वह 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' के मन्तव्य पर कटिबद्ध है। वीर हक़ीक़त की नाईं वह अपने जीवन का मोह नहीं करता है। उसकी दृढ़ता निम्नलिखित पद्योंसे भली भाँति प्रस्फुटित होती है––

सूर्य चाहे अपनी गर्मी छोड़दे,।
शेष चाहे अपनी शक्ती छोड़ दें॥
पर नहीं होगा यह तीनों काल में।
विष्णु सेवक विष्णुभक्ती छोड़ दे॥

उसकी मृत्यु के समय के अन्तिम शब्द 'इस अत्याचारी से मेरी हत्या का बदला लेना" उसके पुत्र कृष्णदासको मार्ग दर्शानवाले हैं। प्रायः महात्मा पुरुषों को उत्तम सन्तान का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता है, किन्तु विष्णुदास उन भाग्यशाली पुरुषों में है जिसका पुत्र भी पिता से कम धर्मनिष्ठावाला और कम कर्तव्यपरायण नहीं है। शेक्सपियर के प्रसिद्ध पद्यों में––
'Stone walls do not make a prison, nor ironbars a cage'

वह आत्मा की स्वतंत्रता में दृढ़विश्वास रखता है।

नाटक में कृष्णदास का चरित्र भी ज़बरदस्त है। वह केवल सामान्य वैष्णव ही नहीं बल्कि उस धर्म का प्रचारक है। वह उस धर्म को मानकर स्वयम् ही मुक्ति नहीं चाहता बल्कि दूसरों को भी उस मार्ग पर लाने का प्रयत्न करता है। वह साधुओं को संगठित करना चाहता है और उसका विश्वास है कि जात्युत्थान में इनसे पूर्ण सहायता मिल सकती है। उसमें धर्म विश्वास के साथ २ एक धारणा और एक निश्चलता है, वह दलबन्दी का पक्षपाती है, परन्तु किसी द्वेषभाव से नहीं। उसकी राय में प्रकृति का आधार संगठन है, और यदि अपनी जाति को नष्ट होने से बचाना है और दूसरी जातियों से मैत्री करनी है तो उनके समान बनना चाहिये, क्योंकि "प्रीति बराबर वालों में होती है, छोटे बड़ों में नहीं होती।" राजा का कोप उसे अपने उद्देश्य से विचिलित नहीं करसकता, पिता की मृत्यु उसे अपने कार्य में अधिक लीन कर देती है।

माधोदास एक अनपढ़ और अज्ञानी महन्त है। वे आजकल के उन साधुओं का नमूना हैं जो दूसरों को चेला करना और उनका जीवन व्यर्थ नष्ट करना ही अपना उद्देश्य समझते हैं। वे अपने शिष्यों पर धाक बैठालने के लिये अपने आप को शास्त्र प्रवीण प्रकट करते हैं।

पुरोहितजी महाराज आजकल के पुरोहितों का नमूना हैं। वे कन्योत्पत्ति के समय राजदरबार में पत्री देखते हैं। यह बात ठीक २ निश्चित नहीं है कि वे ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता हैं अथवा नहीं, परन्तु इतना सत्य है कि वे राजा को प्रसन्न करने के निमित्त ग्रहों का सारा फल 'बहुत अच्छा' बतलाते हैं।

नाटक को रोचक बनाने के निमित्त गोमतीदास, सरयूदास, कौशिकीदास आदि अन्य छोटे २ पात्रों की कल्पना की गयी है। उनका नाटक में कोई आवश्यक और मुख्य भाग नहीं है। इस कारण उनके विषय में लिखने की आवश्यकता नहीं है।

बीसवीं शताब्दी के भारतवर्ष को वीर रस और रौद्र रस की आवश्यकता है। इस हीन हिन्दू जाति के प्रत्येक बालक को यह बतलाने की ज़रूरत है कि इस संसार में किसी विचार और आदर्श के लिये किस प्रकार प्राण दिये जासकते हैं। साँसारिक सुखों में लीन रहना और झूठे शृंगार की कोमल टहनियाँ पकड़ कर आकाश पर चढ़ने की इच्छा करना इस मानवी जीवन का उद्देश्य नहीं है। इस समय क्षत्रियत्व की आवश्यकता है। वाणासुर और विष्णुदास की बात चीत और दूसरी ओर वाणासुर और अनिरुद्ध के गर्मागरम सम्वाद से इन दोनों रसों की प्रधानता प्रकट होती है।

नाटक में शृंगार अथवा प्रेमरस का होना उतना ही आवश्यक है जितना अन्य किसी रस का। मानवी जीवन में शृंगार सबसे अधिक प्रभाव रखता है, यहाँ तक पशुपक्षी, जल थल, बेल बूंटे और फूल पत्ते सब उसके वशीभूत हो जाते हैं। जिस प्रकार सूखी खेती को पानी हरा करदेता है ठीक उसी प्रकार मनुष्य के थके हुये अंशों को शृंगार प्रोत्साहित कर देता है। जिस प्रकार अधिक वर्षा खेती को हानि पहुंचाती है, उसी प्रकार कृत्रिम और अप्राकृतिक शृङ्गार रसकी अधिक मात्रा मनुष्य में आलस्य, प्रमाद आदि उत्पन्न करके उसे जीवन युद्ध के सर्वथा अयोग्य बना देती है। यही कारण है कि हमारे देशके नवयुवक नाटक देखकर अपना चरित्र सुधारने की अपेक्षा उसे बहुत जल्दी बिगाड़ लेते हैं। नाटक के अन्य रस उनमें कोई उच्चभाव प्रकट करने की दृढ़ता नहीं रखते, केवल शृंगार से उनके चक्षु चौंधिया जाते हैं। इस नाटक में शृंगार रस है और होना भी चाहिये था, परन्तु यह उपर्युक्त दोषों से रहित है। यदि प्राकृतिक सौंदर्य का रसास्वादन करना हो, तो ऊषा के विरह जनित वाक्यों को पढ़ जाइये। प्रेमके कारण ऊषा का मन उद्विग्न तो होता है, परन्तु समुद्र के समान उसमें गम्भीरता विद्यमान रहती है।

नाटक में हास्यरस है, क्योंकि बिना इसके नाटक का स्टेज पर पास होना असम्भव है। कोई मनुष्य भी जीवन में सदा गम्भीर विचारों और उच्च भावों में निमग्न नहीं रह सकता। उसके लिये अनिवार्य होता है कि समय समय पर वह भिन्न रसों का आस्वादन करे। इस नाटक में वह गंदा मज़ाक और हंसी दिल्लगी नहीं है जिसको हम अपनी सन्तान और स्त्रियों को दिखाते हुए झिझकें, बल्कि हंसी उस कोटि की है जिस पर अनपढ़ों की अपेक्षा पढ़े लिखों को अधिक श्रद्धा होनी चाहिये। वह हंसी दिल्लगी कोरे मनोरंजन के निमित्त नहीं है। उसका गूढ़ अर्थ भी है। उसके बहानेसे देशके पाखंडी साधुओं और महन्तों की अविद्या, अन्धविश्वास, कपट और छल का वास्तविक चित्र खींचा गया है। संकेतसे यह भी प्रकट करदिया गया है कि यदि हिन्दू जाति के नेता चाहें तो उनमें प्रचार करके उनको जात्युत्त्थान और देशोन्नति की ओर लगा सकते हैं।

शान्तिरस का उदाहरण श्रीकृष्ण जी के उन उत्तरों से मिलता है जो उन्होंने बलराम, रुक्मिणी और रुक्मवती को दिए हैं।

चित्रलेखा का आकाशमार्ग से उड़ना, अनिरुद्ध-भवन में प्रवेश करना और अनिरुद्ध को ऊषा के राजभवन में लाना अद्भुत रसका उदाहरण है।

यद्यपि नाटक के दोष तो नाट्यकार ही समझ सकता है, परन्तु इस विषय की कुछ बातों पर दर्शकों को भी मत देने का अधिकार है। इस दृष्टि से विचार किया जाये तो नाटक में कुछ त्रुटियाँ हैं। यह नाटक रंग भूभि पर खेले जाने के निमित्त रचा गया है, परन्तु यह लम्बा इतना है कि दर्शकों की जागरण-शक्ति को थकानेवाला है। माधोदास की बातचीत साधारण दर्शक वृन्द की समझ से बाहर है। जिन्हें अब भी हिन्दी भाषा जानने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है, उनके लिए तो 'शोणित-पुराधीश' और 'मंजूषा' आदि शब्दों का समझना कठिन होगा।

नाटक दृश्य काव्य है। वह सीन सीनरीसे लोगों में पास होता है। यदि ऐक्टर अच्छा गाते हों, शुद्ध उच्चारण करते हों और भावों को ठीक प्रकार से दिखलाते हों, तो साधारण नाटक भी दर्शकों की दृष्टि में अच्छा जचेगा। पर नाटक की उत्तमता की कसौटी यह नहीं है। उत्तम कोटिका नाटक वही है जिसमें उच्च विचारों और उन्नत भावों का समावेश हो, और मनुष्य के हृदय में जिनके पढ़ने से एक बार तो उथल पुथल मच जाय और उसकी आंखों के सन्मुख आदर्श के पालन और पाप के दुष्परिणाम का पूरा पूरा चित्र खिंच जाय।

हर्ष की बात है कि लेखक ने इस नाटक के लिखने में बहुत अंशों में सफलता प्राप्त की है।

हमें आशा है कि भविष्य में भी ऐसे ही नाटक स्टेज पर आकर जनता के ज्ञान की वृद्धि करेंगे और हिन्दी साहित्य का भंडार भरेंगे।

बरेली। छैलबिहारी कपूर बी॰ ए॰।
१८-६-१९२५,