कर्बला
प्रायः सभी जातियों के इतिहास में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएँ होती हैं, जो साहित्यिक कल्पना को अनंत काल तक उत्तेजित करती रहती हैं। साहित्यिक-समाज नित नये रूप में उनका उल्लेख किया करता है, छंदों में, गीतों में, निबंधों में, लोकोक्तियों में, व्याख्यानों में बारंबार उनकी आवृति होती रहती है, फिर भी नये लेखकों के लिए गुंजाइश रहती है। हिन्दू-इतिहास में रामायण और महाभारत की कथाएँ ऐसी ही घटनाएँ हैं। मुसलमानों के इतिहास में कर्बला के संग्राम को भी वही स्थान प्राप्त है। उर्दू और फारसी के साहित्य में इस संग्राम पर दफ्तर-के-दफ्तर भरे पड़े हैं,यहाँ तक कि जैसे हिन्दी-साहित्य के कितने ही कवियों ने राम और कृष्ण की महिमा गाने में अपना जीवन व्यतीत कर दिया, उसी तरह उर्दू और फ़ारसी में कितने ही कवियों ने केवल मर्सिया कहने में ही जीवन समाप्त कर दिया। किन्तु,जहाँ तक हमारा ज्ञान है, अब तक, किसी भाषा में, इस विषय पर नाटक की रचना श यद नहीं हुई । हमने हिन्दी में यह ड्रामा लिखने का साहस किया है।
कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुस- लमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग प्रायः उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हिन्दू-मुसलिम वैमनस्य का एक कारण यह भी है कि हम न्हिदुओं को मुसलिम महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं । जहाँ किसी मुसलमान बादशाह का जिक आया कि हमारे सामने औरंगजेब की तसवीर खिंच गयी । लेकिन अच्छे और बुरे चरित्र सभी समाजों में सदैव होते आये हैं, और होते रहेंगे । मुसलमामों में भी बड़े-बड़े दानी, बड़े-बड़े धर्मात्मा और बड़े-बड़े न्यायप्रिय बादशाह हुए हैं। किसी जाति के महान् पुरुषों के चरित्रों का अध्ययन उस जाति के साथ आत्मीयता के सम्बन्ध का प्रवर्तक होता है, इसमें सन्देह नहीं।
नाटक दृश्य होते हैं,और पाठ्य भी । पर,हमारा विचार है,दोनों प्रकार के नाटकों में कोई रेखा नहीं खींची जा सकती। अच्छे अभिनेताओं द्वारा खेले जाने पर प्रत्येक नाटक मनोरंजक और उपदेशप्रद हो सकता है। नाटक का मुख्य अंग उसकी भाव-प्रधानता है,और सभी बातें गौण हैं। जनता की वर्तमान रुचि से किसी नाटक के अच्छे या बुरे होने का निश्चय करना न्यायसंगत नहीं। नौटंकी और धनुष-यज्ञ देखने के लिए लाखों की संख्या में जनता टूट पड़ती है, पर उसकी यह सुरुचि आदर्श नहीं कही जा सकती। हमने यह नाटक खेले जाने के लिए नहीं लिखा, मगर हमारा विश्वास है कि यदि कोई इसे खेलना चाहें, तो बहुत थोड़ी काट-छांट से खेल भी सकते
यह ऐतिहासिक और धार्मिक नाटक है । ऐतिहासिक नाटकों में कल्पना के लिए बहुत संकुचित क्षेत्र रहता है। घटना जितनी ही प्रसिद्ध होती है, उतनी ही कल्पना-क्षेत्र की संकीर्णता भी बढ़ जाती है । यह घटना इतनी प्रसिद्ध है कि इसकी एक-एक बात, इसके चरित्रों का एक-एक शब्द हजारों बार लिखा जा चुका है। आप उस वृत्तान्त से जौ-भर आगे-पीछे नहीं जा सकते। हमने ऐतिहासिक आधार को कहीं नहीं छोड़ा है। हाँ, जहाँ किसी रस की पूर्ति के लिए कल्पना की आवश्यकता पड़ी है, वहाँ अप्रसिद्ध और गौण चरित्रों द्वारा उसे व्यक्त किया है। पाठक इसमें हिन्दुओं को प्रवेश करते देखकर चकित होंगे, परन्तु वह हमारी कल्पना नहीं है, ऐतिहासिक घटना है। आर्य लोग वहाँ कैसे और कब पहुँचे, यह विवाद-ग्रस्त है । कुछ लोगों का खयाल है कि महाभारत के बाद अश्वत्थामा के वंशधर वहाँ जा बसे थे। कुछ लोगों का यह भी मत है कि ये लोग उन हिन्दुओं की सन्तान थे, जिन्हें सिकन्दर यहाँ से कैद कर ले गया । कुछ हो, इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि कुछ हिन्दु भी हुसैन के साथ कर्बला के संग्राम में सम्मिलित होकर वीर-गति को प्राप्त हुए थे।
इस नाटक में स्त्रियों के अभिनय बहुत कम मिलेंगे । महाशय डी० एल. राय ने अपने ऐतिहासिक नाटकों में स्त्री-चरित्र की कमी को कल्पना से पूरा किया है। उनके नाटक पूर्ण रूप से ऐतिहासिक हैं । कर्बला ऐतिहासिक ही नहीं, धार्मिक भी है, इसलिए इसमें किसी स्त्री-चरित्र की सृष्टि नहीं की जा सकी । भय था कि ऐसा करने से संभवतः हमारे मुसलमानबन्धुओं को आपत्ति होगी।
यह नाटक दुःस्वांत ('Tragedy) है । दुःखान्त नाटकों के लिए आवश्यक है कि उनके नायक कोई बीरात्मा हों,ओर उनका शाक- जनक अन्त उनके धर्म और न्याय-पूर्ण विचारों ओर सिद्धान्तों के फल-स्वरूप हो । नायक की दारुण कथा दुःखान्त नाटकों के लिए पर्याप्त नहीं है । उसकी विपत्ति पर हम शोक नहीं करते, वरन् उसकी नैतिक विजय पर आनंदित होते हैं। क्योंकि वहाँ नायक को प्रत्यक्ष हार वस्तुनः उसकी विजय होती है । दुःखान्त नाटकों में शोक और हर्ष के भावों का विचित्र रूप से समावेश हो जाता है । हम नायक को प्राण त्यागते देखकर आँसू बहाते हैं, किन्तु वह आँसू करुणा के नहीं, विजय के होते हैं। दुःखान्त नाटक आत्म-बलिदान की कथा है, और आत्मबलिदान केवल करुणा का वस्तु नहीं, गारव की भो वस्तु है । हाँ, नायक का धीरात्मा होना परम आवश्यक है,जिससे हमें उसकी अविचल सिद्धान्त-प्रियता और अदम्प सत्माहस पर गौरव श्रीर अभिमान हो सके।
नाटक में संगीत का अंश होना आवश्यक है, किन्तु इतना नहीं, जो अस्वाभाविक हो जाय । हम महान् विपत्ति और महान् सुख, दोनों ही दशाओं में रोते और गाते हैं। हमने ऐसे ही अवसरों पर गान की आयोजन की है। मुसलिम पात्रों के मुख से ध्रपद और विहाग कुछ बेजोड़-सा मालूम होता है,इसलिए हमने उर्दू कवियों की गजलें दे दी हैं। कहीं-कहीं अनीस के मर्सियों में से दो-चार बंद उद्धत कर लिये हैं । इसके लिए हम उन महानुभावों के ऋणी हैं। कविवर श्रीधरजी पाठक की एक भारत-स्तुति भी ली गयी है। अतएव हम उन्हें भी धन्यवाद देते हैं।
इस नाटक को भाषा के विषय में भी कुछ निवेदन करना आव- श्यक है। इसको भाषा हिन्दी साहित्य की भाषा नहीं है। मुसलमान -पात्रों से शुद्ध हिन्दीभाषा का प्रयोग कराना कुछ स्वाभाविक न होता । इसलिए हमने वही भाषा रखी है, जो साधारणतः सभ्य समाज में प्रयोग की जाती है, जिसे हिन्दू और मुसलमान, दोनो ही बोलते और समझते हैं।
हज़रत मुहम्मद की मृत्यु के बाद कुछ ऐसी परिस्थिति हुई कि खिलाफत का पद उनके चचेरे भाई और दामाद हज़रत अली को न मिलकर उमर फारूक को मिला । हज़रत मुहम्मद ने स्वयं ही व्यवस्था की थी कि खलीफा सर्व-सम्मति से चुना जाया करे, और सर्व-सम्मति से उमर फारूक चुने गये । उनके बाद अबूबकर चुने गये। अबूबकर के बाद यह पद उसमान को मिला। उसमान अपने कुटुम्बवालों के साथ पक्षपात करते थे, और उच्च राजकीय पद उन्हीं को दे रखे थे। उनकी इस अनीति से बिगड़कर कुछ लोगों ने उनकी हत्या कर डाली। उसमान के सम्बन्धियों को सन्देह हुआ कि यह हत्या हजरत अली की ही प्रेरणा से हुई है। श्रतएव उसमान के बाद अली खलीफ़ा तो हुए, किन्तु उसमान के एक आत्मीय सम्बन्धी ने, जिसका नाम मुआबिया था, और जो शाम-प्रान्त का सूबेदार था, अली के हाथों पर बैयत न की; अर्थात् अली को खलीफा नहीं स्वीकार किया। अली ने सुधाबिया को दंड देने के लिए सेना नियुक्त की। लड़ाइयाँ हुई, किन्तु पाँच वर्ष की लगातार लड़ाई के बाद अन्त को मुआबिया की ही विजय हुई। हजरत अली अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान कूट-नीतिज्ञ न थे। वह अभी मुआबिया को दबाने के लिए एक नयी सेना संगठित करने की चिन्ता में ही थे कि एक हत्यारे ने उनका वध कर डाला।
मुआबिया ने घोषणा की थी कि अपने बाद मैं अपने पुत्र को
खलीफा नामजद न करूँगा, वरन हजरत अली के ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफा बनाऊँगा। किन्तु जब उसका अन्त-काल निकट आया,तो उसने अपने पुत्र यजीद को खलीफा बना दिया। हसन इसके पहले ही मर चुके थे। उनके छोटे भाई हज़रत हुसैन खिलाफ़त के उम्मेदवार थे, किन्तु मुआविया ने यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बनाकर हुसैन को निराश कर दिया।
खलीफ़ा हो जाने के बाद यजीद को सबसे अधिक भय हुसैन का था, क्योंकि वह हज़रत अली के बेटे और हजरत मुहम्मद के नवासे (दौहित्र) थे । उनको माता का नाम फातिमा जोहरा था, जो मुस्लिम विदुषियों में सबसे श्रेष्ठ थों । हुसैन बड़े विद्वान् , सच्चरित्र, शान्त-प्रकृति, नम्र, सहिष्णु, ज्ञानी, उदार और धार्मिक पुरुष थे। वह वीर थे, ऐसे वीर कि अरब में कोई उनकी समता का नथा। किन्तु वह राजनीतिक छल-प्रपंच और कुत्सित व्यवहारों से अपरिचित थे। यजीद इन सब बातों में निपुण था । उसने अपने पिता अमीर मुआबिया से कूटनीति की शिक्षा पायी थी। उसके गोत्र (कबीले) के सब लोग कूट-नीति के पंडित थे । धर्म को वे केवल स्वार्थ का एक साधन समझते थे। भोग-विलास और ऐश्वर्य का उनको चसका पढ़ चुका था। ऐसे भोगलिप्सु प्राणियों के सामने सत्यव्रती हुसैन की भला कब चल सकती थी, और चली भी नहीं।
यजीद ने मदीने के सूबेदार को लिखा कि तुम हुसैन से मेरे नाम पर बैयत, अर्थात् उनसे मेरे खलीफा होने की शपथ लो। मतलब यह कि वह गुप्त रीति से उन्हें क़त्ल करने का षड्यंत्र रचने लगा। हुसैन ने बैयत लेने से इनकार किया। यजीद ने समझ लिया कि हुसैन बगावत करना चाहते हैं, अतएव वह उनसे लड़ने के लिए शैक्ति-संचय करने लगा । कूफा-प्रान्त के लोगों को हुसैन से प्रेम था। वे उन्हीं को अपना खलीफा बनाने के पक्ष में थे । यजीद को जब यह बत मालूम हुई, तो उसने कूफा के नेताओं को धमकाना और नाना प्रकार के कष्ट देना आरम्भ किया । कूफ़ा-निवासियों ने हुसैन के पास, जो उस समय मदीने से मक्के चले गये थे, सँदेसा भेजा कि आप आकर हमें इस संकट से मुक्त कीजिए। हुसैन ने इस सँदेसे का कुछ उत्तर न दिया, क्योंकि वह राज्य के लिए खून बहाना नहीं चाहते थे। इधर कूफा में हुसैन के प्रेमियों की संख्या बढ़ने लगी । लोग उनके नाम पर बैयत करने लगे। थोड़े ही दिनों में इन लोगों की संख्या २०:हजार तक पहुँच गयी। इस बीच में इन्होंने हुसैन की सेवा में दो सँदेसे और भेजे, किन्तु हुसैन ने उनका भी कुछ उत्तर नहीं दिया। अन्त को कूकावालों ने एक अत्यन्त आग्रह-पूर्ण पत्र लिखा, जिसमें हुसैन को हजरत मुहम्मद और दीन-इस्लाम के निहोरे अपनी सहायता करने को बुलाया । उन्होंने बहुत अनुनय के बाद लिखा था-"अगर आप पन आये, तो कल क़यामत के दिन अल्लाहताला के हुजूर में हम आप पर दावा करेंगे कि या इलाही, हुसैन ने हमारे ऊपर अत्याचार किया था, क्योंकि हमारे ऊपर अत्याचार होते देखकर यह खामोश बैठे रहे । और, सब लोग फर्याद करेंगे कि ऐ खदा. हुसैन से हमाग बदला दिला दे । उस समय आप क्या जवाब देंगे, और खुदा को क्या मुँह दिखायेंगे ?"
धर्म-प्राण हुसैन ने जब यह पत्र पढ़ा, तो उनके रोएँ खड़े हो आये, और उनका हृदय जल के समान तरल हो गया। उनके गालों पर धर्मानुगग के आँसू बहने लगे। उन्होंने तत्काल उन लोगों के नाम एक आश्वासन-पत्र लिखा-"मैं शीघ्र ही तुम्हारी सहायता को आऊंगा।" और अपने चचेरे भाई मुस्लिम के हाथ उन्होंने यह पत्र कूमावालों के पास भेज दिया।
मुस्लिम मार्ग की कठिनाइयाँ झेलते हुए कूका पहुँचे। उस समय कूमा का सूबेदार एक शान्त पुरुष था। उसने लोगों को समझाया- "नगर में कोई उपद्रव न होने पाये। मैं उस समय तक किसी से न बोलूँगा, जब तक कोई मुझे क्लेश न पहुँचायेगा।"
जिस समय यजीद को मुस्लिम के कमा पहँचने का समाचार मिला , तो उसने एक दूसरे सूबेदार को कूफा में नियुक्त किया,जिसका
नाम 'ओबैद बिन-ज़ियाद' था। यह बड़ा निठुर और कुटिल प्रकृति का मनुष्य था। इसने आते-ही-आते कूफा में एक सभा की, जिसमें घोषणा की गयी कि "जो लोग यजीद के नाम पर बैयत लेंगे, उन पर खलीफा की कृपा-दृष्टि होगी; परन्तु जो लोग हुसैन के नाम पर बैयत लेंगे, उनके साथ किसी तरह की रियायत न की जायगी। हम उसे सूली पर चढ़ा देंगे, और उसकी जागीर या वृत्ति जब्त कर लेंगे।" इस घोषणा ने यथेष्ट प्रभाव डाला । कूफ़ावालों के हृदय काँप उठे । जियाद को वे भली-भाँति जानते थे। उस दिन जब मुस्लिम भी मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने के लिए खड़े हुए, तो किसी ने उनका साथ न दिया। जिन लोगों ने पहले हुसैन की सेवा में आवेदन-पत्र भेजा था, उनका कहीं पता न था। सभी के साहस छूट गये थे। मुस्लिम ने एक बार कुछ लोगों की सहायता से जियाद को घेर लिया। किन्तु ज़ियाद ने अपने एक विश्वासपात्र सेवक के मकान की छत पर चढ़कर लोगों को यह संदेसा दिया कि “जो लोग यजीद की मदद करेंगे, उन्हें जागीर दी जायगी; और जो लोग बग़ावत करेंगे, उन्हें ऐसा दंड दिया जायगा कि कोई उनके नाम को रोनेवाला भी न रहेगा।” नेतागण यह धमकी सुनकर दहल उठे, और मुस्लिम को छोड़-छोड़कर दस-दस, बीस-बीस आदमी बिदा होने लगे । यहाँ तक कि मुस्लिम वहाँ अकेला रह गया। विवश हो उसने एक वृद्धा के घर में शरण लेकर अपनी जान बचायी । दूसरे दिन जब ओबैदुल्लाह को मालूम हुआ कि मुस्लिम अमुक वृद्धा के घर में छिपा है, तो उसने ३०० सिपाहियों को उसे गिरफ्तार करने के लिये भेजा। असहाय मुस्लिम ने तलवार खींच ली, और शत्रुओं पर टूट पड़े। पर वह अकेले कर ही क्या सकते थे। थोड़ी देर में जख्मी होकर गिर पड़े। उस समय सूबेदार से उनकी जो बातें हुईं, उनसे विदित होता है कि वह कैसे वीर पुरुष थे। गवर्नर उनकी भय-शून्य बातों से और भी गरम हो गया। उसने उन्हें तुरन्त क़त्ल करा दिया।
हुसैन, अपने पूज्य पिता की भाँति, साधुओं का-सा सरल जीवन व्यतीत करने के लिए बनाये गये थे। कोई चतुर मनुष्य होता, तो
उस समय दुर्गम पहाड़ियों में जा छिपना, और यमन के प्राकृतिक दुर्गों में बैठकर चारों ओर से सेना एकत्र करता। देश में उनका जितना मान था, और लोगों को उन पर जितनी भक्ति थी, उसके देखते २०-२५ हजार सेना एकत्र कर लेना उनके लिए कठिन न था । किन्तु वह अपने को पहले ही से हारा हुआ समझने लगे । यह सोच कर वह कहीं भागते न थे। उन्हें भय था कि शत्र मुझे अवश्य खोज लेगा। वह सेना जमा करने का भी प्रयत्न न करते थे। यहाँ तक कि जो लोग उनके साथ थे, उन्हें भी अपने पास से चले जाने की सलाह देते थे। इतना ही नहीं, उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मैं खलीफ़ा बनना चाहता हूँ। वह सदैव यही कहते रहे कि मुझे लौट जाने दो, मैं किसी से लड़ाई नहीं करना चाहता। उनकी आत्मा इतनी उच्च थी कि वह सांसा- रिक राज्य-भोग के लिए संग्राम-क्षेत्र में उतरकर उसे कलुषित नहीं करना चाहते थे। उनके जीवन का उद्देश्य आत्मशुद्धि और धार्मिक जीवन था। वह कूफा में जाने को इसलिए सहमत नहीं हुए थे कि वहाँ अपनी खिलाफत स्थापित करें, बल्कि इसलिए कि वह अपने सहधमियों की विपत्ति को देख न सकते थे। वह कूफा जाते समय अपने सब सम्बन्धियों से स्पष्ट शब्दों में कह गये थे कि मैं शहीद होने जा रहा हूँ । यहाँ तक कि वह एक स्वप्न का भी उल्लेख करते थे, जिसमें उनके नाना ने उनको स्वर्ग आने का निमंत्रण दिया था, और वह उनके थाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी टेक केवल यह थी कि मैं यजीद के नाम पर बैयत न करूँगा। इसका कारण यही था कि यजीद मद्यप, व्यभिचारी और इसलाम-धर्म के नियमों का पालन न करनेवाला था । यदि यजीद ने उनकी हत्या कराने की चेष्टा न की होती, तो वह शान्ति-पूर्वक मदीने में जीवन-भर पड़े रहते । पर समस्या यह थी कि उनके जीवित रहते हुए यजीद को अपना स्थान सुरक्षित नहीं मालूम हो सकता था। उसके निष्कंटक राज्य-भोग के लिए हुसैन का उसके मार्ग से सदा के लिए हट जाना परम आवश्यक था। और इस हेतु कि खिलाफत एक धर्म-प्रधान संस्था थी, अतः यजीद को हुसैन
के रणक्षेत्र में आने का उतना भय न था, जितना उनके शान्ति-सेवन का। क्योंकि शान्ति-सेवन से जनता पर उनका प्रभाव बढ़ता जाता था। इसा लिए यजीद ने यह भी कहा था कि हुसैन का केवल उसके नाम पर बैयत लेना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें उसके दरबार में भी आना चाहिए । यजीद को उनकी बैयत पर विश्वास न था । वह उन्हें किसी भाँति अपने दरबार में बुलाकर उनकी जीवन-लीला को समाप्त कर देना चाहता था। इसलिए यह धारणा कि हुसैन अपनी खिलाफत कायम करने के लिए कूफा गये, निर्मूल सिद्ध होती है । वह कूफा इस लिए गये कि अत्याचार-पीड़ित कुमा-निवासियों की सहायता करें। उन्हें प्राण-रक्षा के लिए कोई जगह दिखाई न देती थी। यदि वह खिलाफ़त के उद्देश्य से कूफा जाते, तो अपने कुटुम्ब के केवल ७२ प्राणियों के साथ न जाते, जिनमें बाल-वृद्ध सभी थे। कूमावालों पर कितना ही विश्वास होने पर भी वह अपने साथ अधिक मनुष्यों को लाने का प्रयत्न करते । इसके सिवा उन्हें यह बात पहले से ज्ञात थी कि कूफा के लोग अपने वचनों पर दृढ़ रहनेवाले नहीं हैं। उन्हें कई बार इसका प्रमाण भी मिल चुका था कि थोड़े-से प्रलोभन पर भी वे अपने वचनों से विमुख हो जाते हैं। हुसैन के इष्ट-मित्रों ने उनका ध्यान कूमावालों को इस दुर्बलता की ओर खींचा भी, पर हुसैन ने उनकी सलाह न मानी । वह शहादत का प्याला पीने के लिए, अपने को धर्म की वेदी पर बलि देने के लिए, विकल हो रहे थे। इससे हितैषियों के मना करने पर भी वह कूफा चले गये । दैव-संयोग से यह तिथि वही थी, जिस दिन कूफा में मुस्लिम शहीद हुए थे। १८ दिन की कठिन यात्रा के बाद वह 'नाहनेवा' के समीप, कर्बला के मैदान में पहुँचे, जो करात नदी के किनारे था । इस मैदान में न कोई बस्ती थी, न कोई वृक्ष । कूफा के गवर्नर की आज्ञा से वह इसी निर्जन और निर्जल स्थान में डेरे डालने को विवश किये गये।
शत्रुओं की सेना हुसैन के पीछे-पीछे मक्के से ही आ रही थी।
और सेनाएँ भी चारों ओर फैला दी गयो थीं कि हुसैन किसी गुप्त मार्ग से कूफा न पहुँच जायें । कर्बला पहुँचने के एक दिन पहले उन्हें हुर की सेना मिली । हुसैन ने हुर को बुलाकर पूछा-"तुम मेरे पक्ष में हो, या विपक्ष में ?" हुर ने कहा- मैं आपसे लड़ने के लिए भेजा गया हूँ।" जब तीसरा पहर हुआ, ता हुसैन नमाज पढ़ने के लिए खड़े हुए, और उन्होंने हुर से पूछा-"तू क्या मेरे पीछे खड़ा हाकर नमाज पढ़ेगा?" हुर ने हुसेन के पाछे खड़े होकर नमाज पढ़ना स्वीकार किया। हुसैन ने अपने साथियों के साथ हुर की सेना को भी नमाज पढ़ाई । हुर ने यजीद की बैयत ली थी। पर वह सद्विचारशील पुरुष था। हजरत मोहम्मद के नवासे से लड़ने में उसे संकोच होता था। वह बड़े धर्म-संकट में पड़ा। वह सच्चे हृदय से चाहता था कि हुसैन मक्का लौट जायँ । प्रकट रूप से तो हुसैन को ओबैदुल्लाह के पास ले चलने की धमकी देता था; पर हृदय से उन्हें अपने हाथों कोई हानि नहीं पहुँचाना चाहता था। उसने खुले हुए शब्दों में हुसैन से कहा-"यदि मुझसे कोई ऐसा अनुचित कार्य हा गया, जिससे आपको काई कष्ट पहुँचा, तो मेरे लोक और परलोक, दोनो ही बिगड़ जायेंगे। और, यदि मैं आपको ओबैदुल्लाह के पास न ले जाऊँ, तो कूफा में नहीं घुस सकता। हाँ, संसार विस्तृत है, कयामत के दिन आपके नाना की कृपादृष्टि से वंचित होने की अपेक्षा यही कहीं अच्छा है कि किसी दूसरी ओर निकल जाऊँ। आप मुख्य मार्ग को छोड़कर किसी अज्ञात मागे से कहीं और चले जायँ । मैं कूता के गवर्नर ( अर्थात् 'आमिल' ) को लिख दूँगा कि हुसैन से मेरी भंट नहीं हुई, वह किसी दूसरी ओर चले गये। मैं आपको कसम दिलाता हूँ कि अपने ऊपर दया कीजिए, और कूका न जाइए।" पर हुसैन ने कहा-"तुम मुझे मौत से क्या डराते हो ? मैं तो शहीद होने के लिए चला ही हूँ।" उस समय यदि हुसैन हुर की सेना पर आक्रमण करते, तो संभव था, उसे परास्त कर देते, पर अपने इष्ट-मित्रों के अनुरोध करने पर भी उन्होंने यही कहा-"हम लड़ाई के मैदान में अग्रसर न होंगे, यह हमारी नीति के विरुद्ध है।" इससे भी यही बात सिद्ध होती है कि हुसैन को अब अपनी आत्म-रक्षा का कोई उपाय न सूझता था। उनमें साधुओं का-सा सन्तोष था, पर योद्धाओं का-सा धैर्य न था, जो कठिन-से-कठिन समय पर भी कष्ट-निवारण का उपाय निकाल लेते हैं। उनमें महात्मा गांधी का-सा आत्मसमर्पण था, किन्तु शिवाजी की दूरदर्शिता न था।
इधर हुसैन और उनके आत्मीय तथा सहायकगण तो अपने- अपने खामे गाड़ रहे थे, और उधर ओबैदुल्लाह-कूफा का गवनेर- लड़ाई की तैयारी कर रहा था। उसने 'उमर-बिन-साद' नाम के एक योद्धा को बुलाकर हुसैन की हत्या करने के लिए नियुक्त किया, और इसके बदले में 'रे' सूबे के आमिल का उच्च पद देने को कहा। उमरबिन-साद विवेकहीन प्राणी न था। वह भली-भाँति जानता था कि हुसैन को हत्या करने से मेरे मुख पर ऐसी कालिमा लग जायगी, जोकभी न छूटेगी, किन्तु रे-सूबे का उच्च पद उसे असमंजस में डाले हुए था। उसके सम्बनधियों ने सम- झाया-"तुम हुसैन की हत्या करने का बीड़ा न उठाओ, इसका परिणाम अच्छा न होगा।” उमर ने जाकर ओबैदुल्लाह से कहा- “मेरे सिर पर हुसैन के वध का भार न रखिए।" परन्तु 'रे' की गवर्नरी छोड़ने को वह तैयार न हो सका । अतएव जब ओबै- दुल्लाह ने साफ़-साफ़ कह दिया कि 'रे' का उच्च पद हुसैन की हत्या किये बिना नहीं मिल सकता । यदि तुम्हें यह सौदा महँगा अँचता हो, तो कोई जबरदस्ती नहीं है। किसी और को यह पद दिया जायगा ।" तो उमर का आसन डोल गया। वह इस निषिद्ध कार्य के लिए तैयार हो गया। उसने अपनी आत्मा को ऐश्वर्य- लालसा के हाथ बेच दिया। ओबैदुल्लाह ने प्रसन्न होकर उसे बहुत कुछ इनाम-इकराम दिया, और चार हजार सैनिक उसके साथ नियुक्त कर दिये। उमर-बिन-साद की आत्मा अब भी उसे क्षुब्ध करती रही। वह सारी रात पड़ा अपनी अवस्था या दुरवस्था पर विचार करता रहा । वह जिस विचार से देखता, उसी से अपना
यह कम घृणित जान पड़ता था। प्रातःकाल वह फिर कूफा के गवर्नर के पास गया। उसने फिर अपनी लाचारी दिखाई। परन्तु 'रे' की सूबेदारी ने उस पर फिर विजय पायी। जब वह चलने लगा, तो ओबैदुल्लाह ने उसे कड़ी ताक़ीद कर दी कि हुसैन और उनके साथी करात नदी के समीप किसी तरह न आने पायें, और एक घुट पानी भी न पी सकें। हुर के १००० सैनिक भी उमर के साथ आ मिले । इस प्रकार उमर के साथ पाँच हजार सैनिक हो गये । उमर अब भी यही चाहता था कि हुसैन के साथ लड़ना न पड़े। उसने एक दूत उनके पास भेजकर पूछा-"आप अब क्या निश्चय करते हैं ?" हुसैन ने कहा-"कूफ़ावालों ने मुझसे दगा की है। उन्होंने अपने कष्ट की कथा कहकर मुझे यहाँ बुलाया, और अब वह मेरे शत्रु हो गये हैं । ऐसी दशा में मैं मक्के लौट जाना चाहता हूँ, यदि मुझे जबरदस्ती रोका न जाय ।” उमर मन में प्रसन्न हुआ कि शायद अब कलंक से बच जाऊँ। उसने यह समाचार तुरन्त ओबैदुल्लाह को लिख भेजा। किन्तु वहाँ तो हुसैन की हत्या करने का निश्चय हो चुका था। उसने उमर को उत्तर दिया-"हुसैन से बैयत लो, और यदि वह इस पर राजी न हों, तो मेरे पास लाओ।" ।
शत्रओं को, इतनी सेना जमा कर लेने पर भी, सहसा हुसैन पर आक्रमण करते डर लगता था कि कहीं जनता में उपद्रव न मच जाय । इसलिए इधर तो उमर-बिन-साद कर्बला को चला, और उधर आबैदुल्लाह ने कूफा की जामा मस्जिद में लोगों को जमा किया । उसने एक व्याख्यान देकर उन्हें समझाया-"यजीद के खान-दान ने तुम लोगों पर कितना न्याय-युक्त शासन किया है, और वे तुम्हारे साथ कितनी उदारता से पेश आये हैं ! यजीद ने अपने सुशासन से देश को कितना समृद्धि-पूर्ण बना दिया है ! रास्ते में अब चोरों और लुटेरों का कोई खटका नहीं है। न्यायालयों में सञ्चा, निष्पक्ष न्याय होता है। उसने कर्मचारियों के वेतन बढ़ा दिये हैं। राजभक्तों की जागीरें बढ़ा दी गयी हैं। विद्रोहियों के कोट तहस-नहस कर दिये हैं, जिसमें वे तुम्हारी शान्ति में बाधक न हो सकें। तुम्हारे जीवन-निर्वाह के लिए उसने चिरस्थायी सुविधाएँ दे रखी हैं। ये सब उसकी दयाशीलता और उदारता के प्रमाण हैं । यजीद ने मेरे नाम फरमान भेजा है कि मैं तुम्हारे ऊपर विशेष कृपा-दृष्टि करूं, और जिसे एक दीनार वृत्ति मिलती है, उसकी वृत्ति सौ दीनार कर दूं। इसी तरह वेतन में भी वृद्धि कर दूं, और तुम्हें उसके शत्र, हुसैन से लड़ने के लिये भेज । यदि तुम अपनी उन्नति और वृद्धि चाहते हो, तो तुरन्त तैयार हो जाओ । विलम्व करने से काम बिगड़ जायगा।"
यह व्याख्यान सुनते ही स्वार्थ के मतवाले नेता लोग, धर्माधर्म के विचार को तिलांजलि देकर, समर भूमि में चलने की तैयारी करने लगे। 'शिमर' ने चार हजार, सवार जमा किये, और वह बिन-साद से जा मिला। रिकाब ने दो हजार, हसीन ने चार हजार, मसायर ने तीन हजार और अन्य एक सरदार ने दो हजार योद्धा जमा किये । सब-के-सब दल-बल साजकर कर्बला को चले । उमर-बिन-साद के पास अब पूरे २२ सहस्र सैनिक हो गये । कैसी दिल्लगी है कि ७२ आदमियों को परास्त करने के लिए इतनी बड़ी सेना खड़ी हो जाय ! उन बहत्तर आदमियों में भी कितने ही बालक और कितने ही वृद्ध थे। फिर प्यास ने सभी को अधमरा कर रखा था।
किन्तु शत्रुओं ने अवस्था को भली-भाँति समझकर यह तैयारी
की थी। हुसैन की शक्ति न्याय और सत्य की शक्ति थी। यह यजीद और हुसैन का संग्राम न था। यह इस्लाम धार्मिक जन-सत्ता का पूर्व कालिक इस्लाम की राज-सत्ता से संघर्ष था। हुसैन उन सब व्यवस्थाओं के पक्ष में थे, जिनका हजरत मोहम्मद द्वारा प्रादुर्भाव हुआ था; मगर यजीद उन सभी बातों का प्रतिपक्षी था। दैवयोग से इस समय अधर्म ने धर्म को पैरों-तले दबा लिया था; पर यह अवस्था एक क्षण में परिवर्तित हो सकती थी, और इसके लक्षण भी प्रकट होने लगे थे। बहुतेरे सैनिक जाने को तो चले जाते थे, परन्तु अधर्म के विचार से सेना से भाग आते थे। जब ओबैदुल्लाह को यह बात मालूम हुई, तो उसने कई निरीक्षक नियुक्त किये । उनका काम यही था कि भागनेवालों का पता लगायें । कई सिपाही इस प्रकार जान से मार डाले गये । यह चाल ठीक पड़ी। भगोड़े भयभीत होकर फिर सेना में जा मिले।
इस संग्राम में सबसे घोर निर्दयता जो शत्रुओं ने हुसैन के साथ की वह पानी का बन्द कर देना था। ओबैदुल्लाह ने उमर को कड़ी ताक़ीद कर दी थी कि हुसैन के आदमी नदी के समीप न जाने पायें । यहाँ तक कि वे कुएँ खोदकर भी पानी न निकालने पायें । एक सेना करात-नदी की रक्षा करने के लिए भेज दी गयी। उसने हुसैन की सेना और नदी के बीच में डेरा जमाया। नदी की ओर जाने का कोई रास्ता न रहा । थोड़े नहीं, छः हजार सिपाही नदी का पहरा दे रहे थे। हुसैन ने यह ढंग देखा तो स्वयं इन सिपाहियों के सामने गये, और उन पर प्रभाव डालने की कोशिश की। पर उन पर कुछ असर न हुआ। लाचार होकर यह लौट आये। उस समय प्यास के मारे इनका कंठ सूखा जाता था, स्त्रियाँ और बच्चे बिलख रहे थे; किन्तु उन पाषाण-हृदय पिशाचों को इन पर दया न आती थी।
शहीद होने के तीन दिन पहले हुसैन और अन्य प्राणी प्यास के
मारे बेहोश हो गये । तब हुसैन ने अपने प्रिय बन्धु अब्बास को बुलाकर, उन्हें बीस सवार तथा तीस पैदल देकर, उनसे कहा-"अपने साथ बीस मश्कें ले जाओ, और पानी से भर लाओ।" अब्बास ने सहर्ष इस आदेश को स्वीकार किया। वह नदी के किनारे पहुँचे । पहरेदार ने पुकारा-"कौन है ?” इधर उस पहरेदार का एक भाई भी था । वह बोला-"मैं हूँ, तेरे चाचा का बेटा, पानी पीने आया हूँ।" पहरेदार ने कहा-"पी ले ।" भाई ने उत्तर दिया-"कैसे पी लूँ ? जब हुसैन और उनके बाल-बच्चे प्यासों मर रहे हैं, तो मैं किस मुँह से पी लूँ ?" पहरेदार ने कहा-"यह तो जानता हूँ, पर करूँ क्या, हुक्म से मजबूर हूँ !" अब्बास के आदमी मश्के लेकर नदी की ओर गये, और पानी भर लिया। रक्षक-दल ने इनको रोकने की चेष्टा की, पर ये लोग पानी लिये हुए बच निकले। हुसैन ने फिर अन्तिम बार सन्धि करने का प्रयास किया। उन्होंने उमर-बिन-साद को सँदेसा भेजा कि "आज तुम मुझसे रात को, दोनों सेनाओं के बीच में, मिलना ।” उमर निश्चित समय पर आया । हुसेन से उसकी बहुत देर तक एकान्त में बातें हुई । हुसैन ने सन्धि की तीन शत बतायीं-(१) या तो हम लोगों को मक्के वापस जाने दिया जाय, (२) या सीमा-प्रांत की ओर शान्ति-पूर्वक चले जाने की अनुमति मिले, (३) या मैं यजीद के पास भेज दिया जाएँ । उमर ने ओबैदुल्लाह को यह शुभ सूचना सुनायी, और वह उसे मानने के लिए तैयार भी मालूम होता था; किन्तु शिमर ने जोर दिया कि दुश्मन चंगुल में आ फँसा है, तो उसे निकलने न दो, नहीं तो उसकी शक्ति इतनी बढ़ जायगी कि तुम उसका सामना न कर सकागे। उमर मजबूर हो गया।
मोहर्रम की हवीं तारीख को, अर्थात् हुसैन की शहादत से एक दिन पहले, कूफा के देहातों से कुछ लोग हुसैन की सहायता करने आये । ओबैदुल्लाह को यह बात मालूम हुई, तो उसने उन आदमियों को भगा दिया, और उमर को लिखा-"अब तुरन्त हुसैन पर आक्रमण करो, नहीं तो इस टाल-मटोल की तुम्हें सजा दी जायगी।" फिर क्या था; प्रातःकाल बाइस हजार योद्धाओं की सेना हुसैन से लड़ने चली । जुगुनू की चमक बुझाने के लिए मेघ-मंडल का प्रकोप हुआ।
हुसैन को मालूम हुआ, तो वह घबराये । उन्हें यह अन्याय मालूम हुआ कि अपने साथ अपने साथियों के भी प्राणों की आहुति दें। उन्होंने इन लोगों को इसका एक अवसर देना उचित समझा कि वे चाहें, तो अपनी जान बचायें, क्योंकि यजीद को उन लोगों से कोई शत्रुता न थी। इसलिए उन्होंने उमर साद को पैगाम भेजा कि हमें एक रात के लिए मोहलत दो । उमर ने अन्य सेनानायकों से परामर्श करके मोहलत दे दी। तब हजरत हुसैन ने अपने समस्त सहायकों तथा परिवारवालों को बुलाकर कहा-"कल जरूर यह भूमि मेरे खून से लाल हो जायगी। मैं तुम लोगों का हृदय से अनुगृहीत हूँ कि तुमने मेरा साथ दिया । मैं अल्लाहताला से दुआ करता हूँ कि वह तुम्हें इस नेकी का सवाब दे । तुमसे अधिक वीरात्मा और पवित्र हृदयवाले मनुष्य संसार में न होंगे। मैं तुम लोगों को सहर्ष आज्ञा देता हूँ कि तुममें से जिसकी जहाँ इच्छा हो, चला जाय, मैं किसी को दबाना नहीं चाहता, न किसी को मजबूर करता हूँ। किन्तु इतना अनुरोध अवश्य करूँगा कि तुममें से प्रत्येक मनुष्य मेरे आत्मीय जनों में से एक-एक को अपने साथ ले ले । संभव है, खुदा तुम्हें तबाही से बचा ले, क्योंकि शत्रु मेरे रुधिर का प्यासा है। मुझे पा जाने पर उसको और किसी की तलाश न होगी।"
यह कहकर उन्होंने इसलिए चिराग बुझा दिया कि जानेवालों को संकोचवश वहाँ न रहना पड़े। कितना महान् , पवित्र और निस्वार्थ आत्मसमर्पण है!
किन्तु इस वाक्य का समाप्त होना था कि सब लोग चिल्ला उठे- "हम ऐसा नहीं कर सकते। खुदा वह दिन न दिखाये कि हम आपके बाद जीते रहें । हम दूसरों को क्या मुँह दिखायेंगे ? उनसे क्या यह कहेंगे कि हम अपने स्वामी,अपने बन्धु तथा अपने इष्ट-मित्र को शत्रुओं के बीच में छोड़ आये, उनके साथ एक भाला भी न चलाया, एक तलवार भी न चलायी! हम आपको अकेला छोड़कर कदापि नहीं जा सकते, हम अपने को, अपने धन को और अपने कुल को आपके चरणों पर न्योछावर कर देंगे।"
इस तरह ९ वीं तारीख , मोहर्रम की रात, आधी कटी। शेष रात्रि लोगों ने ईश्वर-प्रार्थना में काटी। हुसैन ने एक रात की मोहलत इसलिए नहीं ली थी कि समर की रही-सही तैयारी पूरी कर लें। प्रात:-काल तक सब लोग सिजदे करते और अपनी मुक्ति के लिए दुआएँ माँगते रहे।
प्रभात हुआ-वह प्रभात, जिसकी संसार के इतिहास में उपमा नहीं है ! किसकी आँखों ने यह अलौकिक दृश्य देखा होगा कि ७२ आदमी बाइस हजार योद्धाओं के सम्मुख खड़े हुसैन के पीछे सुबह की नमाज़ इसलिए पढ़ रहे हैं कि अपने इमाम के पीछे नमाज पढ़ने का शायद यह अन्तिम सौभाग्य है। वे कैसे रणधीर पुरुष हैं, जो जानते हैं कि एक क्षण में हम सब-के-सब इस आँधी में उड़ जायेंगे, लेकिन फिर भी पर्वत की भाँति अचल खड़े हैं; मानो संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो उन्हें 'भयभीत कर सके । किसी के मुख पर चिन्ता नहीं है, कोई निराश और हताश नहीं है । युद्ध के उन्माद ने, अपने सच्चे स्वामी के प्रति अटल विश्वास ने, उनके मुख को तेजस्वी बना दिया है। किसी के हृदय में कोई अभिलाषा नहीं है। अगर कोई अमिलाषा है, तो यही कि कैसे अपने स्वामी की रक्षा करें। इसे सेना कौन कहेगा, जिसके दमन को बाइस हजार योद्धा एकत्र किये गये थे। इन बहत्तर प्राणियों में एक भी ऐसा न था, जो सर्वथा लड़ाई के योग्य हो । सब-के सब भूख-प्यास से तड़प रहे थे। कितनों के शरीर पर तो मांस का नाम तक नहीं था, और उन्हें बिना ठोकर खाये दो पग चलना भी कठिन था। इस प्राण-पीड़ा के समय ये लोग उस सेना से लड़ने को तैयार थे, जिसमें अरब-देश के वे चुने हुए जवान थे, जिन पर अरब को गर्व हो सकता था।
उन दिनों समर की दो पद्धतियाँ थीं-एक तो सम्मिलित, जिसमें समस्त सेना मिलकर लड़ती थी, और दूसरी व्यक्तिगत, जिसमें दोनों दलों से एक-एक योद्धा निकलकर लड़ते थे। हुसैन के साथ इतने कम आदमी थे कि सम्मिलित-संग्राम में शायद वह एक क्षण भी न ठहर सकते । अतः उनके लिए दूसरी शैली ही उपयुक्त थी। एक-एक करके योद्धागण समर-क्षेत्र में आने और शहीद होने लगे। लेकिन इसके पहले अन्तिम बार हुसैन ने शत्रुओं से बड़ी ओजस्विनी भाषा में अपनी निर्दोषिता सिद्ध की। उनके अन्तिम शब्द ये थे-
"खुदा की कसम, मैं पद-दलित और अपमानित होकर तुम्हारी
शरण न जाऊँगा, और न मैं दासों की भाँति लाचार होकर यजीद की खिलाफ़त को स्वीकार करूँगा। ऐ खुदा के बंदो ! मैं खुदा से शान्ति का प्रार्थी हूँ। और, उन प्राणियों से, जिन्हें खुदा पर विश्वास नहीं है, जो ग़रूर में अन्धे हो रहे हैं, पनाह माँगता हूँ।"
शेष कथा आत्म-त्याग, प्राण-समर्पण, विशाल धैर्य और अविचल बीरता की अलौकिक और स्मरणीय गाथा है, जिसके कहने और सुनने से आँखों में आँसू उमड़ आते हैं, जिस पर रोते हुए लोगों को १३ शताब्दियाँ बीत गयीं, और अभी अनन्त शताब्दियाँ रोते बीतेंगी।
हुर का जिक्र पहले आ चुका है। यह वही पुरुष है, जो एक हजार सिपाहियों के साथ हुसैन के साथ-साथ आया था, और जिसने उन्हें इस निर्जल मरुभूमि पर ठहरने को मजबूर किया था। उसे अभी तक आशा थी कि शायद ओबैदुल्लाह हुसैन के साथ न्याय करे। किन्तु जब उसने देखा कि लड़ाई छिड़ गयी, और अब समझौते की कोई आशा नहीं है, तो अपने कृत्य पर लज्जित होकर वह हुसैन की सेना से आ मिला। जब वह अनिश्चित भाव से अपने मोरचे से निकलकर हुसैन की सेना की ओर चला, तब उसी की सेना के एक सिपाही ने कहा-"तुमको मैंने किसी लड़ाई में इस तरह काँपते हुए चलते नहीं देखा।"
हुर ने उत्तर दिया-"मैं स्वर्ग और नरक की दुविधा में पड़ा हुआ हूँ, और सच यह है कि मैं स्वर्ग के सामने किसी चीज की हस्ती नहीं समझता, चाहे कोई मुझे मार डाले ।"
यह कहकर उसने घोड़े के एड़ लगाई, और हुसैन के पास आ
पहुँचा । हुसैन ने उसका अपराध क्षमा कर दिया, और उसे गले से लगाया । तब हुर ने अपनी सेना को सम्बोधित करके कहा-"तुम लोग हुसैन की शर्ते क्यों नहीं मानते ? कितने खेद की बात है कि तुमने, स्वयं उन्हें बुलाया, और जब वह तुम्हारी सहायता करने आये, तो तुम उन्हीं को मारने पर उद्यत हो गये । वह अपनी जान लेकर चले भी जाना चाहते हैं, किन्तु तुम लोग उन्हें कहीं जाने भी नहीं देते ? सबसे बड़ा अन्याय यह कर रहे हो कि उन्हें नदी से पानी नहीं लेने देते ! जिस पानी को पशु और पक्षी तक पी सकते हैं, वह भी उन्ह मयस्सर नहीं !"
इस पर शत्रुओं ने उन पर तीरों की वर्षा कर दी, और हुर भी लड़ते हुए वीर-गति को प्राप्त हुए। उन्हीं के साथ उनका पुत्र भी शहीद हुआ।
आश्चर्य होता है और दुःख भी कि इतना सब कुछ हो जाने पर भी हुसैन को इन नर-पिशाचों से कुछ कल्याण की आशा बनी हुई थी। वह जब अवसर पाते थे, तभी अपनी निर्दोषिता प्रकट करते हुए उनसे आत्म-रक्षा की प्रार्थना करते थे। दुराशा में भी यह आशा इसलिए थी कि वह हजरत मोहम्मद के नवासे थे, और उन्हें आशा होती थी कि शायद अब भी मैं उनके नाम पर इस संकट से मुक्त हो जाऊँ। उनके इन सभी संभाषणों में आत्म-रक्षा की इतनी विशद चिन्ता व्याप्त है, जो दीन चाहे न हो, पर करुण अवश्य है, और एक आत्मदर्शी पुरुष के लिए, जो स्वर्ग में इससे कहीं उत्तम जीवन का स्वप्न देख रहा हो, जिसको अटल विश्वास हो कि स्वर्ग में हमारे लिए अकथनीय सुख उपस्थित है, शोभा नहीं देती ।। हुर के शहीद होने के पश्चात् हुसैन ने फिर शत्रु सेना के सम्मुख खड़े होकर कहा-
"मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि मेरी इन तीन बातों में से एक को मान लो-
“(१) मुझे यजीद के पास जाने दो कि उससे बहस करूँ । यदि -मुझे निश्चय हो जायगा कि वह सत्य पर है, तो मैं उसकी बैयत कर लूँगा।"
(इस पर किसी पाषाण-हृदय ने कहा-"तुम्हें यजीद के पास न जाने देंगे। तुम मधुरभाषी हो, अपनी बातों में उसे फंसा लोगे, और इस समय मुक्त होकर देश में विद्रोह फैला दोगे।")
(२) “जब यह नहीं मानते, तो छोड़ दें कि मैं अपने नाना के रौजे की मुजाविरी करूँ।"
(इस पर भी किसी ने उपर्युक्त शंका प्रकट की।) (३) "अगर ये दोनो बातें तुम्हें अम्वीकार हैं, तो मुझे और मेरे साथियों को पानी दो; क्योंकि प्राणी-मात्र को पानी लेने का हक़ है।"
(इसका भी वैसा ही कठोर और निराशाजनक उत्तर मिला।) इस प्रश्नोत्तर के बाद हुसैन की ओर से बुरीर मैदान में आये । उधर से मुअक्कल निकला। बुरीर ने अपने प्रतिपक्षी को मार लिया, और फिर खुद सेना के हाथों मारे गये। बुरीर के बाद अब्दुल्लाह निकले, और दस-बीस शत्रुओं को मारकर काम आये।
अब्दुल्लाह के बाद उनका पुत्र, जिसका नाम वहब था, मैदान में आया । उपकी वीर-गाथा अत्यन्त मर्मस्पर्शी है, और राजपूताने के अमर वीर-वृत्तान्त की याद दिलाता है। वहब का विवाह हुए अभी केवल सत्रह दिन हुए थे। हाथ की मेहँदी तक न छूटी थी। जब उसके पिता शहीद हो गये, तो उसकी माता उससे बोली-
“मी ख्वाहम कि मरा अज़ खूने खुद शरबते दिही ताशीरे कि अजपिस्ताने मन खरदई बर तो हलाल गरदद ।" ।
कितने सुन्दर शब्द हैं, जो शायद ही किसी वीर-माता के मुँह से निकले होंगे । भावार्थ यह है-
"मेरी इच्छा है कि तू अपने रक्त का एक घुट मुझे दे, जिसमें कि यह दूध, जो तूने मेरे स्तन से पिया है, तुझ पर हलाल हो जाय।"
वहब के शहीद हो जाने के बाद क्रम से कई योद्धा निकले, और मारे गये । इस्लामी पुस्तकों में तो उनकी वीरता का बड़ा प्रशंसा- त्मक वर्णन किया गया है। उनमें से प्रत्येक ने कई-कई सौ शत्रुओं को परास्त किया । ये भक्तों के मानने की बातें हैं। जो लोग प्यास से तड़प रहे थे, भूख से आँखों-तले अँधेरा छा जाता था, उनमें इतनी असाधारण शक्ति और वीरता कहाँ से आ गयी ? उमर-बिन-साद की सेना में 'शिमर' बड़ा कर और और दुष्ट आदमी था। इस समर में हुसैन और उनके साथियों के साथ जिस अपमान-मिश्रित निदयता का व्यवहार किया गया, उसका दायित्व इसी शिमर के सिर है। यह धार्मिक संग्राम था, और इतिहास साक्षी है कि धार्मिक संग्राम में पाशविक प्रवृत्तियाँ अत्यन्त प्रचंड रूप धारण कर लेती हैं। पर इस संग्राम में ऐसे प्रतिष्ठित प्राणी के साथ जितनी घोर दुष्टता और दुर्जनता दिखाई गयी, उसकी उपमा संसार के धार्मिक संग्रामों में भी मुश्किल से मिलेगी, हुसैन के जितने साथी शहीद हुए, प्रायः उन सभी की लाशों को पैरों-तले रौंदा गया, उनके सिर काटकर भालों पर उछाले और पैरों से ठुकराये गये । पर कोई भी अप- मान और बड़ी-से-बड़ी निर्दयता उनकी उस कीर्ति को नहीं मिटा सकती, जो इस्लाम के इतिहास का आज भी गौरव बढ़ा रही है । इस्लाम के साहित्य और इतिहास में उन्हें वह स्थान प्राप्त है, जो हिन्दू-साहित्य में अंगद, जामवंत, अर्जुन, भीम आदि को प्राप्त है। सूर्यास्त होते-होते सहायकों में कोई भी नहीं बचा।
अब निज कुटुम्ब के योद्धाओं की बारी आयी । इस वंश के पूर्वज हाशिम नाम के एक पुरुष थे। इसी लिए हज़रत मोहम्मद का वंश
हाशिमी कहलाता है। इस संग्राम में पहला हाशिमी जो क्षेत्र में आया, वह अब्दुल्लाह था । यह उसी मुस्लिम नाम के वीर का बालक था, जो पहले शहीद हो चुका था। उसके बाद कुटुम्ब के और वीर निकले। जाफर इमाम हसन के तीन बेटे, अब्बास के कई भाई, हज़रत अली के कई बेटे और सब बारी-बारी से लड़कर शहीद हुए। हज़रत अब्बास से हुसैन ने कहा-"मैं बहुत प्यासा हूँ।"सन्ध्या हो गयी थी। अब्बास पानी लाने चले, पर रास्ते में घिर गये। वह असाधारण वीर पुरुष थे। हाशिमी लोगों में इतनी वीरता से कोई नहीं लड़ा । एक हाथ कट गया, तो दूसरे हाथ से लड़े। जब वह हाथ भी कट गया, तो जमीन पर गिर पड़े। उनके मरने का हुसैन को अत्यन्त शोक हुआ। बोले-"अब मेरी कमर टूट गयी।" अब्बास के बाद हुसैन के नौजवान बेटे अकबर मैदान में उतरे। हुसैन ने अपने हाथों उन्हें शस्त्रों से सुसज्जित किया । आह ! कितना हृदय-विदारक दृश्य है। बेटे ने खड़े होकर हुसैन से जाने की आज्ञा माँगी, पिता का वीर हृदय अधीर हो गया। हुसैन ने निराशा और शोक से अली अकबर को देखा, फिर आँखें नीची कर ली, और रो दिये। जब वह शहीद हो गया, तो शोक-विह्वल पिता ने जाकर लाश के मुँह पर अपना मुँह रख दिया, और कहा-“बेटा, तुम्हारे बाद अब जीवन को धिक्कार है।" पुत्र-प्रेम की इहलोक की ममता के श्रादर्श पर, धर्म पर, गौरव पर कितनी बड़ी विजय है!
अब हुसैन अकेले रह गये । केवल एक सात वर्ष का भतीजा और हसन का एक दुधमुँहा पोता बाक़ी था। हुसैन घोड़े पर सवार महिलाओं के खीमों की ओर आये, और बोले-“बच्चे को लाओ, क्योंकि अब उसे कोई प्यार करनेवाला न रहेगा।" स्त्रियों ने शिशु को उनकी गोद में रख दिया।वह अभी उसे प्यार कर रहे थे कि अकस्मात्ए क तीर उसकी छाती में लगा, और वह हुसैन की गोद में ही चल बसा ! उन्होंने तुरन्त तलवार से गढ़ा खोदा, और बच्चे की लाश वहीं गाड़ दी। फिर अपने भतीजे को शत्रओं के सामने खड़ा करके बोले-"ऐ अत्याचारियो, तुम्हारी निगाह में मैं पापी हूँ, पर इस बालक ने तो कोई अपराध नहीं किया, इसे क्यों प्यासों मारते हो ?" यह सुन कर किसी नर-पिशाच ने एक तीर चलाया, जो बालक के गले को छेदता हुआ हुसैन की बाँह में गड़ गया। तीर के निकलते ही बालक की क्रीड़ाओं का अन्त हो गया।
हुसैन अब रणक्षेत्र की ओर चले । अब तक रण में जानेवालों
को वह अपने खीमे के द्वार तक पहुँचाने आया करते थे। उन्हें पहुँचाने-.वाला अब कोई मर्द न था। तब आपकी बहन जैनब ने आपको रोकर बिदा किया। हुसैन अपनी पुत्री सकीना को बहुत प्यार करते थे। जब वह रोने लगी, तो आपने उसे छाती से लगाया, और तत्काल शोक के आवेग में कई शेर पढ़े, जिनका एक-एक शब्द करुण रस में डूबा हुआ है। उनके रणक्षेत्र में आते ही शत्रुओं में खलबली पड़ गयी, जैसे गीदड़ों में कोई शेर आ गया । हुसैन तलवार चलाने लगे,और इतनी वीरता से लड़े कि दुश्मनों के छक्के छूट गये। जिधर उनका घोड़ा बिजली की तरह कड़ककर जाता था, लोग काई की भाँति फट जाते थे। कोई सामने आने की हिम्मत न कर सकता था । इस भाँति सिपाहियों के दलों को चीरते-फाड़ते वह फ़रात के किनारे पहुँच गये, और पानी पीना चाहते थे कि किसी ने कपट भाव से कहा-"तुम यहाँ पानी पी रहे हो, उधर सेना स्त्रियों के खीमों में घुसी जा रही है।" इतना सुनते ही लपककर इधर आये, तो ज्ञात हुआ कि किसी ने छल किया है। फिर मैदान में पहुँचे, और शत्रु-दल का संहार करने लगे। यहाँ तक कि शिमर ने तीन सेनाओं को मिलाकर उन पर हमला करने की आज्ञा दी । इतना ही नहीं, बगल से और पीछे से भी उन पर तीरों की बौछार होने लगी। यहाँ तक कि जख्मों से चूर होकर वह जमीन पर गिर पड़े, और शिमर की आज्ञा से एक सैनिक ने उनका सिर काट लिया! कहते हैं, जैनब यह दृश्य देखने के लिए खीमे से बाहर निकल आयी थी। उसी समय उमर-बिन-साद से उनका सामना हो गया । तब वह बोलीं-"क्यों उमर, हुसैन इस बेकसी से मारे जायँ, और तुम देखते रहो!” उमर का दिल भर आया, आँखें सजल हो गयी, और कई बदें डाढ़ी पर गिर पड़ी।
हुसैन की शहादत के बाद शत्रुओं ने उनकी लाश की जो दुर्गति
की, वह इतिहास की अत्यन्त लज्जाजनक घटना है। उससे यह भली भाँति प्रकट हो जाता है कि मानव-हृदय कितना नीचे गिर सकता है। गुरु गोविन्दसिंह के बच्चे की कथा भी यहाँ मात हो जाती है, क्योंकि ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी धर्म-संचालक के नवासों को अपने नाना के अनुयायियों के हाथों यह बुरा दिन देखना पड़ा हो । हुसैन-हज़रत अली के बेटे और हज़रत मोहम्मद के नवासे । इन्हें फ़र्ज़न्दे-रसूल,शब्बीर,भी कहा गया है।
अब्बास-हज़रत हुसैन के चचेरे भाई ।
अली अकबर-हजरत हुसैन के बड़े बेटे ।
अली असगर-हजरत हुसैन के छोटे बेटे ।
मुस्लिम-हज़रत हुसैन के चचेरे भाई ।
जुबेर-मक्का का एक रईस ।
वलीद-मदीना का नाज़िम ।
मरवान-वलीन का सहायक अधिकारी ।
हानी-कूफ़ा का एक रईस ।
यजीद-खलीफा ।
नुहाक,शम्स,सरजन रूमी-यजीद के मुसाहिन ।
जियाद-बसरे और कू के का नाज़िम ।
साद-यज़ीद की सेना का सेनापति ।
अब्दुल्लाह,वहब,कसीर,मुख्तार,हुर,जहीर,हबीब आदि हजरत हुसैन
के सहायक । हज्जाज, हारिस, अशअस, कीसे, वलाल आदि यज़ीद के सहायक ।
साहसराय-अरब-निवासी एक हिन्दू ।
मुआबिया-यज़ीद का बेटा ।
जैनब-हुसैन की बहन ।
शहरबानू-हुसैन की स्त्री।
सकीना-हुसैन की बेटी।
क़मर-अब्दुल्लाह की स्त्री।
तौबा-फा की एक वृद्धा स्त्री।
हिन्दा-यजीद की बेगम ।
क़ासिद-सिपाही, जल्लाद आदि । [समय-नौ बजे रात्रि, यजीद, जुहाक, शम्स और कई दरबारी बैठे हुए हैं, और शराब की सुराही और प्याला रखा हुआ है।]
यजीद-नगर में मेरी ख़िलाफ़त का ढिंढोरा पीट दिया गया ?
ज़हाक-कोई गली, कूचा, नाका, सड़क, मस्जिद, बाज़ार, खानकाह ऐसा नहीं है, जहाँ हमारे ढिंढोरे की आवाज़ न पहुँची हो । यह आवाज़ वायुमंडल को चीरती हुई हिजाज़, यमन, इराक, मक्का-मदीना में गूंज रही है। और उसे सुनकर शत्रुओं के दिल दहल उठे हैं।
यजीद-नक्कारची को खिलअत दिया जाय ।
जुहाक-बहुत खूब अमीर !
यजीद-मेरी बैयत लेने के लिए सबको हुक्म दे दिया गया ?
जुहाक-अमीर के हुक्म देने की ज़रूरत न थी। कल सूर्योदय से पहले सारा शाम बैयत लेने को हाज़िर हो जायगा।
यजीद-(शराब का प्याला पीकर) नबी ने शराब को हराम कहा है। यह इस अमृत-रस के साथ कितना घोर अन्याय है ! उस समय के लिए यह निषेध सर्वथा उचित था, क्योंकि उन दिनों किसी को यह आनन्द भोगने का अवकाश न था । पर अब वह हालत नहीं है । तख्त पर बैठे हुए खलीफा के लिए ऐसी नियामत हराम समझने से तो यह कहीं अच्छा है कि वह खलीफा ही न रहे । क्यों जहाक, कोई कासिद मदीने भेजा गया ?
जहाक-अमीर के हुक्म का इन्तजार था। यजीद-जुहाक, कसम है अल्लाह की; मैं इस विलम्ब को कभी क्षमा नहीं कर सकता । फोरन् क़ासिद भेजो, और वलाद को सख्त ताकीद लिखो कि वह हुसैन से मेरे नाम पर बैयत ले । अगर वह इनकार करें, तो उन्हें कत्ल कर दे । इसमें ज़रा भी देर न होनी चाहिए।
जुहाक-या मौला ! मेरी तो अर्ज़ है कि हुसैन कबूल भी कर लें तो भी उनका ज़िन्दा रहना अबूसिफियान के खानदान के लिए उतना ही घातक है, जितना किसी सर्प को मारकर उसके बच्चे को पालना । हुसैन जरूर दावा करेंगे।
यजीद-जुहाक, क्या तुम समझते हो कि हुसैन कभी मेरी बैयत कबूल कर सकता है ? यह मुहाल है, असम्भव है । हुसैन कभी मेरी बैयत न लेमा, चाहे उसकी बोटियाँ काट-काटकर कौवों को खिला दी जायें । अगर तकदीर पलट सकती है, अगर दरिया का बहाव पलट सकता है, अगर समय की गति रुक सकती है, तो हुसैन भी मेरे नाम पर बैयत ले सकता है । ममर बैयत ले चुकने के बाद मुमकिन है, तकदीर पलट जाय, दरिया का बहाव पलट जाय, समय की गति रुक जाय, पर हुसैन दावा नहीं कर सकता। उससे बैयत लेने का मतलब ही यही है कि उसे इस जहान से रुखसत कर दिया जाय । हुसैन ही मेरा दुश्मन है। मुझे और किसी का खौफ नहीं, मैं सारी दुनिया की फौजों से नहीं डरता, मैं डरता हूँ इसी निहत्थे हुसैन से । (प्याला भरकर पी जाता है) इसी हुसैन ने मेरी नींद, मेरा श्रीराम हराम कर रखा है। अबूसिफ़ियान की सन्तान हाशिम के बेटों के सामने सिर न झुकायेगी । खिलाफ़त को मुल्लाओं के हाथों में फिर न जाने देंगे। इन्होंने छोटे-बड़े की तमीज़ उठा दी । हरएक दहकान समझता है कि मैं खिलाफत की मसनद पर बैठने लायक हूँ, और अमीरों के दस्तरखान पर खाने का मुझे इक्क है। मेरे मरहूम बाप ने इस भ्रान्ति को बहुत कुछ मिटाया, और आज ख़लीफ़ा शान व शौकत में दुनिया के किसी ताजदार से शर्मिन्दा नहीं हो सकता । जूते सीनेवाले और रूखी रोटियाँ खाकर खुदा का शुक्रिया अदा करनेवाले स्खलीफ़ों के दिन गये ।
जहाक-खुदा न करे, वह दिन फिर आये । अब्दुशम्स-इन हाशिमियों से हमें उस्मान के खून का बदला लेना है।
यजीद-खजाना खोल दो, और रियाया का दिल अपनी मुट्ठी में कर लो। रुपया खुदा के खौफ को दिल से दूर कर देता है। सारे शहर की दावत करो। कोई मुज़ायका नहीं, अगर खज़ाना खाली हो जाय । हर एक सिपाही को निहाल कर दी । और, अगर इतनी रियायतें करने पर भी कोई तुमसे खिंचा रहे, तो उसे क़त्ल कर दो। मुझे इस वक़्त रुपए की ताकत से धर्म और भक्ति को जीतना है।
यजीद-हिन्दा, तुमने इस वक्त कैसे तकलीफ़ की ?
हिन्दा-या अमीर ! मैं आपकी ख़िदमत में सिर्फ इसलिए हाज़िर हुई हूँ कि आपको इस इरादे से बाज़ रखू । आपको अमीर मुत्रा- बिया की कसम, अपने दीन को, अपनी नजात को, अपने ईमान को यों न ख़राब कीजिए। जिस नबी से आपने इस्लाम की रोशनी पायी, जिसकी ज़ात से आपको यह स्तबा मिला, जिसने आपकी आत्मा को अपने उपदेशों से जगाया, जिसने आपको अज्ञान के गढ़े से निकालकर आफताब के पहलू में बिठा दिया, उसी खुदा के भेजे हुए बुजुर्ग के नवासे का खून बहाने के लिए आप आमादा हैं!
यजीद-हिन्दा, खामोश रहो।
हिन्दा-कैसे खामोश रहूँ। आपको अपनी आँखों से जहन्नुम के ग़ार में गिरते देखकर खामोश नहीं रह सकती। आपको मालूम नहीं कि रसूल की, आत्मा स्वर्ग में बैठी हुई आपके इस अन्याय को देख- कर आपको लानत दे रही होगी । और, हिसाब के दिन आप अपना मुँह उन्हें न दिखा सकेंगे । क्या आप नहीं जानते, आप अपनी नजात का दरवाजा बन्द कर रहे हैं।
यजीद-हिन्दा, ये मज़हब की बातें मज़हब के लिए हैं, दुनिया के लिए नहीं । मेरे दादा ने इस्लाम इसलिए कबूल किया था कि इससे उन्हें दौलत और इज्ज़त हाथ आती थी। नजात के लिए वह इस्लाम पर ईमान नहीं साये थे, और न मैं ही इस्लाम को नजात का जामिन समझने को तैयार हूँ। हिन्दा-अमीर, खुदा के लिए यह कुवाक्य मुँह से न निकालो । आपको मालम है, इस्लाम ने अरब से अधर्म के अंधेरे को कितनी आसानी से दूर कर दिया। अकेले एक आदमी ने काफिरों का निशान मिटा दिया। क्या खुदा की मर्जी बिना यह बात हो सकती थी ? कभी नहीं । तुम्हें मालूम है कि । रसूल हुसैन को कितना प्यार करते थे ? हुसैन को वह कन्धों पर बिठाते और अपनी नूरानी डाढ़ी को उनके हाथों से नुचवाते थे । जिस माथे को तुम अपने पैरों पर झुकाना चाहते हो, उसके रसूल बोसे लेते थे। हुसैन से दुश्मनी करके तुम अपने हक़ में काँटे बो रहे हो । खिलाफ़त उसकी है, जिसे पंच दे, यह किसी की मीरास नहीं है । तुम खुद मदीने जाओ, और देखो, कौम किस पर खिलाफत का बार रखती है। उसके हाथों पर बैयत लो। अगर कौम तुमको इस रुतबे पर बैठा दे, तो मदीने में रहकर शौक से इस्लाम की खिदमत करो। मगर खुदा के वास्ते यह हंगामा न उठाओ (जाती है)।
यजीद-सरजून रूमी को बुला लो।
यजीद-आपने वालिद मरहूम की खिदमत जितनी वफादारी के साथ की, उसके लिए मैं आपका शुक्रगुजार हूँ। मगर इस वक्त मुझे आपकी पहले से कहीं ज्यादा ज़रूरत है । बसरे की सूबेदारी के लिए आप किसे तजवीज़ करते हैं।
रूमी-खुदा अमीर को सलामत रखे । मेरे खयाल में अब्दुल्लाह बिनज़ियाद से ज्यादा लायक आदमी आपको मुश्किल से मिलेगा। ज़ियाद ने अमीर मुआबिया की जो ख़िदमत की, वह मिटाई नहीं जा सकती। अन्दुल्लाह उसी बाप का बेटा और खानदान का उतना ही सच्चा गुलाम है। उसके पास फौरन् कासिद भेज दीजिए।
यजीद-मुझे ज़ियाद के बेटे से शिकायत है कि उसने बसरेवालों के इरादों की मुझे इत्तिला नहीं दी। और, मुझे यकीन है कि बसरे- वाले मुझसे बग़ावत कर जायेंगे।
रूमी-या अमीर, आपका ज़ियाद पर शक करना बेजा है। आपके
-मददगार आपके पास खुद बखुद न आयेंगे। वह तलाश करने से, मिन्नत करने से, रियायत करने से आयेंगे । आप-ही-आप वे लोग आयेंगे, जो आपकी जात से खुद फायदा उठाना चाहते हैं। इस मनसब के लिए ज़ियाद से बेहतर आदमी आपको न मिलेगा।
यजीद-सोचूँगा । (शराब का प्याला) जुहाक ! कोई गीत तो सुनाओ, जिसकी मिठास उस फ़िक्र को मिटा दे, जो इस वक्त मेरे दिल और जिगर पर पत्थर की चट्टान की तरह रखा हुआ है।
जुहाक-जैसा हुक्म, ( डफ़ बजाकर गाता है)
वलीद-(स्वगत) मरवान कितना खुदग़रज़ आदमी है । मेरा मातहत होकर भी मुझ पर रोब जमाना चाहता है। उसकी मरज़ी पर चलता, तो आज सारा मदीना मेरा दुश्मन होता। उसने रसूल के खानदान से हमेशा दुश्मनी की है।
क़ासिद-या अमीर, यह खलीफ़ा यज़ीद का खत है।
वलीद-(घबराकर) ख़लीफ़ा यज़ीद ! अमीर मुआविया को क्या । हुआ?
क़ासिद-आपको पूरी कैफियत इस खत से मालूम होगी।
वलीद-(खत पढ़कर) अमीर मुबाबिया की रूह को खुदा जन्नत में दाखिल करे । मगर समझ में नहीं आता कि यजीद क्योंकर खलीफा हुए। कौम के नेताओं की कोई मजलिस नहीं हुई, और किसी ने उनके हाथ पर बैयत नहीं ली । मदीने भर में यह खबर फैलेगी, तो ग़ज़ब हो जायगा । हुसैन यज़ीद को कभी न खलीफ़ा मानेंगे।
क़ासिद-(दूसरा खत देकर) हुजूर, इसे भी देख लें।
"वलीद, हाकिम मदीना को ताकीद की जाती है कि इस खत को देखते ही हुसैन से मेरे नाम पर बैयत लें । अगर हुसैन बैयत न लें, तो उन्हें क़त्ल कर दें, और उनका सिर मेरे पास भेज दें।"
क़ासिद-मुझे क्या हुक्म होता है ?
वलीद-तुम जाकर बाहर ठहरो । (दिल में) खुदा वह दिन न लाये
कि मुझे रसूल के नवासे के साथ यह घृणित व्यवहार करना पड़े। वलीद इतना बेदीन नहीं है । खुदा रसूल को इतना नहीं भूला है। मेरे हाथ गिर पड़ें इसके पहले कि मेरी तलवार हुसैन की गरदन पर पड़े। काश, मुझे मालूम होता कि अमीर मुबाबिया की मौत इतनी नज़दीक है, और उसकी आंखें बन्द होते ही मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा, तो पहले ही इस्तीफा देकर चला जाता । मरवान को सूरत देखने को जी नहीं चाहता, मगर इस वक्त उसकी मर्जी के खिलाफ काम करना अपनी मौत को बुलाना है। वह रत्ती-रत्ती खबर यजीद के पास भेजेगा। उसके सामने मेरी कुछ भी न सुनी जायगी। ऐसा अफ़सर, जो मातहतों से डरे,-मातहत से भी बदतर है । जिस वज़ीर का गुलाम बादशाह का विश्वासपात्र हो, उसके लिए जंगल में ऊँट चराना इससे हजार दर्जे बेहतर है कि वह वजीर की मसनद पर बैठे।
गुलाम-अमीर क्या हुक्म फर्माते हैं ?
वलीद-जाकर मरवान को बुला ला।
गुलाम-जो हुक्म ।
वलीद-(दिल में) हुसैन कितना नेक आदमी है। उसकी जबान से कभी किसी की बुराई नहीं सुनी। उसने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुँचाया। उससे मैं क्योंकर बैयत लूँगा।
मर०-इतनी रात गये मुझे अाप न बुलाया करें। मेरी जान इतनी सस्ती नहीं है कि बागियों को इस पर छिपकर हमला करने का मौका दिया जाय।
वलीद-तुम्हारा बर्ताव ही क्यों ऐसा हो कि तुम्हारे ऊपर किसी कातिल को तलवार उठे। अभी अभी कासिद मुबाबिया की खबर लाया है, और यजीद का यह खत भी आया है । मुझे तुमसे इसकी बाबत सलाह लेनी है ।
लोग बहुत दिनों तक रोयेंगे । यजीद ने खिलाफ़त अपने हाथ में ले ली, यह बहुत ही मुनासिब हुआ। मेरे खयाल में हुसैन को इसी वक्त बुलाना चाहिए ।
वलीद-तुम्हारे खयाल में वह बैयत ले लेंगे ?
मर०-गैरमुमकिन । उनसे बैयत लेना उन्हें कत्ल करने को कहना है। मगर अभी मुनाबिया के मरने की खबर मशहूर न होनी चाहिए।
वलीद-इस मामले पर गौर करो।
मर०-गौर की ज़रूरत नहीं, मैं आपकी जगह होता, तो बैयत का जिक्र ही न करता । फ़ौरन क़त्ल कर डालता । हुसैन के जिन्दा रहते हुए यज़ीद को कभी इतमीनान नहीं हो सकता । याद रखिए कि मुआबिया के मरने की खबर फैल गयी, तो न हमारी जान सलामत रहेगी न आपकी । हुसैन से आपका कितना ही दोस्ताना हो, लेकिन वही हुसैन आपका जानी दुश्मन हो जायगा।
वलीद-तुम्हें उम्मीद है कि वह इस वक्त यहाँ आयेंगे ? उन्हें शुबहा हो जायगा।
मर०-आपके ऊपर हुसैन का इतना भरोसा है, तो इस वक्त भी चले आयंगे । मगर आपकी तलवार तेज़ और खून गर्म रहना चाहिए। यही कारगुज़ारी का मौका है । अगर हम लोगों ने इस मौके पर यज़ीद की मदद की, तो कोई शक नहीं कि हमारे इकबाल का सितारा रोशन हो जायगा।
वलीद-मरवान, मैं यज़ीद का गुलाम नहीं, खलीफ़ा का नौकर हूँ, और खलीफ़ा वही है, जिसे कौम चुनकर मसनद पर बिठा दे । मैं अपने दीन और ईमान का खून करने से यह कहीं बेहतर समझता हूँ कि कुरान पाक की नकल करके ज़िन्दगी बसर करूँ ।
मर०-या अमीर, मैं आपको यज़ीद के गुस्से से होशियार किये देता हूँ। मेरी और आपकी भलाई इसी में है कि यज़ीद का हुक्म बजा लायें । हमारा काम उनकी बन्दगी करना है, आप दुबिधा में न पड़ें। इसी वक्त हुसैन को बुला भेजें।
गुलाम -या अमीर,क्या हुक्म
मर०-जाकर हुसैन बिन अली को बुला ला। दौड़ते जाना,और कहना कि अमीर आपके इन्तजार में बैठे हैं।
हुसैन-मैं जब खयाल करता हूँ कि नाना मरहूम ने तनहा बड़े-बड़े सरकश बादशाहों को पस्त कर दिया,और इतनी शानदार खिलाफ़त कायम कर दी, तो मुझे यकीन हो जाता है कि उन पर खुदा का साया था। खुदा की मदद के बगैर कोई इन्सान यह काम न कर सकता था। सिकन्दर की बादशाहत उसके मरते ही मिट गयी, कैसर की बादशाहत उसकी ज़िन्दगी के बाद बहुत थोड़े दिनों तक कायम रही, उन पर खुदा का साया न था, वह अपनी हवस की धुन में कौमों को फतह करते हैं। नाना ने इस्लाम के लिए झंडा बलंद किया, इसी से वह कामयाब हुए।
अब्बास-इसमें किसको शक सकता है कि वह खुदा के भेजे हुए थे। खुदा की पनाह,जिस वक्त हज़रत ने इस्लाम की आवाज़ उठाई थी,इस मुल्क में अज्ञान का कितना गहरा अन्धकार छाया हुआ था। खुदा की ही आवाज थी,जो उनके दिल में बैठी हुई बोल रही थी,जो कानों में पड़ते ही दिलों में उतर जाती थी। दूसरे मज़हबवाले कहते हैं,इस्लाम ने,तलवार की ताकत से अपना प्रचार किया। काश,उन्होंने हज़रत की अवाज़ा सुनी होती! मेरा तो दावा है कि कुरान में एक आयत भी ऐसी नहीं है,जिसकी मंशा तलवार से इस्लाम को फैलाना हो।
हुसैन-मगर कितने अफसोस की बात है कि अभी से क़ौम ने उनकी नसीहतों को भूलना शुरू किया,और वह नापाक,जो उनकी मसनद पर बैठा हुआ है,आज खुले बन्दों शराब पीता है।
गुलाम-नबी के बेटे पर खुदा की रहमत हो। अमीर ने आपको किसी बहुत ज़रूरी काम के लिए तलब किया है।
अब्बास-यह वक्त वलीद के दरबार का नहीं है।
गुलाम-हुजूर, कोई खास काम है।
हुसैन–अच्छा, तू जा। हम घर जाने लगेंगे, तो उधर से होते हुए जायगे।
अब्बास-भाईजान! मुझे तो इस बेवक्त की तलबी से घबराहट हो गयी है। यह वक्त वलीद के इजलास का नहीं है। मुझे दाल में कुछ काला नज़र आता है। आप कुछ कयास कर सकते हैं कि किस लिए बुलाया होगा।
हुसैन-मेरा दिल तो गवाही देता है कि मुआबिया ने वफात पायी ।
अब्बास-तो वलीद ने आपको इसलिए बुलाया होगा कि आपसे यज़ीद की वैयत ले।
हुसैन-मैं यज़ीद की बैयत क्यों करने लगा। मुआबिया ने भैया इमाम हसन के साथ कसम खाकर शर्त की थी कि वह अपने मरने के बाद अपनी औलाद में से किसी को खलीफा न बनायेगा। हसन के बाद खिलाफत पर मेरा हक है। अगर मुबाबिया मर गया है,और यज़ीद को खलीफा बनाया गया है,तो उसने मेरे साथ और इस्लाम के साथ दग़ा की है। यज़ीद शराबी है,बदकार है,झूठा है, बेदीन है,कुत्तों को गोद में लेकर बैठता है। मेरी जान भी जाय,तो क्या,पर मैं उसकी बैयत न अख्तियार करूँगा। अब्बास [-मामला नाजुक है। यज़ीद की जात से कोई बात बईद नहीं। काश,हमें मुबाबिया की बीमारी और मौत की खबर पहले ही मिल गयी होती!
गुलाम-हुजूर तशरीफ़ नहीं लाये,अमीर आपके इन्तजार में बैठे
हुसैन-तुफ़ है तुझ पर! तू वहाँ पर गया भी कि रास्ते से ही लौट
आया? चल,मैं अभी आता हूँ। तू फिर आना। गुलाम-हुजूर,अमीर से जाकर जब मैंने कहा कि वह अभी आते हैं,तो वह चुप हो गये,लेकिन मरवान ने कहा कि वह कभी न आयेंगे,आपसे दावा कर रहे हैं। इस पर अमीर उनसे बहुत नाराज हुए,और कहा -हुसैन कौल के पक्के हैं,जो कहते हैं,उसे पूरा करते हैं।
हुसैन-वलीद शरीफ़ आदमी है । तुम जानो, हम अभी आते हैं।
अब्बास-आप जायेंगे ?
हुसैन-जब तक कोई सबब न हो,किसी की नीयत पर शुबहा करना मुनासिब नहीं।
अब्बास-भैया,मेरी जान आप पर फ़िदा हो। मुझे डर है कि कहीं वह आपको कैद न कर ले।
हुसैन–वलीद पर मुझे एतवार है। अबूसिफ़ियान की औलाद होने पर भी वह शरीफ और दीनदार है।
अब्बास-आप एतबार करें,लेकिन मैं आपको वहाँ जाने की हरगिज़ सलाह न दूँगा। इस सन्नाटे में अगर उसने कोई दगा की,तो कोई फ़र्याद भी न सुनेगा। आपको मालूम है कि मरवान कितना दगाबाज़ और हरामकार है। मैं उसके साये से भी भागता हूँ। जब तक आप मुझे इतमीनान न दिला दीजिएगा कि दुश्मन वहाँ आपका बाल बाँका न कर सकेगा,मैं आपका दामन न छोडूंगा।
हुसैन-अब्बास,तुम मेरी तरफ़ से बेफ़िक्र रहो। मुझे हक़ पर इतना यकीन है,और मुझमें हक़ की इतनी ताकत है कि वलीद तो क्या,यज़ीद की सारी फ़ौज भी मुझे कुछ नुकसान नहीं पहुँचा सकती। यकीन है कि मेरी एक आवाज पर हज़ारों खुदा के बन्दे और रसूल के नाम पर मिटनेवाले दौड़ पड़ेंगे। और अगर कोई मेरी आवाज़ न सुने, तो भी मेरे बाजुत्रों में इतना बल है कि मैं अकेले उनमें से एक सौ को जमीन पर सुला सकता हूँ। हैदर
का बेटा ऐसे गीदड़ों से नहीं डर सकता । आओ,जरा नाना के कब्र की जियारत कर लें। [ दोनों हज़रत मुहम्मद की कब्र के सामने खड़े हो जाते हैं,हाथ बांधकर दुआ पढ़ते हैं,और मस्जिद से निकलकर घर की तरफ़ चलते हैं।]
[वलीद का दरबार। वलीद और मरवान बैठे हुए हैं। रात का समय ]
मर०-अब तक नहीं आये! मैंने आपसे कहा कि वह हरगिज़ न आयेंगे।
वलीद-आयेंगे, और ज़रूर आयेंगे। मुझे उनके कौल पर पूरा भरोसा है।
मर०-कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि उन्हें अमीर की वफ़ात की खबर लग गयी हो, और वह अपने साथियों को जमा करके हमसे जंग करने या रहे हों।
[हुसैन का प्रवेश। वलीद सम्मान के भाव से खड़ा हो जाता है, और दरवाजे पर आकर हाथ मिलाता है। मरवान अपनी जगह पर बैठा रहता है।]
हुसैन-खुदा की तुम पर रहमत हो। (मरवान को बैठे देखकर) मेल फूट से और प्रेम द्वेष से बहुत अच्छा है। मुझे क्यों याद किया ?
वलीद-इस तकलीफ़ के लिए माफ कीजिए,आपको यह सुनकर अफसोस होगा कि अमीर मुआबिया ने वफ़ात पायी।
मर०-और खलीफ़ा यजीद ने हुक्म दिया है कि आपसे उनके नाम की बैयत ली जाय।
हुसैन-मेरे नज़दीक यह मुनासिब नहीं है कि मुझ जैसा आदमी छुपे-छुपे बैयत ले। यह न मेरे लिए मुनासिब है और न यजीद के लिए काफ़ी। बेहतर है,आप एक आम जलसा करें,और शहर के सब रईसों और आलियों को बुलाकर यज़ीद की बैयत का सवाल पेश करें। मैं भी उन लोगों के साथ रहूँगा,और उस वक्त सबसे पहले जवाब देनेवाला मैं हूँगा। वलीद-मुझे आपकी यह सलाह माकूल मालूम होती है। बेशक, आपके बैयत लेने से वह नतीजा न निकलेगा,जो यजीद की मंशा है। कोई कहेगा कि आपने बैयत ली,और कोई कहेगा कि नहीं। और इसकी तसदीक करने में बहुत वक़्त लगेगा। तो जलसा करूँ ?
मर०–अमीर,मैं आपको खबरदार किये देता हूँ कि इनकी बातों में न आइए। बगैर बैयत लिये इन्हें यहाँ से न जाने दीजिए,वरना आप इनसे उस वक्त तक बैयत न ले सकेंगे, जब तक खून की नदी न बहेगी। यह चिनगारी की तरह उड़कर सारी खिलाफत में आग लगा देंगे।
वलीद-मरवान,मैं तुमसे मिन्नत करता हूँ,चुप रहो।
मर०-हुसैन,मैं खुदा को गवाह करके कहता हूँ कि मैं आपका दुश्मन नहीं हूँ। मेरी दोस्ताना सलाह यह है कि आप यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए,ताकि आपको कोई नुकसान न पहुँचे। आपस का फ़साद मिट जाय,और हजारों खुदा के बन्दों की जान बच जायँ। खलीना आपके बैयत की खबर सुनकर बेहद खुश होंगे,और आपके साथ ऐसे सलूक करेंगे कि खिलाफ़त में कोई आदमी आपकी बराबरी न कर सकेगा। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपकी जागीरें और वज़ीफ़ दोचंद करा दूंगा,और आप मदीनेमे इज्जत के साथ रसूल के क़दमो से लगे हुए दीन और दुनिया में सुर्खरू होकर जिन्दगी बसर करेंगे।
हुसैन-बस करो मरवान,मैं तुम्हारी दोस्ताना सलाह सुनने के लिए नहीं आया हूँ। तुमने कभी अपनी दोस्ती का सबूत नहीं दिया, और इस मौके पर मैं तुम्हारी सलाह को दोस्ताना न समझकर दगा समढूं,तो मेरा दिल और मेरा खुदा मुझसे नाखुश न होगा। आज इस्लाम इतना कमज़ोर हो गया है कि रसूल का बेटा यज़ीद की बैयत लेने के लिए मजबूर हो!
मर०-उनकी बैयत से आपको क्या एतराज है ?
हुसैन-इसलिए कि वह शराबी,झूठा,दगाबाज़,हरामकार और
जालिम है। वह दीन के आलिमों की तौहीन करता है। जहाँ जाता है, एक गधे पर एक बन्दर को आलिमों के कपड़े पहनाकर साथ ले जाता है। मैं ऐसे आदमी की बैयत अख्तियार नहीं कर सकता।
मर०-या अमीर,आप इनसे बैयत लेंगे या नहीं ?
हुसैन–मेरी बैयत किसी के अख्तियार में नहीं है।
मर०-कसम खुदा की,आप बैयत कबूल किये बिना नहीं जा सकते । मैं तुम्हें यहीं कत्ल कर डालूँगा (तलवार खींचकर बढ़ता है)।
हुसैन-(डपटकर) तू मुझे कत्ल करेगा,तुझमें इतनी हिम्मत नहीं है! दूर रह। एक कदम भी आगे रखा,तो तेरा नापाक सर ज़मीन पर होगा।
[अब्बास तीस सशस्त्र आदमियों के साथ तलवार खींचे हुए घुस आते हैं ।]
अब्बास-(मरवान की तरफ झपटकर) मलऊन,यह ले;तेरे लिए दोज़ख का दरवाजा खुला हुआ है।
हुसैन–(मरवान के सामने खड़े होकर) अब्बास,तलवार म्यान में करो। मेरी लड़ाई मरवान से नहीं,यज़ीद से है। मैं खुश हूँ कि यह अपने आका का ऐसा वफ़ादार खादिम है।
अब्बास-इस मरदूद की इतनी हिम्मत कि आपके मुबारक जिस्म पर हाथ उठाये! कसम खुदा की,इसका खून पी जाऊँगा।
हुसैन-मेरे देखते ही नहीं, मुसलमान पर मुसलमान का खून हराम है।
वलीद-(हुसैन से) मैं सख्त नादिम हूँ कि मेरे सामने श्रापकी तौहीन हुई। खुदा इसका अज़ाब मुझे दे।
हुसैन-वलीद, मेरी तकदीर में अभी बड़ी-बड़ी सख्तियाँ झेलनी बदी हैं। यह उस मार्के की तमहीद है,जो पेश आनेवाला है। हम और तुम शायद फिर न मिलें,इसलिए रुखसत। मैं तुम्हारी मुरौवत और भलमनसी को कभी न भूलूँगा। मेरी तुमसे सिर्फ इतनी अर्ज़ है कि मेरे यहाँ से जाने में ज़रा भी रोक-टोक न करना।
[ दोनों गले मिल कर विदा होते हैं। अब्बास और तीस
आदमी नाहर चले जाते हैं। मर०-वलीद,तुम्हारी बदौलत मुझे यह ज़िल्लत हुई।
वलीद-तुम नाशुक्र हो। मेरी बदौलत तुम्हारी जान बच गयी;वरना तुम्हारी लाश फर्श पर तड़पती हुई नज़र आती।
मर०-तुमने यज़ीद की खिलाफत यज़ीद से छीनकर हुसैन को दे दी। तुमने अबूसिफ़ियान की औलाद होकर उसके खानदान से दुश्मनी की। तुम खुदा की दरगाह में उस कत्ल और खून के ज़िम्मेदार होगे,जो आज की गफलत या नरमी का नतीजा होगा।
[समय-आधी रात। हुसैन और अब्बास मस्जिद के सहन में बैठे हुए हैं।
अब्बास-बड़ी खैरियत हुई,वरना मलऊन ने दुश्मनों का काम ही तमाम कर दिया था।
हुसैन-तुम लोगों की जतन बड़े मौके पर काम आयी। मुझे गुमान न था कि यह सब मेरे साथ इतनी दग़ा करेंगे। मगर यह जो कुछ हुआ,आग चलकर इससे भी ज्यादा होगा। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि हमें अब चैन से बैठना नसीब न होगा। मेरा भी वही हाल होनेवाला है,जो भैया इमाम हसन का हुआ।
अब्बास-खुदा न करे,खुदा न करे!
हुसैन-अब मदीने में हम लोगों का रहना कांटे पर पाँव रखना है । भैया,शायद नबियों की औलाद शहीद होने ही के लिए पैदा होती है। शायद नबियों को भी होनहार की खबर नहीं होती;नहीं तो क्या नाना के मसनद पर वे लोग बैठते,जो इस्लाम के दुश्मन हैं,और जिन्होंने सिर्फ अपनी गरज पूरी करने के लिए इस्लाम का स्वांग भरा है। मैं रसूल ही से पूछता हूँ कि वह मुझे क्या हुक्म देते हैं? मदीने ही में रहूँ या कहीं और चला नाऊँ? (हज़रत मुहम्मद की का पर जाकर) ऐ खुदा,यह तेरे रसूल मुहम्मद की खाक है,और मैं उनकी बेटी का बेटा हूँ। तू मेरे दिल का हाल जानता है। मैंने तेरी और तेरे रसूल की मर्जी पर हमेशा चलने की कोशिश की है। मुझ पर रहम कर ााााााााााााााााााााााााााााााााााााााााााााााााााआर उस पाक नबी के नाते, जो इस कब्र में सोया हुआ है, मुझे हिदायत कर कि इस वक्त मैं क्या करूं ?
अब्बास-भैया,अब यहाँ से चलो। घर के लोग घबरा रहे होंगे।
हुसैन-नहीं अब्बास,अब मैं लौटकर घर न जाऊँगा। अभी मैंने ख्वाब देखा कि नाना पाये हैं,और मुझे छातो से लगाकर कहते हैं- "बहुत थोड़े दिनों में तू ऐसे आदमियों के हाथों शहीद होगा, जो अपने को मुसलमान कहते होंगे,और मुसलमान न होंगे। मैंने तेरी शहादत के लिए कर्बला का मैदान चुना है,उस वक्त तू प्यासा होगा,पर तेरे दुश्मन तुझे एक बूंद पानी भी न देंगे। तुम्हारे लिए यहाँ बहुत ऊँचा रुतबा रखा गया है,पर वह रुतबा शहादत के बगैर हासिल नहीं हो सकता।" यह कहकर नाना गायब हो गये।
अब्बास-(रोकर) भैया, हाय भैया, यह ख्वाब है या पेशीनगोई ?
मुह --हुसैन,तुमने क्या फैसला किया ?
हुसैन-खुदा की मर्जी है कि मैं कत्ल किया जाऊँ।
मुह०-खुदा की मर्जी खुदा ही जानता है। मेरी सलाह तो यह है कि तुम किसी दूसरे शहर में चले जाओ,और वहाँ से अपने क्रासिदों को उस जवार में भेजो। अगर लोग तुम्हारी बैयत मंजूर कर लें,तो खुदा का शुक्र करना,वरना यों भी तुम्हारी आबरू कायम रहेगी। मुझे खौफ़ यही है कि कहीं तुम ऐसो जगह न जा फँसो,जहाँ कुछ लोग तुम्हारे दोस्त हों,और कुछ तुम्हारे दुश्मन। कोई चोट बग़ली घूसों की तरह नहीं होती,कोई साँप इतना कातिल नहीं होता,जितना आस्तीन का,कोई कान इतना तेज़ नहीं होता,जितना दीवार का, और कोई दुश्मन इतना खौफ़नाक नहीं होता,जितनी दगा। इनसे हमेशा बचते रहना।
, हुसैन-आप मुझे कहाँ जाने की सलाह देते हैं ? मुह०-मेरे खयाल में मक्का से बेहतर कोई जगह नहीं है। अगर क़ौम ने तुम्हारी बैयत मंजूर की,तो पूछना ही क्या? वरना पहाड़ियों की घाटियाँ तुम्हारे लिए किलों का काम देंगी,और थोड़े-से मददगारों के साथ तुम आजादी से ज़िन्दगी बसर करोगे। खुदा चाहेगा,तो लोग बहुत जल्द यज़ीद से बेज़ार होकर तुम्हारी पनाह में आयेंगे।
हुसैन-अज़ीज़ों को यहाँ छोड़ दूँ ?
मुह०-हरगिज़ नहीं। सबको अपने साथ ले जाओ।
हुसैन यहाँ की हालात से मुझे जल्द-जल्द इत्तिला देते रहिएगा।
मुह०-इसका इतमीनान रखो।
अब्बास-भैया,अब तो घर चलिए,क्या सारी रात जागते रहिएगा ?
हुसैन-अब्बास, मैं पहले ही कह चुका कि लौटकर घर न जाऊँगा।
अब्बास-अगर आपकी इजाजत हो,तो मैं भी कुछ अर्ज करूँ। आप मुझे अपना सच्चा दोस्त समझते हैं या नहीं ?
हुसैन-खुदा पाक की कसम,तुमसे ज्यादा सच्चा दोस्त दुनिया में नहीं है।
अब्बास-क्यों न आप इस वक्त यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए ? खुदा कारसाज़ है,मुमकिन है,थोड़े दिनो में यजीद खुद ही मर जाय,तो आपको खिलाफत आप-ही-आप मिल जायगी। जिस तरह आपने मुआबिया के जमाने में सब किया,उसी तरह यज़ीद के जमाने को भी सब के साथ काट दीजिए। यह भी मुमकिन है कि थोड़े ही दिनों में यज़ीद के जुल्म से तंग आकर लोग बगावत कर बैठे,और आपके लिए मौका निकल आये। सब सारी मुश्किलों को आसान कर देता है।
हुसैन-अब्बास,यह क्या कहते हो ? अगर मैं खौफ़ से यजीद की बैयत कबूल कर लूँ,तो इस्लाम का मुझसे बड़ा दुश्मन और कोई न होगा। मैं रसूल को,वालिद को,भैया हसन को क्या मुँह दिखाऊँगा। अब्बाजान ने शहीद होना कबूल किया,पर मुत्राबिया की बैयत न मंजूर की। भैया ने भी मुबाबिया की बैयत को हराम समझा,तो मैं क्यों खानदान में दाग़ लगाऊँ। इज़्ज़त की मौत बेइज़्ज़ती की ज़िन्दगी से कहीं अच्छी है।
अब्बास-(विस्मित होकर) खुदा की कसम,यह हुसैन की आवाज़ नहीं,रसूल की आवाज़ है,और ये बातें हुसैन की नहीं,अली की हैं । भैया! आपको खुदा ने अक्ल दी है,मैं तो आपका खादिम हूँ, मेरी बातें आपको नागवार हुई हो,तो माफ़ करना।
हुसैन–(अब्बास को छाती से लगाकर) अब्बास, मेरा खुदा मुझसे नाराज़ हो जाय,अगर मैं तुमसे ज़रा भी मलाल रखूं। तुमने मुझे जो सलाह दी,वह मेरी भलाई के लिए दी। इसमें मुझे ज़रा भी शक नहीं,मगर तुम इस मुग़ालते मे हो कि यज़ीद के दिल की आग मेरे बैयत ही से ठंडी हो जायगी। हालाँकि यजीद ने मुझे कत्ल करने का यह हीला निकाला है। अगर वह जानता कि मैं बैयत ले लूँगा,तो वह कोई और ही तदबीर सोचता।
अब्बास -अगर उसकी यह नीयत है,तो कलाम पाक की कसम, मैं आपके पसीने की जगह अपना खून बहा दूंगा,और आपसे आगे बढ़कर इतनी तलवारें चलाऊँगा कि मेरे दोनो हाथ कटकर गिर जायें।
जैनब-अब्बास,बातें न करो। (हुसैन से) भैया,मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप यह इरादा तर्क कर दीजिए,और मदीने में रसूल की कब्र से लगे हुए ज़िन्दगी बसर कीजिए,और अपनी गरदन पर इस्लाम की तबाही का इलज़ाम न लीजिए।
हुसैन-जैनब,ऐसी बातों पर तुफ़ है। जब तक ज़मीन और पासमान कायम है,मैं यजीद की बैयत नहीं मंजूर कर सकता। क्या तुम समझती हो कि में ग़लती पर हूँ ?
जैनब- नहीं भैया,आप ग़लती पर नहीं हैं। अल्लाहताला अपने रसूल के बेटे को ग़लत रास्ते पर नहीं ले जा सकता,मगर आप जानते हैं कि जमाने का रंग बदला हुआ है। ऐसा न हो,लोग आपके खिलाफ उठ खड़े हों। हुसैन-बहन,इन्सान सारी दुनिया के ताने बरदाश्त कर सकता है, पर अपने ईमान का नहीं। अगर तुम्हारा यह खयाल है कि मेरे बैयत न लेने से इस्लाम में तफ़ा पड़ जायगा,तो यह समझ लो कि इत्तफाक कितनी ही अच्छी चीज़ हो,लेकिन रास्ती उससे कहीं अच्छी है। रास्ती को छोड़कर मेल को कायम रखना वैसा ही है,जैसे जान निकल जाने के बाद जिस्म कायम रखना। रास्ती कौम की जान है,उसे छोड़कर कोई कौम बहुत दिनों तक जिन्दा नहीं रह सकती। इस बारे में मैं अपनी राय कायम कर चुका, अब तुम लोग मुझे रुखसत करो। जिस तरह मेरी बैयत से इस्लाम का वकार मिट जायगा, उसी तरह मेरी शहादत से उसका वकार कायम रहेगा। मैं इस्लाम की हुरमत पर निसार हो जाऊँगा।
शहर०-(रोकर) क्या आप हमें अपने कदमों से जुदा करना चाहते हैं ?
अली अकबर-अब्बाजान,अगर शहीद ही होना है,तो हम भी वह दर्जा क्यों न हासिल करें ?
मुस्लिम-या अमीर,हम आपके कदमों पर निसार होना ही अपनी जिन्दगी का हासिल समझते हैं। आप न ले जायँगे,तो हम जबरन् आपके साथ चलेंगे।
अली असगर-अब्बा,मैं आपके पीछे खड़ा होकर नमाज़ पढ़ता था। आप यहाँ छोड़ देंगे,तो मैं नमाज़ कैसे पहुँगा ?
जैनब–भैया,क्या कोई उम्मीद नहीं है ? क्या मदीने में रसूल के बेटे पर हाथ रखनेवाला,रसूल की बेटियों की हुरमत पर जान देनेवाला,हक पर सिर कटानेवाला कोई नहीं है ? इसी शहर से वह नूर फैला,जिससे सारा जहान रोशन हो गया। क्या वह हक़ की रोशनी इतनी जल्द गायब हो गयी ? आप यहीं से हिजाज और यमन की तरफ कासिदों को क्यों नहीं रवाना फरमाते।
हुसैन-अफ़सोस है जैनब,खुदा को कुछ और ही मंजूर है। मदीने में हमारे लिए अब अमन नहीं है। यहाँ अगर हम अाजादी से खड़े हैं,तो यह वलीद की शराफ़त है। वरना यजीद की फ़ौजों ने हमको घेर लिया होता। आज मुझे सुबह होते-होते यहाँ से निकल जाना चाहिए। यज़ीद को मेरे अज़ीज़ो से दुश्मनी नहीं, उसे ख़ोफ़ सिर्फ़ मेरा है। तुम लोग मुझे यहाँ से रुखसत करो। मुझे यक़ीन है कि यज़ीद तुम लोगों को तंग न करेगा। उसके दिल में चाहे न हो, मगर मुसलमानों के दिल में गैरत बाक़ी है। वह रसूल की बहू-बेटियों की आबरू लुटते देखेंगे, तो उनका खून ज़रूर गर्म हो जायगा।
जैनब–--भैया, यह हर्गिज़ न होगा। हम भी आपके साथ चलेंगी। अगर इस्लाम का बेटा अपनी दिलेरी से इस्लाम का वक़ार क़ायम रखेगा, तो हम अपने सब्र से, ज़ब्त से और बरदाश्त से उसकी शान निभायेंगे। हम पर जिहाद हराम है, लेकिन हम मौका पड़ने पर मरना जानती हैं। रसूल पाक की क़सम, आप हमारी आँखों में आँसू न देखेंगे, हमारे लबों से फ़रियाद न सुनेंगे, और हमारे दिलों से आह न निकलेगी। आप हक़ पर जान देकर इस्लाम की आबरू रखना चाहते है, तो हम भी एक बेदीन और बदकार की हिमायत मे रहकर इस्लाम के नाम पर दाग़ लगाना नहीं चाहतीं।
[ सिपाहियों का एक दस्ता सड़क पर आता दिखाई पड़ता है। ]
हुसैन---अब्बास, यज़ीद के आदमी हैं। वलीद ने भी दग़ा दी। आह, हमारे हाथों में तलवार भी नहीं। ऐ ख़ुदा, मदद!
अब्बास---कलाम पाक की क़सम, ये मरदूद आपके क़रीब न आने पायेंगे।
जैनब--–भैया, तुम सामने से हट जाओ।
हुसैन---जैनब, घबराओ मत, आज मैं दिखा दूँगा कि अली का बेटा कितनी दिलेरी से जान देता है।
[ अब्बास बाहर निकलकर फ़ौज के सरदार से ]
ऐ सरदार, किसकी बदनसीबी है कि तू उसके नज़दीक जा रहा है।
सर॰---या हज़रत, हमें शहर में गश्त लगाने का हुक्म हुआ है कि कहीं बाग़ी तो जमा नहीं हो रहे हैं।
हुसैन--–अब देर करने का मौक़ा नहीं। चलूँ, अम्माजान से रुख़सत हो लूँ। ( फ़ातिमा की कब्र पर जाकर ) ऐ मादरे-जहान, तेरा बदनसीब बेटा, जिसे तूने गोद में प्यार से खिलाया था,जिसे तूने सीने से दूध पिलाया था-आज तुझसे रुखसत हो रहा है,और फिर शायद उसे तेरी ज़यारत नसीब न हो (रोते हैं)।
सब०-ऐ अमीर,आप हमें अपने कदमों से क्यों जुदा करते हैं। हम आपका दामन न छोड़ेंगे। आपके कदमों से लगे हुए गुरबत की खाक छानना इससे कहीं अच्छा है कि एक बदकार और ज़ालिम खलीफ़ा की सख्तियाँ झेलें। आप नबी के खानदान के आफ़ताब हैं । उसकी रोशनी से दूर होकर हम इस अँधेरे में खौफनाक जानवरों से क्योंकर अपनी जान बचा सकेंगे। कौन हमे हक और दीन की राह सुझायेगा ? कौन हमें अपनी नसीहतों का अमृत पिलायेगा ? हमें अपने कदमों से जुदा न कीजिए।
हुसैन-मेरे प्यारे दोस्तो,मैं यहाँ से खुद नहीं जा रहा हूँ। मुझे तकदीर लिये जा रही है। मुझे वह दर्दनाक नज़ारा देखने की ताब नहीं है कि मदीने की गलियां इस्लाम और रसूल के दोस्तों के खून से रंगी जायें। मैं प्यारे मदीने को उस तबाही और खून से बचाना चाहता हूँ। तुम्हें मेरी यही आखिरी सलाह है कि इस्लाम की हुरमत कायम रखना,जर लिए अपनी कौम और अपनी मिल्लत से बेवफ़ाई न करना,खुदा के नज़दीक इससे बड़ा गुनाह नहीं है।शा- यद हमें फिर मदीने के दर्शन न हों,शायद फिर हम इन सूरतों को न देख सकें;हाँ,शायद फिर हमें उन बुजुर्गों की सूरत देखनी नसीब न हो,जो हमारे नाना के शरीक और हमदर्द रहे,जिनमें से कितनों ही ने मुझे गोद में खिलाया है। भाइयो,मेरी ज़बान में इतनी ताकत नहीं है कि उस रंज और ग़म को ज़ाहिर कर सकूँ ,जो मेरे सीने में दरिया की लहरों की तरह उठ रहा है। मदीने की खाक से जुड़ा होते हुए जिगर के टुकड़े हुए जाते हैं। आपसे जुदा होते आँखों में अँधेरा छा जाता है,मगर मजबूर हूँ। खुदा की और रसूल की यही मंशा है कि इस्लाम का पौधा मेरे माल और
४ खून से सींचा जाय,रसूल की खेती रसूल की औलाद के खून से हरी हो,और मुझे उनके सामने सिर झुकाने के सिवा और कोई चारा नहीं।
नागरिक-या अमीर,हमें अपने कदमों से जुदा न कीजिए। हाय अमीर,हाय रसूल के बेटे,हम किसका मुँह देखकर जियेंगे ? हम क्योंकर सब करें,अगर आज न रोयें,तो फिर किस दिन के लिए आँसुत्रों को उठा रखें! से ज़्यादा मातम का और कौन दिन होगा ?
हुसैन-(मुहम्मद की कब्र पर जाकर) ऐ रसूल-खुदा,रुखसत। आपका नवासा मुसीबत में गिरफ्तार है। उसका बेड़ा पार कीजिए। सब लोग मुझे छोड़ के पहले ही सिधारे,मिलता नहीं आराम नवासे को तुम्हारे। खादिम को कोई अमन की अब जा नहीं मिलती; राहत कोई साइत मेरे मौला,नहीं मिलती। दुख कौन-सा और कौन-सी ईज़ा नहीं मिलती;हैं आप जहाँ,राह वह मुझको नहीं मिलती। दुनिया में मुझे कोई नहीं और ठिकाना;आज आखिरी रुखसत को गुलाम आया है नाना! बच जाऊँ जो पास अपने बुला लीजिए नाना,तुरबत में नवासे को छिपा लीजिए नाना!
सुन लीजिए शब्बीर की रुखसत है बिरादर;हज़रत को तो पहलू हुआ अम्मा का मयस्सर। कबे भी जुदा होंगी यहाँ अब तो हमारी; देखें हमें ले जाय कहाँ खाक हमारी। मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ एक चिउँटी की भी जान खतरे में पड़े। हमारे अजीज़ों से,अपनी मस्तूरात से,अपने दोस्तों से यही सवाल है कि मेरे लिए ज़रा भी ग़म न करो,मैं वहीं जाता हूँ,जहाँ खुदा की मर्जी लिये जाती है।
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