कर्मभूमि/पहला भाग १५
१५
इधर कुछ दिनों से अमरकान्त म्युनिसिपल बोर्ड का मेम्बर हो गया था। लाला समरकान्त का नगर में इतना प्रभाव था और जनता अमरकान्त को इतना चाहती थी कि उसे धेला भी खर्च न करना पड़ा और वह चुन लिया
गया। उसके मुकाबिले में एक नामी वकील साहब खड़े थे। उन्हें उसके चौथाई वोट भी न मिले। सुखदा और लाला समरकान्त दोनों ही ने उसे मना किया। दोनो ही उसे घर के कामों में फैलाना चाहते थे। अब वह पढ़ना छोड़ चुका था और लालाजी उसके माथे सारा भार डाल कर खुद अलग हो जाना चाहते थे। इधर-उधर के कामों में पड़ कर वह घर का काम क्या कर सकेगा। एक दिन घर में छोटा-मोटा तुफ़ान आ गया। लालाजी और सुखदा एक तरफ़ थे, अमर दूसरी तरफ़ और नैना मध्यस्थ थी।
लाला ने तोंद पर हाथ फेरकर कहा--धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का। भोर से पाठशाले जाओ, साँझ हो तो कांग्रेस में बैठो, अब यह नया रोग और बेसाहने को तैयार हो। घर में लगा दो आग!
सुखदा ने समर्थन किया--हाँ, अब तुम्हें घर का काम-धन्धा देखना चाहिए या व्यर्थ के कामों में फँसना ? अब तक तो यह था कि पढ़ रहे हैं। अब तो पढ़ चुके हो। अब तुम्हें अपना घर सँभालना चाहिए। इस तरह के काम तो वे उठायें, जिनके घर दो-चार आदमी हों। अकेले आदमी को घर से ही फुर्सत नहीं मिल सकती। ऊपर के काम कहाँ से करे।
अमर ने कहा--जिसे आप लोग रोग और ऊपर का काम और व्यर्थ का झंझट कह रहे हैं, मैं उसे घर के काम से कम जरूरी नहीं समझता। फिर जब तक आप हैं, मुझे क्या चिन्ता। और सच तो यह है कि मैं इस काम के लिए बनाया ही नहीं गया। आदमी उसी काम में सफल होता है, जिसमें उसका जी लगता हो। लेन-देन, वनिज-व्यापार में मेरा जी बिलकुल नहीं लगता। मुझे डर लगता है, कि कहीं बना-बनाया काम बिगाड़ न बैठूँ।
लालाजी को यह कथन सार-हीन जान पड़ा। उनका पुत्र वनिज व्यवसाय के काम में कच्चा हो यह असम्भव था। पोपले मुँह में पान चबाते हुए बोले--यह सब तुम्हारी मोटमरदी है। मैं न होता, तो तुम क्या अपने बाल-बच्चों का पालन पोषण न करते ? तुम मुझी को पीसना चाहते हो। एक लड़के वह होते हैं, जो घर सँभाल कर बाप को छुट्टी दे देते हैं। एक तुम हो कि हड्डियाँ तक नहीं छोड़ना चाहते।
बात बढ़ने लगी। सुखदा ने मामला गर्म होते देखा, तो चुप हो गई। नैना उँगलियों से दोनों कान बन्द करके घर में जा बैठी। यहाँ दोनों पहलवानों में
मल्ल युद्ध होता रहा। युवक में चुस्ती थी, फुर्ती थी, लचक थी, बूढ़े में पेंच था, दम था, रोब था। पुराना फिकैत बार बार उसे दबाना चाहता था; पर जवान पट्ठा नीचे से सरक जाता था। कोई हाथ, कोई घात न चलता था।
अन्त में लाल जी ने जामे से बाहर होकर कहा--तो बाबा, तुम अपने बाल-बच्चे लेकर अलग हो जाओ, मैं तुम्हारा बोझ नहीं सँभाल सकता। इस घर में रहोगे, तो किराया और घर में जो कुछ खर्च पड़ेगा, उसका आधा चुपके से निकालकर रख देना पड़ेगा। मैंने तुम्हारी ज़िन्दगी भर का ठेका नहीं लिया है। घर को अपना समझो तो तुम्हारा सब कुछ हैं। ऐसा नहीं समझते, तो यहाँ तुम्हारा कुछ नहीं है। जब मैं मर जाऊँ, तो जो कुछ हो आकर ले लेना।
अमरकान्त पर बिजली-सी गिर पड़ी। जब तक बालक न हुआ था, और वह घर से फटा-फटा रहता था, तब उसे आघात की शंका दो-एक बार हुई थी, पर बालक के जन्म के बाद से लालाजी के व्यवहार और स्वभाव में वात्सल्य की स्निग्धता आ गयी थी। अमर को अब इस कठोर आघात की बिलकुल शंका न रही थी। लालाजी को जिस खिलौने की अभिलाषा थी, उन्हें वह खिलौना देकर अमर निश्चिन्त हो गया था, पर आज उसे मालूम हुआ, वह खिलौना माया की ज़ंजीरों को न तोड़ सका।
पिता पुत्र की टालमटोल पर नाराज़ हो धुड़के-झिड़के, मुँह फुलाये, यह तो उसकी समझ में आता था, लेकिन पिता पुत्र से घर का किराया और रोटियों का खर्च माँगे, यह तो माया-लिप्सा की निर्मम पराकाष्ठा थी। इसका एक ही जवाब था, कि वह आज ही सुखदा और उसके बालक को लेकर कहीं और जा टिके। और फिर पिता से कोई सरोकार न रखे। और अगर सुखदा आपत्ति करे, तो उसे भी तिलांजलि दे दे।
उसने स्थिर भाव से कहा--अगर आपकी यही इच्छा है तो यही सही।
लालाजी ने खिसिया कर पूछा--सास के बल पर कूद रहे होगे ?
अमर ने तिरस्कार-स्वर में कहा--दादा, आप घाव पर नमक न छिड़कें। जिस पिता ने जन्म दिया, जब उसके घर में मेरे लिए स्थान नहीं है, तो क्या आप समझते हैं, मैं सास और ससुर की रोटियाँ तोड़ूँगा ? आपकी दया से इतना नीच नहीं हूँ। मज़दूरी कर सकता हूँ और पसीने की कमायी खा
सकता हूँ। मैं किसी प्राणी से दया की भिक्षा माँगना अपने आत्म-सम्मान के लिए घातक समझता हूँ। ईश्वर ने चाहा, तो मैं आपको दिखा दूँगा, कि मैं मजदूरी करके भी जनता की सेवा कर सकता हूँ।
समरकान्त ने समझा, अभी इसका नशा नहीं उतरा। महीना-दो-महीना गृहस्थी के चरखे में पड़ेगा, तो आँखें खुल जायेंगी। चुपचाप बाहर चले गये। और अमर उसी वक्त एक मकान की तलाश करने चला।
उसके चले जाने के बाद लालाजी फिर अन्दर गये। उन्हें आशा थी कि सुखदा उनके घाव पर मरहम रखेगी; पर सुखदा उन्हें अपने द्वार के सामने देखकर भी बाहर न निकली। कोई पिता इतना कठोर हो सकता है, इसकी वह कल्पना भी न कर सकती थी। आखिर यह लाखों की सम्पत्ति किस काम आयेगी ? अमर घर के काम-काज से अलग रहता है, यह सुखदा को खुद बुरा मालूम होता था। लालाजी इसके लिए पुत्र को ताड़ना देते हैं, यह भी उचित ही था; लेकिन घर का और भोजन का खर्च माँगता यह तो नाता ही तोड़ना था। तो जब वह नाता तोड़ते हैं, तो वह रोटियों के लिए उनकी खुशामद न करेगी। घर में आग लग जाय, उससे कोई मतलब नहीं। उसने अपने सारे गहने उतार डाले। आख़िर यह गहने भी तो लालाजी हो ने दिये हैं। माँ की दी हुई चीजें भी उसने उतार फेंकी। माँ ने भी जो कुछ दिया था, दहेज की पुरौती ही में तो दिया था। उसे भी लालाजी ने अपनी बही में टाँक लिया होगा। वह इस घर से केवल एक साड़ी पहनकर जायगी। भगवान उसके लाल को कुशल से रखे, उसे किसी की क्या परवाह ! यह अमूल्य रत्न तो कोई उससे छीन नहीं सकता। अमर के प्रति इस समय उसके मन में सच्ची सहानुभूति उत्पन्न हुई। आखिर म्युनिस्पैलिटी के लिए खड़े होने में क्या बुराई थी ? मान और प्रतिष्ठा किसे प्यारी नहीं होती ? इसी मेम्बरी के लिए लोग लाखों खर्च करते हैं। क्या यहाँ जितने मेम्बर है वह सब घर के निखट्ट ही हैं ? कुछ नाम करने की, कुछ काम करने की लालसा प्राणी-मात्र की होती है। अगर वह स्वार्थ-साधन पर अपना समर्पण नहीं करते, तो कोई ऐसा काम नहीं करते, जिसका यह दण्ड दिया जाय। कोई दूसरा आदमी पुत्र के इस अनुराग पर अपने को धन्य मानता, अपने भाग्य को सराहता। सहसा अमर ने आकर कहा--तुमने आज दादा की बातें सुन ली ? अब क्या सलाह है ?
'सलाह है, आज ही यहाँ से विदा हो जाना चाहिए। यह फटकार पाने के बाद तो मैं इस घर में पानीपीना हराम समझती हूँ। कोई घर ठीक कर लो।'
'वह तो ठीक कर आया! छोटा-सा मकान है, साफ़-सुथरा, नीचीबाग़ में। १०) किराया है।'
'मैं भी तैयार हूं।'
'तो एक ताँगा लाऊँ?'
'कोई जरूरत नहीं ? पाँव-पाँव चलेंगे।'
'सन्दूक, बिछावन यह सब तो ले चलना ही पड़ेगा।'
'इस घर में हमारा कुछ नहीं है। मैंने तो सब गहने भी उतार दिये। मजदूरों की स्त्रियाँ गहने पहनकर नहीं बैठा करतीं।'
स्त्री कितनी अभिमाननी है, यह देखकर अमरकान्त चकित हो गया। बोला--लेकिन गहने तो तुम्हारे हैं। उनपर किसी का दावा नहीं है। फिर आधे से ज्यादा तो तुम अपने साथ लाई थीं।
'अम्मा ने जो कुछ दिया, दहेज की पुरौती में दिया। लालाजी ने जो कुछ दिया, वह यह समझ कर दिया कि घर ही में तो है। एक-एक चीजः उनको बही में दर्ज है। मैं गहनों को भी दया की भिक्षा समझती हूँ। अब तो हमारा उसी चीज़ पर दावा होगा जो हम अपनी कमाई से बनवायेंगे।'
अमर गहरी चिन्ता में डूब गया। यह तो इस तरह नाता तोड़ रही है, कि एक तार भी बाकी न रहे। गहने औरतों को कितने प्रिय होते हैं, यह वह जानता था। पुत्र और पति के बाद अगर उन्हें किसी वस्तु से प्रेम होता है, तो वह गहने हैं। कभी-कभी तो गहनों के लिए वह पुत्र और पति से भी तन बैठती हैं। अभी घाव ताज़ा है, कसक नहीं है। दो-चार दिन के बाद यह वितृष्णा जलन और असन्तोष के रूप में प्रकट होगी। फिर तो बात-बात पर ताने मिलेंगे, बात-बात पर भाग्य का रोना होगा। घर में रहना मुश्किल हो जायगा।
बोला--मैं तो यह सलाह न दूँगा सुखदा। जो चीज अपनी है, उसे अपने साथ ले चलने में मैं कोई बुराई नहीं समझता। सुखदा ने पति को सगर्व दृष्टि से देखकर कहा--तुम समझते होगे में गहनों के लिए कोने में बैठकर रोऊँगी और अपने भाग्य को कोसूँगी। स्त्रियाँ अवसर पड़ने पर कितना त्याग कर सकती हैं, यह तुम नहीं जानते। मैं इस फटकार के बाद इन गहनों की ओर ताकना भी पाप समझती हूं, इन्हें पहनना तो दूसरी बात है। अगर तुम डरते हो, कि मैं कल ही से तुम्हारा सिर खाने लगूँगी, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि अगर गहनों का नाम मेरी ज़बान पर आये तो ज़बान काट लेना। मैं यह भी कहे देती हूँ, कि मैं तुम्हारे भरोसे पर नहीं जा रही हूँ। अपनी गुजर-भर को आप कमा लूँगी। रोटियों में ज्यादा खर्च नहीं होता। खर्च होता है आडम्बर में। एक बार अमीरी की शान छोड़ दो, फिर चार आने पैसे में काम चलता है।
नैना भाभी को गहने उतारकर रखते देख चुकी थी। उसके प्राण निकले जा रहे थे, कि अकेली इस घर में कैसे रहेगी। बच्चे के बिना तो वह घड़ी भर भी नहीं रह सकती। उसे पिता, भाई, भावज सभी पर क्रोध आ रहा था। दादा को क्या सूझी? इतना धन तो घर में भरा है, वह क्या होगा! भैया ही घड़ी भर दूकान पर बैठ जाते तो क्या बिगड़ा जाता था। भाभी को भी न जाने क्या सनक सबार हो गई। वह न जाती, तो भैया दो-चार दिन में फिर लौट ही आते। भाभी के साथ वह भी चली जाय, तो दादा को भोजन कौन देगा। किसी और के हाथ का बनाया खाते भी तो नहीं ! वह भाभी को समझाना चाहती थी; पर कैसे समझाये। यह दोनों तो उसकी तरफ़ आँखें उठाकर देखते भी नहीं। भैया ने अभी से आँखें फेर ली। बच्चा भी कैसा खुश है। नैना के दुःख का पारावार नहीं है।
उसने जाकर बाप से कहा--दादा, भाभी तो सब गहने उतारकर रखे जाती हैं।
लालाजी चिन्तित थे। कुछ बोले नहीं। शायद सुना ही नहीं।
नैना ने जरा और जोर से कहा--भाभी अपने सब गहने उतारकर रखे देती हैं।
लालाजी ने अनमने भाव से सिर उठाकर कहा--गहने क्या कर रही हैं ?
'उतार-उतारकर रखे देती हैं।' 'तो में क्या करूँ?'
'तुम उनसे जाकर कहते क्यों नहीं ?'
'वह नहीं पहनना चाहती, तो मैं क्या करूँ!'
'तुम्हीं ने उनसे कहा होगा, गहने मत ले जाना। क्या तुम उनके ब्याह के गहने भी ले लोगे ?'
'हाँ, मैं सब ले लूंँगा। इस घर में उसका कुछ भी नहीं है।'
'यह तुम्हारा अन्याय है।'
'जा अन्दर बैठ, बक-बक मत कर!'
'तुम जाकर उन्हें समझाते क्यों नहीं?'
'तुझे बड़ा दर्द है, तू ही क्यों नहीं समझाती ?'
'मैं कौन होती हूँ समझानेवाली। तुम अपने गहने ले रहे हो, तो वह मेरे कहने से क्यों पहनने लगीं ?'
दोनों कुछ देर तक चुपचाप रहे। फिर नैना ने कहा--मुझसे यह अन्याय नहीं देखा जाता। गहने उनके है। ब्याह के गहने तुम उनसे नहीं ले सकते।
'तू यह कानून कब से जान गई ?'
'न्याय क्या है, और अन्याय क्या है, यह सिखाना नहीं पड़ता। बच्चे को भी बेक़सूर सजा दो तो वह चुपचाप न सहेगा।'
'मालूम होता है, भाई से यही विद्या सीखती है ?'
'भाई से अगर न्याय-अन्याय का ज्ञान सीखती हूँ, तो कोई बुराई नहीं।'
'अच्छा भाई, सिर मत खा, कह दिया अन्दर जा। मैं किसी को मनाने-समझाने नहीं जाता। मेरा घर है, इसकी सारी सम्पदा मेरी है। मैंने इसके लिए जान खपाई है। किसी को क्यों ले जाने दूं ?'
नैना ने सहसा सिर झुका लिया और जैसे दिल पर जोर डालकर कहा--तो फिर मैं भी भाभी के साथ चली जाऊँगी।
लालाजी की मुद्रा कठोर हो गयी--चली जा, मैं नहीं रोकता। ऐसी सन्तान से बे-सन्तान रहना ही अच्छा। खाली कर दो मेरा घर, आज ही खाली कर दो। खूब टाँगे फैलाकर सोऊँगा। कोई चिन्ता तो न होगी ? आज यह नहीं है, आज वह नहीं है, यह तो न सुनना पड़ेगा। तुम्हारे रहने से कौन सुख था मुझे। नैना लाल आँखें किये सुखदा से जाकर बोली--भाभी मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।
सुखदा ने अविश्वास के स्वर में कहा--हमारे साथ ! हमारा तो अभी कहीं घर-द्वार नहीं है ! न पास पैसे हैं, न बरतन-भाँड़े, न नौकर-चाकर। हमारे साथ कैसे चलोगी ? इस महल में कौन रहेगा ?
नैना की आँखें भर आई--जब तुम्ही जा रही हो तो मेरा यहाँ क्या है।
पगली सिल्लो आई और टट्ठा मारकर बोली--तुम सब जने चले जाओ, अब मैं इस घर की रानी बनूंगी । इस कमरे में इसी पलंग पर मजे से सोऊँगी। कोई भिखारी द्वार पर आयेगा, तो झाड़ू लेकर दौडूंगी।
अमर पगली के दिल की बात समझ रहा था; पर इतना बड़ा खटला लेकर कैसे जाय। घर में एक ही तो रहने लायक कोठरी है। वहाँ नैना कहाँ रहेगी और यह पगली तो जीना मुहाल कर देगी। नैना से बोला--तुम हमारे साथ चलोगी, तो दादा का खाना कौन बनायेगा नैना ? फिर हम कहीं दूर तो नहीं जाते। मैं वादा करता हूँ, एक बार रोज़ तुमसे मिलने आया करूँगा। तुम और सिल्लो दोनों रहो। हमें जाने दो।
नैना रो पड़ी--तुम्हारे बिना इस घर में कैसे रहूँगी भैया, सोचो। दिन भर पड़े-पड़े क्या करूँगी। मुझसे तो छिन भर भी न रहा जायगा। मन्नू को याद कर-करके रोया करूँगी। देखती हो भाभी, मेरी ओर ताकता भी नहीं।
अमर ने कहा--तो मन्नू को छोड़ जाऊँ ? तेरे ही पास रहेगा।
सुखदा ने विरोध किया--वाह ! कैसी बात कर रहे हो। रो-रोकर जान दे देगा। फिर मेरा जी भी तो न मानेगा।
शाम को तीनों आदमी घर से निकले। पीछे-पीछे सिल्लो भी हँसती हुई चली जाती थी। सामने के दूकानदारों ने समझा कहीं नेवते जाती हैं; पर क्या बात है, किसी के देह पर छल्ला भी नहीं ! न चादर, न घराऊ कपड़े !
लाला समरकान्त अपने कमरे में बैठे हुक्का पी रहे थे। आँखें उठाकर भी न देखा।
एक घण्टे के बाद वह उठे, घर में ताला डाल दिया और फिर कमरे में आकर लेट रहे।
एक दुकानदार ने आकर पूछा--भैया और बीबी कहाँ गये लालाजी ? लालाजी ने मुँह फेरकर जवाब दिया। मुझे नहीं मालूम--मैंने सबको घर से निकाल दिया। मैंने धन इसलिए नहीं कमाया है कि लोग मौज उड़ायें। जो धन को धन समझे, वह मौज उड़ाये। जो धन को मिट्टी समझे उसे धन का मूल्य सीखना होगा । मैं आज भी अठारह घण्टे रोज़ काम करता हूँ। इसलिए नहीं कि लड़के धन को मिट्टी समझें। मेरी ही गोद के लड़के मुझे ही आँखें दिखायें। धन का धन दूँ, ऊपर से धौंस भी सुनूँ। बस, ज़बान न खोलूँ, चाहे कोई घर में आग लगा दे। घर का काम चूल्हे में जाय, तुम्हें सभाओं में, जलसों में आनन्द आता है, तो जाओ, जलसों से अपना निबाह भी करो। ऐसों के लिए मेरा घर नहीं है। लड़का वहीं है, जो कहना सुने। जब लड़का अपने मन का हो गया तो कैसा लड़का !
रेणुका को ज्योंही सिल्लो ने खबर दी, वह बदहवास दौड़ी आई, मानो बेटी और दामाद पर कोई बड़ा संकट आ गया है। वह क्या गैर थी, उससे क्या कोई नाता ही नहीं ? उसको खबर तक न दी और अलग मकान ले लिया। वाह ! यह भी कोई लड़कों का खेल है ? दोनों बिलल्ले। छोकरी तो ऐसी न थी, पर लौंडे के साथ उसका सिर भी फिर गया।
रात के आठ बज गये थे, हवा अभी तक गर्म थी। आकाश के तारे गर्द से धुंधले हो रहे थे। रेणुका पहुँची, तो तीनों निकलुए कोठे की एक चारपाई बराबर छत पर मन मारे बैठे थे। सारे घर में अन्धकार छाया हुआ था। बेचारों पर गृहस्थी की नई विपत्ति पड़ी थी। पास एक पैसा नहीं। कुछ न सूझता था, क्या करें !
अमर ने उसे देखते ही कहा--अरे ! तुम्हें कैसे खबर मिल गयी अम्मा जी ? अच्छा, इस चुड़ैल सिल्लो ने जाकर कहा होगा। कहाँ है, अभी खबर लेता हूँ।
रेणुका अँधेरे में जीने पर चढ़ने से हाँफ गयी थी। चादर उतारती हुई बोली--मैं क्या दुश्मन थी, कि मुझसे उसने कह दिया तो बुराई की? क्या मेरा घर न था, या मेरे घर रोटियाँ न थीं? मैं यहाँ एक क्षण-भर तो रहने न दूँगी। वहाँ पहाड़-सा घर पड़ा हुआ है, यहाँ तुम सब-के-सब एक बिल में घुसे बैठे हो। उठो अभी ? बच्चा मारे गर्मी के कुम्हला गया होगा। यहाँ खाटें भी तो नहीं हैं और इतनी-सी जगह में सोओगे कैसे? तू तो ऐसी न थी
सुखदा, तुझे क्या हो गया ? बड़े-बूढ़े दो बात कहें, तो ग़म खाना होता है, कि घर से निकल खड़े होते हैं। क्या इनके साथ तेरी बुद्धि भी भ्रष्ट हो गयी ?
सुखदा ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया और इस ढंग से कि रेणुका को भी लाला समरकान्त की ही ज्यादती मालूम हुई। उन्हें अपने धन का धमण्ड है तो उसे लिये बैठे रहें। मरने लगे, तो साथ लेते जायें !
अमर ने कहा--दादा को यह खयाल न होगा, कि ये सब घर से चले जायेंगे।
सुखदा का क्रोध इतनी जल्दी शान्त होने वाला न था। बोली--चलो, उन्होंने साफ कहा, यहाँ तुम्हारा कुछ नहीं है। क्या वह एक दफ़े भी आकर न कह सकते थे, तुम लोग कहाँ जा रहे हो। हम घर से निकले। वह कमरे में बैठे टुकुर-टुकुर देखा किये। बच्चे पर भी उन्हें दया न आई। जब उन्हें इतना घमण्ड है, तो यहाँ क्या आदमी ही नहीं है ! वह अपना महल लेकर रहें, हम अपनी मेहनत-मजूरी कर लेंगे। ऐसा लोभी आदमी तुमने कभी देखा था अम्मा ? बीबी गई, तो उन्हें भी डाँट बतलाई। बेचारी रोती चली आई।
रेणुका ने नैना का हाथ पकड़कर कहा--अच्छा, जो हुआ अच्छा ही हुआ, चलो देर हो रही है। मैं महराजिन से भोजन को कह आई हूँ। खाटें भी निकलबा आई हूँ। लाला का घर न उजड़ता, तो मेरा कैसे बसता।
नीचे प्रकाश हुआ। सिल्लो ने कड़वे तेल का चिराग जला दिया था। रेणुका को यहाँ पहुँचाकर बाजार दौड़ी गयी और चिराग, तेल और एक झाड़ू लाई। चिराग़ जलाकर घर में झाड़ू लगा रही थी।
सूखदा ने बच्चे को रेणुका की गोद में देकर कहा--आज तो क्षमा करो अम्मा, फिर आगे देखा जायगा। लालाजी को यह कहने का मौक़ा क्यों दें कि आख़िर ससुराल भागा। उन्होंने पहले ही तुम्हारे घर का द्वार बन्द कर दिया है। हमें दो-चार दिन यहाँ रहने दो, फिर तुम्हारे पास चले आयेंगे। जरा हम भी तो देख लें, हम अपने बूते पर रह सकते हैं या नहीं।
अमर की नानी मर रही थी। अपने लिए तो उसे चिन्ता न थी। सलीम या डाक्टर के यहाँ चला जायगा। यहाँ सुखदा और नैना दोनों बे-खाट के
कैसे सोयेंगे। कल ही कहाँ से हुन बरस जायगा। मगर सुखदा की बात कैसे काटे।
रेणुका ले बच्चे की मुच्छियाँ लेकर कहा--भला, देख लेना जब मैं मर जाऊँ। अभी तो मैं जीती हूँ। वह भी तो तेरा ही है। चल जल्दी कर।
सुखदा ने दृढ़ता से कहा--अम्मा जब तक हम अपनी कमाई से अपना निबाह न करने लगेंगे, तब तक तुम्हारे यहाँ न जायेंगे। जायेंगे, पर मेहमान की तरह। घंटे-दो-घंटे बैठे और चले आये।
रेणुका ने अमर से अपील की--देखते हो बेटा इसकी बातें, यह मुझे भी गैर समझती है।
सुखदा ने व्यथित कंठ से कहा--अम्मा, बुरा न मानना, आज दादाजी का बरताव देखकर मुझे मालूम हो गया कि धनियों को अपना धन कितना प्यारा होता है। कौन जाने कभी तुम्हारे मन में भी ऐसे ही भाव पैदा हों तो ऐसा अवसर आने ही क्यों दिया जाय ? जब हम मेहमान की तरह ...
अमर ने बात काटी। रेणका के कोमल हृदय पर कितना कठोर आघात था--
'तुम्हारे जाने में तो ऐसा कोई हरज नहीं है सुखदा! तुम्हें बड़ा कष्ट होगा।'
सुखदा ने तीव्र स्वर में कहा--तो क्या तुम्हीं कष्ट सह सकते हो ? मैं नहीं सह सकती ? तुम अगर कष्ट से डरते हो, तो जाओ। मैं तो अभी कहीं नहीं जाने की।
नतीजा यह हआ कि रेणुका ने सिल्लो को घर भेजकर अपने बिस्तर मँगवाये। भोजन पक चुका था; इसलिए भोजन भी मँगवा लिया गया। छत पर झाड़ू दी गई और जैसे धर्मशाले में यात्री ठहरते हैं, उसी तरह इन लोगों ने भोजन करके रात काटी। बीच-बीच में मजाक भी हो जाता था। विपत्ति में जी चारों ओर अन्धकार दीखता है, वह हाल न था। अन्धकार था पर उपाकाल का। विपत्ति थी; पर सिर पर नहीं, पैरों के नीचे।
दूसरे दिन सबेरे रेणुका घर चली गयी। उसने फिर सब को साथ ले चलने के लिए जोर लगाया; पर सुखदा राजी न हुई। कपड़े-लत्ते, बरतन-भांडे, खाट-खटोली, कोई चीज़ लेने पर राजी न हुई, यहाँ तक
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कि रेणुका नाराज़ हो गयी और अमरकान्त को भी बुरा मालूम हुआ। वह इस अभाव में भी उस पर शासन कर रही थी।
रेणुका के जाने के बाद अमरकान्त सोचने लगा--रुपये-पैसे का कैसे प्रबन्ध हो? यह समय की पाठशाला का था। वहाँ जाना लाज़मी था। सुखदा अभी सबेरे की नींद में मग्न थी, और नैना चिन्तातुर बैठी सोच रही थी--कैसे घर का काम चलेगा। उसी वक्त अमर पाठशाले चला गया; पर आज वहाँ उसका जी बिलकुल न लगा। कभी पिता पर क्रोध आता, कभी अपने आप पर। उसने अपने निर्वासन के विषय में डाक्टर साहब से कुछ न कहा। वह किसी की सहानुभूति न चाहता था। आज अपने मित्रों में से वह किसी के पास न गया। उसे भय हुआ लोग उसका हाल सुनकर दिल में यही समझेंगे, मैं उनसे कुछ मदद चाहता हूँ।
दस बजे घर लौटा, तो देखा सिल्लो आटा गूंध रही है और नैना चौके में बैठी तरकारी पका रही है। पूछने की हिम्मत न पड़ी, पैसे कहाँ से आये। नैना ने आप ही कहा--सुनते हो भैया, आज सिल्लो ने हमारी दावत की है। लकड़ी, घी, आटा, दाल, सब बाज़ार से लाई है। बरतन भी किसी अपनी जान-पहचान के घर से माँग लाई है।
सिल्लो बोल उठी--मैं दावत नहीं करती हूँ। मैं अपने पैसे जोड़कर ले लूँगी।
नैना हँसती हुई बोली--यह बड़ी देर से मुझसे लड़ रही है। यह कहती है--मैं पैसे ले लूँगी। मैं कहती हूँ--तू तो दावत कर रही है। बताओ भैया, दावत ही तो कर रही है?
'हाँ और क्या ! दावत तो है ही।'
अमरकान्त पगली सिल्लो के मन का भाव ताड़ गया। वह समझती है, अगर यह न कहूँगी, तो शायद यह लोग उसके रुपयों की लाई हुई चीज़ लेने से इनकार कर देंगे।
सिल्लो का पोपला मुँह खिल गया। जैसे वह अपनी दृष्टि में कुछ ऊँची हो गई है, जैसे उसका जीवन सार्थक हो गया है। उसकी रूप-हीनता और शुष्कता मानो माधुर्य में नहा उठी। उसने हाथ धोकर अमरकान्त के लिए लोटे का पानी रख दिया, तो पाँव ज़मीन पर न पड़ते थे।
अमर को अभी तक आशा थी कि दादा शायद सुखदा और नैना को बुला लेंगे; पर जब अब तक कोई बुलाने न आया और न वह खुद आये, तो उसका मन खट्टा हो गया।
उसने जल्दी से स्नान किया, पर याद आया, धोती तो है ही नहीं। गले की चादर पहन ली, भोजन किया और कुछ कमाने की टोह में निकला।
सुखदा ने मुँह लटकाकर पूछा--तुम तो ऐसे निश्चिंत होकर बैठे रहे, जैसे यहाँ सारा इन्तजाम किये जा रहे हो। यहाँ लाकर बिठाना ही जानते हो। सुबह से ग़ायब हुए, तो दोपहर को लौटे। किसी से कुछ काम-धंधे के लिए कहा, या खुदा छप्पर फाड़कर देगा ? यो काम न चलेगा, समझ गये ?
चौबीस घण्टे के अन्दर सुखदा के मनोभावों में यह परिवर्तन देखकर अमर का मन उदास हो गया। कल कितनी बढ़-बढ़कर बातें कर रही थी, आज शायद पछता रही है, कि क्यों घर से निकले?
रूखे स्वर में बोला--अभी तो किसी से कुछ नहीं कहा। अब जाता हूँ किसी काम की तलाश में।
मैं भी जरा जज साहब की स्त्री के पास जाऊँगी। उनसे किसी काम को कहूँगी। उन दिनों तो मेरा बड़ा आदर करती थीं। अब का हाल नहीं जानती।
अमर कुछ नहीं बोला--यह मालूम हो गया कि उसकी कठिन परीक्षा के दिन आ गये।
अमरकान्त को बाजार के सभी लोग जानते थे। उसने खद्दर की दुकान से कमीशन पर बेचने के लिये कई थान खद्दर, खद्दर की साड़ियाँ, जम्पर, कुरते, चादरें आदि ले ली और उन्हें खुद अपनी पीठ पर लादकर बेचने चला।
दूकानदार ने कहा--यह क्या करते हो बाबूजी, एक मजूर ले लो। लोग क्या कहेंगे? भद्दा लगता है।
अमर के अन्तःकरण में क्रान्ति का तूफान उठ रहा था। उसका बस चलता, तो आज धनवानों का अन्त कर देता, जो संसार को नरक बनाये हुए हैं। वह बोझ उठाकर दिखाना चाहता था, मैं मजूरी करके निबाह करना इससे कहीं अच्छा समझता हूँ कि हराम की कमाई खाऊँ। तुम सब मोटी
तोंदवाले हरामखोर हो, पक्के हरामखोर हो। तुम मुझे नीच समझते हो। इसलिए कि मैं अपनी पीठ पर बोझ लादे हुए हूँ। क्या यह बोझ तुम्हारी अनीति और अधर्म के बोझ से ज्यादा लज्जास्पद है, जो तुम अपने सिर पर लादे फिरते हो और शर्माते जरा भी नहीं? उलटे और घमंड करते हो।
इस वक्त अगर कोई धनी अमरकान्त को छेड़ देता, तो उसकी शामत ही आ जाती। वह सिर से पाँव तक बारूद बना हुआ था, बिजली का ज़िन्दा ग़ार!