कर्मभूमि/पहला भाग ९
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तीन महीने तक सारे शहर में हलचल रही। रोज हजारों आदमी सब काम धन्धे छोड़कर कचहरी जाते। भिखारिन को एक नज़र देख लेने की अभिलाषा सभी को खींच ले जाती। महिलाओं की भी खासी संख्या हो जाती थी। भिखारिन ज्योंही लारी से उतरती 'जय-जय' की गगन-भेदी ध्वनि और पुष्प वर्षा होने लगती। रेणुका और सुखदा तो कचहरी के उठने तक वहीं रहतीं।
जिला मैजिस्ट्रेट ने मुकदमे को जजी में भेज दिया और रोज पेशियाँ होने लगी। पंच नियुक्त हुए। इधर सफ़ाई के वकीलों की एक फौज तैयार की गयी। मुक़दमे को सबूत की ज़रूरत न थी। अपराधिनी ने अपराध स्वीकार ही कर लिया था। बस यही निश्चय करना था, कि जिस वक्त उसने हत्या की उस वक्त वह होश में थी या नहीं। शहादतें कहती थी, वह होश में न थी। डाक्टर कहता था, उसमें अस्थिरचित्त होने के कोई चिह्न नहीं मिलते। डाक्टर साहब बंगाली थे। जिस दिन वह बयान देकर निकाले, उन्हें इतनी धिक्कारें मिली कि बेचारे को घर पहुँचना मुश्किल हो गया। ऐसे अवसरों पर जनता की इच्छा के विरुद्ध किसी ने चूँ किया और उसे धिक्कार मिली। जनता आत्म-निश्चय के लिए कोई अवसर नहीं देती। उसका शासन किमी तरह की नर्मी नहीं करता।
रेणुका नगर की रानी बनी हुई थी। मुक़दमे की पैरवी का सारा भार उसके ऊपर था। शान्ति कुमार और अमरकान्त उसकी दाहिनी और बायीं भजाएँ थे। लोग आ-आकर खुद चन्दा दे जाते। यहाँ तक कि लाला समरकान्त भी गुप्त रूप से सहायता कर रहे थे। एक दिन अमरकान्त ने पठानिन को कचहरी में देखा। सकीना भी चादर ओढ़े उसके साथ थी।
अमरकान्त ने पूछा--बैठने को कुछ लाऊँ माताजी? आज आपसे भी न रहा गया।
पठानिन बोली--मैं तो रोज आती हूँ बेटा, तुमने मुझे न देखा होगा। यह लड़की मानती ही नहीं।
अमरकान्त को रुमाल की यादगार आ गयी, और वह अनुरोध भी याद आया, जो बुढ़िया ने उससे किया था; पर इस हलचल में वह कालेज तक तो जा न पाता था, उन बातों का कहाँ से खयाल रखता।
बुढ़िया ने पूछा--मुक़दमे में क्या होगा बेटा। वह औरत छूटेगी कि सजा हो जायगी?
सकीना उसके और समीप आ गयी।
अमर ने कहा--कुछ कह नहीं सकता माता। छूटने की कोई उम्मीद नहीं मालूम होती; मगर हम प्रीवी कौंसिल तक जायँगे।
पठानिन बोली--ऐसे मामले में भी जज सजा कर दे, तो अंधेर है।
अमरकान्त ने आवेश में कहा--उसे सजा मिले चाहे रिहाई, पर उसने दिखा दिया कि भारत की दरिद्र औरतें भी कैसे अपनी आबरू की रक्षा कर सकती हैं!
सकीना ने पूछा तो अमर से, पर दादी की तरफ मुँह करके--हम दर्शन कर सकेंगे अम्मा?
अमर ने तत्परता से कहा--हाँ, दर्शन करने में क्या है। चलो पठानिन, मैं तुम्हें अपने घर की स्त्रियों के साथ बैठा दूं। वहाँ तुम उन लोगों से बातें भी कर सकोगी।
पठानिन बोली--हाँ बेटा, पहले ही दिन से यह लड़की मेरी जान खा रही है। तुमसे मुलाकात ही न होती थी कि पूछूं। कुछ रुमाल बनाये थे। उसके दो रुपये मिले। वह दोनों रुपये तभी से संच कर रखे हुए है। चन्दा देगी। न हो तो तुम्हीं ले लो बेटा, औरतों को दो रुपये देते हुए शर्म आयेगी।
अमरकान्त इन गरीबों का त्याग देखकर भीतर-ही-भीतर लज्जित हो गया। वह अपने को कुछ समझने लगा था। जिधर निकल जाता, जनता उसका सम्मान करती, लेकिन इन फाके़मस्तों का यह उत्साह देखकर उसकी आँखें खुल गयीं। बोला---चन्दे की तो अब ज़रूरत नहीं है अम्मा ! रुपये की कमी नहीं है। तुम इसे खर्च कर डालना। हाँ, चलो मैं उन लोगों से तुम्हारी मुलाकात करा दूं।
सकीना का उत्साह ठंडा पड़ गया। सिर झुकाकर बोली--जहाँ ग़रीबों के रुपये नहीं पूछे जाते, वहाँ गरीबों को कौन पूछेगा। वहाँ जाकर क्या करोगी अम्मा ! आयेगी तो यहीं से देख लेना।
अमरकान्त झेंपता हुआ बोला--नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है अम्मा, वहाँ तो एक पैसा भी हाथ फैलाकर लिया जाता है। गरीब-अमीर की कोई बात नहीं है। मैं खद गरीब हूँ। मैंने तो सिर्फ इस ख्याल से कहा था कि तुम्हें तकलीफ होगी।
दोनों अमरकान्त के साथ चली, तो रास्ते में पठानिन ने धीरे से कहा--मैंने उस दिन तुमसे एक बात कही थी बेटा ! शायद तुम भूल गये।
अमरकान्त ने शर्माते हुए कहा--नहीं-नहीं मुझे याद है। जरा आज-कल इसी झंझट में पड़ा रहा। ज्यों इधर से फ़ुरसत मिली, मैं अपने दोस्तों से जिक्र करूँगा।
अमरकान्त दोनों स्त्रियों का रेणुका से परिचय कराके बाहर निकला, तो प्रो० शान्तिकुमार से मुठभेड़ हुई। प्रोफ़ेसर ने पूछा--तुम कहाँ इधर-उधर घूम रहे हो जी ? किसी वकील का पता नहीं। मुकदमा पेश होने वाला है। आज मुलज़िम का बयान होगा, इन वकीलों से खुदा समझे। जरा सा इजलास पर खड़े क्या हो जाते हैं, गोया सारे संसार को उनकी उपासना करनी चाहिए। इससे कहीं अच्छा था, कि दो-एक वकीलों को मेहनताने पर रख लिया जाता। मुफ़्त का काम बेगार समझा जाता है। इतनी बेदिली से पैरवी की जा रही है, कि मेरा खून खौलने लगता है। नाम सब चाहते हैं, काभ कोई नहीं करना चाहता। अगर अच्छी जिरह होती तो पुलिस के सारे गवाह उखड़ जाते। पर वह कौन करता। जानते हैं कि आज मुलजिमों का बयान होगा, फिर भी किसी को फ़िक्र नहीं।
अमरकान्त ने कहा--मैं एक-एक को इत्तला दे चुका। कोई न आये तो मैं क्या करूँ। शान्ति०--मुक़दमा खतम हो जाय, तो एक-एक की खबर लूँगा।
इतने में लारी आती दिखाई दी। अमरकान्त वकीलों को इत्तला करने दौड़ा। दर्शक चारों तरफ से दौड़-दौड़कर अदालत के कमरे में आ पहुँचे। भिखारिन लारी से उतरी और कठघरे में सामने आकर खड़ी हो गयी। उसके आते ही हजारों आँखें उसकी ओर उठ गयीं; पर उन आँखों में एक भी ऐसी न थी, जिसमें श्रद्धा न भरी हो। उसके पीले, मुरझाये हुए मुख पर आत्मगौरव की ऐसी कान्ति थी, जो कुत्सित दृष्टि के उठने के पहले ही निराश और पराभूत करके उसमें श्रद्धा को आरोपित कर देती थी।
जज साहब साँवले रंग के, नाटे, चकले, बृहदाकार मनुष्य थे। उनकी लम्बी नाक और छोटी-छोटी आँखें अनायास ही मुसकराती मालूम देती थीं। पहले यह महाशय राष्ट्र के उत्साही सेवक थे और कांग्रेस के किसी प्रान्तीय जलसे के सभापति हो चुके थे; पर इधर तीन साल से वह जज हो गये थे। अतएव अब राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक रहते थे, पर जाननेवाले जानते थे कि वह अब भी पत्रों में नाम बदल कर अपने राष्ट्रीय विचारों का प्रतिपादन करते रहते थे। उनके विषय में कोई शत्रु भी यह कहने का साहस नहीं कर सकता था कि वह किसी दबाव या भय से न्याय-पथ से जौ-भर भी विचलित हो सकते हैं। उनकी यही न्याय-परता इस समय भिखारिन की रिहाई में बाधक हो रही थी।
जज साहब ने पूछा--तुम्हारा नाम ?
भिखारिन ने कहा--भिखारिन !
'तुम्हारे पिता का नाम ?'
'पिता का नाम बताकर उन्हें कलंकित नहीं करना चाहती।'
'घर कहाँ है ?'
भिखारिन ने दुःखी कण्ट से कहा--पूछकर क्या कीजिएगा। आपको इससे क्या काम है।
'तुम्हारे ऊपर यह अभियोग है कि तुमने ३ तारीख को दो अँगरेजों को छुरी से ऐसा जख्मी किया कि दोनों उसी दिन मर गये। तुम्हें यह अपराध स्वीकार है ?' भिखारिन ने निश्शंक भाव से कहा--आप उसे अपराध कहते हैं। मैं अपराध नहीं समझती।
'तुम मारना स्वीकार करती हो?'
'गवाहों ने झूठी गवाही थोड़े ही दी होगी?'
'तुम्हें अपने विषय में कुछ कहना है !'
भिखारिन ने स्पष्ट स्वर में कहा--मुझे कुछ नहीं कहना है। अपने प्राणों को बचाने के लिए मैं कोई सफाई नहीं देना चाहती। मैं तो यह सोचकर प्रसन्न हूँ कि जल्द जीवन का अन्त हो जायगा। मैं दीन, अबला। मुझे इतना ही याद है कि कई महीने पहले मेरा सर्वस्व लूट लिया गया और उसके लूट जाने के बाद मेरा जीना वृथा है। मैं उसी दिन मर चुकी। मैं आपके सामने खड़ी बोल रही हूँ, पर इस देह में आत्मा नहीं है। उसे मैं ज़िन्दा नहीं कहती, जो किसी को अपना मुंह न दिखा सके। मेरे इतने भाई-बहन व्यर्थ मेरे लिए इतनी दौड़-धूप और खरच-बरच कर रहे हैं। कलंकित होकर जीने से मर जाना कहीं अच्छा है। मैं न्याय नहीं मांगती, दया नहीं मांगती, मैं केवल प्राण-दण्ड मांगती हूँ। हां, अपने भाई-बहनों से इतनी बिनती करूँगी कि मेरे मरने के बाद मेरी काया का निरादर न करना, उसे छूने से घिन मत करना, भूल जाना कि यह किसी अभागिन, पतिता की लाश है। जीते-जी मुझे जो चीज़ नहीं मिल सकती, वह मुझे मरने के पीछे दे देना ! मैं साफ़ कहती हूँ कि मुझे अपने किये पर रंज नहीं है। ईश्वर न करे कि मेरी किसी बहन की ऐसी गति हो; लेकिन हो जाय तो उसके लिए इसके सिवाय कोई राह नहीं है। आप सोचते होंगे, जब यह मरने के लिये इतनी उतावली है, तो अब तक जीती क्यों रही। इसका कारण मैं आपसे क्या बताऊँ। जब मुझे होश आया और मैंने अपने सामने दो आदमियों को तड़पते देखा, तो मैं डर गयी। मुझे कुछ सूझ बूझ ही न पड़ा कि मुझे क्या करना चाहिए। उसके बाद भाइयों-बहनों की सज्जनता ने मुझे मोह के बन्धन में जकड़ दिया, और अब तक मैं अपने को इस धोखे में डाले हुए हूँ कि शायद मेरे मुख से कालिख छूट गयी और अब मुझे भी और बहनों की तरह विश्वास और सम्मान मिलेगा; लेकिन मन की मिठाई से किसी का पेट भरा है ? आज अगर सरकार मुझे छोड़ भी दे, मेरे भाई-बहन मेरे गले में फूलों की माला भी डाल दें, मुझपर अशर्फ़ियों की बरखा भी की जाय, तो क्या यहां से मैं अपने घर जाऊँगी ? मैं विवाहिता हूँ। मेरा एक छोटा-सा बच्चा है। क्या मैं उस बच्चे को अपना कह सकती हूँ ? क्या अपने पति को अपना कह सकती हूँ ? कभी नहीं। बच्चा मुझे देखकर मेरी गोद के लिये हाथ फैलायेगा; पर मैं उनके हाथों को नीचा कर दूंगो और आँखों में आँसू भरे मुँह फेरकर चली जाऊँगी। पति मुझे क्षमा भी कर दे। मैंने उसके साथ कोई विश्वासघात नहीं किया है। मेरा मन अब भी उसके चरणों से लिपट जाना चाहता है; लेकिन मैं उसके सामने ताक नहीं सकती। वह मुझे खींच भी ले जाय, तब भी मैं उस घर में पांव न रखूगी। इस विचार से मैं अपने मन को सन्तोष नहीं दे सकती कि मेरे मन में पाप न था। इस तरह तो अपने मन को वह समझाये, जिसे जीने की लालसा हो। मेरे हृदय से यह बात नहीं जा सकती कि तू अपवित्र है, अछूत है। कोई कुछ कहे, कोई कुछ सुने। आदमी को जीवन क्यों प्यारा होता है ? इसलिए नहीं कि वह सुख भोगता है। जो दुःख भोगा करते हैं और रोटियों के लिए तरसते हैं, उन्हें जीवन कुछ कम प्यारा नहीं होता। हमें जीवन इसलिए प्यारा होता है कि हमें अपनों का प्रेम और दूसरों का आदर मिलता है। ज़ब इन दो में से एक के भी मिलने की आशा नहीं, तो जीना वृथा है। अपने मुझसे अब भी प्रेम करें; लेकिन यह दया होगी, प्रेम नहीं। दूसरे अब भी मेरा आदर करें; लेकिन वह भी दया होगी, आदर नहीं। वह आदर और प्रेम अब मुझे मरकर ही मिल सकता है। जीवन में तो मेरे लिए निन्दा और बहिष्कार के सिवा और कुछ नहीं है। यहां मेरी जितनी बहनें और जितने भाई हैं, उन सबसे मैं यही भिक्षा मांगती हैं, कि उस समाज के उद्धार के लिए भगवान से प्रार्थना करें, जिसमें ऐसे नर-पिशाच उत्पन्न होते हैं।
भिखारिन का बयान समाप्त हो गया। अदालत के उस बड़े कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था। केवल दो-चार महिलाओं की सिसकियों की आवाज सुनायी देती थी। महिलाओं के मुख गर्व से चमक रहे थे। पुरुषों के मुख लज्जा से मलिन थे। अमरकान्त सोच रहा था, गोरों का ऐसा दुस्साहस इसीलिए तो हुआ कि वह अपने को इस देश का राजा समझते हैं। शान्तिकुमार ने मन ही मन एक व्याख्यान की रचना कर डाली थी जिसका विषय था--'स्त्रियों पर पुरुषों का अत्याचार।' सूखदा सोच रही थी--यह छुट जाती तो मैं इसे अपने घर में रखती और इसकी सेवा करती। रेणुका उसके नाम पर एक स्त्री-औषधालय बनवाने की कल्पना कर रही थी।
सुखदा के समीप ही जज साहब की धर्मपत्नी बैठी हुई थीं। वह बड़ी देर से इस मुक़दमे के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करने को उत्सुक हो रही थीं, पर अपने समीप बैठी हुई स्त्रियों की अविश्वास-पूर्ण दृष्टि देखकर--जिससे वे उन्हें देख रही थीं उन्हें मुंह खोलने का साहस न होता था।
अन्त को उनसे न रहा गया। सुखदा से बोलीं--यह स्त्री बिलकूल निरपराध है।
सुखदा ने कटाक्ष किया--जब जज साहब भी ऐसा समझें।
'मैं तो आज उनसे साफ़-साफ़ कह दूंगी, कि अगर तुमने इस औरत को सजा दी तो मैं समझूँगी, तुमने अपने प्रभुओं का मुंह देखा।'
सहसा जज साहब ने खड़े होकर पंचों को थोड़े शब्दों में इस मुक़दमे में अपनी सम्मति देने का आदेश दिया और खुद कुछ कागजों को उलटने-पलटने लगे। पंच लोग पीछेवाले कमरे में जाकर थोड़ी देर बातें करते रहे और लौटकर अपनी सम्मति दे दी। उनके विचार में अभियस्ता निरपराध थी। जज साहब जरा-सा मुसकराये और कल फैसला सुनाने का वादा करके उठ खड़े हुए।