कटोरा भर खून/८

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कटोरा भर खून  (1984) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ ३८ ]

 

घटाटोप अंधेरी छाई हुई है, रात आधी से ज्यादा जा चुकी है, बादल गरज रहा है, बिजली चमक रही है, मूसलाधार पानी बरस रहा है, सड़क पर बित्ता-बित्ता-भर पानी चढ़ गया है, राह में कोई मुसाफिर चलता हुआ नहीं दिखाई देता। ऐसे समय में एक आदमी अपनी गोद में तीन वर्ष का लड़का लिए और उसे कपड़े से छिपाए, छाती से लगाए, मोमजामे के छाते से आड़ किये किले की तरफ लपका चला जा रहा है । जब कहीं रास्ते में आड़ की जगह मिल जाती है अपने को उसके [ ३९ ]
नीचे ले जाकर सुस्ता लेता है और तब न बन्द होने वाली बदली की तरफ कोई ध्यान न देकर पुन: चल पड़ता है ।

यह आदमी जब किले के मैदान में पहुँचा तो बाएँ तरफ मुड़ा जिधर एक ऊँचा शिवालय था । यह बेखौफ उस शिवालय में घुस गया और कुछ देर सभामण्डप में सुस्ताने का इरादा किया मगर उसी समय वह लड़का रोने और चिल्लाने लगा जिसकी आवाज सुनकर वहाँ का पुजारी उठा और बाहर निकल कर उस आदमी के सामने खड़ा होकर बोला, "कौन है, बाबू साहब ?"

बाबू साहब : हाँ ।

पुजारी : बहुत अच्छा किया जो आप आ गए । चाहे यह समय कैसा ही टेढ़ा क्यों न हो मगर आपके लिए बहुत अच्छा मौका है ।

बाबू साहब : (लड़के को चुप कराके) केवल इस लड़के की तकलीफ का ख्याल है ।

पुजारी : कोई हर्ज नहीं, अब आप ठिकाने पहुँच गए । आइये हमारे साथ चलिये ।

उस शिवालय की दीवार किले की दीवार से मिली हुई थी और यह किला भी नाम ही को किला था, असल में तो इसे एक भारी इमारत कहना चाहिये, मगर दीवारें इसकी बहुत मजबूत और चौड़ी थीं । इसमें छोटे-छोटे कई तहखाने ने थे । यहाँ का राजा करनसिंह राठू बड़ा ही सूम और जालिम आदमी था, खजाना जमा करने और इमारत बनाने का इसे हद से ज्यादा शौक था । खर्च के डर से वह थोड़ी ही फौज से अपना काम चलाता और महाराज नेपाल के भरोसे किसी को कुछ नहीं समझता था, हाँ, नाहरसिंह ने इसे तंग कर रक्खा था जिसके सबब से इसके खजाने में बहुत-कुछ कमी हो जाया करती थी ।

वह पुजारी पानी बरसते ही में कम्बल ओढ़ कर बाबू साहब को साथ लिए किले के पिछवाड़े वाले चोरदर्वाजे पर पहुँचा और दो-तीन दफे कुंडी खटखटाई । एक आदमी ने भीतर से किवाड़ खोल दिया और ये दोनों अन्दर घुसे । भीतर से दर्वाजा खोलने वाला एक बुड्ढा चौकीदार था जिसने इन दोनों को भीतर लेकर फिर दर्वाजा बन्द कर दिया । पुजारी ने बाबू साहब से कहा, "अब आप आगे जाइये और जल्द लौट कर आइये, मैं जाता हूँ ।"

बाबू साहब ने छाता उसी जगह रख दिया क्योंकि उसकी अब यहाँ कुछ [ ४० ] जरूरत न थी और लड़के को छाती से लगाये बाईं तरफ के एक दालान में पहुँचे जहाँ से होते हुए एक सहन में जाकर पास की बारहदरी में होकर छत पर चढ़ गए। ऊपर इन्हें दो लौंडियाँ मिलीं जो शायद पहिले ही से इनकी राह देख रही थीं। दोनों लौंडियों ने इन्हें अपने साथ लिया और दूसरी सीढ़ी की राह से एक कोठरी में उतर गईं जहाँ एक ने बाबू साहब से कहा, "अब बिना रामदीन खवास की मदद के हम लोग तहखाने में नहीं जा सकते। आज उसको राजी करने के लिए बड़ी कोशिश करनी पड़ी। वह बेचारा नेक और रहमदिल है इसलिए काबू में आ गया, अगर कोई दूसरा होता तो हमारा काम कभी न चलता। अच्छा, अब आप यहीं ठहरिये मैं जाकर उसे बुला लाती हूँ।" इतना कह वह लौंडी वहाँ से चली गई और थोड़ी ही देर में उस बुड्ढे खवास को साथ लेकर लौट आई।

इस बुड्ढे खवास की उम्र सत्तर वर्ष से कम न होगी। हाथ में पीतल की एक जालदार लालटैन लिए वहाँ आया और बाबू साहब के सामने खड़ा होकर बोला, "देखिए बाबू साहब, मैं तो आपके हुक्म की तामील करता ही हूँ मगर अब मेरी इज्जत आपके हाथ में है। मुझे मातबर समझ कर इस चोर दर्वाजे की ताली सुपुर्द की गई है। एक हिसाब से आज मैं मालिक की नमकहरामी करता हूँ कि इस राह से आपको जाने देता हूँ। मगर नहीं, सुन्दरी दया के योग्य है, उसकी अवस्था पर ध्यान देने से मुझे रुलाई आती है, और इस बच्चे की हालत सोच कर कलेजा फटा जाता है जो आपकी गोद में है। बेशक, मैं एक अन्यायी राजा का अन्न खा रहा हूँ। लाचार हूँ, गरीबी जान मारती है, नहीं तो आज ही नौकरी छोड़ने के लिए तैयार हूँ।"

बाबू साहब: रामदीन, बेशक तुम बड़े ही नेक और रहमदिल आदमी हो। ईश्वर तुम्हें इस नेकी का बदला देवे। अभी तुम नौकरी मत छोड़ो, नहीं तो हम लोगों का काम मिट्टी हो जाएगा। वह दिन बहुत करीब है कि इस राज्य का सच्चा राजा गद्दी पर बैठे और रिआया को जुल्म के पंजे से छुड़ावे।

रामदीन: ईश्वर करे ऐसा ही हो। अच्छा आप जरा-सा और ठहरें और इसी जगह बेखौफ बैठे रहें, मैं घण्टे-भर में लौट कर आऊँगा तब ताला खोल कर तहखाने में जाने के लिए कहूँगा क्योंकि महाराज अभी तहखाने में गये हुए हैं, वे निकल कर जालें तब मैं निश्चिन्त होऊँ। इस तहखाने में जाने के लिए तीन दर्वाजे हैं जिनमें एक तो सदर दर्वाजा है, यद्यपि अब वह ईंटों से चुन दिया गया है [ ४१ ]
मगर फिर भी वहां हमेशा पहरा पड़ा करता है, दूसरे दरवाजे की ताली महाराज के पास रहती है, और एक तीसरी छोटी-सी खिड़की है जिसकी ताली मेरे पास रहती है, और इसी राह से लौंडियों को आने-जाने देना मेरा काम है।

बाबू साहब : हाँ, यह हाल मैं जानता हूँ मगर यह तो कहो तुम तो जाकर घण्टे-भर बाद लौटोगे, तब तक यहाँ आकर मुझे कोई देख न लेगा ?

रामदीन : जी नहीं, आप बेखौफ रहें, अब यहां आने वाला कोई नहीं है बल्कि इस बच्चे के रोने से भी किसी तरह का हर्ज नहीं है क्योंकि किले का यह हिस्सा बिल्कुल ही सन्नाटा रहता है ।

इतना कह रामदीन वहाँ से चला गया और घण्टे-भर तक बाबू साहब को उन दोनों लौंडियों से बातचीत करने का मौका मिला । यों तो घण्टे-भर तक कई तरह की बातचीत होती रही मगर उनमें से थोड़ी बातें ऐसी थीं जो हमारे किस्से से सम्बन्ध रखती हैं इसलिए उन्हें यहाँ पर लिख देना मुनासिब मालूम होता है ।

बाबू साहब : क्या महाराज कल भी आये थे ?

एक लौंडी : जी हाँ, मगर वह किसी तरह नहीं मानती, अगर पाँच-सात दिन यही हालत रही तो जान जाने में कोई शक नहीं । ऊपर से बीरसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनकर वह और भी बदहवास हो रही है ।

बाबू साहब : मगर बीरसिंह तो कैदखाने से भाग गए ।

एक लौंडी : कब ?

बाबू साहब : अभी घण्टा-भर भी नहीं हुआ ।

एक लौंडी : आपको कैसे मालूम हुआ ?

बाबू साहब : इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं !

एक लौंडी : तब तो आप एक अच्छी खुशखबरी लेकर आये हैं। आपसे कभी बीरसिंह से मुलाकात हुई है कि नहीं ?

बाबू साहब : हाँ मुलाकात तो कई मर्तबे हुई है मगर बीरसिंह मुझे पहचानते नहीं । मैं बहुत चाहता हूँ कि उनसे दोस्ती पैदा करूँ मगर कोई सबब ऐसा नहीं मिलता जिससे वह मेरे साथ मुहम्बत करें, हाँ मुझे उम्मीद है कि तारा की बदौलत बेशक उनसे मुहब्बत हो जाएगी ।

एक लौंडी : कल पंचायत होने वाली थी, सो क्या हुआ ?

बाबू साहब : हाँ, कल पंचायत हुई थी जिसमें यहाँ के बड़े-बड़े पन्द्रह जमींदार [ ४२ ]
शरीक थे । सभी को निश्चय हो गया कि असल में यह गद्दी बीरसिंह की है । बीरसिंह यदि लड़ने के लिए मुस्तैद हों तो वे लोग उनकी मदद करने को तैयार हैं ।

एक लौंडी : आपने भी कोई बन्दोबस्त किया है या नहीं ?

बाबू साहब : हाँ, मैं भी इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूँ । मगर लो देखो, रामदीन आ पहुँचा ।

रामदीन ने पहुँच कर खबर दी कि महाराज चले गए अब आप जायें । रामदीन ने उस कोठरी में एक छोटी-सी खिड़की खोली जिसकी ताली उसकी कमर में थी और तीनों को उसके भीतर करके ताला बन्द कर दिया और आप बाहर बैठा रहा । बाबू साहब ने दोनों लौंडियों के साथ खिड़की के अन्दर जाकर देखा कि हाथ में चिराग लिए एक लौंडी इनके आने की राह देख रही है । यहाँ से नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं । लौंडियों के साथ बाबू साहब नीचे उतर गए और एक कोठरी में पहुँचे जिसमें से होकर थोड़ी दूर तक एक सुरंग में जाने के बाद एक गोल गुमटी में पहुँचे । वहाँ से भी और नीचे उतरने के लिए सीढियाँ बनी हुई थीं । बाबू साहब फिर से नीचे उतरे, यहाँ की जमीन सर्द और कुछ तर थी । पुनः एक कोठरी में पहुँच कर लौंडी ने दर्वाजा खोला और बाबू साहब को साथ लिए एक बारहदरी में पहुँची । इस बारहदरी में एक दीवारगीर और एक हाँडी के अतिरिक्त एक मोमी शमादान भी जल रहा था । जमीन पर फर्श बिछा हुआ था, बीच में एक मसहरी पर बारीक चादर ओढ़े एक औरत सोई हुई थी, पायताने की तरफ दो लौंडियाँ पंखा झल रही थीं, पलंग के सामने एक पीतल की चौकी पर चाँदी की तीन सुराही, एक गिलास और एक कटोरा रक्खा हुआ था । उसके बगल में चाँदी की एक दूसरी चौकी थी जिस पर खून से भरा हुआ चाँदी का एक छोटा-सा कटोरा, एक नश्तर और दो सलाइयाँ पड़ी हुई थीं । वह औरत जो मसहरी पर लेटी हुई थी, बहुत ही कमजोर और दुबली मालूम होती थी । उसके बदन में सिवाय हड्डी के माँँस या लहू का नाम ही नाम था मगर चेहरा उसका अभी तक इस बात की गवाही देता था कि किसी वक्त में यह निहायत खूबसूरत रही होगी । गोद में लड़का लिए हुए बाबू साहब उसके पास जा खड़े हुए और डबडबाई हुई आँखों से उसकी सूरत देखने लगे । उस औरत ने बाबू साहब की ओर देखा ही था कि उसकी आँखों से आँसू की बूंदें गिरने लगीं । हाथ बढ़ाकर उठाने का इशारा किया मगर बाबू साहब ने तुरन्त उसके पास जा और [ ४३ ]
बैठ कर कहा, "नहीं नहीं, उठने की कोई जरूरत नहीं, तुम आप कमजोर हो । हाय ! दुष्ट के अन्याय का कुछ ठिकाना है !! लो यह तुम्हारा बच्चा तुम्हारे सामने है, इसे देखो और प्यार करो ! घबड़ाओ मत, दो-ही-चार दिन में यहाँ की काया पलट हुआ चाहती है !!"

बाबू साहब ने उस लड़के को पलंग पर बैठा दिया । उस औरत ने बड़ी मुहब्बत से उस लड़के का मुँह चूमा । ताज्जुब की बात थी कि वह लड़का जरा भी न तो रोया और न हिचका बल्कि उस औरत के गले से लिपट गया जिसे देख बाबू साहब, लौंडियाँ और उस औरत का भी कलेजा फटने लगा और उन लोगों ने बड़ी मुश्किल से अपने को सँभाला । उस औरत ने बाबू साहब की तरफ देखकर कहा, "प्यारे, क्या मैं अपनी जिंदगी का कुछ भी भरोसा कर सकती हूँ ? क्या मैं तुम्हारे घर में बसने का खयाल ला सकती हूं ? क्या मैं उम्मीद कर सकती हूँ कि दस आदमी के बीच में इस लड़के को लेकर खिलाऊंगी ? हाय ! एक बीरसिंह की उम्मीद थी सो दुष्ट राजा उसे भी फांसी दिया चाहता है !"

बाबू साहब : प्यारी, तुम चिंता न करो । मैं सच कहता हूँ कि सवेरा होते- होते इस दुष्ट राजा की तमाम खुशी खाक में मिल जायगी और वह अपने को मौत के पंजे में फँसा हुआ पावेगा । क्या उस आदमी का कोई कुछ बिगाड़ सकता है जिसका तरफदार नाहरसिंह डाकू हो ? देखो अभी दो घण्टे हुए हैं कि वह कैदखाने से बीरसिंह को छुड़ाकर ले गया ।

औरत : (चौंककर) नाहरसिंह डाकू बीरसिंह को छुड़ाकर ले गया ! मगर वह तो बड़ा भारी बदमाश और डाकू है ! बीरसिंह के साथ नेकी क्यों करने लगा ? कहीं कुछ दुःख न दे !!

बाबू साहब : तुम्हें ऐसा न सोचना चाहिये । शहर-भर में जिससे पूछोगी कोई भी न कहेगा कि नाहरसिंह ने सिवाय राजा के किसी दूसरे को कभी कोई दुःख दिया, हाँ, वह राजा को बेशक दुःख देता है और उसकी दौलत लूटता है । मगर इसका कोई खास सबब जरूर होगा । मैंने कई दफे सुना है कि नाहरसिंह छिपकर इस शहर में आया, कई दुखियों और कंगालों को रुपये की मदद की और कई ब्राह्मणों के घर में, जो कन्यादान के लिए दुःखी हो रहे थे, रुपये की थैली फेंक गया । मुख्तसर यह है कि यहाँ की कुल रिआया नाहरसिंह के नाम से मुहब्बत [ ४४ ]
करती है और जानती है कि वह सिवाय राजा के और किसी को दुःख देने वाला नहीं ।

औरत : सुना तो मैंने भी ऐसा ही है । अब देखें वह बीरसिंह के साथ क्या नेकी करता है और राजा का भण्डा किस तरह फूटता है । मुझे वर्ष-भर इस तहत खाने में पड़े हो गये मगर मैंने बीरसिंह और तारा का मुँह नहीं देखा, यों तो राजा के डर से लड़कपन ही से आज तक मैं अपने को छिपाती चली आई और बीरसिंह के सामने क्या किसी और के सामने भी न कहा कि मैं फलानी हूँ या मेरा नाम सुंदरी है, मगर साल-भर की तकलीफ ने ...(रो कर) हाय ! न-मालूम मेरी मौत कहाँ छिपी हुई हैं !!

बाबू साहब : (उस खून से भरे हुए कटोरे की तरफ देखकर) हाँ, यह खून-भरा कटोरा कहता है कि मैं किसी के खून से भरा हुआ कटोरा पीऊँगा !

सुन्दरी : (लड़के को गले लगाकर) हाय, हम लोगों की खराबी के साथ इस बच्चे की भी खराबी हो रही है !!

बाबू साहब : ईश्वर चाहता है तो इसी सप्ताह में लोगों को मालूम हो जावेगा कि तुम कुंआरी नहीं हो और यह बच्चा भी तुम्हारा ही है ।

सुन्दरी : परमेश्वर करे, ऐसा ही हो ! हाँ उन पंचों का क्या हाल है ?

बाबू साहब : पंचों में जोश बढ़ता ही जाता है, अब वे लोग बीरसिंह की तरफदारी पर पूरी मुस्तैदी दिखा रहे हैं ।

सुन्दरी : नाहरसिंह का कुछ और भी हाल मालूम हुआ है ?

बाबू साहब : और तो कुछ मालूम नहीं हुआ मगर एक बात नई जरूर सुनने में आई है ।

सुन्दरी : वह क्या ?

बाबू साहब : तारा के मारने के लिए उसका बाप सुजनसिंह मजबूर किया गया था ।

सुन्दरी : (लम्बी साँस लेकर) हाय, इसी कम्बख्त ने तो मेरे बड़े भाई बिजयसिंह को मारा है !

बाबू साहब : मैं एक बात तुम्हारे कान में कहा चाहता हूँ ।

सुन्दरी : कहो ।

बाबू साहब ने झुककर उसके कान में कोई बात कही जिसके सुनते ही [ ४५ ] सुन्दरी का चेहरा बदल गया और खुशी की निशानी उसके गालों पर दौड़ आई। उसने चौंककर पूछा, "क्या तुम सच कह रहे हो?"

बाबू साहब: (सुन्दरी के सिर पर हाथ रख के) तुम्हारी कसम सच कहता हूँ।

एक लौंडी: मालूम होता है कि कोई आ रहा है।

सुन्दरी: (लड़के को लौंड़ी के हवाले करके) हाय, यह क्या गजब हुआ! क्या किस्मत अब भी आराम न लेने देगी?

इतने ही में सामने का दर्वाजा खुला और हाथ में नंगी तलवार लिये हरीसिंह आता हुआ दिखाई दिया, जिसे देखते ही बेचारी सुन्दरी और कुल लौडियाँ काँपने लगीं। बाबू साहब के चेहरे पर भी एक दफे तो उदासी आई मगर साथ ही वह निशानी पलट गई और होठों पर मुसकुराहट मालूम होने लगी। हरीसिंह मसहरी के पास आया और बाबू साहब को देखकर ताज्जुब से बोला, तू कौन है?

बाबू साहब: तें मेरा नाम पूछ कर क्या करेगा?

हरीसिंह: तू यहाँ क्यों आया है? (लौंडियों की तरफ देख कर) आज तुम सभों की मक्कारी खुल गई!!

बाबू साहब: अबे तू मेरे सामने हो और मुझसे बोल! औरतों को क्या धमकाता है?

हरीसिंह: तुझसे मैं बातें नहीं किया चाहता, तुझे तो गिरफ्तार कर के सीधे महाराज के पास ले जाऊँगा, वहीं जो कुछ होगा देखा जाएगा।

बाबू साहब: मैं तुझे और तेरे महाराज को तिनके के बराबर भी नही समझता, तेरी क्या मजाल कि मुझे गिरफ्तार करे!!

इतना सुनना था कि हरीसिंह गुस्से से काँप उठा। बाबू साहब के पास आकर उसने तलवार का एक वार किया। बाबू साहब ने फुर्ती से उठकर उसका हाथ खाली दिया और घूम कर उसकी कलाई पकड़ ली तथा इस जोर से झटका दिया कि तलवार उसके हाथ से दूर जा गिरी। अब दोनों में कुश्ती होने लगी। थोड़ी ही देर में बाबू साहब ने उसे उठा कर दे मारा। इत्तिफाक से हरीसिंह का सिर पत्थर की चौखट पर इस जोर से जाकर लगा कि फट कर खून का तरारा बहने लगा। साथ ही इसके एक लौंडी ने लपक कर हरीसिंह के हाथ की गिरी हुई [ ४६ ] तलवार उठा ली और एक ही बार में हरीसिंह का सिर काट कलेजा ठंढा किया।

बाबू साहब: हाय, तुमने यह क्या किया?

लौंडी: इस हरामजादे का मारा ही जाना बेहतर था, नहीं तो यह बड़ा फसाद मचाता!!

बाबू साहब: खैर, जो हुआ, अब मुनासिब है कि हम इसे उठा कर बाहर ले जावें और किसी जगह गाड़ दें कि किसी को पता न लगे।

बाबू साहब पलट कर सुन्दरी के पास आए और उसे समझा-बुझा कर बाहर जाने की इजाजत ली। एक लौंडी ने लड़के को गोद में लिया, बाबू साहब ने उसी जगह से एक कम्बल लेकर हरीसिंह की लाश बाँध पीठ पर लादी और जिस तरह से इस तहखाने में आये थे उसी तरह बाहर की तरफ रवाना हुए। जब उस खिड़की तक पहुंचे जिसे रामदीन ने खोला था, तो भीतर से कुंडा खटखटाया। रामदीन बाहर मौजूद था, उसने झट दर्वाजा खोल दिया और ये दोनों बाहर निकल गये।

रामदीन बाबू साहब की पीठ पर गट्ठर देख चौंका और बोला, "आप यह क्या गजब करते हैं! मालूम होता है, आप सुन्दरी को लिये जाते हैं! नहीं, ऐसा न होगा, हम लोग मुफ्त में फाँसी पावेंगे! इतना ही बहुत है कि मैं आपको सुन्दरी के पास जाने देता हूँ!!"

बाबू साहब ने गठरी खोलकर हरीसिंह की लाश दिखा दी और कहा: रामदीन, तुम ऐसा न समझो कि हम तुम्हारे ऊपर किसी तरह की आफत लावेंगे। यह कोई दूसरा ही आदमी है जो उस समय सुन्दरी के पास आ पहुँचा जिस समय मैं वहाँ पर मौजूद था, लाचार यह समझ कर इसे मारना ही पड़ा कि मेरा आना-जाना किसी को मालूम न हो और तुम लोगों पर आफत न आवे।

लौंडी: अजी यह वही हरामजादा हरीसिंह है जिसने मुद्दत से हम लोगों को तंग कर रक्खा था!

रामदीन: हाँ, अगर यह ऐसे समय में सुन्दरी के पास पहुंच गया तो इसका मारा जाना ही बेहतर था मगर इसे किसी ऐसी जगह गाड़ना चाहिये कि पता न लगे। [ ४७ ]

बाबू साहब: इससे तुम बेफिक्र रहो, मैं सब बन्दोबस्त कर लूँगा।

बाबू साहब जिस तरह इस किले के अन्दर आए थे वह हम ऊपर लिख आये हैं, उसे दोहराने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ इतना लिख देना बहुत है कि पीठ पर गट्ठर लादे वे उसी तरह किले के बाहर हो गये और मैदान में जाते हुए दिखाई देने लगे। सिर्फ अब की दफे इनके साथ गोद में लड़के को उठाए एक लौंडी मौजूद थी। पानी का बरसना बिल्कुल बन्द था और आसमान पर तारे छिटके हुए दिखाई देने लगे थे।

बाबू साहब ने शिवालय की तरफ न जाकर दूसरी ही तरफ का रास्ता लिया। मगर जब वह सन्नाटे खेत में निकल गये तो हाथ में गंडासा लिए दो आदमियों ने इन्हें घेर लिया और डपट कर कहा, "खबरदार, आगे कदम न बढ़ाइयो! गट्ठर मेरे सामने रख और बता तू कौन है! बेशक किसी की लाश लिए जाता है।"

बाबू साहब: हाँ हाँ, बेशक, इस गट्ठर में लाश है और उस आदमी की लाश है जिसने यहाँ की कुल रिआया को तंग कर रक्खा था! जहाँ तक मैं ख्याल करता हूँ, इस राज्य में कोई आदमी ऐसा न होगा जो इस कम्बख्त का मरना सुन खुश न होगा।

प॰ आ॰: मगर तुम कैसे समझते हो कि हम भी खुश होंगे?

बाबू साहब: इसलिए कि तुम राजा के तरफदार नहीं मालूम पड़ते!

दू॰ आ॰: खैर जो हो, हम यह जानना चाहते हैं कि यह लाश किसकी है और तुम्हारा क्या नाम है?

बाबू सा॰: (गट्ठर जमीन पर रख कर) यह लाश हरीसिंह की है मगर मैं अपना नाम तब तक नहीं बताने का, जब तक तुम्हारा नाम न सुन लूँ।

प॰ आ॰: बेशक, यह सुन कर कि यह लाश हरीसिंह की है मुझे भी खुशी हुई और मैं अब यह कह देना उचित समझता हूँ कि मेरा नाम नाहरसिंह है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम हमारे पक्षपाती हो लेकिन अगर न भी हो तो मैं किसी तरह तुमसे डर नहीं सकता!

बाबू सा॰: मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई कि आप नाहरसिंह हैं। बहुत दिनों से मैं आपसे मिला चाहता था मगर पता न जानने से लाचार था। अहा, क्या ही अच्छा होता अगर इस समय वीरसिंह से भी मुलाकात हो जाती! [ ४८ ]

दू॰ आ॰: बीरसिंह से मिलकर तुम क्या करते?

बाबू सा॰: उसे होशियार कर देता कि राजा तुम्हारा दुश्मन है और कुछ हाल उसकी बहिन सुन्दरी का भी बताता जिसका उसे ख्याल भी नहीं है और यह भी कह देता कि तुम्हारी स्त्री तारा बच गई मगर अभी तक मौत उसके सामने नाच रही है। (नाहरसिंह की तरफ देख कर) आपकी कृपा होगी तो मैं बीरसिंह से मिल सकूँगा क्योंकि आज ही आपने उन्हें कैद से छुड़ाया है।

नाहर॰: अहा, अब मैं समझ गया कि आपका नाम बाबू साहब है, नाम तो कुछ दूसरा ही है मगर दो-चार आदमी आपको बाबू साहब के नाम से ही पुकारते हैं, क्यों है न ठीक?

बाबू साहब: हाँ है तो ऐसा ही!

नाहर॰: मैं आपका पूरा पूरा हाल नहीं जानता, हाँ जानने का उद्योग कर रहा हूँ, अच्छा अब हमको भी साफ-साफ कह देना मुनासिब है कि मेरा नाम नाहरसिंह नहीं है, हम दोनों उनके नौकर हैं, हाँ यह सही है कि वे आज बीरसिंह को छुड़ा के अपने घर ले गए हैं जहाँ आप चाहें तो नाहरसिंह और बीरसिंह से मिल सकते हैं।

बाबू साहब: मैं जरूर उनसे मिलूंगा।

प॰ आ॰: और यह आपके साथ लड़का लिए कौन है?

बाबू साहब: इसका हाल तुम्हें नाहरसिंह के सामने ही मालूम हो जायेगा।

प॰ आ॰: तो क्या आप अभी वहां चलने के लिए तैयार हैं?

बाबू साहब: बेशक!

प॰ आ॰: अच्छा तो आप इस गट्ठर को मेरे हवाले कीजिए, मैं इसे इसी जगह खपा डालता हूँ केवल इसका सिर मालिक के पास ले चलूँगा, इस लड़के को गोद में लीजिए और इस लौंडी को बिदा कीजिए, चलिए सवारी भी तैयार है।

बाबू साहब ने उस लौंडी को बिदा कर दिया। एक आदमी ने उस गट्ठर को पीठ पर लादा, बाबू साहब ने लड़के को गोद में लिया और उन दोनों के पीछे रवाने हुए मगर थोड़ी ही दूर गए थे कि पीछे से तेजी के साथ दौड़ते हुए आने वाले घोड़े के टापों की आवाज इन तीनों के कानों में पड़ी। बाबू साहब ने चौंक कर कहा, "ताज्जुब नहीं कि हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए सवार आते हों!"