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कपालकुण्डला/चौथा खण्ड/९

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ ११८ से – १२० तक

 

:९:

प्रेत भूमिमें

“वपुषा करणोज्झितेन सा निपतन्ती पतिमप्यपातयत्।
ननु तैलनिषेकविन्दुना सह दीप्तार्जिरुपैति मेदिनीम्॥”
—रघुवंश

चन्द्र अस्त हुए। विश्वमंडलपर अन्धकारका पर्दा पड़ गया। कापालिकने जहाँ अपना पूजास्थान बनाया था, वहीं कपालकुडलाको वह ले गया। गङ्गा तट पर वह एक वृहत् बालूकी भूमि है। उसके सामने ही एक ओर बहुत बड़ी रेतीली भूमि है। वही श्मशान है। दोनों रेतीली भूमियोंके बीच जल बढ़नेके समय पानी रहता है। भाटेके समय नहीं रहता—इस समय भी नहीं है। श्मशानभूमिका जो हिस्सा गङ्गातट पर जाता है, वह किनारेपर जाकर बहुत ऊँचा हो गया है, उसके नीचे अगाध जल है। अविरल वायुप्रवाहके कारण किनारा कभी-कभी खिसक कर गङ्गामें गिरा करता है। पूजाके स्थानमें दीपक न था—केवल जलती लकड़ीसे प्रकाश था—ऐसा प्रकाश जो उसकी भयानकताको बढ़ा रहा था। पासमें ही पूजा, होम, बलिका सारा सामान मौजूद था। विशाल नदीका हृदय अन्धकारसे पूर्ण था। चैत्र मासकी वायु गङ्गाको विक्षुब्ध बनाये हुई थी। इस कारण कलकल नाद दिक्मंडलमें व्याप्त हो रहा था। शमशानके शवभक्षक पशु रह-रहकर चिल्ला पड़ते थे।

कापालिकने नवकुमार और कपालकुंडलाको उपयुक्त स्थानपर बैठाया और स्वयं पूजामें लग गया। उससमय उसने नवकुमारको आदेश दिया कि कपालकुंडलाको स्नान करा लावें। नवकुमार कपालकुंडलाको हाथ पकड़े रेत पार कर स्नान कराने चले। उनके पदभारसे हड्डियाँ टूटने लगीं। नवकुमारके पदाघातसे श्मशानका एक कलश भी टूट गया, उसके पास ही एक शव पड़ा हुआ था—हतभागेका किसीने संस्कार तक न किया था। दोनोंके ही पदसे उसका स्पर्श हुआ। कपालकुंडला उसे बचाकर निकल गयी, लेकिन नवकुमार उसे पददलित कर गये। शवभक्षक पशु चारों तरफ घूम रहे थे। दोनों जनको वहाँ उपस्थित देख वे सब चिल्ला उठे। कोई आक्रमण करने आया, तो कोई भाग गया। कपालकुंडलाने देखा कि नवकुमारका हाँथ काँप रहा है। कपालकुंडला स्वयं निर्भय निष्कम्प थी।

कपालकुंडलाने पूछा—“स्वामिन्! क्या डर लगता है?”

नवकुमारका मदिरामोह क्रमशः क्षीण होता जा रहा था। गम्भीर स्वरसे नवकुमारने कहा—“भयसे, मृण्मयी! नहीं!”

कपालकुंडलाने फिर पूछा—“तब काँपते क्यों हो?”

यह प्रश्न कपालकुंडलाने जिस स्वरसे किया, यह केवल रमणी हृदयसे ही सम्भव था। जब रमणी परदुःखकातर होती है, तभी ऐसा स्वर निकलता है। कौन जानता था कि साक्षात् श्मशानमें ऐसी आवाज कपालकुंडलाके मुँह से निकलेगी।

नवकुमारने कहा—“भयसे नहीं। रो नहीं पाता हूँ, क्रोधसे काँपता हूँ।”

कृपालकुंडलाने पूछा—“रोओगे क्यों?”

फिर वही कंठ!

नवकुमार बोले—“क्यों रोऊँगा? तुम क्या समझोगी, मृण्मयी तुम तो कभी सौन्दर्य देखकर उन्मत हुई नहीं।”—कहते-कहते यातनासे नवकुमारका गला भर गया। “तुम तो कभी अपना कलेजा स्वयं काटनेके लिये श्मशान आई नहीं, मृण्मयी!” यह कहते-कहते सहसा नवकुमार पुक्का फाड़कर रोते हुए कपालकुंडलाके चरणों पर गिर पड़े।

“मृण्मयी! कपालकुंडले! मेरी रक्षा करो! मैं तुम्हारे पैरपर रोता हूँ, एक बार कह दो, तुम अविश्वासिनी नहीं हो—एक बार कहो मैं तुम्हें हृदयमें उठाकर घर ले चलू।”

कपालकुंडलाने हाथ पकड़ कर नवकुमारको उठाया और मृदुस्वरसे उसने कहा—“तुमने तो मुझसे पूछा नहीं।”

जब यह बातें हुई, तो दोनों तट पर आ खड़े हुए। कपालकुंडला आगे थी उसके पीछे जल था। जलका उछ्वास शुरू हो गया था, कपालकुंडला एक ढूहे पर खड़ी थी। उसने जवाब दिया—“तुमने तो मुझसे पूछा नहीं।”

नवकुमारने पागलोंकी तरह कहा—“अपना चैतन्य खो चुका हूँ—क्या पूछूँ मृण्मयी! बोलो बोलो; मुझे बचालो, घर चलो।”

कपालकुंडलाने कहा—“जो तुमने पूछा है, तो बताती हूँ। आज जिसे तुमने देखा—वह पद्मावती थी, मैं अविश्वासिनी नहीं हूँ। यह वचनस्वरूप कहती हूँ। लेकिन मैं घर न जाऊँगी। भवानीके चरणोंमें देह विसर्जन करने आई हूँ—निश्चय ही करूँगी। स्वामिन्! तुम घर लौट जाओ। मरूँगी—मेरे लिये रोना नहीं।”

“नहीं—मृण्मयी! नहीं!”—यह कहकर दोनों हाथ पसारकर नवकुमार कपालकुंडलाको हृदयसे लगा लेनेके लिये आगे बढ़े—लेकिन कपालकुंडलाको वह पा न सके। चैत्र-वायुसे एक जल तरङ्ग ने उस ढूहेसे टक्कर ली और वह ढूहा कपालकुंडलाके साथ बड़े ही शब्दसे नदी जलमें जा गिरा।

नवकुमारने भीषण शब्द सुना—कपालकुंडलाको अन्तर्हित होते देखा। तुरंत वे भी एक छलाँगमें जलमें जा रहे। नवकुमार तैरना अच्छा जानते थे। बहुत देर तक तैरते-डुबकी लगाते, कपालकुंडलाको खोजते रहे। उन्होंने कपालकुंडलाको न पाया—स्वयं भी जलसे न निकले।

उस अनन्त गंगाप्रवाहमें वसन्त वायुविक्षुब्ध वीचियोंमें आन्दोलित होते हुए कपालकुंडला और नवकुमार कहाँ गये?

॥ समाप्त ॥