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कपालकुण्डला/प्रथम खण्ड/१

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ १ से – ५ तक

 
 

प्रथम खण्ड

: १ :

सागर-संगममें

“Floating straight obedient to the stream,”
—Comedy of Errors

लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व माघ मासमें, एकदिन रातके अन्तिम प्रहरमें, यात्रियोंकी एक नाव गङ्गासागरसे वापस हो रही थी। पुर्तगाली और अन्यान्य नौ-दस्युओंके कारण उस समय ऐसी प्रथा थी कि यात्री लोग गोल बाँधकर नाव-द्वारा यात्रा करते थे। किन्तु इस नौकाके आरोही संगियोंसे रहित थे। उसका प्रधान कारण यह था कि पिछली रातको घोर बादलोंके साथ तूफान आया था; नाविक दिक्‌भ्रम होनेके कारण अपने दलसे दूर विपथमें आ पड़े थे। इस समय कौन कहाँ था, इसका कोई पता न था। नावके यात्रियोंमें बहुतेरे सो रहे थे। एक वृद्ध और एक युवक केवल जाग रहे थे। वृद्ध युवकके साथ बातें कर रहा था। थोड़ी देरतक बातें करनेके बाद वृद्धने मल्लाहोंसे पूछा—“माझी! आज कितनी दूरतक राह तय कर सकोगे?” माझीने इधर-उधर बहकावा देकर उत्तर दिया—“कह नहीं सकते।”

वृद्ध नाराज होकर नाविकका तिरस्कार करने लगा। इसपर युवकने कहा—“महाशय! जो भगवान्‌के हाथकी बात है, उसे पण्डित-विद्वान् तो बता ही नहीं सकते, यह बेचारा मूर्ख कैसे बता सकता है, आप नाहक उद्विग्न न हों।”

वृद्धने उत्तेजित होकर जबाब दिया—“उद्विग्न न होऊँ! क्या कहते हो? पाजियोंने बीस-पचीस बीघे का धान काट लिया, बच्चोंको सालभर क्या खिलाऊँगा?”

यह खबर उन्होंने गङ्गासागर पहुँचनेपर पीछेसे आनेवाले यात्रियोंके मुँहसे सुनी थी। युवकने कहा—“मैंने तो पहले ही कहा था कि महाशयके घरपर दूसरा कोई देखभाल करनेवाला नहीं है....महाशयका आना अच्छा....उचित नहीं हुआ।”

वृद्धने पहलेकी तरह उत्तेजित स्वरमें कहा—“न आना? अरे, तीनपन तो चले गये! आखिरी अवस्था आ गयी! अब यदि परकाल के लिए कुछ न करूँ, तो कब करूँगा?”

युवकने कहा—“यदि शास्त्रका मर्म समझा जाय, तो तीर्थदर्शनसे परकालके लिए जो कर्म साधित होता है, घर बैठकर भी वह हो सकता है।”

वृद्धने कहा—“तो तुम आये क्यों?”

युवकने उत्तर दिया—“मैं तो पहले ही बता चुका हूँ कि समुद्र देखनेकी साध थी। इसीलिये आया हूँ मैं।” इसके बाद ही अपेक्षाकृत मधुर भावुक स्वरमें कहने लगा—“अहा! कैसा दृश्य देखा है, जन्म-जन्मान्तर इस दृश्यको भूल नहीं सकता!”

“दूराध्यश्क क्रनिमस्यतन्ती
तमालताली वनराजिनीला।
प्रभाति वेला लवणाम्बु राशे—
धारानिबद्धेव कलङ्करेखा॥”

[]

वृद्धके कान कविताकी तरफ न थे, बल्कि नाविक आपसमें जो कथोपकथन कर रहे थे, वह एकाग्र मनसे उसे ही सुन रहा था।

एक नाविक दूसरे नाविकसे कह रहा था—“ऐ भाई! यह काम तो बड़ा ही खराब हुआ। अब कहाँ किस नदीमें आ पड़े—कहाँ किस देशमें आ पड़े, यह समझमें नहीं आता!”

वक्ताका स्वर भयकातर था। वृद्धने भी समझा कि किसी विपद्‌की आशंकाका कोई कारण उपस्थित है। उन्होंने डरते हुए पूछा, “माझी! क्या हुआ है?” माझीने कोई जवाब न दिया। किन्तु युवक उत्तरकी प्रतीक्षा न कर बाहर आया। बाहर आकर देखा कि प्रायः सबेरा हो चला है। चारो तरफ घना कुहरा छाय हुआ है; आकाश, नक्षत्र, चन्द्र, किनारा किसी तरफ कुछ दिखाई नहीं पड़ता। समझ गये कि नाविकोंको दिक्‌भ्रम हो गया है। इस समय वह सब किधर जा रहे हैं, इसका ठौर-ठिकाना नहीं है। कहीं खुले समुद्रमें न पड़ जायें, यही उनकी आशंका है।

हिम निवारणके लिये नाव सामनेसे आवरण द्वारा ढँकी हुई थी; इसीलिये भीतर बैठे हुए आरोहियोंको कुछ मालूम न हुआ। किन्तु युवकने अच्छी तरह हालत समझकर वृद्धको समझा दिया; इसपर नावमें महाकोलाहल उपस्थित हुआ। नावमें कई औरतें भी थीं। कोलाहलका शब्द सुनती हुई जो जागीं, तो लगीं चिल्लाने—“किनारे लगाओ, किनारे लगाओ, किनारे लगाओ!”

नवकुमारने हँसते हुए कहा—“किनारा है कहाँ? उसके मालूम रहते इतनी विपद् काहे की होती?”

यह सुनकर नावके यात्रियोंका कोलाहल और भी बढ़ गया। युवक यात्रीने किसी तरह उन लोगोंको समझा-बुझाकर शान्त कर नाविकोंसे कहा—“डरकी कोई बात नहीं है, सबेरा हुआ— चार-पाँच दण्डोंमें अवश्य ही सूर्योदय हो जायगा और चार-पाँच दण्डमें इधर नाव भी डूबी नही जाती है। तुम लोग भी अपने डाँड़े बन्द कर दो। धारामें नाव जहाँ जाये, जाने दो। पीछेसे सूर्योदय देखकर विचार किया जायगा।”

नाविकोंने इस परामर्श पर राजी होकर उसके अनुसार कार्य किया।

बहुत देरतक नाविक निश्चेष्ट होकर बैठे रहे। उधर मारे भयके यात्रियोंका प्राण कण्ठागत था। वायु बिलकुल न थी। अतः उन्हें लहरोंके थपेड़ोंका अनुभव उस समय नहीं हो रहा था। फिर भी, सब यही सोच रहे थे कि मृत्यु सुनिश्चित है और निकट है। पुरुष निःशब्द होकर दुर्गानाम जपने लगे और औरतें स्वर मिलाकर रोने लगीं। एक औरत अपनी सन्तानको गङ्गासागरमें विसर्जन करके आ रही थी। लड़केको जलमें डालकर फिर उठा न सकी। केवल वही औरत रोती न थी।

प्रतीक्षा करते-करते प्रायः वेला-अनुभवसे एक प्रहर बीत गया। ऐसे ही समय मल्लाहोंने दरियाके पाँचों पीरों का नाम लेकर एकाएक कोलाहल मचाना शुरू कर दिया। सब लोगोंने पूछा,—“क्या हुआ, क्या हुआ, माझी! क्या हुआ।” मल्लाह उसी तरह कोलाहल करते हुए कहने लगे,—“सूर्य निकले, सूर्य निकले, लगाओ डाँड़ा, लगाओ डाँड़ा।” नावके सभी यात्री
पूर्वक बाहर निकल देखने लगे कि क्या हालत है, हम कहाँ हैं? देखा, कि सूर्यका प्रकाश हो गया है। करीब एक प्रहर दिन बीत गया था। जहाँ इस समय नौका है, वह वास्तविक समुद्र नहीं है, नदीका मुहाना मात्र है, किन्तु नदीका वहाँ जैसा विस्तार है, वैसा विस्तार और कहीं भी नहीं है। नदीका एक किनारा तो नावसे बहुत ही समीप है—यहाँ तक कि कोई पचास हाथ दूर होगा, लेकिन नदीका दूसरा किनारा दिखाई नहीं देता; और दूसरी तरफ जिधर भी देखा जाता है, अनन्त जलराशि है। चञ्चल रवि रश्मिमाला प्रदीप्त होकर आकाशप्रान्तमें ही विलीन हो गई है। समीपकी जल सचराचर मटमैला नदी-जलकी तरह है, किन्तु दूरका जल नील—नीलप्रभ है। आरोहियोंने निश्चित सिद्धान्त कर लिया है कि वे लोग महासमुद्रमें आ पड़े हैं। फिर भी, सौभाग्य यही है कि किनारा निकट है और डरकी कोई बात नहीं है। सूर्यकी तरफ देखकर दिशाका निरूपण किया। सामने जो किनारा वे देख रहे थे, वह सहज ही समुद्रका पश्चिमी तट निरूपित हुआ। किनारे तथा नावसे थोड़ी ही दूरपर एक नदीका मुँह मंदगामी जलके प्रवाहकी तरह आकर पड़ रहा था। संगमस्थलके दाहिने बाजू बृहद् वालुका-राशिपर बक आदि पक्षी अगणित संख्यामें क्रीड़ा कर रहे थे। इस नदीने आजकल “रसूलपुर की नदी” नाम धारण कर लिया है।




  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    दूरादयश्चक्रनिभस्य तन्वी
    तमालतालीवनराजिनीला।
    आभाति वेला लवणाम्बुराशे-
    र्धारानिबद्धेव कलङ्करेखा॥