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कर्मभूमि/पहला भाग १२

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(कर्मभूमि भाग 12 से अनुप्रेषित)
कर्मभूमि
प्रेमचंद

हंस प्रकाशन, पृष्ठ ७९ से – ९० तक

 

१२

मुन्नी के बरी होने का समाचार आनन-फानन सारे शहर में फैल गया। इस फैसले की आशा बहुत कम आदमियों को थी। कोई कहता था--जज माहब की स्त्री ने पत्ति से लड़कर फैसला लिखाया। रूठकर मैके चली जा रही थी। स्त्री जब किसी बात पर अड़ जाय, तो पुरुष कैसे नहीं कर दे।
कुछ लोगों का कहना था--सरकार ने जज साहब को हुक्म देकर वह फैसला कराया है; क्योंकि भिखारिन को सजा देने से शहर में दंगा हो जाने का भय था। अमरकान्त उस समय भोज के सरंजाम करने में व्यस्त था; पर यह खबर पा जरा देर के लिये सब कुछ भूल गया और इस फैसले का सारा श्रेय खुद लेने लगा। भीतर जाकर रेणुका देवी से कहने लगा--आपने देखा अम्माजी, मैं कहता था न, उसे बरी कराके दम लूँगा, वहीं हुआ। वकीलों और गवाहों के साथ कितनी माथा-पच्ची करनी पड़ी है, कि मेरा दिल ही जानता है। बाहर आकर मित्रों से और सामने के दुकानदारों में भी उसने यही डींग मारी।

एक मित्र ने कहा--पर औरत बड़ी धुन की पक्की है। शौहर के साथ न गयी, न गयी! बेचारा पैरों पड़ता रह गया।

अमरकान्त ने दार्शनिक विवेचना के भाव से कहा--जो काम खुद न देखो, वही चौपट हो जाता है। मैं तो इधर फंस गया। उधर किसी से इतना भी न हो सका कि उस औरत को समझाता। मैं होता, तो मजाल थी कि वह यों चली जाती। मैं जानता कि यह हाल होगा, तो सौं काम छोड़कर जाता और उसे समझाता। मैंने तो समझा डाक्टर साहब और बीसों आदमी हैं, मेरे न रहने से ऐसा क्या घी का घड़ा लुढ़का जाता है ? लेकिन वहां किसी को क्या परवाह ! नाम तो हो गया। काम हो या जहन्नम में जाय !

लाला समरकान्त ने नाच-तमाशे और दावत में खूब दिल खोलकर खर्च किया। वही अमरकान्त जो इन मिथ्या व्यवहारों को आलोचना करते कभी न थकता था, अब मुंह तक न खोलता था, बल्कि उलटे और बढ़ावा देता था--जो सम्पन्न हैं, वह ऐसे शुभ अवसर पर न खर्च करेंगे, तो कब करेंगे, यही धन की शोभा है। हां, घर फूंककर तमाशा न देखना चाहिए।

अमरकान्त को अब घर से विशेष घनिष्टता होती जाती थी। अब बह विद्यालय तो जाने लगा था, पर जलसों और सभाओं से जी चुराता रहता था। अब उसे लेन-देन से उतनी घृणा न थी। शाम-सबेरे बराबर दुकान पर आ बैठता और बड़ी तन्देही से काम करता। स्वभाव में कुछ कृपणता भी आ चली थी। दुःखी जनों पर उसे अब भी दया आती थी; पर वह दुकान की बँधी हई कौड़ियों का अतिक्रमण न करने पाती। इस अल्पकाय शिशु ने

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ऊँट के नन्हें से नकेल की भांति उसके जीवन का संचालन अपने हाथ में ले लिया था। मानों दीपक के सामने एक भुनगे ने आकर उसकी ज्योति को संकुचित कर दिया था।

तीन महीने बीत गये थे। सन्ध्या का समय था। बच्चा पलने में सो रहा था। सुखदा हाथ में पंखिया लिये एक मोढ़े पर बैठी हुई थी। कृशांगी गर्भिणी विकसित मातृत्व के तेज और शक्ति से जैसे खिल उठी थी। उसके माधुर्य में किशोरी की चपलता न थी, गर्भिणी की आलस्यमय कातरता न थी, माता का शान्त-लुप्त मंगलमय विलास था।

अमरकान्त कालेज से सीधे घर आया और बालक को सचिन्त नेत्रों से देखकर बोला--अब तो ज्वर नहीं है?

सुखदा ने धीरे से शिश के माथे पर हाथ रखकर कहा--नहीं, इस समय तो नहीं जान पड़ता। अभी गोद में सो गया था, तो मैंने लिटा दिया।

अमर न कुर्ते के बटन खोलते हुए कहा--मेरा तो आज वहां बिलकुल जी न लगा। मैं तो ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूँ, कि मुझे संसार की और कोई वस्तु न चाहिए, यह बालक कुशल से रहे। देखो कैसे मुसकरा रहा है।

सुखदा ने मीठे तिरस्कार से कहा--तुम्हीं ने देख-देख नज़र लगा दी है।

'मेरा जी तो चाहता है, इसका चुम्बन ले लूँ।'

'नहीं-नहीं, सोते हुए बच्चों का चुम्बन न लेना चाहिए।'

सहसा किसी न ड्योढ़ी में आकर पुकारा। अमर ने जाकर देखा, तो बढ़िया पठानिन, लठिया के सहारे खड़ी है। बोला--आओ पठानिन तुमने तो सुना होगा। घर में बच्चा हुआ है।

पठानिन ने भीतर आकर कहा--अल्लाह करे जुग-जुग जिये और मेरी उम्र पाये। क्यों बेटा, सारे शहर का नेवता हुआ और हम पूछे तक न गये! क्या हमीं सबसे गैर थे? अल्लाह जानता है, जिस दिन यह खुशखबरी सुनी दिल से दुआ निकली कि अल्लाह इसे सलामत रखे ।

अमर ने लज्जित होकर कहा--हाँ, यह गलती मुझसे हुई पठानिन, मुआफ़ करो। आओ, बच्चे को देखो। आज इसे न जाने क्यों बुखार हो आया है।

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बुढ़िया दवे पांव आँगन से होती हुई सामने के बरामदं में पहुँची और बहू को दुआएँ देती हुई बच्चे को देखकर बोली--कुछ नहीं बेटा नजर का फ़साद है। मैं एक ताबीज़ दिये देती हूँ, अल्लाह चाहेगा, अभी हँसने खेलने लगेगा।

सुखदा ने मातृत्व-जनित नम्रता से बुढ़िया के पैरों को अंचल से स्पर्श किया और बोली--चार दिन भी अच्छी तरह नहीं रहता माता। घर में कोई बड़ी-बूढ़ी तो है नहीं। मैं क्या जानूं, कैसे क्या होता है। मेरी अम्मा है, पर वह रोज़ तो यहाँ नहीं आ सकतीं, न मैं हो रोज उनके पास जा सकती हूँ।

बुढ़िया ने फिर आशीर्वाद दिया और बोली--जब काम पड़े, मुझे बुला लिया करो बेटा, मैं और किस दिन के लिए हूँ। ज़रा तुम मेरे साथ चले चलो भैया, मैं ताबीज़ दे दूं।

बुढ़िया ने अपने सलूके की जेब से एक रेशमी कुरता और टोपी निकाली और शिशु के सिरहाने रखते हुए बोली--यह मेरे लाल की नजर है बेटा, इसे मंजूर करो। मैं और किस लायक हूँ। सकीना कई दिन से सीकर रखे हुए थी, चला नहीं जाता बेटा, आज बड़ी हिम्मत करके आई हूँ।

सुखदा के पास संबन्धियों से मिले हए कितने ही अच्छे-से-अच्छे कपड़े रखे हुए थे; पर इस सरल उपहार से उसे जो हार्दिक आनन्द प्राप्त हुआ, वह और किसी उपहार से न हुआ था, क्योंकि इसमें अमीरी का गर्व, दिखावे की इच्छा या प्रथा की शुष्कता न थी। इसमें एक शुभचिन्तक की आत्मा थी,प्रेम था और आशीर्वाद था।

बुढ़िया चलने लगी, तो सुखदा ने उसे एक पोटली में थोड़ी-सी मिठाई दी, पान खिलाये और बरोठे तक उसे विदा करने आई। अमरकान्त ने बाहर आकर एक इक्का किया और बुढ़िया के साथ बैठकर ताबीज लेने चला। गंडे ताबीज़ पर उसे विश्वास न था; पर वृद्धजनों के आशीर्वाद पर था, और उस ताबीज़ को वह केवल आशीर्वाद समझ रहा था।

रास्ते में बुढ़िया ने कहा--मैंने तुमसे कुछ कहा था, वह तुम भूल गये बेटा?

अमर सचमुच भूल गया था। शर्माता हुआ बोला--हाँ पठानिन, मुझे याद नहीं आया। मुआफ करो।

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'वह' सकीना के बारे में !'

अमर ने माथा ठोंककर कहा--हाँ माता, मुझे बिल्कुल खयाल न रहा।

'तो अब खयाल रखो बेटा। मेरे और कौन बैठा हुआ है, जिससे कहूँ। इधर सकीना ने और कई रूमाल बनाये हैं। कई टोपियों के पल्ले भी काढ़े है। पर जब चीज बिकती ही नहीं, तो दिल नहीं बढ़ता।

'मझे वह सब चीज दे दो। मैं बिकवा दूंगा।'

'तुम्हें तकलीफ़ न होगी बेटा!'

'कोई तकलीफ़ नहीं। भला इसमें क्या तकलीफ!'

अमरकान्त को बुढ़िया घर में न ले गयी। इधर उसकी दशा और भी हीन हो गयी थी। रोटियों के भी लाले थे। घर की एक-एक अंगुल ज़मीन पर उसकी दरिद्रता अंकित हो रही थी। उस घर में अमर को क्या ले जाती! बुढ़ापा निस्संकोच होने पर भी कुछ परदा रखना चाहता है। वह उसे एक्के ही पर छोड़कर अन्दर गई, और थोड़ी देर में ताबीज़ और रूमालों को बकची लेकर आ पहुँची।

'ताबीज़ उसके गले में बांध देना। फिर कल मुझसे हाल कहना।'

'कल मरी तातील है। दो-चार दोस्तों से बातें करूँगा। शाम तक बन पड़ा, तो आऊंगा, नहीं फिर किसी दिन आ जाऊँगा।'

घर आकर अमर ने ताबीज बच्चे के गले में बांधी और दुकान पर जा बैठा। लालाजी ने पूछा--कहाँ गये थे? दुकान के वक्त कहीं मत जाया करो।

अमर ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा--आज पठानिन आ गयी थी। बच्चे के लिए एक ताबीज़ देने को कहा था वही लेने चला गया था।

'मैंने अभी देखा। अब तो अच्छा मालूम होता है। दुष्ट ने मेरी मूछे पकड़ कर खींच ली। मैंने भी कसकर एक घूंसा जमाया बचा को। हाँ, खूब याद आई। तुम बैठो, मै जरा शास्त्रीजी के पास से जन्म-पत्र लेता आऊँ। आज उन्होंने दने का वादा किया था।'

लालाजी चले गये, तो अमर फिर घर में जा पहुँचा और बच्चे को गोद में लेकर बोला--क्यों जी, तुम हमारे बाप की मूछें उखाड़ते हो ! खबरदार, जो फिर उनकी मूछें छुई, नहीं दाँत तोड़ दूंगा।

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बालक ने उसकी नाक पकड़ ली और उसे निगल जाने की चेष्टा करने लगा, जैसे हनुमान सूर्य को निगल रहे हों।

सुखदा हँसकर बोली--पहले अपनी नाक बचाओ, फिर बाप की मूछें बचाना!

सलीम ने इतने जोर से पुकारा, कि सारा घर हिल उठा।

अमरकान्त ने बाहर आकर कहा--तुम बड़े शैतान हो यार, ऐसा चिल्लाये कि मैं घबरा गया। किधर से आ रहे हो? आओ, कमरे में चलो।

दोनों आदमी बगलवाले कमरे में गये। सलीम ने रात को एक गज़ल कही थी। वही सुनाने आया था। ग़ज़ल कह लेने के बाद जब तक अमर को सुना न ले, उसे चैन न आता था।

अमर ने कहा--मगर मैं तारीफ़ न करूँगा यह समझ लो!

'शर्त तो जब है, कि तुम तारीफ न करना चाहो, फिर भी करो---

यही दुनियाए उलफ़त में, हुआ करता है होने दो,

तुम्हें हँसना मुबारक हो, कोई रोता है रोने दो।'

अमर ने झूमकर कहा--लाजवाब शेर है भई! बनावट नहीं, दिल से कहता हूँ। कितनी मजबूरी है--वाह।

सलीम ने दूसरा शेर पढ़ा-- क़सम ले लो जो शिकवा हो तुम्हारी बेवफ़ाई का,

किये को अपने रोता हूँ, मुझे जी भर के रोने दो।

अमर--बड़ा दर्दनाक शेर है, रोंगटे खडे़ हो गये। जैसे कोई अपनी बीती गा रहा हो।

इस तरह सलीम ने पूरी गजल सुनाई और अमर ने झूम-झूमकर सुनी।

फिर बातें होने लगी। अमर ने पठानिन के रूमाल दिखाने शुरू किये।

'एक बुढ़िया रख गई है। गरीब औरत है। जी चाहे दो-चार ले लो।'

सलीम ने रूमालों को देखकर कहा--चौज तो अच्छी है यार, लाओ एक दर्जन लेता जाऊँ। किसने बनाये हैं ?

'उसी बुढ़िया की एक पोती है !'

'अच्छा, वही तो नहीं जो एक बार कचहरी में पगली के मुकदमे में गयी थी! माशूक तो यार तुमने अच्छा छांटा।'

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अमरकान्त ने अपनी सफ़ाई दी--कसम ले लो, जो मैंने उसकी तरफ़ देखा भी हो।

'मुझ कसम लेने की जरूरत ! तुम्हें वह मुबारक हो, मैं तुम्हारा रकीब नहीं बनना चाहता! रूमाल कितने दर्जन के हैं?'

'जो मुनासिब समझो दे दो।'

'इसकी कीमत बनानेवाले के ऊपर मुनहसर है। अगर उस हसीना ने बनाये हैं तो फ़ो रूमाल पांच रुपया। बुढ़िया या और किसी ने बनाये हैं, तो फी रूमाल चार आने।'

'तुम मज़ाक करते हो। तुम्हें लेना मंजूर नहीं।'

पहले यह बताओ, किसने बनाये हैं ?'

'बनाये तो हैं सकीना ही ने।'

'अच्छा, उसका नाम सकीना है। तो मैं फी रूमाल ५ ) दे दूंगा। शर्त यह कि तुम मुझे उसका घर दिखा दो।'

'हां शौक से; लेकिन तुमने कोई शरारत की, तो मैं तुम्हारा जानी दुश्मन हो जाऊँगा। अगर हमदर्द बनकर चलना चाहो, चलो। मैं चाहता हूँ, उसकी किसी भले आदमी से शादी हो जाय। है कोई तुम्हारे निगाह में ऐसा आदमी ? बस यही समझ लो, कि उसकी तक़दीर खुल जायगी। मैंने ऐसी हयादार और सलीकेमन्द लड़की नहीं देखी। मर्द के लुभाने के लिए औरत में जितनी बातें है, सब उसमें मौजूद हैं।

सलीम ने मुसकराकर कहा--मालूम होता है, तुम खुद उस पर रीझ चुके। हुस्न में तो वह तुम्हारी बीवी के तलवों के बराबर भी नहीं।

अमरकान्त ने आलोचक के भाव से कहा--औरत में रूप ही सबसे प्यारी चीज़ नहीं है। मैं तुमसे सच कहता हूँ, अगर मेरी शादी न हुई होती और मज़हब की रुकावट न होती, तो मैं उससे शादी करके अपने को भाग्यवान समझता।

'आखिर उसमें ऐसी बात क्या है, जिस पर तुम लट्टू हो ?'

'यह तो मैं खुद नहीं समझ रहा हूँ। शायद उसका भोलापन हो। तुम खुद क्यों नहीं कर लेते? मैं यह कह सकता हूँ कि उसके साथ तुम्हारी जिन्दगी जन्नत बन जायगी !'

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सलीम ने सन्दिग्ध भाव से कहा--मैंने अपने दिल में जिस औरत का नक़शा खींच रखा है, वह कुछ और ही है। शायद वैसी औरत मेरी खयाली दुनिया के बाहर कहीं होगी भी नहीं। मेरी निगाह में कोई आदमी आयेगा, तो बताऊँगा। इस वक्त तो मैं ये रूमाल लिये लेता हूँ। पांच रुपये से कम क्या दूँ। सकीना कपड़े भी सी लेती होगी। मुझे उम्मीद है कि मेरे घर से उसे काफी मिल जायगा। तुम्हें भी एक दोस्ताना सलाह देता हूँ। मैं तुमसे बदगुमानी नहीं करता; लेकिन वहां बहुत आमदरपत न रखना, नहीं बदनाम हो जाओगे। तुम चाहे कम वदनाम हो, उस गरीब की तो जिन्दगी ही खराब हो जायगी। ऐसे भले आदमियों की कमी भी नहीं है, जो इस मुआमले को मज़हबी रंग देकर तुम्हारे पीछे पड़ जायेंगे। उसकी मदद तो कोई न करेगा; लेकिन तुम्हारे पर उँगली उठानेवाले बहुतेरे निकल आयेंगे।

अमरकान्त में उद्दण्डता न थी; पर इस समय वह झल्लाकर बोला--मझे ऐसे कमीने आदमियों की परवाह नहीं है। अपना दिल साफ रहे, तो किसी बात का गम नहीं।

सलीम ने ज़रा बुरा न मानकर कहा--तुम जरूरत से ज्यादा सीधे हो यार, मुझे खौफ है, किसी आफत में न फंस जाओ।

दूसरे दिन अमरकान्त ने दूकान बढ़ा कर जेब में पांच रुपये रखे, पठानिन के घर पहुंचा और आवाज़ दी। वह सोच रहा था--सकीना रुपये पाकर कितनी खुश होगी।

अन्दर से आवाज़ आई--कौन है?

अमरकान्त ने अपना नाम बतलाया।

द्वार तुरन्त खुल गये और अमरकान्त ने अन्दर कदम रखा; पर देखा तो चारो तरफ अंधेरा। पूछा--आज दिया नहीं जलाया, अम्मां?

सकीना बोली--अम्मा तो एक जगह सिलाई का काम लेने गयी हैं।

'अँधेरा क्यों है? चिराग़ में तेल नहीं है?'

सकीना धीरे से बोली--तेल तो है।

'फिर दिया क्यों नहीं जलाती, दियासलाई नहीं है ?'

'दियासलाई भी है।'

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'तो फिर चिराग जलाओ। कल जो मैं रूमाल ले गया था, वह पांच रुपये पर बिक गये हैं, ये रुपये ले लो। चटपट चिराग जलाओ।'

सकीना ने कोई जवाब न दिया। उसकी सिसकियों की आवाज सुनाई दी। अमर ने चौंककर पूछा--क्या बात है सकीना? तुम रो क्यों रही हो?

सकीना ने सिसकते हुए कहा--कुछ नहीं, आप जाइये। मैं अम्मा को रुपये दे दूंगी।

अमर ने व्याकुलता से कहा--जब तक तुम बता न दोगी, मैं न जाऊँगा। तेल न हो मैं ला दूं, दियासलाई न हो मैं ला दूं, कल एक लैम्प लेता आऊँगा । कुप्पी के सामने बैठकर काम करने से आंखें खराब हो जाती हैं। घर के आदमी से क्या परदा । मैं अगर तुम्हें गैर समझता, तो इस तरह बार-बार क्यों आता।

सकीना सामने के सायबान में जाकर बोली--मेरे कपड़े गीले हैं। आपकी आवाज सुनकर मैंने चिराग़ बुझा दिया।

'तो गीले कपड़े क्यों पहन रखे हैं?'

'कपड़े मैले हो गये थे। साबुन लगा कर रख दिये थे। अब और कुछ न पूछिये । कोई दूसरा होता तो मैं किवाड़ न खोलती।'

अमरकान्त का कलेजा मसोस उठा। उफ! इतनी घोर दरिद्रता! पहनने के कपड़े तक नहीं! अब उसे ज्ञात हुआ कि कल पठानिन ने जो रेशमी कुरता और टोपी उपहार में दी थी, उसके लिए कितना त्याग किया था। दो रुपये से कम क्या खर्च हुए होंगे। दो रुपये में दो पाजामे बन सकते थे। इन गरीब प्राणियों में कितनी उदारता है। जिसे ये अपना धर्म समझते है उसके लिए कितना कष्ट झेलने को तैयार रहते हैं।

उसने सकीना से कांपते हुए स्वर में कहा--तुम चिराग जला लो। मैं अभी आता हूँ।

गोबरधनसराय से चौक तक वह हवा के वेग से गया ; पर बाजार बन्द हो चुका था। अब क्या करे। सकीना अभी तक गीले कपड़े पहने बैठी होगी। आज इन सबों ने जल्द क्यों दूकान बन्द कर दी? वह यहां से उसी वेग के साथ घर पहुँचा। सुखदा के पास पचासों साड़ियां हैं। कई मामूली भी हैं। क्या वह उनमें से दो-एक साड़ियाँ न दे देगी ? मगर वह पूछेगी

--क्या करोगे, तो क्या जवाब देगा। साफ़-साफ़ कहने से तो वह शायद सन्देह करने लगे। नहीं, इस वक्त सफ़ाई देने का अवसर न था। सकीना गीले कपड़े पहने उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। सुखदा नीचे थी। वह चुपके से ऊपर चला गया, गठरी खोली और उसमें से चार साड़ियां निकालकर दबे पांव चल दिया।

सुखदा ने पूछा--अब कहां जा रहे हो ? भोजन क्यों नहीं कर लेते।

अमर ने बरोठे से जवाब दिया--अभी आता हूँ।

कुछ दूर जाने पर उसने सोचा--कल कहीं सुखदा ने अपनी गठरी खोली और साड़ियाँ न मिली, तो बड़ी मुश्किल पड़ेगी। नौकरों के सिर जायगी। क्या वह उस वक्त यह कहने का साहस रखता था, कि वे साड़ियाँ मैने एक गरीब औरत को दे दी है। नहीं, वह यह नहीं कह सकता। तो क्या साड़ियाँ ले जाकर रख दे ? मगर वहाँ सकीने गीले कपड़े पहने बैठी होगी। फिर खयाल आया--सकीना इन साड़ियों को पाकर कितनी प्रसन्न होगी। इस खयाल ने उसे उन्मत्त कर दिया। जल्द-जल्द कदम बढ़ाता हुआ साकीना के घर जा पहुँचा।

सकीना ने उसकी आवाज़ सुनते ही द्वार खोल दिया। चिराग जल रहा था। सकीना ने इतनी देर में आग जलाकर कपड़े सुखा लिये थे और कुरता पाजामा पहन, ओढ़नी ओढ़े खड़ी थी। अमर ने साड़ियां खाट पर रख दीं और बोला--बाज़ार म तो न मिली, घर जाना पड़ा। हमदर्दो से परदा न रखना चाहिए।

सकीना ने साड़ियों को लेकर देखा और सकुचाती हुई बोली--बाबूजी, आप नाहक साड़ियाँ लाये। अम्मा देखेंगी, तो जल उठेगी। फिर शायद आपका यहाँ आना मुश्किल हो जाय। आपकी शराफत और हमदर्दी की जितनी तारीफ अम्मा करती थीं, उससे कहीं ज्यादा पाया। आप यहाँ ज्यादा आया भी न करें, नहीं खाम-खाह लोगों को शुबहा होगा। मेरी वजह से आपके ऊपर कोई शुबहा करे, यह मैं नहीं चाहती।

आवाज़ कितनी मीठी थी। भाव में कितनी नम्रता, कितना विश्वास; पर उसमें हर्ष न था, जिसकी अमर ने कल्पना की थी। अगर बुढ़िया इस सरल स्नेह को सन्देह की दृष्टि से देखें तो निश्चय ही उसका आना-जाना बन्द हो

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जायगा। उसने अपने मन को टटोलकर देखा, इस प्रकार के सन्देह का कोई कारण है ! उसका मन स्वच्छ था। वहाँ किसी प्रकार की कुत्सित भावना न थी। फिर भी सकीना से मिलना बन्द हो जाने की संभावना उसके लिए असह्य थी। उसका शासित, दलित पुरुषत्व यहाँ अपने प्रकृत रूप में प्रकट हो सकता था। सुखदा की प्रतिभा, प्रगल्भता और स्वतंत्रता, उसके सिर पर सवार रहती थी। वह जैसे उसके सामने अपने को दबाये रखने पर मजबूर था। आत्मा में जो एक प्रकार के विकास और व्यक्तीकरण की आकांक्षा होती है, वह अपूर्ण रहती थी, सुखदा उसे पराभूत कर देती थी, सकीना उसे गौरवान्वित करती थी। सुखदा उसका दफ्तर थी, सकीना घर। वहाँ वह दास था, यहाँ स्वामी।

उसने साड़ियाँ उठा ली और व्यथित कण्ठ से बोला--अगर यह बात है,तो मैं इन साड़ियों को लिये जाता हूँ सकीना; लेकिन मैं कह नहीं सकता, मझे इससे कितना रंज होगा। रहा मेरा आना-जाना, अगर तुम्हारी इच्छा है कि मैं न आऊँ, तो मैं भूलकर भी न आऊँगा; लेकिन पड़ोसियों की मुझे परवाह नहीं है।

सकीना ने करूण स्वर में कहा--बाबूजी, मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ, ऐसी बात मुंह से न निकालिए। जब से आप आने-जाने लगे हैं, मेरे लिए दुनिया कुछ और हो गयी हैं। मैं अपने दिल में एक ऐसी ताक़त, ऐसी उमंग पाती हूँ, जिसे एक तरह का नशा कह सकती हूँ, लेकिन बदगोई से तो डरना ही पड़ता है।

अमर न उन्मत्त होकर कहा-मैं बदगोई से नहीं डरता सकीना, रत्ती भर भी नहीं।

लेकिन एक ही पल में वह समझ गया--मैं कुछ बहका जाता हूँ। बोला--मगर तुम ठीक कहती हो। दुनिया और चाहे कुछ न करे, बदनाम तो कर ही सकती है।

दोनों एक मिनट तक शान्त बैठे रहे, तब अमर ने कहा--और रूमाल बना लेना। कपड़ों का प्रबन्ध भी हो रहा है। अच्छा अब चलूँगा। लाओ साड़ियाँ लेता जाऊँ।

सकीना अमर की मुद्रा देखी। मालूम होता था, रोना ही चाहता है।

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उसके जी में आया, साड़ियाँ उठाकर छाती से लगा ले। पर संयम ने हाथ न उठाने दिया। अमर ने साड़ियाँ उठा लीं और लड़खड़ाता हुआ द्वार से निकल गया, मानो अब गिरा, तब गिरा।