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कपालकुण्डला/प्रथम खण्ड/४

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कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ १४ से – १७ तक

 

:४:

स्तूप-शिखर

‘....सविस्मये देखिया अदूरे भीषण-दर्शन मूर्ति।’
—मेघनाद वध।

जब नवकुमारकी नींद खुली, तो उस समय भयानक रात थी। उन्हें आश्वर्य हुआ कि अभीतक उन्हें शेर-बाघने क्यों नहीं फाड़ खाया! वह इधर-उधर देखने लगे कि कहीं बाघ तो नहीं आता है। अकस्मात् बहुत दूर सामने उन्हें एक रोशनी-सी जलती दिखाई दी। कहीं भ्रम तो नहीं होता, यह सोचके नवकुमार अतीव मनोनिवेशपूर्वक उस तरफ देखने लगे। रोशनीकी परिधि क्रमशः बढ़के और उज्ज्वलतर होने लगी। मालूम हुआ कि कहीं आग जल रही है। इसे देखते ही नवकुमारके हृदयमें आशाका सञ्चार हो आया। कारण, मनुष्यके बिना यह अग्नि-ज्वलन सम्भव नहीं। नवकुमार उठकर खड़े हो गये। जिधरसे अग्निकी रोशनी आ रही थी, वह उसी तरफ बढ़े। एकबार मनमें सोचा—यह रोशनी कहीं भौतिक तो नहीं है....हो भी सकता है। किन्तु केवल डरकर बैठ रहनेसे ही कौन जीवन बचा सकता है? यह विचार करते हुए नवकुमार निर्भीक चित्त हो उस तरफ बढ़े। वृक्ष लता, बालुका स्तूप, पग-पगपर उनकी गतिको रोकने लगे। नवकुमार वृक्ष, लताओंको दलते हुए और स्तूपोंका लंघन करते हुए उस तरफ बढ़ने लगे। आलोकके समीप पहुँचकर नवकुमारने देखा कि एक अति उच्च शिखरपर अग्नि जल रही है। उस अग्निके प्रकाशमें शिखरपर बैठी हुई मनुष्यमूर्ति आकाशपर चित्रकी तरह दिखाई पड़ रही थी। नवकुमारने संकल्प किया कि इस मनुष्यमूर्तिके निकट पहुँचकर देखना चाहिये और इसी उद्देश्यसे वह उधर बढ़े। अन्तमें वह उस स्तूपपर चढ़ने लगे। मनमें एक अज्ञात आशंका अवश्य हुई; फिर भी, उसकी परवाह न कर नवकुमार आगे बढ़ने लगे। उस आसीन व्यक्तिके सामने पहुँचकर उन्होंने जो जो दृश्य देखा, उससे उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। वह यह निश्चय न कर सके कि बैठना चाहिये या भागना चाहिये।

शिखरासीन मनुष्य आँखें मूँदे हुए ध्यानमग्न बैठा था। पहले वह नवकुमारको देख न सका। नवकुमारने देखा कि उसकी उम्र कोई पचीस वर्षके लगभग होगी। यह न जान पड़ा कि उसकी देहपर कोई वस्त्र है या नहीं; फिर कमरसे नीचेतक बाघम्बर पहने हुए थे। गलेमें रुद्राक्षकी माला लटक रही थी। सारा चेहरा दाढ़ी, मूँछ और कपालकी जटासे प्रायः ढँकासा था। सामने लकड़ीसे आग जल रही थी; उसी अग्निकी रोशनीको देखकर नवकुमार बहाँतक पहुँचे थे। लेकिन नवकुमारको एक तरहकी भयानक बदबू आ रही थी। उस स्थानको मजेमें देखते हुए नवकुमार इसका कारण ढूंढ़ने लगे। नवकुमारने उस व्यक्तिके आसनकी तरफ देखा कि एक छिन्नमुण्ड गलित शवपर वह मनुष्य बैठा हुआ ध्यानमग्न है। और भी भयभीत दृष्टिसे इन्होंने देखा कि पासमें ही नरमुण्ड भी रखा हुआ है। खूनकी कालिमा अभी भी उसपर लगी हुई है। इसके अतिरिक्त उस स्थानके चारों तरफ हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं। यहाँतक कि उस रुद्राक्ष-मालामें भी बीच-बीचमें हड्डियाँ पिरोई हुई हैं। यह सब देखकर नवकुमार मंत्रमुग्धकी तरह खड़े देखते रह गये। वह आगे बढ़ें या पीछे पलटकर भागें; कुछ भी समझ न सके। उन्होंने कापालिकों की बात सुनी थी। समझ गये कि यह व्यक्ति भयानक कापालिक ही है।

जिस समय नवकुमार यहाँ पहुँचे, उस समय यह कापालिक जप या ध्यानमें मग्न था। नवकुमारको देखकर उसने भ्रूक्षेप भी नहीं किया। बहुत देरके बाद उसने पूछा—“कस्त्वम्?”

नवकुमारने उत्तर दिया—“ब्राह्मण।”

कापालिकने फिर कहा,—“विष्ठ।”

यह कहकर वह उसी प्रकार अपनी क्रिया में संलग्न रहा। नवकुमार भी बैठे नहीं, बल्कि खड़े ही रहे।

इस तरह कोई आधा प्रहर बीत गया। जपके अन्तमें कापालिकने आसनसे खड़े होकर उसी तरह संस्कृत भाषामें कहा—“मेरे पीछे-पीछे चले आओ।”

यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि और कोई समय होता तो नवकुमार कभी इसके साथ न जाते। किन्तु इस समय उनके प्राण भूख और प्याससे कण्ठमें आ लगे थे, अतः उन्होंने कहा—“प्रभुकी जैसी आज्ञा। लेकिन मैं भूख और प्याससे बहुत कातर हूँ, बताइये बहाँ जानेसे मुझे आहारार्थं वस्तु मिलेगी?”

कापालिकने कहा—“तुम भैरवी प्रेरित हो, मेरे साथ आओ; खानेको भोजन पाओगे।”

नवकुमार कापालिकके अनुगामी हुये। दोनों बहुत दूरतक साथ गये। राहमें बनमें कोई बात न हुई। अन्तमें एक पर्णकुटीर मिली। कापालिकने उसमें प्रवेशकर पीछे नवकुमारको आनेका आदेश दिया। इसके उपरान्त कापालिकने नवकुमारसे अबोधगम्य तरकीबसे एक लकड़ी जलाई। नवकुमारने उस रोशनीमें देखा कि झोपड़ीमें चारों तरफ चटाई विछी हुई है और जगह-जगह व्याघ्रचर्म बिछे हैं। एक कलशमें पानी और कुछ फल-फूल भी रखे हुए हैं।

कापालिकने आग बालकर कहा—“फल-मूल जो कुछ है, खा सकते हो। पत्तोंका दोना बनाकर पात्रसे जल पी सकते हो। व्याघ्रचर्म बिछा हुआ है, सो सकते हो। निडर होकर रहो यहाँ शेर आदिका डर नहीं। फिर दूसरे समय मुझसे मुलाकात होगी। जबतक मुलाकात न हो, यह झोपड़ी त्यागकर कहीं न जाना।”

यह कहकर कापालिक चला गया। नवकुमारने थोड़े फल खाये और कुछ कसैले स्वादके उस जलको पिया। इतना आहार मिलते ही नवकुमारको परम सन्तोष हुआ। इसके बाद ही वह उस चर्मपर लेट रहे। सारे दिनकी मेहनत और जागरणके कारण वह शीघ्र ही निद्राकी गोदमें सो गये।