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कविता-कौमुदी १/५ धर्मदास

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कविता-कौमुदी
रामनरेश त्रिपाठी

प्रयाग: साहित्य भवन, पृष्ठ ५४ से – ५७ तक

 

धर्मदास

र्मदास जी जाति के कसौंधन बनिये और बाँधवगढ़ के बड़े भारी महाजन थे इनके जन्म और मरण के समय का ठीक पता नहीं चलता। परन्तु ये कबीर साहब के समकालीन थे, यह

धर्मदास जी बालकपन से ही बड़े धर्मात्मा और भगवत चर्चा के प्रेमी थे, साधु, संतों और पंडितों का बड़ा आदर सत्कार करते थे। इन्होंने दूर दूर तक तीर्थों की यात्रा की थी।

मथुरा से आते समय कबीर साहब से इनका साक्षात् हुआ। कबीर साहब ने मूर्तिपूजा और तीर्थ व्रत आदि का खंडन मंडन करके इनका चित्त संत मत की ओर झुकाया। फिर तो ये बराबर कबीर साहब से मिलते रहे और अपना संशय मिटाते रहे। "अमर सुख निधान" ग्रन्थ में इनकी और कबीर साहब की बातचीत विस्तार के साथ लिखी है उनमें बहुत सी ज्ञान की बातें हैं।

कबीर साहब की शरण में आने पर धर्मदास जी ने अपना सारा धन लुटा दिया। सं॰ १५७५ वि॰ में जब कबीर साहब परमधाम को सिधारे तब उनकी गद्दी धर्मदास जी को मिली। उससे पंद्रह या बीस वर्ष के बाद इन्होंने भी इस संसार को छोड़ा।

इनकी शब्दावली में से कुछ पद चुनकर हम यहाँ उद्धृत करते हैं—

मोरे पिया मिले सत ज्ञानी।

ऐसन पिय हम कबहूँ न देखा देखत सुरत लुभानी॥
आपन रूप जब चीन्हा बिरहिन तब पिय के मन मानी॥
कर्म जलाय के काजल कीन्हा, पढ़े प्रेम की बानी॥
जब हंसा चले मानसरोवर मुक्ति भरे जहँ पानी॥
धर्मदास कबीर पिय पाये मिट गई आवाजानी॥

गुरु पैयाँ लागों नाम लखा दीजो रे।

जनम जनम का सोया मनुआँ शब्दन मारि जगा दीजो रे॥
घट अँधियार नैन नहिँ सूझै ज्ञान का दीपक जगा दीजा रे॥
विष की लहर उठत घट अन्तर अमृत बूँद चुवा दीजो रे॥
गहिरी नदिया अगम बहै धरवा खेय के पार लगा दीजो रे॥
धरमदास की अरज गुसाईं अब के खेप निभा दीजो रे॥२॥

हम सत्त नाम के बैपारी।

कोई कोई लादे काँसा पीतल कोई कोई लौंग सुपारी॥
हम तो लाद्यो नाम धनी को पूरन खेप हमारी॥
पूँजी न टूटै नफ़ा चौगुना बनिज किया हम भारी॥
हाट जगाती रोक न सकि हैं निर्भय गैल हमारी॥
मोति बूँद घटही में उपजै सुकिरत भरत कोठारी॥
नाम पदारथ लाद चला है धरमदास बैपारी॥३॥

झरि लागै महलिया, गगन घहराय।

खन गरजै खन बिजुली चमकै, लहर उठै शोभा बरनि न जाय॥
सुन्न महल से अमृत बरसै, प्रेम अनन्द ह्वै साधु नहाय॥
खुली किवरिया मिटी अँधियरिया, धनसतगुरुजिनदियालखाय॥
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय॥४॥

मितऊ मड़ैया सूनी करि गैलो।

अपन बलम परदेश निकरि गैलो
हमरा के कछुवो न गुन दै गैलों।
जोगिन ह्वै के में बन ढूँढ़ों
हमरा के बिरह बैराग दै गैलों॥
सँग की सखी सब पार उत्तरि गैलों।
हम धन ठाढ़ी अकेली रहि गैलों॥

धरमदास यह अरज करतु हैं
सार सबद सुमिरन दै गैलों॥