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कपालकुण्डला/द्वितीय खण्ड/२

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ ४५ से – ४९ तक

 

:२:

सरायमें

कैषा योषित प्रकृतिचपला।”
—उद्घवदूत।

यदि रमणी निर्दोष सौन्दर्यविशिष्टा होती, तो कहता, पुरुष पाठक! यह आपकी गृहिणी जैसी सुन्दरी है। और सुन्दरी पाठिका रानी! यह आपकी शीशेमें पड़नेवाली प्रति छाया जैसी है। ऐसा होनेसे रूपवर्णनका शीघ्र ही अन्त हो जाता। दुर्भाग्यवश यह सर्वाङ्ग-सुन्दरी नहीं है, इसलिए निरस्त होना पड़ता है।

यह निर्दोष सुन्दरी नहीं है, यह कहने का प्रथम कारण यह है कि इसका शरीर मध्यम आकृतिकी अपेक्षा कुछ दीर्घ है। दूसरे अधरोष्ठ चिपटे हैं, तीसरे वास्तविक रूपमें यह गोरी भी नहीं है।

शरीर कुछ दीर्घ अवश्य है, लेकिन हाथ, पैर, हृदयादि सर्वाङ्ग सुडौल तथा निठोल हैं। वर्षाकालमें लता जैसे अपने पत्रादिकी बहुलताके कारण भरीपूरी और झलझलाती रहती है, वैसे ही इस कामिनीकी देह-लता भी पूर्णतासे झलझला रही है; अतएव शरीरके ईषद्दीर्घ होनेपर भी वह पूर्णताके कारण शोभाका ही कारण हो गया है, जिन्हें हम वास्तव में गौरांगी कहते हैं, उनमें किसीका रंग पूर्णचन्द्र कौमुदीकी तरह, किसीकी ईषदारक्त ऊषा जैसा होता है। इस रमणीका वर्ण इन दो में कोई भी नहीं, अतः इसे प्रकृत गौरांगी न कहे जानेपर भी इसका वर्ण मनोमुग्धकर अवश्य है। जो हो, यह श्यामवर्णा है। ‘श्यामा’ या ‘श्यामवर्ण कृष्ण’ का जो रंग वर्णित है, यह वह रंग नहीं है। तप्तकाञ्चनविशिष्ट श्यामवर्ण है। यह पूर्णचन्द्रकरलेखा या हेमाम्बुदकिरीटिनी ऊषा यदि गौरांगियोंकी प्रतिमा है, तो वसन्तजनित नवआम्रमञ्जरीकी शोभा इन श्यामांगियोंकी भी है। पाठकों में अनेक गौरांग वर्णकी प्रतिष्ठा करते होंगे, लेकिन यदि कोई श्याम की मायासे मुग्ध है, तो उसे हम वर्णज्ञान शून्य नहीं कह सकते। इस बातसे जिन्हें विरक्ति पैदा होती हो, वह कृपा करके एकबार नवमञ्जरीविहारी भ्रमरश्रेणीकी तरह इस उज्ज्वल श्यामललाट विलम्बीकी याद करें, उस सप्तमी चन्द्राकृति ललाटके नीचेकी वक्र भृकुटिकी याद करें, उन पके हुए आम्रपुष्पके रंगवाले कपोलोंको याद करें, उसके बीच पक्व बिम्बाधर ओष्ठोंकी याद करें, तो इस अपरिचिता रमणीको सुन्दरी-प्रधान समझ और अनुभव कर सकेंगे। दोनों आँखें एकदम बड़ी-बड़ी नहीं हैं, लेकिन बड़ी ही बङ्किम सुरेखावाली हैं और उनमें बड़ी ही चमक है। उसका कटाक्ष स्थिर लेकिन मर्मभेदी है। यदि तुम्हारे ऊपर उसकी दृष्टि पड़े तो यही समझोगे कि वह तुम्हारे हृदय तकका हाल देख रही है। देखते-देखते उस मर्मभेदी दृष्टिसे भावान्तर हो जाता है, आँखें सुकोमल स्नेहमय रससे गली जाती हैं और कभी-कभी उसमें सुखावेशजनित क्लान्ति ही दिखाई देती है। मानो वह नयन नहीं, मन्मथकी स्वप्न-शय्या है। कभी लालसा विस्फारित मदनरससे झलझलाती रहती है और कभी उस लोल कटाक्षमें मानो बिजली कौंधती रहती है। मुखकी कान्तिमें दो अनिर्वचनीय शोभा हैं; पहली सर्वत्रगामिनी बुद्धि का प्रभाव, दूसरी महान् आत्मगरिमा। इस कारण जब वह मराल-जैसी ग्रीवा टेढ़ी कर खड़ी होती है, तो सहज ही जान पड़ता है कि, यह रमणीकुलराज्ञी है।

सुन्दरी की उम्र कोई सत्ताईस वर्ष की होगी, मानों भादों मासकी भरी हुई नदी। भादों मासके नदी-जलकी तरह रूपराशि झलझला रही है—उछली पड़ती है। वर्षाकी अपेक्षा नयनकी सर्वापेक्षा, उस सौन्दर्यकाबहाव मुग्धकर है। पूर्ण यौवन के कारण समूचा शरीर थोड़ा चंचल है, बिना वायुके नवशरत्‌की नदी जैसे मंथर चंचला होती है, ठीक वैसी ही चंचल; वह चंचलता क्षणक्षणपर नये-नये शोभाके विकासके कारण है। नवकुमार निमेषशून्य हो उस नित्य नव शोभा को निरख रहे थे।

सुन्दरी नवकुमार की निमेषशून्य अाँखें देखकर बोली—“आप क्या देखते हैं? मेरा सौन्दर्य!”

नवकुमार भले आदमी थे, अप्रतिभ होकर, शर्माकर उन्होंने अाँखें नीची कर लीं। नवकुमारको निरुत्तर देख अपरिचित रमणीने फिर हँसकर कहा—“आपने क्या कभी किसी युवतीको देखा नहीं है? अथवा मैं ही बहुत सुन्दर दिखाई देती हूँ?”

यह बात सहज ही कही गयी होती तो तिरस्कार जैसी जान पड़ती, लेकिन रमणीने जिस हँसीके साथ कहा था, उससे व्यंगके अतिरिक्त और कुछ जान नहीं पड़ा। नवकुमारने देखा कि रमणी बड़ी मुखरा है; फिर भला मुखराकी बातका जवाब क्यों न देते। बोले—“मैंने युवतियोंको देखा है, लेकिन ऐसी सुन्दरी नहीं।”

रमणीने सगर्व पूछा—“क्या एक भी नहीं!”

नवकुमारके हृदयमें कपालकुण्डलाका रूप जाग रहा था; उन्होंने भी सगर्वे उत्तर दिया—“एक भी नहीं, ऐसा तो नहीं कह सकता।”

पत्थरपर मानो लोहेका आघात हुआ। उत्तरकारिणीने कहा—“तब तो ठीक है? क्या वह आपकी गृहिणी हैं?”

नव०—“क्यों? गृहिणी, मनमें क्या सोचती हो?”

स्त्री—“बंगाली लोग अपनी गृहिणीको सबसे ज्यादा सुन्दर समझते हैं।”

नव०—“मैं बंगाली अवश्य हूँ, लेकिन आप भी तो बंगालीकी तरह ही बातें कर रही हैं, तो आप किस देशकी हैं?”

युवती ने अपनी पोशाककी लटक देखकर कहा—“अभागिनी बंगाली नहीं है। पश्चिम प्रदेशवासी मुसलमान है।”

नवकुमारने मजेमें देखकर सोचा, पहनावा तो जरूर पश्चिमदेशीय मुसलमानोंकी तरह है, लेकिन बोली बिल्कुल बंगालियों जैसी है। थोड़ी देर बाद तरुणीने कहा—“महाशय वाक्‌चातुरीसे आपने मेरा परिचय तो ले लिया—अब आप अपना परिचय दें। जिस घरमें वह अद्वितीय रूपसी गृहिणी है, वह घर कहाँ है?”

नवकुमारने कहा—“मेरा घर सप्तग्राम है।”

विदेशिनीने कोई उत्तर न दिया। सहसा मुँह फेरकर वह प्रदीप उज्ज्वल करने लगी।

थोड़ी देर बाद बिना मुँह उठाये ही बोली—‘दासी का नाम मोती है। महाशयका नाम क्या है, सुन सकती हूँ?’

नवकुमारने कहा—“नवकुमार शर्मा।”

प्रदीप बुझ गया।