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कर्मभूमि/पहला भाग ७

विकिस्रोत से
(कर्मभूमि भाग 7 से अनुप्रेषित)
कर्मभूमि
प्रेमचंद

हंस प्रकाशन, पृष्ठ ३१ से – ४९ तक

 

अमरकान्त ने देखा सूखदा निर्मल नारीत्व की ज्योति में नहा उठी है। उसका देवीत्व जैसे प्रस्फुटित होकर उससे आलिंगन कर रहा है।

अमरकान्त ने आम जलसों में बोलना तो दूर रहा, शरीक होना भी छोड़ दिया; पर उसकी आत्मा इस बन्धन से छटपटाती रहती थी और वह कभी-कभी सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में अपने मनोद्गारों को प्रकट करके संतोष लाभ करता था। अब वह कभी-कभी दुकान पर भी आ बैठता। विशेषतः छुट्टियों के दिन तो वह अधिकतर दुकान पर रहता था। उसे अनुभव हो रहा था, कि मानवी-प्रकृति का बहुत कुछ ज्ञान दुकान पर बैठकर प्राप्त किया जा सकता है। सुखदा और रेणुका दोनों के स्नेह और प्रेम ने उसे जकड़ लिया था। हृदय की जलन जो पहले घरवालों से, और उसके फलस्वरूप, समाज से विद्रोह करने में अपने को सार्थक समझती थी, अब शान्त हो गयी थी। रोला हुआ बालक मिठाई पाकर रोना भूल गया था।

एक दिन अमरकान्त दुकान पर बैठा था कि एक असामी ने आकर पूछा--भैया कहाँ हैं बाबूजी, बड़ा जरूरी काम था।

अमर ने देखा--अधेड़, बलिष्ट, काला, कठोर आकृति का मनुष्य है। नाम है काले खाँ। रुखाई से बोला--वह कहीं गये हुए हैं ?

'बड़ा जरूरी काम था। कुछ कह नहीं गये, कब तक आयेंगे ?'

अमर को शराब की ऐसी दुर्गन्ध आई, कि उसने नाक बन्द कर ली और मुंह फेरकर बोला--क्या तुम शराब पीते हो ?

काले खाँ ने हँसकर कहा--शराब किसे मयस्सर होती है, लाला, रूखी रोटियाँ तो मिलती नहीं। आज एक नातेदारी में गया था, उन लोगों ने पिला दी।

वह और समीप आ गया और अमर के कान के पास मुंह लगाकर बोला--एक रकम दिखाने लाया था, कोई दस तोले की होगी। बाजार में ढाई सौ से कम की नहीं है। लेकिन मैं तुम्हारा पुराना असामी हूँ। जो कुछ दे दोगे, ले लूँगा।

उसने कमर से एक जोड़ा सोने के कड़े निकाले और अमर के सामने रख दिये। अमर ने कड़ों को बिना उठाये हुए पूछा--यह कड़े तुमनें कहाँ पाये ?

काले खाँ ने बेहयाई से मुस्कराकर कहा--यह न पूछो राजा, अल्लाह देने वाला है।

अमरकान्त ने घृणा का भाव दिखाकर कहा--कहीं से चुरा लाये होगे ?

काले खाँ फिर हँसा--चोरी किसे कहते हैं राजा, यह तो अपनी खती है। अल्लाह ने सब के पीछे हीला लगा दिया है। कोई नौकरी करके लाता है, कोई मजूरी करता है, कोई रोजगार करता है, देता सबको वही खुदा है। तो फिर निकालो रुपये, मुझे देर हो रही है। इन लाल पगड़ी वालों की बड़ी खातिर करनी पड़ती है भैया, नहीं एक दिन काम न चले।

अमरकान्त को यह व्यापार इतना जघन्य जान पड़ा, कि जी में आया काले खाँ को दुत्कार दे। लाला समरकान्त ऐसे समाज के शत्रुओं से व्यवहार रखते हैं, यह खयाल करके उसके रोएँ खड़े हो गये। उस दुकान से, उस मकान से, उस वातावरण से, यहाँ कि तक स्वयं अपने आपसे घृणा होने लगी। बोला--मुझे इस चीज़ की जरूरत नहीं है, इसे ले जाओ, नहीं मैं पुलिस में इत्तला कर दूँगा। फिर इस दुकान पर ऐसी चीज़ लेकर न आना, कहे देता हूँ।

काले खाँ जरा भी विचलित न हुआ, बोला--यह तो तुम बिल्कुल नयी बात कहते हो भैया। लाला इस नीति पर चलते, तो आज महाजन न होते। हजारों रुपये की चीज तो मैं ही दे गया हूँगा। अँगनू, महाजन, भिखारी, हींगन, सभी से लाला का व्यवहार है। कोई चीज हाथ लगी और आँख बन्द करके यहाँ चले आये, दाम लिया और घर की राह ली। इस दुकान से बाल-बच्चों का पेट चलता है। काँटा निकाल कर तौल लो। दस तोले से कुछ ऊपर ही निकलेगा; मगर यहाँ पुरानी जजमानी है, लाओ डेढ़ सौ ही दे दो, अब कहाँ दौड़ते फिरें।

अमर ने दृढ़ता से कहा--मैंने कह दिया मुझे इसकी जरूरत नहीं।

'पछताओगे लाला, खड़े-खड़े ढाई सौ में बेच लोगे।'

'क्यों सिर खा रहे हो, मैं इसे नहीं लेना चाहता।'

'अच्छा लाओ, सौ ही रुपये दे दो। अल्लाह जानता है, बहुत बल खाना पड़ रहा है। पर एक बार घाटा ही सही।'

'तम व्यर्थ मुझे दिक कर रहे हो। मैं चोरी का माल नहीं लूँगा, चाहे लाख की चीज बेले में मिले। तुम्हें चोरी करते शर्म भी नहीं आती ! ईश्वर ने हाथ-पाँव दिये है, खासे मोटे-ताजे आदमी हो, मज़दूरी क्यों नहीं करते ! दूसरों का माल उड़ाकर अपनी दुनियाँ और आकबत दोनों खराब कर रहे हो !

काले खाँ ने ऐसे मुँह बनाया, मानो ऐसी बकवास बहुत सुन चुका है और बोला--तो तुम्हें नहीं लेना है ?

'नहीं।'

'पचास देते हो?'

'एक कौड़ी नहीं।'

काले खाँ ने कड़े उठाकर कमर में रख लिये और दुकान के नीचे उतर गया। पर एक क्षण में फिर लौटकर बोला--अच्छा ३०) ही दे दो। अल्लाह जानता है, पगड़ीवाले आधा ले लेंगे।

अमरकान्त ने धक्का देकर कहा--निकल जा यहाँ से सुअर, मुझे क्यों हैरान कर रहा है।

काले खाँ चला गया, तो अमर ने उस जगह को झाड़ू से साफ कराया और अगर बत्ती जलाकर रख दी। उसे अभी तक शराब की दुर्गन्ध आ रही थी। आज उसे अपने पिता से जितनी अभक्ति हुई, उतनी कभी न हुई थी। उस घर की वायु तक उसे दूषित लगने लगी। पिता के हथकण्डों से वह कुछ कुछ परिचित तो था; पर उनका इतना पतन हो गया है, इसका प्रमाणा आज ही मिला। उसने मन में निश्चय किया, आज पिता से इस विषय में खूब अच्छी तरह शास्त्रार्थ करेगा। उसने खड़े होकर अधीर नेत्रों से सड़क की ओर देखा। लालाजी का पता नहीं था। उसके मन में आया, दकान बन्द करके चला जाय और जब पिता जी आ जायँ तो साफ़-साफ़ कह दे, मुझसे यह व्यापार न होगा। वह दुकान बन्द करने ही जा रहा था, कि एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आकर सामने खड़ी हो गयी और बोली--लाला नहीं हैं क्या बेटा ?

बुढ़िया के बाल सन हो गये थे। देह की हड्डियाँ तक सूख गयी थीं; जीवन-यात्रा के उस स्थान पर पहुँच गयी थी, जहाँ से उसका आकार मात्र दिखाई देता था, मानों दो-एक क्षण में वह अदृश्य हो जायगी।

अमरकान्त के जी में पहले तो आया कि कह दे, दादा नहीं है, वह आयें तब आना, लेकिन बुढ़िया के पिचके हुए मुख पर ऐसी करुण-याचना, ऐसी शून्य-निराशा छाई थी कि उसे उस पर दया आ गयी। बोला--लालाजी से क्या काम है ? वह तो कहीं गये हुए हैं।

बुढ़िया ने निराश होकर कहा--तो कोई हरज नहीं बेटा, मैं फिर आ जाऊँगी।

अमरकान्त ने नम्रता से कहा--अब आते ही होंगे, माता। ऊपर चली आओ।

दुकान की कुरसी ऊँची थी। तीन सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं। बुढ़िया ने पहली पट्टी पर पाँव रखा; पर दूसरा पाँव ऊपर न उठा सकी। पैरों में इतनी शक्ति न थी। अमर ने नीचे आकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे सहारा देकर दूकान पर चढ़ा दिया। बुढ़िया ने आशीर्वाद देते हुए कहा--तुम्हारी बड़ी उम्र हो बेटा, मैं यही डरती हूँ कि लाला देर में आये और अँधेरा हो गया, तो मैं घर कैसे पहुँचूँगी। रात को कुछ नहीं सूझता बेटा।

'तुम्हारा घर कहाँ है माता ?'

बुढ़िया ने ज्योतिहीन आँखों से उसके मुख की ओर देखकर कहा--गोबर्धन की सराय पर रहती हूँ बेटा !

'तुम्हारे और कोई नहीं है ?'
'सब है भैया, बेटे हैं, बहुएँ हैं, पोतों की बहुएँ हैं; पर जब अपना कोई नहीं, तो किस काम का। नहीं लेते मेरी सुध, न सही। हैं तो अपने। मर जाऊँगी, तो मिट्टी तो ठिकाने लगा देंगे।'

'तो वह लोग तुम्हें कुछ देते नहीं ?'

बुढ़िया ने स्नेह मिले हुए गर्व से कहा--मैं किसी के आसरे भरोसे नहीं हूँ बेटा, जीते रहें मेरे लाला समरकान्त, वह मेरी परवरिश करते हैं। तब तो तुम बहुत छोटे थे भैया, जब मेरा सरदार लाला का चपरासी था। इसी कमाई में खुदा ने कुछ ऐसी बरक्कत दी, कि घर-द्वार बना, बाल-बच्चों का व्याह-गौना हआ, चार पैसे हाथ में हए। थे तो पाँच रुपये के प्यादे, पर कभी किसी के सामने गरदन नहीं झुकायी। जहाँ लाला का पसीना गिरे वहाँ अपना खून बहाने को तैयार रहते थे। आधी रात, पिछली रात, जब बुलाया, हाजिर हो गये। थे तो अदना से नौकर, मुदा लाला ने कभी 'तुम' कहकर नहीं पुकारा। बराबर खां साहब कहते थे। बड़े-बड़े सेठिए कहते खां साहब, हम इससे दूनी तलब देंगे, हमारे पास आ जाओ; पर सबको यही जवाब देते, कि जिसके हो गये, उसके हो गये। जब तक वह दुत्कार न देगा, उसका दामन न छोड़ेंगे। लाला ने भी ऐसा निभाया, कि क्या कोई निभायेगा। उन्हें मरे आज बीसवां साल है, वही तलब मुझे देते जाते हैं। लड़के पराये हो गये, पोते बात नहीं पूछते; पर अल्लाह मेरे लाला को सलामत रखे, मुझे किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत नहीं आयी।

अमरकान्त ने अपने पिता को स्वार्थी, लोभी, भावहीन समझ रखा था। आज उसे मालूम हुआ उनमें दया और वात्सल्य भी है। गर्व से उसका हृदय पुलकित हो उठा। बोला--तो तुम्हें पांच रुपये मिलते हैं ?

'हां बेटा, पांच रुपये महीना देते जाते हैं।'

'तो मैं तुम्हें रुपये दिये देता हूँ, लेती जाओ। लाला शायद देर में आयें।'

वृद्धा ने कानों पर हाथ रखकर कहा--नहीं बेटा, उन्हें आ जाने दो। लठिया टेकती चली जाऊँगी। अब तो यही आंख रह गयी है।

'इसमें हरज क्या है, मैं उनसे कह दूँगा, पठानिन रुपये ले गयीं। अंधेरे में कहीं गिर-गिरा पड़ोगी।'
'नहीं बेटा, ऐसा काम नहीं करती, जिसमें पीछे से कोई बात पैदा हो। फिर आऊँगी।'

'नहीं मैं बिना रुपये लिये न जाने दूँगा।'

बुढ़िया ने डरते-डरते कहा--तो लाओ दे दो बेटा, मेरा नाम टाँक लेना पठानिन।

अमरकान्त ने रुपये दे दिये। बुढ़िया कांपते हुए हाथों से रुपये लेकर गिरह बांधे और दुआएँ देती हुई, धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतरी; मगर पचास कदम भी न गयी होगी कि पीछे से अमरकान्त एक इक्का लिये हुए आया और बोला--बूढ़ी माता, आकर इक्के पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें पहुँचा दूँ।

बुढ़िया ने आश्चर्य-चकित नेत्रों से कहा--अरे नहीं बेटा, तुम मुझे पहुँचाने कहाँ जाओगे। मैं टेकती हुई चली जाऊँगी। अल्ला तुम्हे सलामत रखे।

अमरकान्त इक्का ला चुका था। उसने बुढ़िया को गोद में उठाया और इक्के पर बैठाकर पूछा--कहां चलूँ ?

बुढ़िया ने इक्के के डंडों को मजबूत पकड़कर कहा--गोबर्धन की सराय चलो बेटा, अल्लाह तम्हारी उम्र दराज करे। मेरा बच्चा इस बुढ़िया के लिए इतना हैरान हो रहा। इत्ती दूर से दौड़ा आया। पढ़ने जाते हो न बेटा, अल्लाह तुम्हें बड़ा दरजा दें।

पन्द्रह - बीस मिनट में इक्का गोबर्धन की सराय पहुँच गया। सड़क के दाहने हाथ एक गली थी। वहाँ बुढ़िया ने इक्का रुकवा दिया, और उतर पड़ी। इक्का आगे न जा सकता था। मालूम पड़ता था, अँधेरे में मुंह पर तारकोल पोत लिया है।

अमरकान्त ने इक्के को लौटाने के लिए कहा, बुढ़िया बोली--नहीं मेरे लाल, इत्ती दूर आये हो, तो पल भर मेरे घर भी बैठ लो, तमने मरा कलेजा ठंढा कर दिया।

गली में बड़ी दुर्गन्ध थी। गन्दे पानी के नाले दोनों तरफ बह रहे थे। घर प्रायः सभी कच्चे थे। गरीबों का मुहल्ला था। शहरों के बाजारों और गलियों में कितना अंतर है ! एक फूल है--सुन्दर, स्वच्छ, सुगन्धमय ; दूसरी जड़ है--कीचड़ और दुर्गन्ध से भरी, टेढ़ी-मेढ़ी ! लेकिन क्या फूल को मालूम है कि उसकी हस्ती जड़ से है ?

बुढ़िया ने एक मकान के सामने खड़े होकर धीरे से पुकारा--सकीना ! अन्दर से आवाज आई--आती हूँ अम्मा । इतनी देर कहाँ लगाई ?

एक क्षण में सामने का द्वार खुला और एक बालिका हाथ में मिट्टी के तेल की एक कुप्पी लिये द्वार पर खड़ी हो गयी। अमरकान्त बुढ़िया के पीछे खड़ा था। उस पर बालिका की निगाह न पड़ी; लेकिन बुढ़िया आगे बढ़ी तो सकीना ने अमर को देखा। तुरन्त ओढ़नी से मुंह छिपाती हुई पीछे हट गयी और धीरे से पूछा--यह कौन है अम्मा ?

बुढ़िया ने कोने में अपनी लकड़ी रख दी और बोली--लाला का लड़का है, मझे पहुँचाने आया है। ऐसा नेक और शरीफ़ लड़का तो मैंने देखा ही नहीं।

उसने अब तक का सारा वृत्तान्त अपने आशीर्वादों से भरी भाषा में कह सुनाया और बोली--आँगन में खाट डाल दे बेटी, जरा बुला लूँ। थक गया होगा।

सकीना ने एक टूटी-सी खाट आँगन में डाल दी और ऊपर से एक सड़ी-सी चादर बिछाती हुई बोली--इस खटोले पर क्या बिठाओगी अम्मा, मुझे तो शर्म आती है।

बुढ़िया ने जरा कड़ी आँखों से देखकर कहा--शर्म की क्या बात है इसमें? हमारा हाल क्या इनसे छिपा है ?

उसने बाहर जाकर अमरकान्त को बुलाया। द्वार पर एक टाट का फटा-पुराना परदा पड़ा हुआ था। द्वार के अन्दर कदम रखते ही एक आँगन था, जिसमें मुश्किल से दो खटोले पड़ सकते थे। सामने खपरैल का नीचा सायबान था और सायबान के पीछे एक कोठरी थी, जो इस वक्त अँधेरी पड़ी हुई थी। सायबान में एक किनारे चूल्हा बना हुआ था और टीन और मिट्टी के दो-चार बरतन, एक घड़ा और एक मटका रखे हुए थे। चूल्हे में आग जल रही थी और तवा रखा हुआ था।

अमर ने खाट पर बैठते हुए कहा--यह घर तो बहुत छोटा है। इसमें गुजर कैसे होती है ?
बुढ़िया खाट के पास जमीन पर बैठ गयी और बोली--बेटा अब तो दो ही आदमी है, नहीं इसी घर में एक पूरा कुनबा रहता था। मेरे दो दो बेटे, दो बहऐं, उनके बच्चे सब इसी घर में रहते थे। इसी में सबों के शादी-ब्याह हुए और इसी में सब मर भी गये। उस वक्त यह ऐसा गुलजार लगता था, कि तुमसे क्या कहूँ। अब मैं हूँ और मेरी पोती यह है। और सबको अल्लाह ने बुला लिया। पकाते हैं, खाते हैं और पड़े रहते हैं। तुम्हारे पठान के मरते ही घर में जैसे झाडू फिर गयी। अब तो अल्लाह से यही दुआ है कि मेरे जीत-जी यह किसी भले आदमी के पल्ले पड़ जाय, तब अल्लाह से कहूँगी, कि अब मुझे उठा लो। तुम्हारे यार दोस्त तो बहुत होंगे बेटा, अगर शर्म की बात न समझो तो किसी से ज़िक्र करना। कौन जाने तुम्हारे ही हीले से कहीं बात-चीत ठीक हो जाय।

सकीना कुरता-पायजामा पहने, ओढ़नी से माथा छिपाये सायबान में खड़ी थी। बुढ़िया ने ज्यों ही उसकी शादी की चर्चा छेड़ी, वह चूल्हे के पास जा बैठी और आटे को अँगुलियों से गोदने लगी। वह दिल में झुंझला रही थी कि अम्माँ क्यों इनसे मेरा दुखड़ा ले बैठीं। किससे कौन बात कहनी चाहिए, कौन बात नहीं, इसका इन्हें जरा भी लिहाज नहीं। जो ऐरा-गैरा आ गया, उसी से शादी का पचड़ा गाने लगीं। और सब बातें गयीं, बस एक शादी रह गयी !

उसे क्या मालूम, कि अपनी सन्तान को विवाहित देखना बुढ़ापे की सबसे बड़ी अभिलाषा है।

अमरकान्त ने मन में मुसलमान मित्रों का सिंहावलोकन करते हुए कहा--मेरे मुसलमान दोस्त ज्यादा तो नहीं हैं लेकिन जो दो-एक है,उनसे मैं जिक्र करूँगा।

वृद्धा ने चिन्तित भाव से कहा--वह लोग धनी होंगे?

'हाँ, सभी खुशहाल हैं।'

'तो भला धनी लोग हम गरीबों की बात क्यों पूछेगे। हालाँकि हमारे नबी का हुक्म है कि शादी-ब्याह में अमीर गरीब का खयाल न होना चाहिए; पर उनके हुक्म को कौन मानता है ! नाम के मुसलमान, नाम के हिन्दू रह गये हैं। न कहीं सच्चा मुसलमान नजर आता है, न सच्चा हिन्दू। मेरे घर का तो तुम पानी भी न पियोगे, बेटा, तुम्हारी क्या खातिर करूँ ? (सकीना से) बेटी, तुमने जो रूमाल काढ़ा है वह लाकर भैया को दिखाओ। शायद इन्हें पसन्द आ जाय। और हमें अल्लाह ने किस लायक बनाया है।'

सकीना रसोई से निकली और एक ताक पर से सिगरेट का एक बड़ा-सा बक्स उठा लायी और उसमें से वह रूमाल निकालकर सिर झुकाये, झिझकती हुई, बुढ़िया के पास आ, रूमाल रख, तेजी से चली गयी।

अमरकान्त आँखें झुकाये हुए था; पर सकीना को सामने देखकर आँखें नीची न रह सकीं। एक रमणी सामने खड़ी हो, तो उसकी ओर से मुँह फेर लेना कितनी भद्दी बात है। सीना का रंग साँवला था और रूप-रेखा देखते हुए वह सुन्दरी न कही जा सकती थी, अंग-प्रत्यंग का गठन भी कवि-वर्णित उपमाओं में मेल न खाता था; पर रंग-रूप, चाल-ढाल, शील-संकोच, इन सबने मिल-जुलकर उसे आकर्षक शोभा प्रदान कर दी थी। वह बड़ी-बड़ी पलकों में आँखें छिपाये, देह चुराये, शोभा की सुगन्ध और ज्योति फैलाती हुई, इस तरह निकल गयी, जैसे स्वप्न-चित्र एक झलक दिखाकर मिट गया हो।

अमरकान्त ने रूमाल उठा लिया और दीपक के प्रकाश में उसे देखने लगा। कितनी सफाई से बेल-बूटें बनाये गये थे। बीच में एक मोर का चित्र था। इस झोपड़े में इतनी सुरुचि ?

चकित होकर बोला--यह तो बड़ा खूबसूरत रूमाल है, माताजी ! सकीना काढ़ने के काम में बहुत होशियार मालूम होती है।

बुढ़िया ने गर्व से कहा--यह सभी काम जानती है भैया, न जाने कैसे सीख लिया। मुहल्ले की दो-चार लड़कियाँ मदरसे पढ़ने जाती है। उन्हीं को काढ़ले देखकर इसने सब कुछ सीख लिया। कोई मर्द घर में होता, तो हमें कुछ काम मिल जाया करता ! इन गरीबों के मुहल्लों में इन कामों की कौन कदर कर सकता है। तुम यह रूमाल लेते जाओ बेटा, एक बेकस बेवा की नज़र है।

अमर ने रूमाल को जेब में रखा, तो उसकी आंखें भर आयीं। उसका बस होता, तो इसी वक्त सौ-दो-सौ रूमालों की फ़रमाइश कर देता। फिर भी यह बात उसके दिल में जम गयी। उसने खड़े होकर कहा--मैं इस रूमाल को हमेशा तुम्हारी दुआ समझूँगा। वादा तो नहीं करता; लेकिन मुझे यकीन है, कि मैं अपने दोस्तों से आपको कुछ काम दिला सकूँगा।

अमरकान्त ने पहले पठानिन के लिए 'तुम' का प्रयोग किया था। चलते समय तक वह तुम 'आप' में बदल गया था। सुरुचि, सुविचार, सदभाव, उसे यहाँ सब कुछ मिला। हाँ उस पर विपन्नता का आवरण पड़ा हुआ था। शायद सकीना ने यह 'आप' और 'तुम' का विवेक उत्पन्न कर दिया था।

अमर उठ खड़ा हआ। बुढ़िया अंचल फैलाकर उसे दुआएँ देती रही।

अमरकान्त नौ बजते-बजते लौटा, तो लाला समरकान्त ने पूछा--तुम दुकान बन्द करके कहाँ चले गये थे ? इसी तरह दुकान पर बैठा जाता है ?

अमर ने सफ़ाई दी--बुढ़िया पठानिन रुपये लेने आयी थी। बहुत अँधेरा हो गया था। मैंने समझा कहीं गिर-गिरा पड़े इसलिए उसे घर तक पहुँचाने चला गया था। वह तो रुपये लेती ही न थी ; पर जब बहुत देर हो गयी, तो मैंने रोकना उचित न समझा।

'कितने रुपये दिये ?'

'पाँच।'

लालाजी को कुछ धैर्य हुआ।

'और कोई असामी आया था? किसी से कुछ रुपये वसूल हए ?'

'जी नहीं।'

'आश्चर्य है।'

'और कोई तो नहीं आया, हाँ वही बदमाश काले खां सोने की एक चीज बेचने लाया था। मैंने लौटा दिया।'

समरकान्त की त्यौरियाँ बदलीं--क्या चीज थी ?

'सोने के कड़े थे। दस तोले बताता था।'

'तुमने तौला नहीं !'

'मैंने हाथ से छुआ तक नहीं।'

'हाँ, क्यों छूते, उसमें पाप लिपटा हुआ था न ! कितना मांगता था ?'

'दो सौ !'

'झूठ बोलते हो।'

'शुरू दो सौ से किया था ; पर उतरते-उतरते ३०) तक आया था।'
लालाजी की मुद्रा कठोर हो गयी--फिर भी तुमने लौटा दिया ?

'और क्या करता। मैं तो उसे सेत में भी न लेता। ऐसा रोजगार करना मैं पाप समझता हूँ।'

समरकान्त क्रोध से विकृत होकर बोले--चुप रहो, शरमाते तो नहीं, ऊपर से बातें बनाते हो! १५०) बैठे बैठाये मिलते थे, वह तुमने धर्म के घमण्ड में खो दिये, उस पर से अकड़ते हो ! धर्म है क्या चीज़ ? साल में एक भी गंगा स्नान करते हो ? एक बार भी देवताओं को जल चढ़ाते हो ? कभी राम का नाम लिया है ? ज़िन्दगी में कभी एकादशी या कोई दूसरा व्रत रखा है ? कभी कथा-पुराण पढ़ते या सुनते हो ? तुम क्या जानो धर्म किसे कहते हैं ! धर्म और चीज़ है, रोजगार और चीज़। छि: ! साफ डेढ़ सौ फेंक दिये।

अमरकान्त धर्म की इस व्याख्या पर मन ही मन हँसकर बोला--आपके गंगा-स्नान, पूजा-पाठ मुख्य धर्म के साधन मात्र हैं, धर्म नहीं।

समरकान्त ने मुंह चिढ़ाकर कहा--ठीक कहते हो, बहत ठीक ; अब संसार तुम्हीं को धर्म का आचार्य मानेगा ! अगर तूम्हारे धर्म-मार्ग पर चलता तो आज मैं भी लँगोटी लगाये घूमता होता, तुम भी यो महल में बैठकर मौज न करते होते। चार अक्षर अंग्रेजी पढ़ ली न, यह उसी की विभूति है ! लेकिन मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो अंग्रेजी के विद्वान होकर भी अपना धर्म-कर्म निभाये जाते हैं। साफ डेढ़ सौ पानी में डाल दिये !

अमरकान्त ने अधीर होकर कहा--आप बार बार उसकी चर्चा क्यों करते हैं ? मैं चोरी और डाके के माल का रोजगार न करूँगा, चाहे आप खुश हों या नाराज। मुझे ऐसे रोजगार से घृणा होती है। मैं अपनी आत्मा की हत्या नहीं कर सकता।

तो मेरे काम में वैसी आत्मा की जरूरत नहीं। मैं ऐसी आत्मा चाहता हूँ जो अवसर देखकर, हानि लाभ का विचार करके काम करें।'

'धर्म को मैं हानि-लाभ की तराजू पर नहीं तोल सकता !'

इस वज्र मूर्खता की दवा, चाँटे के सिवा कुछ न थी। लालाजी खून का घूंट पीकर रह गये। अगर हृष्ट-पुष्ट होता, तो आज उसे धर्म की निन्दा करने का मजा मिल जाता। बोले--बस संसार में तुम्हीं तो एक धर्म के ठीकेदार रह गये हो, और तो सब अधर्मी हैं। वही माल जो तुमने अपने घमंड में लौटा दिया, तुम्हारे किसी दूसरे भाई ने दो-चार रुपये कम-बेश देकर ले लिया होगा। उसने तो रुपये कमाये, तुम नीबू नोन चाट कर रह गये। डेढ़ सौ रुपये तब मिलते हैं, जब डेढ़ सौ थान कपड़ा या डेढ़ सौ बोरे चीनी बिक जायँ। मुंह का कौर नहीं है। अभी कमाना नहीं पड़ा है, दूसरों की कमाई से चैन उड़ा रहे हो, तभी ऐसी बातें सूझती हैं। जब अपने सिर पड़ेगी, तब आंखें खुलेंगी।

अमर अब भी कायल न हुआ। बोला--मैं कभी यह रोज़गार न करूँगा।

लालाजी को लड़के की मूर्खता पर क्रोध की जगह क्रोध-मिश्रित दया आ गयी। बोले--तो फिर कौन रोजगार करोगे ? कौन रोज़गार है, जिसमें तुम्हारी आत्मा की हत्या न हो; लेन-देन, सूद-बट्टा, अनाज-कपड़ा तेल-धी सभी रोजगारों में दांव-घात है। जो दांव-घात समझता है, वह नफा उड़ाता है, जो नहीं समझता, उसका दिवाला पिट जाता है। मझे कोई ऐसा रोजगार बता दो, जिसमें झूठ न बोलना पड़े, बेईमानी न करनी पड़े। इतने बड़े-बड़े हाकिम है, बताओ कौन घूस नहीं लेता ? एक सीधी-सी नक़ल लेने जाओ तो एक रुपया लग जाता है। बिना तहरीर किये थानेदार रपट तक नहीं लिखता। कौन वकील है, जो झूठे गवाह नहीं बनाता ? लीडरों ही में कौन है, जो चन्दे के रुपये में नोच-खसोट न करता हो ? माया पर तो संसार की रचना हुई है, इससे कोई कैसे बच सकता है ?

अमर ने उदासीन भाव से सिर हिलाकर कहा--अगर रोजगार का यह हाल है, तो मैं रोज़गार करूँगा ही नहीं।

'तो घर-गिरस्ती कैसे चलेगी ? कुएँ में पानी की आमद न हो, तो कै दिन पानी निकले !'

अमरकान्त ने इस विवाद का अन्त करने के इरादे से कहा--मै भूखों मर जाऊँगा। पर आत्मा का गला न घोटुंगा।

'तो क्या मजूरी करोगे?'

'मजूरी करने में कोई शर्म नहीं है।'

समरकान्त ने हथौड़े से काम चलते न देखकर धन चलाया--शर्म चाहे न हो, पर तुम कर न सकोगे, कहो लिख दूँ ! मुँह से बक देना सहल है, कर दिखाना कठिन होता है। चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब चार गंडे पैसे मिलते हैं। मजूरी करेंगे! एक घड़ा पानी तो अपने हाथों खींचा नहीं जाता, चार पैसे की भाजी लेनी होती है, तो नौकर लेकर चलते हैं, यह मजूरी करेंगे ! अपने भाग्य को सराहो, कि मैंने कमाकर रख दिया है। तुम्हारा किया कुछ न होगा। तुम्हारी इन बातों से ऐसा जी जलता है, कि सारी जायदाद कृष्णार्पण कर दूँ। फिर देखूं तुम्हारी आत्मा किधर जाती है।

अमरकान्त पर उनकी इस चोट का भी कोई असर न हुआ--आप खुशी से अपनी जायदाद कृष्णार्पण कर दें। मेरे लिए रत्ती भर चिन्ता न करें। जिस दिन आप यह पुनीत कार्य करेंगे, उस दिन मेरा सौभाग्य सूर्य उदय होगा और मैं इस मोह से मुक्त होकर स्वाधीन हो जाऊँगा। जब तक मैं इस बन्धन में पड़ा रहूँगा, मेरी आत्मा का विकास न होगा।

समरकान्त के पास अब कोई शस्त्र न था। एक क्षण के लिए क्रोध ने उनकी व्यवहार-बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। बोले--तो क्यों इस बन्धन में पड़े हो? क्यों अपनी आत्मा का विकास नहीं करते? महात्मा हो जाओ ! कुछ करके दिखाओ तो ! जिस चीज की तुम क़दर नहीं कर सकते, वह मैं तुम्हारे गले नहीं मढ़ना चाहता।

यह कहते हुए वह ठाकुरद्वारे चले गये, जहाँ इस समय आरती का घंटा बज रहा था। अमर इस चुनौती का जबाब न दे सका। वे शब्द जो बाहर न निकल सके, उसके हृदय में फोड़े की तरह टपकने लगे--मुझ पर अपनी सम्पत्ति की धौंस जमाने चले हैं? चोरी का माल बेचकर, जुआरियों को चार आने रुपये ब्याज पर रुपये देकर, गरीब मजूरों और किसानों को ठगकर तो रुपये जोड़े हैं, उस पर आपको इतना अभिमान है ! ईश्वर न करे, कि मैं उस धन का गुलाम बनूं।

वह इन्हीं उत्तेजना से भरे हुए विचारों में डूबा बैठा था, कि नैना ने आकर कहा--दादा बिगड़ रहे थे भैया ?

अमरकान्त के एकान्त जीवन में नैना ही स्नेह और सान्त्वना की वस्तु थी। अपना सुख-दुख, अपनी विजय और पराजय, अपने मंसूबे और इरादे वह उसी से कहा करता था। यद्यपि सुखदा से अब उसे इतना विराग न था, नहीं, उससे उसे प्रेम भी हो गया था, पर नैना अब भी सबसे निकटतर थी। सुखदा और नैना दोनों उसके अन्तस्तल की दो कगारें थीं। सूखदा ऊँची, दुर्गम और विशाल थी। लहरें उसके चरणों ही तक पहुँचकर रह जाती थीं। नैना समतल, सुलभ और समीप। वायु का थोड़ा वेग पाकर भी लहरें उसके मर्मस्थल तक जा पहुँचती थीं।

अमर अपनी मनोव्यथा को मन्द मुस्कान की आड़ में छिपाता हुआ बोला--कोई नयी बात नहीं थी नैना। वही पुराना पचड़ा था। तुम्हारी भाभी तो नीचे नहीं थीं?

'अभी तक तो यहीं थीं। ज़रा देर हुई ऊपर चली गयीं।'

'तो आज उधर से भी शस्त्र-प्रहार होंगे। दादा ने तो आज मुझसे साफ़ कह दिया, तुम अपने लिए कोई राह निकालो, और मैं सोचता हूँ मुझे अब कुछ-न-कुछ करना चाहिये। यह रोज़-रोज़ की फटकार नहीं सही जाती। मैं कोई बुराई करूँ तो वह मुझे दस जूते भी जमा दें चूँ न करूँगा, लेकिन अधर्म पर मुझसे न चला जायगा।'

नैना से इस वक्त मीठी पकौड़ियां, नमकीन पकौड़ियां, खट्टी पकौड़ियां और न जाने क्या क्या पका रखे थे। उसका मन उन पदार्थों को खिलाने और खाने के आनन्द में बसा हुआ था। यह धर्म-अधर्म के झगड़े उसे व्यर्थ से जान पड़े। बोली--पहले चलकर पकौड़ियां खा लो, फिर इस विषय पर सलाह होगी।

अमर ने वितृष्णा के भाव से कहा---व्यालू करने की मेरी इच्छा नहीं है। लात की मारी रोटियां कंठ के नीचे न उतरेंगी। दादा ने आज फैसला कर दिया।

'अब तुम्हारी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती। आज की-सी मजेदार पकौड़ियाँ तुमने कभी न खायी होंगी। तुम न खाओगे, तो मैं भी न खाऊँगी।'

नैना की इस दलील ने उसके इन्कार को कई कदम पीछे ढकेल दिया--'तू मुझे बहुत दिक करती है नैना, सच कहता हूँ, मेरी बिलकुल इच्छा नहीं है।'

'चलकर थाल पर बैठो तो पकौड़ियाँ देखते ही टूट न पड़ो तो कहना।'

'तू जाकर खा क्यों नहीं लेती? मैं एक दिन न खाने से मर तो न जाऊँगा।'

'तो क्या मैं एक दिन न खाने से मर जाऊँगी? मैं तो निर्जला शिवरात्रि रखती हूँ, तुमने तो कभी व्रत नहीं रखा।'
नैना के आग्रह को टालने की शक्ति अमरकान्त में न थी।

लाला समरकान्त रात को भोजन न करते थे। इसलिए भाई, भावज, बहन साथ ही खा लिया करते थे। अमर आंगन में पहुँचा तो नैना ने भाभी को बुलाया। सुखदा ने ऊपर ही से कहा, मुझे भूख नहीं है।

मनावन का भार अमरकान्त के सिर पड़ा। वह दबे पांव ऊपर गया। जी में डर रहा था, कि आज मुआमला तूल खींचेगा; पर इसके साथ ही दृढ़ भी था। इस प्रश्न पर दबेगा नहीं। यह ऐसा मार्मिक विषय था, जिस पर किसी प्रकार का समझौता हो ही न सकता था।

अमरकान्त की आहट पाते ही सुखदा सँभल बैठी। उसके पीले मुखपर ऐसी करुण-वेदना झलक रही थी, कि एक क्षण के लिये अमरकान्त चंचल हो गया। अमरकान्त ने उसका हाथ पकड़कर कहा--चलो, भोजन कर लो। आज बहुत देर हो गयी।

'भोजन पीछे करूँगी, पहले मुझे तुमसे एक बात का फैसला करना है। तुम आज दादाजी से लड़ पड़े ?'

'दादाजी से मैं लड़ पड़ा, या उन्होंने मुझे अकारण डांटना शुरू किया ?'

सुखदा में दार्शनिक निरपेक्षता के स्वर में कहा--तो उन्हें डाँटने का अवसर ही क्यों देते हो? मैं मानती हूँ, कि उनकी नीति तुम्हें अच्छी नहीं लगती। मैं भी उसका समर्थन नहीं करती; लेकिन अब इस उम्र में तुम उन्हें नये रास्ते पर नहीं चला सकते। वह भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं, जिस पर सारी दुनिया चल रही है। तुमसे जो कुछ हो सके, उनकी मदद करो। जब वह न रहेंगे, उस वक्त अपने आदर्शों का पालन करना। तब कोई तुम्हारा हाथ न पकड़ेगा। इस वक्त तो तुम्हें अपने सिद्धान्तों के विरुद्ध भी कोई बात करनी पड़े, तो बुरा न मानना चाहिए। उन्हें कम-से-कम इतना सन्तोष तो दिला दो, कि उनके पीछे तुम उनकी कमाई लुटा न दोगे। आज तुम दोनों जनों की बातें सुन रही थी। मुझे तो तुम्हारी ही ज्यादती मालूम होती थी।

अमरकान्त उसके प्रसव भार पर चिन्ता भार न लादना चाहता था; पर प्रसंग ऐसा आ पड़ा था, कि वह अपने को निर्दोष सिद्ध करना आवश्यक समझता था। बोला--उन्होंने आज मुझसे साफ़-साफ़ कह दिया, तुम अपनी फ़िक्र करो। उन्हें अपना धन मुझसे ज़्यादा प्यारा है। यही कांटा था, जो अमरकान्त के हृदय में चुभ रहा था।

सुखदा के पास जवाब तैयार था--तुम्हें भी तो अपना सिद्धान्त अपने बाप से ज्यादा प्यारा है ? उन्हें तो मैं कुछ नहीं कहती। अब साठ बरस को उम्र में उन्हें उपदेश नहीं दिया जा सकता। कम-से-कम तुमको यह अधिकार नहीं है। तुम्हें धन काटता हो; लेकिन मनस्वी, वीर पुरुषों ने सदैव लक्ष्मी की उपासना की। संसार को पुरुषार्थियों ने ही भोगा है और हमेशा भोगेंगे। त्याग गृहस्थों के लिए नहीं संन्यासियों के लिए है। अगर तुम्हें त्यागव्रत लेना था तो विवाह करने की ज़रूरत न थी, सिर मुड़ाकर किसी साधु-सन्त के चेले बन जाते। फिर मैं तमसे झगड़ने न आती। अब ओखली में सिर डालकर तुम मूसलों से नहीं बच सकते। गृहस्थी के चरखें में पड़कर बड़े-बड़ों की नीति भी स्खलित हो जाती है। कृष्ण और अर्जुन तक को एक नये तर्क की शरण लेनी पड़ी।

अमरकान्त ने इस ज्ञानोपदेश का जवाब देने की जरूरत न समझी। ऐसी दलीलों पर गंभीर विचार किया ही न जा सकता था। बोला--तो तुम्हारी सलाह है कि सन्यासी हो जाऊँ ?

सुखदा चिढ़ गयी। अपनी दलीलों का यह अनादर न सह सकी। बोली--कायरों को इसके सिवा और सूझ ही क्या सकता है। धन कमाना आसान नहीं है। व्यवसायियों को जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वह अगर संन्यासियों को झेलनी पड़ें, तो सारा संन्यास भूल जाय। किसी भले आदमी के द्वार पर जाकर पड़ रहने के लिए बल, बुद्धि, विद्या, साहस किसी की जरूरत नहीं। धनोपार्जन के लिए खून जलाना पड़ता है, मांस सुखाना पड़ता है। सहज काम नहीं है। धन कहीं पड़ा नहीं है, कि जो चाहे बटोर लाये।

अमरकान्त ने उसी विनोद भाव से कहा--मैं तो दादा को गद्दी पर बैठे रहने के सिवाय और कुछ करते नहीं देखता। और भी जो बड़े-बड़े सेठ-साहूकार हैं, उन्हें भी फूलकर कुप्पा होते ही देखा है। रक्त और मांस तो मजदूर ही जलाते हैं। जिसे देखो कंकाल बना हुआ है।

सुखदा ने कुछ जवाब न दिया। ऐसी मोटी अक्ल के आदमी से ज्यादा बकवास करना व्यर्थ था।
नैना ने पुकारा-- तुम क्या करने लगे भैया ? आते क्यों नहीं ? पकौड़ियाँ ठंडी हुई जाती हैं।

सुखदा ने कहा-- तुम जाकर खा क्यों नहीं लेते? बेचारी ने दिन भर तैयारियां की हैं।

'मैं तो तभी जाऊँगा, जब तुम भी चलोगी।'

'वादा करो कि फिर दादाजी से लड़ाई न करोगे।'

अमरकान्त ने गम्भीर होकर कहा-- सुखदा, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मैंने इस लड़ाई से बचने के लिये कोई बात उठा नहीं रखी। इन दो सालों में मुझमें कितना परिवर्तन हो गया है, कभी-कभी मुझे इस पर स्वयं आश्चर्य होता है। मुझे जिन बातों से घृणा थी, वह सब मैंने अंगीकार कर ली; लेकिन अब उस सीमा पर आ गया है, कि जौ भर भी आगे बढ़ा, तो ऐसे गर्त में जा गिरूँगा, जिसकी थाह नहीं है। उस सर्वनाश की ओर मुझे मत ढकेलो।

सुखदा को इस कथन में अपने ऊपर लांछन का आभास हुआ। इसे वह कैसे स्वीकार करती। बोली-इसका तो यही आशय है, कि मैं तुम्हारा सर्वनाश करना चाहती हूँ। अगर मेरे व्यवहार का यही तत्त्व तुमने निकाला है, तो तुम्हें इससे बहुत पहले मुझे विष दे देना चाहिये था। अगर तुम समझते हो कि मैं भोग-विलास की दासी हूँ और केवल स्वार्थवश तुम्हें समझाती हूँ, तो तुम मेरे साथ घोरतम अन्याय कर रहे हो। मैं तुमको बता देना चाहती हूँ कि विलासिनी सुखदा अवसर पड़ने पर जितने कष्ट झेलने की सामर्थ्य रखती है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। ईश्वर वह दिन न लाये कि मैं तुम्हारे पतन का साधन बनूँ। हाँ, जलने के लिए स्वयं चिता बनाना मुझे स्वीकार नहीं। मैं जानती हूँ कि तुम थोड़ी बुद्धि से काम लेकर अपने सिद्धान्त और धर्म की रक्षा भी कर सकते हो और किसी घर की तबाही को भी रोक सकते हो। दादाजी पढ़े-लिखे आदमी हैं, दुनिया देख चुके हैं। अगर तुम्हारे जीवन में कुछ सत्य है, तो उसका उन पर प्रभाव पड़े बगैर नहीं रह सकता। आये दिन की धौड़ से तुम उन्हें और भी कठोर बनाये देते हो। बच्चे भी मार से जिद्दी हो जाते हैं। बूढ़ों की प्रकृति कुछ बच्चों ही सी होती है। बच्चों की भांति उन्हें भी तुम सेवा और भक्ति से ही अपना सकते हो।

अमर ने पूछा-- चोरी का माल खरीदा करूँ?
'कभी नहीं।'

'लड़ाई तो इसी बात पर हुई।'

'तुम उस आदमी से कह सकते थे-- दादा आ जायें तब आना।'

'और अगर वह न मानता? उसे तत्काल रुपये की जरूरत थी।'

'आपद्धर्म भी तो कोई चीज है?'

'वह पाखंडियों का पाखण्ड है।'

'तो मैं तुम्हारे निर्जीव आदर्शवाद को भी पाखंडियों का पाखंड समझती हूँ।

एक मिनट तक दोनों थके हुए योद्धाओं की भाँति दम लेते रहे। तब अमरकान्त ने कहा-नैना पुकार रही है।

'मैं तो तभी चलूंगी, जब तुम वादा करोगे!'

अमरकान्त ने अविचलित भाव से कहा- तुम्हारी खातिर से कहो, वादा कर लूं; पर मैं उसे पूरा नहीं कर सकता। यही हो सकता है कि मैं घर की किसी बात से सरोकार न रखूँ।

सुखदा निश्चयात्मक रूप से बोली--यह इससे कहीं अच्छा है, कि रोज घर में लड़ाई होती रहे। जब तक इस घर में हो, इस घर की हानि-लाभ का तुम्हें विचार करना पड़ेगा।

अमर ने अकड़कर कहा-मैं आज इस घर को छोड़ सकता हूँ।

सुखदा ने बम-सा फेंका--और मैं?

अमर विस्मय से सुखदा का मुँह देखने लगा।

सुखदा ने उसी स्वर में फिर कहा- इस घर से मेरा नाता तुम्हारे आधार पर है। जब तुम इस घर में न रहोगे, तो मेरे लिये यहाँ क्या रखा है। जहाँ तुम रहोगे वहीं मैं भी रहूँगी।

अमर ने संशयात्मक स्वर में कहा-तुम अपनी माता के साथ रह सकती हो।

'माता के साथ क्यों रहूँ? मैं किसी की आश्रित नहीं रह सकती। मेरा दुःख-सुख तुम्हारे साथ है। जिस तरह रखोगे, उसी तरह रहूंगी। मैं तभी देखूंगी, तुम अपने सिद्धांतों के कितने पक्के हो। मैं प्रण करती हूँ कि तुमसे कुछ न मांगूंगी। तुम्हें मेरे कारण जरा भी कष्ट न उठाना पड़ेगा। मैं खुद पैदा कर सकती हूँ। थोड़ा मिलेगा, थोड़े में गुजारा कर लेंगे ; बहुत मिलेगा, तो पूछना ही क्या। जब एक दिन हमें अपनी झोपड़ी बनानी है तो क्यों न अभी से हाथ लगा दें। तुम कुएँ से पानी लाना, मैं चौका-बरतन कर लूंगी। जो आदमी एक महल में रहता है, वह एक कोठरी में भी रह सकता है। फिर कोई धौंस तो न जमा सकेगा !'

अमरकान्त पराभूत हो गया। उसे अपने विषय में तो कोई चिन्ता न थी; लेकिन सुखदा के साथ वह यह अत्याचार कैसे कर सकता था ?

खिसियाकर बोला--वह समय अभी नहीं आया है सुखदा !

सुखदा सतेज होकर बोली--डरते होगे कि यह अपने भाग्य को रोयेगी, क्यों ?

अमरकान्त झेंपकर बोले--बात नहीं है सुखदा !

'क्यों झूठ बोलते हो! तुम्हारे मन में यही भाव है और इससे बड़ा अन्याय तुम मेरे साथ नहीं कर सकते। कष्ट सहने में, या सिद्धांत की रक्षा के लिए स्त्रियां कभी मरदों से पीछे नहीं रहीं। तुम मुझे मजबूर कर रहे हो कि और कुछ नहीं तो इस लांछन से बचने के लिये मैं दादाजी से अलग रहने की आज्ञा मांगूँ। बोलो ?'

अमर लज्जित होकर बोला--मुझे क्षमा कर दो सुखदा ! मैं वादा करता हूँ कि दादाजी जैसा कहेंगे, वैसा ही करूंगा।

'इसलिए कि तुम्हें मेरे विषय में सन्देह है ?'

'नहीं केवल इसलिए कि मुझमें अभी उतना बल नहीं है।'

इसी समय नैना आकर दोनों को पकौड़ियां खिलाने के लिए घसीट ले गयी। सुखदा प्रसन्न थी : उसने आज बड़ी विजय पायी थी। अमरकान्त झेंपा हुआ था। उसके आदर्श और धर्म की आज परीक्षा हो गई थी और उसे अपनी दुर्बलता का ज्ञान हो गया था। ऊँट पहाड़ के नीचे आकर अपनी ऊँचाई देख चुका था।