कटोरा भर खून/१२

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कटोरा भर खून  (1984) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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१२


हम ऊपर लिख आये हैं कि जमींदारों और सरदारों की कमेटी में से अपने तीनों साथियों और नाहरसिंह को साथ ले वीरसिंह की खोज में खड़गसिंह बाहर निकले और थोड़ी दूर जाकर उन्होंने जमीन पर पड़ी हुई एक लाश देखी। लालटेन की रोशनी में चेहरा देख कर उन लोगों ने पहिचाना कि यह राजा का आदमी है।

नाहर॰: मालूम होता है, इस जगह राजा के आदमियों और बीरसिंह से लड़ाई हुई है।

खड़ग॰: जरूर ऐसा हुआ है, ताज्जुब नहीं कि बीरसिंह को गिरफ्तार करके राजा के आदमी ले गए हों। [ ६६ ]

नाहर॰: अगर इस समय हम लोग महाराज के पास पहुँचे तो बीरसिंह को जरूर पावेंगे।

खड़ग॰: मैं इस समय जरूर महाराज के पास जाऊँगा, क्या आप भी मेरे साथ वहाँ चल सकते हैं?

नाहर॰: चलने में हर्ज ही क्या है? मैं ऐसा डरपोक नहीं हूँ, और जब आप ऐसा मददगार मेरे साथ है तो मैं किसी को कुछ नहीं समझता! फिर मुझे वहाँ पहिचानता ही कौन है?

खड़ग॰: शाबाश! आपकी बहादुरी में कोई शक नहीं, मगर मैं इस समय वहाँ जाने की राय आपको नहीं दे सकता, क्या जाने कैसा मामला हो। आप इसी जगह कहीं ठहरें, मैं जाता हूँ, अगर बीरसिंह वहाँ होंगे तो जरूर अपने साथ ले आऊँगा, (कुछ सोच कर) मगर आपका यहाँ अकेले रहना भी मुनासिब नहीं।

नाहर॰: इसकी चिन्ता आप न करें। मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथी लोग इधर-उधर छिपे-लुके जरूर होंगे।

खड़ग॰: अच्छा तो मैं अपने इन तीनों आदमियों को साथ लिए जाता हूँ।

अपने तीनों आदमियों को साथ ले खड़गसिंह राजमहल की तरफ रवाना हुए। वहाँ ड्योढ़ी पर के सिपाहियों ने राजा के हुक्म मुताबिक इन्हें रोका मगर खड़गसिंह ने किसी की कुछ न सुनी, ज्यादा हुज्जत करने का हौसला भी सिपाहियों को न हुआ क्योंकि वे लोग जानते थे कि खड़गसिंह नेपाल के सेनापति हैं।

खड़गसिंह धड़धड़ाते हुए दीवानखाने में चले गए और ठीक उस समय वहाँ पहुँचे जब राजा करनसिंह अपने दोनों मुसाहबों शम्भूदत्त और सरूपसिंह के साथ बातें कर रहा था और चार आदमी एक लाश उठाये हुए वहाँ पहुँचे थे। वह लाश बीरसिंह की ही थी और इस समय राजा के सामने रक्खी हुई थी। बीरसिंह मरा नहीं था मगर बहुत ज्यादे जख्मी हो जाने के कारण बेहोश था।

यकायक खड़गसिंह को वहाँ पहुँचते देख राजा को ताज्जुब हुआ और वह कुछ हिचका, चेहरे पर खौफ की निशानी फैल गई। उसने बहुत जल्द अपने को सम्हाल लिया, उठ कर बड़ी खातिरदारी के साथ खड़गसिंह का इस्तकबाल किया और अपने पास बैठा कर बोला, "देखिए, बड़ी मेहनत और परेशानी से अपने प्यारे लड़के के खूनी बीरसिंह को, जिसे शैतान नाहरसिंह छुड़ा ले गया था, मैंने फिर पाया है।" [ ६७ ]

खड़ग॰: खूनी के गिरफ्तार होने की मैं आपको बधाई देता हूँ। मैंने अच्छी तरह तहकीकात किया और निश्चय कर लिया कि बीरसिंह बड़ा ही शैतान और निमकहराम है। मैं अपने हाथ से इसका सिर काटूँगा। हाँ, मैं एक बात की और मुबारकबाद देता हूँ।

राजा: वह क्या?

खड़ग॰: आपके भारी दुश्मन नाहरसिंह को भी इस समय मैंने गिरफ्तार कर लिया!

राजा: (खुश होकर) वाह वाह, यह बड़ा काम हुआ! इसके लिए मैं जन्मभर आपका अहसान मानूँगा, वह कहाँ है?

खड़ग॰: सिपाहियों के पहरे में अपने लश्कर भेज दिया है। मैं मुनासिब समझता हूँ कि बीरसिंह को भी आप मेरे हवाले कीजिए और अपने आदमियों को हुक्म दीजिए कि इसे उठा कर मेरे डेरे में पहुँचा आवें। कल मैं एक दरबार करूँगा जिसमें यहाँ की कुल रिआया को हाजिर होने का हुक्म होगा। उसी में महाराज नेपाल की तरफ से आपको एक पदवी दी जाएगी और बिना कुछ ज्यादे पूछताछ किए इन दोनों को मैं अपने हाथ से मारूँगा। इसके सिवाय आपके दो-चार दुश्मन और भी हैं उन्हें भी मैं उसी समय फाँसी का हुक्म दूँगा।

राजा: यह आपको कैसे मालूम हुआ कि मेरे और भी दुश्मन हैं?

खड़ग॰: महाराज नेपाल ने जब मुझको इधर रवाना किया तो ताकीद कर दी थी कि करन सिंह की मदद करना और खोज-खोज कर उनके दुश्मनों को मारना। हरिपुर की रिआया बड़ी बेईमान और चालबाज है, उन लोगों को चिढ़ाने के लिए मेरी तरफ से करनसिंह को यह पत्र और अधिराज की पदवी देना। उसी हुक्म के मुताबिक मैंने यहाँ पहुँच कर यहाँ के जमींदारों और सरदारों से मेल पैदा किया और उनकी गुप्त कुमेटी में पहुँचा जो आपके विपक्ष में हुआ करती है, बस फिर आपके दुश्मनों का पता लगाना क्या कठिन रह गया!

राजा: (हँस कर)आपने मेरे ऊपर बड़ी मेहरबानी की, मैं किसी तरह आपके हुक्म के खिलाफ नहीं कर सकता, आप मुझे अपना ताबेदार ही समझिए। क्या आप बता सकते हैं कि मेरे वे दुश्मन कौन हैं?

खड़ग॰: इस समय मैं नाम न बताऊँगा, कल दर्बार में आपके सामने ही [ ६८ ] सभों को कायल करके फाँसी का हुक्म दूँगा, वे लोग भी ताज्जुब करेंगे कि किस तरह उनके दिल का भेद ले लिया गया।

खड़गसिंह जब यकायक दीवानखाने में राजा के सामने जा पहुँचे तो राजा बहुत ही घबड़ाया और डरा, मगर उसने तुरंत अपने को सँभाला और जी में सोचा कि खड़गसिंह के साथ जाहिरदारी करनी चाहिए, अगर मौका देखूँगा तो इसी समय इन्हें भी खपा कर बखेड़ा तै करूँगा, किसी को कानोंकान खबर भी न होगी।

उधर खड़गसिंह के दिल में भी यकायक यही बात पैदा हुई। उसने सोचा कि मैं केवल तीन आदमी साथ लेकर यहाँ आ पहुँचा सो ठीक न हुआ। कहीं ऐसा न हो कि राजा मेरे साथ दगा करे, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है, इस बात का पता लग चुका है कि कमेटी में एक आदमी राजा का पक्षपाती भी धोखा देकर घुसा हुआ है, उसकी जुबानी मेरी कुल कार्रवाई राजा को मालूम हो गई होगी। ताज्जुब नहीं कि वह इस समय दगा करे। इन बातों को सोचकर बुद्धिमान खड़गसिंह ने फौरन अपना ढंग बदल दिया और मतलब-भरी बातों के फेर में राजा को ऐसा फँसा लिया कि वह चूँ तक न कर सका। उसे विश्वास हो गया कि खड़गसिंह मेरा मददगार है, इससे किसी तरह का उज्र करना मुनासिब नहीं। उसने तुरत अपने आदमियों को हुक्म दिया कि बीरसिंह को उठाकर सेनापति खड़गसिंह के डेरे पर पहुँचा आओ। खड़गसिंह भी दीवानखाने के नीचे उतरे और सड़क पर पहुँच कर उन्होंने अपने साथी तीन बहादुरों में से दो को मरहम-पट्टी की ताकीद करके बीरसिंह के साथ जाने का हुक्म दिया तथा एक को अपने साथ लेकर उस तरफ बढ़े जहाँ नाहरसिंह को छोड़ आए थे।

उस मकान से, जिसमें कमेटी हुई थी, थोड़ी दूर इधर ही खड़गसिंह ने नाहरसिंह को पाया। इस समय नाहरसिंह अकेला न था। बल्कि पांच आदमी और भी उसके साथ थे जिन्हें देख खड़गसिंह ने पूछा, "कौन है, नाहरसिंह!" इसके जवाब में नाहरसिंह ने कहा, "जी हाँ।"

खड़ग॰: ये सब कौन हैं?

नाहर॰: मेरे साथियों में से जो इधर-उधर घूम रहे थे और इस इन्तजार में थे कि समय पड़ने पर मदद दें।

खड़ग॰: इतने ही हैं या और भी? [ ६९ ]

नाहर॰: और भी हैं, यदि चाहूँ तो आधी घड़ी के अन्दर सौ बहादुर इकट्ठे हो सकते हैं।

खड़ग॰: बहुत अच्छी बात है, क्योंकि आज यकायक लड़ाई हो जाना कोई ताज्जुब नहीं।

नाहर॰: बीरसिंह का पता लगा?

खड़ग॰: हाँ, उन्हें जख्मी करके करनसिंह के आदमी ले गए थे, उसी समय मैं भी जा पहुँचा, फिर वह मुझसे क्योंकर छिपा सकता था? आखिर उन्हें अपने कब्जे में किया और अपने आदमियों के साथ अपने डेरे पर भेजवा दिया।

नाहर॰: बीरसिंह की कैसी हालत है?

खड़ग॰: अच्छी हालत है, कोई हर्ज नहीं, जख्म लगे हैं, मालूम होता है, बहादुर ने लड़ने में कसर नहीं की। मेरे आदमियों ने पट्टी बाँध दी होगी। अब देर न करो चलो, सरदार लोग अभी तक बैठे मेरा इन्तजार कर रहे होंगे।

नाहर॰: जी हाँ, जब तक हम लोग न जायेंगे, वे लोग बेचैन रहेंगे।

खड़गसिंह के पीछे-पीछे अपने साथियों के साथ नाहरसिंह फिर उसी मकान में गया जिसमें कुमेटी बैठी थी, कुल सरदार और जमींदार अभी तक वहाँ मौजूद थे। खड़गसिंह को देख सब उठ खड़े हुए। खड़गसिंह ने बैठने के बाद अपनी बगल में नाहरसिंह को बैठाया और सब को बैठने का हुक्म दिया। नाहरसिंह ने अपने साथियों में से एक आदमी को अपने पास बैठाया, जो अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था।

अनिरुद्ध॰: बीरसिंहका पता लगा?

खड़ग॰: हाँ, वह राजा के दगाबाज नौकरों के हाथ में फँस गया था, मैं वहाँ जाकर उसे छुड़ा लाया और अपने डेरे पर भेजवा दिया, अब बच्चनसिंह और हरिहरसिंहको भी पहरे के साथ हमारे लश्कर में भिजवा देना चाहिए।

तुरत हुक्म की तामील हुई, कई सिपाहियों को पहरे पर से बुलवा कर दोनों बेईमान उनके सुपुर्द किए गए और एक बहादुर सरदार उनके साथ पहुँचाने के लिए गया।

खड़ग॰: (नाहरसिंह की तरफ देखकर) हाँ तो करनसिंह का लड़का जीता है? उसे तुम दिखा सकते हो? [ ७० ]

नाहर॰: जी हाँ, उसके जीते रहने का एक सबूत तो मेरे पास इसी समय मौजूद है।

खड़ग॰: वह क्या?

नाहरसिंह ने एक पत्र कमर से निकाल कर खड़गसिंह के हाथ में दिया और पढ़ने के लिए कहा। यह वही चिट्ठी थी जो नदी में तैरते हुए रामदास को गिरफ्तार करने बाद उसकी कमर से नाहरसिंह ने पाई थी। इसे पढ़ते ही गुस्से से खडगसिंह की आंखें लाल हो गयीं।

खड़ग॰: बेशक, यह कागज राजा के हाथ का लिखा हुआ है, फिर उसकी मोहर भी मौजूद है, इससे बढ़कर और किसी सबूत की हमें जरूरत नहीं, अब सूरजसिंह का पता न भी लगे तो कोई हर्ज नहीं। (अनिरुद्धसिंह के हाथ में चीठी देकर) लो पढ़ो और बाकी सभी को भी पढ़ने को दो।

एकाएकी वह चीठी सभों के हाथ में गई और सभी ने पढ़ कर इस बात पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की कि बीरसिंह निर्दोष निकला।

अनिरुद्ध: (खड़गसिंह से) अब आपको मालूम हो गया कि हम लोगों की जो दरखास्त नेपाल गई थी वह व्यर्थ न थी।

खड़ग॰: बेशक, (नाहरसिंह की तरफ देख कर) हाँ, आपने कहा था कि बीरसिंह का असल हाल आप लोग नहीं जानते। वह कौन-सा हाल है, क्या आप कह सकते हैं?

नाहर॰: हाँ मैं कह सकता हूं यदि आप लोग दिल लगा कर सुनें।

खड़ग॰: जरूर सुनेंगे।

नाहरसिंह ने करनसिंह और करनसिंह राठू का हाल और अपने बचने का सबब जो बीरसिंह से कहा था, इस जगह खड़गसिंह और सब सर्दारों के सामने कह सुनाया और इसके बाद बीरसिंह को कैद से छुड़ाने का हाल और अपनी बहिन सुन्दरी का भी वह पूरा हाल कहा जो तारा ने बाबाजी से बयान किया था। सुन्दरी का हाल बहुत-कुछ नाहरसिंह को पहिले से ही मालूम था, बाकी हाल जो तारा ने बीरसिंह से कहा था वह बीरसिंह ने अपने बड़े भाई नाहरसिंह को सुनाया था। बीरसिंह यह नहीं जानता था कि उसकी स्त्री तारा ने जिस अहिल्या का हाल उससे कहा था वह उसकी बहिन सुन्दरी ही थी। जब बीरसिंह और नाहरसिंह में मुलाकात हुई और अपनी बहिन सुन्दरी का नाम नाहरसिंह [ ७१ ]से सुना तब मालूम हुआ कि अहिल्या या सुन्दरी ही वह बहिन है।

नाहरसिंह की जुबानी करनसिंह का किस्सा सुनकर सभी का जी बेचैन हो गया, आँखों में आँसू भर कर सभों ने लम्बी सांसें लीं और बेईमान करनसिंह राठू को गालियाँ देने लगे। थोड़ी देर तक सभों के चेहरे पर उदासी छाई रही मगर फिर क्रोध ने सभों का चेहरा लाल कर दिया और सभों ने दांत पीस कर कहा कि हम लोग ऐसे नालायक राजा की ताबेदारी नहीं कर सकते, हम लोग अपने हाथों से राजा को सजा देंगे और असली राजा करनसिंह के लड़के विजयसिंह (नाहरसिंह) को यहाँ की गद्दी पर बैठावेंगे, हम लोग चन्दा करके रुपये बटोरेंगे और फौज तैयार करके विजयसिंह और बीरसिंह को सर्दार बनावेंगे इत्यादि-इत्यादि।

जोश में आकर बहुत-सी बातें सरदारों ने कहीं और इसी समय खड़गसिंह में भी, अपनी फौज के सहित, जो नेपाल से साथ लाए थे, बीरसिंह और नाहरसिंह की मदद करना कबूल किया।

नाहर॰: मेरी बहिन सुन्दरी का हाल थोड़ा-सा और बाकी है जिसे आप चाहें तो सुन सकते हैं, यह हाल मुझे इनकी (अपने बगल में बैठे हुए साथी की तरफ इशारा करके) जुबानी मालूम हुआ है।

सरदार: हाँ हाँ, जरूर सुनेंगे, ये कौन हैं?

नाहर॰: यह अपना हाल खुद आप लोगों से बयान करेंगे।

खड़ग॰: मगर इनको चाहिए कि अपने चेहरे से नकाब हटा दें।

नाहरसिंह के ये साथी महाशय जो उनके बगल में बैठे हुए थे वे ही बाबू साहब थे जो गोद में एक लड़के को लेकर सुन्दरी से मिलने के लिए किले के अन्दर तहखाने में गए थे। इन्हें पाठक अभी भूले न होंगे। खड़गसिंह के कहते ही बाबू साहब ने "कोई हर्ज नहीं" कहकर अपने चेहरे से नकाब हटा दी और बेचारी सुन्दरी का बाकी किस्सा कहने लगे। इन्हें इस शहर में कोई भी पहिचानता नहीं था।

बाबू साहब: सुन्दरी अहिल्या के नाम से बहुत दिनों तक इस नालायक राजा के यहाँ रही। राजा की पाप-भरी आँखों का अन्दाज रानी को मालूम हो गया और उसने चुपके-से सुन्दरी को अपने नैहर भेज कर बाप को कहला भेजा कि उसकी शादी करा दी जाय। सुन्दरी की शादी मेरे साथ की गई और [ ७२ ]वह बहुत दिनों तक मेरे घर में रही, एक लड़की और उसके बाद एक लड़का भी पैदा हुआ। तब तक राजा को सुन्दरी का पता न लगा मगर वह खोज लगाता ही रहा, आखिर मालूम होने पर उसने सुन्दरी को चुरा मँगाया और उसके साथ जिस तरह का बर्ताव किया आप बहादुर विजयसिंह की जुबानी सुन ही चुके हैं। बेचारी लड़की जिस तरह से मारी गई उसे याद करने से कलेजा फटता है। सुन्दरी को राजी करने के लिए राजा ने बहुत-कुछ उद्योग किया मगर उस बेचारी ने अपना धर्म न छोड़ा। आखिर राजा ने उसे गुप्त रीति से किले के अन्दर के एक तहखाने में बन्द किया और उसकी लड़की का खून एक कटोरे में भरकर और मसाले से जमा कर एक चौकी पर उसके सामने रख दिया जिसमें वह दिन-रात उसे देखा करे और कुढ़ा करे। आप लोग खूब समझ सकते हैं कि उस बेचारी की क्या हालत होगी और उस कटोरे-भर खून की तरफ देख-देख कर उसके दिल पर क्या गुजरती होगी, मगर वाह रे सुन्दरी! फिर भी उसने अपना धर्म न छोड़ा!!

बाबू साहब ने इतना ही कहा था कि सभों के मुंह से "वाह रे सुन्दरी, शाबास, शाबास! धर्म पर दृढ़ रहने वाली औरत तेरे ऐसी कोई काहे को होगी!" की आवाज आने लगी। बाबू साहब ने फिर कहना शुरू किया-

बाबू साहब॰: जब सुन्दरी कैदखाने में बेबस की गई तो कई लौंडियाँ उसकी हिफाजत के लिए छोड़ी गयीं। उनमें से एक लौंडी सुन्दरी पर दया करके और अपनी जान पर खेल के वहां से निकल भागी। उसने मेरे पास पहुँच कर सब हाल कहा और अन्त में उसने सुन्दरी का यह संदेसा मुझे दिया कि लड़के को लेकर तुम्हें एक नजर देखने के लिए बुलाया है, जिस तरह बने आकर मिलो! सुन्दरी का हाल सुन मेरा कलेजा फट गया। मैं इस शहर में आया और उससे मिलने का उद्योग करने लगा। इस फेर में बरस-भर से ज्यादा बीत गया, बहुत-सा रुपया खर्च किया और कई आदमियों को अपना पक्षपाती बनाया, आखिर दो ही चार दिन हुए हैं कि किसी तरह छोटे बच्चे को, जो नालायक राजा के हाथ से बच गया और मेरे पास था, लेकर किले के अन्दर तहखाने में गया और उससे मिला, कैदखाने में उसकी जैसी अवस्था मैंने देखी, कह नहीं सकता। इत्तिफाक से उसी दिन नाहरसिंह ने बीरसिंह को कैदखाने से छुड़ाया था और यह हाल मुझे मालूम था बल्कि बीरसिंह के छुड़ाने की खबर कई पहरे [ ७३ ] वालों को भी लग गई थी मगर वे लोग राजा के दुश्मन और बीरसिंह के पक्षपाती हो रहे थे, इसलिए नाहरसिंह के काम में विघ्न न पड़ा।

सुन्दरी जानती थी कि बीरसिंह उसका भाई है मगर राजा के जुल्म ने उसे हर तरह से मजबूर कर रखा था। बीरसिंह के कैद होने का हाल सुन कर सुन्दरी और भी बेचैन हुई मगर जब मैंने उसके छूटने का हाल कहा तो कुछ खुश हुई। मैं तहखाने में सुन्दरी से बातचीत कर ही रहा था कि राजा का मुसाहब बेईमान हरीसिंह वहाँ जा पहुँचा। उस समय सुन्दरी मेरी और अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो गई। आखिर हरीसिंह उसी समय मुझसे लड़ कर मारा गया और मैं उसकी लाश एक कम्बल में बाँध और लड़के को एक लौंडी की गोद में दे और उसे साथ ले तहखाने के बाहर निकला और मैदान में पहुँचा। वहाँ नाहरसिंह के दो आदमियों से मुलाकात हुई। मुझे नाहरसिंह तथा बीरसिंह से मिलने का बहुा शौक था और उन लोगों ने भी मुझे अपने साथ ले चलना मंजूर किया। आखिर हरीसिंह की लाश गाड़ दी गई, लौंडी वापस कर दी गई, और मैं लड़के को लेकर उन दो आदमियों के साथ नाहरसिंह की तरफ रवाना हुआ। उसी समय राजा के कई सवार भी वहाँ आ पहुँचे जो नाहरसिंह की खोज में घोड़ा फेंकते उसी तरफ जा रहे थे। हम लोगों को तो डर हुआ कि अब गिरफ्तार हो जायेंगे, मगर ईश्वर ने बचाया। एक पुल के नीचे छिप कर हम लोग बच गए और नाहरसिंह और बीरसिंह से मिलने की नौबत आई।

खड़ग॰: लड़का अब कहाँ है?

बाबू साहब: (नाहरसिंह की तरफ इशारा कर के) इनके आदमियों के सुपुर्द है।

खड़ग॰: तुम लोगों का हाल बड़ा ही दर्दनाक है, सुनने से कलेजा काँपता है। लेकिन अभी तक यह नहीं मालूम हुआ कि बेचारी तारा कहाँ है और उस पर क्या बीती?

नाहर॰: तारा का हाल मुझे मालूम है मगर मैंने अभी तक बीरसिंह से नहीं कहा।

एक सरदार: तो इस समय भी उसका कहना शायद आप मुनासिब न समझते हों।

नाहर॰: कहने में कोई हर्ज भी नहीं। [ ७४ ]

खड़ग॰: तो कहिये।

नाहर॰: ऊपर के हाल से आपको इतना तो जरूर मालूम हो ही गया होगा कि बेईमान राजा ने तारा के बाप सुजन सिंह को इस बात पर मजबूर किया था कि वह तारा का सिर काट लावे।

खड़ग॰: हाँ, इसलिए कि सुजनसिंह ने दीवानखाने की छत पर से लौंडियों को तो गिरफ्तार किया मगर तारा को छोड़ दिया था।

नाहर॰: ठीक है, राजा यह भी चाहता था कि तारा यदि राजा के साथ रहना स्वीकार करे तो उसकी जान छोड़ दी जाय। इस काम के लिए समझाने-बुझाने पर हरीसिंह मुकरर्र किया गया था, मगर तारा ने कबूल न किया। जिस समय बीरसिंह के बाग में सुजनसिंह अपनी लड़की तारा की छाती पर सवार हो उसे मारा चाहता था, मैं भी वहाँ मौजूद था, उसी समय एक साधु महाशय भी वहाँ आ पहँचे और उन्होंने मेरी मदद से तारा को छुड़ाया। इस समय तारा उन्हीं के यहाँ है।

खड़ग॰: आपने एक साधु फकीर की हिफाजत में तारा को क्यों छोड़ दिया? उस साधु का क्या भरोसा?

नाहर॰: उस साधु का मुझे बहुत भरोसा है। वे बड़े ही महात्मा हैं। यह तो मैं नहीं जानता कि वे कहाँ के रहने वाले हैं, मगर वे किसी से बहुत मिलते-जुलते नहीं, निराले जंगल में रहा करते हैं, मुझ पर बड़ा ही प्रेम रखते हैं, मैंने सब हाल उनसे कह दिया है और अक्सर उन्हीं की राय से सब काम किया करता हूँ, उनके खाने-पीने का इन्तजाम भी मैं ही करता हूँ।

खड़ग॰: क्या मैं उनसे मुलाकात कर सकता हूँ?

नाहर॰: इस बात को तो शायद वह नामंजूर करें। (आसमान की तरफ देख कर) अब तो सवेरा हुआ ही चाहता है, मेरा शहर में रहना मुनासिब नहीं।

खड़गसिंह: अगर आप मेरे यहाँ रहें तो कोई हर्ज भी नहीं है।

नाहर॰: ठीक है, मगर ऐसा करने से कुछ विशेष लाभ भी नहीं है, बीरसिंह को मैं आपके सुपुर्द करता हूँ और बाबू साहब को अपने साथ लेकर जाता हूँ फिर जब और जहाँ कहिये हाजिर होऊँ?

खड़ग॰: खैर, ऐसा ही सही मगर एक बात और सुन लो।

नाहर॰: वह क्या? [ ७५ ]खड़ग॰: उस समय जब मैं बीरसिंह को छुड़ाने के लिए राजा के पास गया था तो समयानुसार मुनासिब समझ कर उसी के मतलब की बातें की थीं। मैं कह आया था कि कल एक आम दरबार करूँगा और तुम्हारे दुश्मनों तथा बीरसिंह को फाँसी का हुक्म दूँगा, उसी दरबार में महाराज नेपाल की तरफ से तुमको "अधिराज" की पदवी भी दी जायगी। यह बात मैंने कई मतलबों से कही थी। इस बारे में तुम्हारी क्या राय है?

नाहर॰: बात तो बहुत अच्छी है। इस दरबार में बड़ा मजा रहेगा, कई तरह के गुल खिलेंगे मगर साथ ही इसके फसाद भी खूब मचेगा, ताज्जुब नहीं कि राजा बिगड़ जाय और लड़ाई हो पड़े, इससे मेरी राय है कि कल का दिन आप टाल दें और लड़ाई का पूरा बन्दोबस्त कर लें, इस बीच मैं भी अपने को हर तरह से दुरुस्त कर लूँगा।

खड़ग॰: (और सरदारों की तरफ देख कर) आप लोगों की क्या राय है?

सरदार: नाहरसिंह का कहना बहुत ठीक है, हम लोगों को लड़ाई के लिये तैयार हो कर ही दरबार में जाना चाहिए। हम लोग भी अपने सिपाहियों की दुरुस्ती करना चाहते हैं, कल का दिन टल जाय तभी अच्छा है।

खड़ग॰: खैर, ऐसा ही सही।

गुप्तरीति से राय के तौर पर दो-चार बातें और करने के बाद दरबार बर्खास्त किया गया। बाबू साहब को साथ लेकर नाहरसिंह चला गया। सरदार लोग भी अपने-अपने घर की तरफ रवाने हुए, खड़गसिंह अपने डेरे पर आये और बीरसिंह को होश में पाया, उनसे सब हाल कहा-सुना और उनका इलाज कराने लगे।