कायाकल्प/३३

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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३३

देवप्रिया को उस गुफा में रहते कई महीने गुजर गये। वह तन-मन से पति-सेवा में रत रहती। प्रातःकाल नीचे जाकर नदी से पानी लाती, पहाड़ी वृक्षों से लकड़ियाँ तोड़ती और जंगली फलों को उबालती। बीच बीच में महेन्द्रकुमार कई-कई दिनों के लिए कहीं चले जाते थे। देवप्रिया अकेले गुफा में बैठी उनकी राह देखा करती, पर महेन्द्र को वन-वन में घूमने से इतना अवकाश ही न मिलता कि दो चार पल के लिए उसके पास भी बैठ जायें। रात को वह योगाभ्यास किया करते थे। न-जाने कब कहाँ चले जाते, न-जाने कब कैसे चले आते, इसका देवप्रिया को कुछ भी पता न चलता। उनके जीवन का रहस्य उसको समझ में न आता था। उस गुफा में भी उन्होंने न[ २५१ ]जाने कहाँ से वैज्ञानिक यन्त्र जमा कर लिये थे और दिन को जब घर पर रहते, तो उन्हीं यन्त्रों से कोई-न-कोई प्रयोग किया करते । उनके पास सभी कामो के लिए समय था । थगर समय न था, तो केवल देवप्रिया से बातचीत करने का! देवप्रिया की समझ में कुछ न पाता कि इनका हृदय इतना कठोर क्यों हो गया है। वह प्रेम-भाव कहाँ गया ? अब तो उससे सीधे मुँह बोलते तक नहीं । उससे कोन-सा अपराध हुआ। देवप्रिया पति को वन के पक्षियों के साय विहार करते, हिरणों के साथ खेलते सपों को नचाते, नदी में जल-क्रीड़ा करते देखती। प्रेम को इस अमोघ राशि से उसके लए मुठी भी नहीं ? उसने कौन-सा अपराध किया है ? उससे तो वह बोलते तक नहीं । ऐसी प्रनिन्य सुन्दरी उसने स्वय न देखी थी। उसने एक से एक रूपवती रमणियाँ देखी यो; पर अपने सामने कोई उसको निगाह में न अँचती थी। वह जंगली फूलो के गहने बना-बनाकर पहनतो, आँखों से हँसतो, हाव भाव, कटाक्ष सब कुछ करती; पर पति के हृदय में प्रवेश न कर सकती थी। तब वह मॅझला पड़ती कि अगर यों जलाना था, तो यौवन-दान क्यों दिया १ यह बला क्यों मेरे सिर पढ़ी। जिस योवन को पाकर उससे एक दिन अपने को संसार से सब से सुखी समझा था, उमी जोवन से अब उसका जी जलता था। वह रूपविहीन होकर स्वामी के चरणों में श्राश्रय पा सकती, तो इस अनुपम सौन्दर्य को वासी हार की भांति उतारकर फेंक देतो, पर कौन इसका विश्वास दिलायेगा?

एक दिन देवप्रिया ने महेन्द्र से कहा--तुमने मेरो काया तो बदल दो, पर मेरा मन क्यों न बदल दिया ?

महेन्द्र ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया-जन तक पूर्व सस्कारों का प्रायश्चित न हो जाय, मन की भावनाएं नहीं बदल सकती।

इन शब्दों का ग्राशय जो कुछ हो; पर देवप्रिया ने यह समझा कि यह मुनाले क्वल मेरे पूर्व-सस्कारों के कारण घृणा करते हैं। उसका पीड़ित हृदय इस अन्याय से विकल हो उटा । आह ! यह इतने कठोर है ! इनमें क्षमा का नाम तक नहीं, तो क्या इन्होंने मुझे उन संस्कारों का दण्ड देने के लिए मेरो कायाकल्प की ? प्रलोभनो ने घिरी हुई अयला के प्रति इन्हें जरा भी सहानुभूति नहीं ! वह वाक्य शर के समान उसके हृदय मे चुभने लगा। पति में वह श्रद्धा न रहो। जीवन से विरक्त हो गयी। पति प्रेम का सुख भोगने के लिए ही उसने अपना त्याग किया या; पूर्व सस्कारां का दरट भोगने के लिए नरी । उससे समझा था, स्वामी मुझरर दया करके मेग उदार करने ले जा रहे हैं। उनके हाथों यह दण्ड सहना उत्ते स्वीकार न था। अपने पूर्वजोवन पर लजा थी, पश्चात्ताप या, पर पति के मुख से यह व्यन्य न सुनना चाहती थी। यह समार की सारी विति सद सक्ती यी, येवल पति-प्रेम ने वचित रहना उसे अनाय था । उसने सोचना शुरू किया, क्यों न चली जाऊँ ? पति से दूर हटका कटाचित् वह शान्त रहा सन्ती थी। दुरसती हुई खिों की अपेक्षा फूटी ना ही अच्छी; पर इस वियोग की [ २५२ ]कल्पना ही से उसका मन भयभीत हो जाता था।

आखिर उसने यहाँ से प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया। रात का समय था। महेन्द्र गुफा के बाहर एक शिला पर पड़े हुए थे। देवप्रिया आकर बोली—आप सो रहे हैं क्या?

महेन्द्र उठकर बैठ गये और बोले—नहीं, सो नहीं रहा हूँ। मैं एक ऐसे यन्त्र की कल्पना कर रहा हूँ, जिससे मनुष्य अपनी इन्द्रियों का दमन कर सके। संयम, साधन और विराग पर मुझे अब विश्वास नहीं रहा।

देवप्रिया—ईश्वर आपकी कल्पना सफल करें। मैं आपसे यह कहने आयी हूँ कि जब आप मुझे त्याज्य समझते हैं, तो क्यों हर्षपुर या कहीं और नहीं भेज देते?

महेन्द्र ने पीड़ित होकर कहा—मैं तुम्हें त्याज्य नहीं समझ रहा हूँ। प्रिये, तुम मेरी चिरसंगिनी हो और सदा रहोगी। अनन्त में दस-बीस या सौ-पचास वर्ष का वियोग 'नहीं' के बराबर है। तुम अपने को उतना नहीं जानती, जितना मैं जानता हूँ। मेरी दृष्टि में तुम पवित्र, निर्दोष और धवल के समान उज्ज्वल हो। इस विश्व प्रेम के साम्राज्य में त्याज्य कोई वस्तु नहीं है, न कि तुम, जिसने मेरे जीवन को सार्थक बनाया है। मैं तुम्हारी प्रेम-शक्ति का विकास मात्र हूँ।

देवप्रिया ये प्रेम से भरे हुए शब्द सुनकर गद्‌गद हो गयी। उसका सारा सन्ताप, सारा क्रोध, सारी वेदना इस भाँति शान्त हो गयी, जैसे पानी पड़ते ही धूप बैठ जाती है। वह उसी शिला पर बैठ गयी और महेन्द्र के गले में बाहें डालकर बोली—फिर आप मुझसे बोलते क्यों नहीं? मुझसे क्यों भागे-भागे फिरते हैं? मुझे इतने दिन यहाँ रहते हो गये, आपने कभी मेरी ओर प्रेम की दृष्टि से देखा भी नहीं। आप जानते हैं, पति प्रेम नारी नीवन का आधार है। इससे वंचित होकर अबला निराधार हो जाती है।

महेन्द्र ने करुण स्वर से कहा—प्रिये, बहुत अच्छा होता यदि तुम मुझसे यह प्रश्न न करती। मैं जो कुछ कहूँगा, उससे तुम्हारा चित्त और भी दुखी होगा। मेरे अन्दर की आग बाहर नहीं निकलती, इससे यह न समझो कि उसमें ज्वाला नहीं है। आह! उस अनन्त प्रेम की स्मृतियाँ अभी हरी हैं, जिनका आनन्द उठाने का सौभाग्य बहुत थोड़े दिनों के लिए प्राप्त हुआ था। उसी सुख की लालसा मुझे तुम्हारे द्वार का भिक्षुक बनाकर ले गयी थी। उसी लालसा ने मुझसे ऐसी कठिन तपस्याएँ करायीं, जहाँ प्रतिक्षण प्राणों का भय था। क्या जानता था कि कौशलमय विधि मेरी साधनाओं का उपहास कर रहा है। जिस वक्त मैं तुम्हारी ओर लालसा-पूर्ण नेत्रों से ताकता हूँ, तो मेरी आँखें जलने लगती हैं, जब तुम्हें प्रातःकाल अञ्चल में फूल भरे ऊषा की भाँति स्वर्णछटा की वर्षा करते आते देखता हूँ, तो मेरे मन में अनुराग का जो भीषण विप्लव होने लगता है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन तुम्हारे समीप जाते ही मेरे समस्त शरीर में ऐसी जलन होने लगती है, मानो अग्निकुण्ड में घुसा जा रहा हूँ। तुम्हें याद है, एक दिन मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया था। मुझे ऐसा जान पड़ा कि [ २५३ ]जलते तवे पर हाथ पड़ गया। इसका क्या कारण है! विधि क्या हमारे प्रेम मिलन में बाधक हो रहा है, यह मैं नही जानता; पर ऐसा अनुमान करता हूँ कि यह मेरी लालसा का दण्ड है।

नारी बुद्धि तीक्ष्ण होती है। महेन्द्र की समझ में जो बात न आयी थी, वह देवप्रिया समझ गयी। उस दिन से वह तपस्विनी वन गयी। पति के साये से भी भागती। अगर वह उसके कमरे में आ जाते, तो उनकी ओर आँखें उठाकर भी न देखती; पर वह इस दशा में भी प्रसन्न भी। रमणी का हृदय सेवा के सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है। उसका प्रेम भी सेवा है, उसका अधिकार भी सेवा है, यहाँ तक कि उसका क्रोध भी सेवा है। विडम्बना तो यह थी कि यहाँ सेवा क्षेत्र में भी वह स्वाधीन न थी। उसके लिए सेवा की सीमा वहीं तक थी, जहाँ से अनुराग का आरम्भ होता है। उसकी सेवा में पत्नी-भाव का अल्पाँश भी न आने पाये, यही चेष्टा वह करती रहती थी। अगर विधि को उसके सौभाग्य से आपत्ति है, अगर वह इस अपराध के लिए उसके पति को दण्ड देना चाहता है, तो देवप्रिया यह साक्षी देने को तैयार थी कि उसने पति-प्रेम का उतना ही आनन्द उठाया है, जितना एक विधवा भी उठा सकती है।

एक दिन महेन्द्र ने आकर कहा—प्रिये, चलो; आज तुम्हें आकाश की सैर करा लाऊँ। मेरा हवाई जहान तैयार हो गया है।

महेन्द्र ने सात वर्ष के अनवरत परिश्रम से यह वायुयान बनाया था। इसमें विशेषता यह थी कि तूफान और मेह मे भी स्थिर रूप से चला जाता था, मानो नैसर्गिक शक्तियों पर विजय का डंका बजा रहा हो। उसमें जरा भी शोर न होता था। गति घंटे में एक हजार मील की थी। इस पर बैठकर वह पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु को उसके यथार्थ रूप में देख सकते थे, दूर-से-दूर देशों के विद्वानों के भाषण और गानेवालों के गीत सुन सकते थे। उस पर बैठते हो मानसिक शक्तियाँ दिव्य और नेत्रों की ज्योति सहस्र गुणी हो जाती थी। यह एक अद्भुत यन्त्र था। महेन्द्र ने अब तक कभी देवप्रिया से उस पर बैठने का अनुरोध न किया था। उनके मुँह से उसके गुण सुनकर उसका जी तो चाहता था कि उसमें एक बार बैठे, इसकी बड़ी तीव्र उत्कण्ठा होती थी, पर वह संवरण कर जाती थी। आज यह प्रस्ताव करने पर भी उसने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए कहा आप जाइए, आकाश की सैर कीजिए, मैं अपनी कुटिया में ही मगन हूँ।

मरेन्द्र—मानव-बुद्धि ने अब तक जितने आविष्कार किये हैं, उनका पूर्ण विकास देख लोगी।

देवप्रिया—आप जाइए, मैं नहीं जाती।

मरेन्द्र—मैं तो आज तुम्हें जबरदस्ती ले चलूँगा।

वह कहकर उन्होंने देवप्रिया का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा। देवप्रिया का चित्त डावाँडोल हो गया। जैसे अपने नटखट बालक के बुलाने पर कुत्ता डरता-डरता जाता है कि मालूम नहीं भोजन मिलेगा या डंडें, उसी भाँति देवप्रिया [ २५४ ]महेन्द्र के साथ चली गयी।

गुफा के बाहर स्वर्ण की वर्षा हो रहो।

आकाश, पर्वत और उनपर विहार करने वाले पक्षी और पशु सोने में रँगे थे। विश्व स्वर्ण-मय हो रहा था। शान्ति का साम्राज्य छाया हुया था। पृथ्वी विश्राम करने जा रही थी।

यान एक पल में दोनों आरोहियों को लेकर अनन्त आकाश में विचरने लगा। वह सीधा चन्द्रमा की ओर चला जाता था, ऊपर ऊपर और भी ऊपर, यहाँ तक कि चन्द्रमा का दिव्य प्रकाश देखकर देवप्रिया भयभीत हो गयी।

सहसा देवप्रिया संगीत की मधुर ध्वनि सुनकर चौंक पड़ी और बोली—यहाँ कौन गा रहा है?

महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा—हमारे स्वामीजी ईश्वर की स्तुति कर रहे हैं। मैं अभी उनसे बातें करता हूँ। सुनो—स्वामीजी, क्या हो रहा है?

'बच्चा, भगवान की स्तुति कर रहा हूँ। अच्छा तुम्हारे साथ तो देवप्रियाजी भी हैं। उन्हें जापानी सिनेमा की सैर नहीं करायी?'

सहसा देवप्रिया को एक जापानी नौका डूबती हुई दिखायी दी। एक क्षण में एक जापानी युवक कगार पर से समुद्र में कूद पड़ा और लहरों को चीरता हुआ नौका की ओर चला।

देवप्रिया ने काँपते हुए कहा—कहीं यह बेचारा भी न डूब जाय!

महेन्द्र ने कहा—यह किसी प्रेम कथा का अन्तिम दृश्य है।

यान और भी ऊपर उड़ता चला जाता था, पृथ्वी पर से जो तारे टिमटिमाते हुए हो नजर आते थे, अब चन्द्रमा को भाँति ज्योतिर्मय हो गये थे और चन्द्रमा अपने आकार से दसगुना बड़ा दिखायी देता था। विश्व पर अखंड शान्ति छाई हुई थी। केवल देवप्रिया का हृदय धड़क रहा था। वह किसी अज्ञात शंका से विकल हो रही थी। जापानी सिनेमा का अन्तिम दृश्य उसकी आँखों में नाच रहा था।

तब महेन्द्र ने वीणा उठा ली और देवप्रिया से बोले—प्रिये, तुम्हारा मधुर गान सुने बहुत दिन बीत गये। याद है, तुमने पहले जो गीत गाया था, वही गीत आज फिर गाओ। देखो, तारागण कान लगाये बैठे हैं।

देवप्रिया स्वामी की बात न टाल सकी। उसे ऐसा भाषित हुआ कि वह स्वामी का अन्तिम आदेश है, मैं इन कानों से स्वामी की बातें फिर न सुनूँगी। उसने काँपते हुए हाथों में वीणा ले ली और काँपते हुए स्वरों में गाने लगी—

'प्रिया मिलन है कठिन बावरी!'

प्रेम, करुणा और नैराश्य में डूबी हुई यह ध्वनि सुनते ही महेन्द्र की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। आह! वियोग-व्यथा से पीड़ित यह हृदय स्वर उनके अन्तस्तल पर शर जैमी चोटें करने लगा। बारबार हृदय थामकर रह जाते थे। सहसा उनका मन एक अत्यन्त प्रबल आवेग से आन्दोलित हो उठा। लालसा विह्वल मन ने कहा—यह [ २५५ ]संयम कब तक? इस जीवन का भरोसा ही क्या? न जाने कब इसका अन्त हो जाय और ये चिरसंचित अभिलाषाएँ भी धूल में मिल जायँ। अब जो होना है, सो हो!

अनन्त शान्ति का साम्राज्य था, यान प्रतिक्षण और ऊपर चढ़ता जाता था। महेन्द्र ने देवप्रिया का कोमल हाथ पकड़कर कहा—प्रिये, अनन्त वियोग से तो अनन्त विश्राम ही अच्छा!

वीणा देवप्रिया के हाथ से छूटकर गिर पड़ी। उसने देखा, महेन्द्र के कामप्रदीप्त अधर उसके मुख के पास आ गये हैं और उनके दोनों हाथ उससे आलिंगित होने के लिए खुले हुए हैं। देवप्रिया एक क्षण, केवल एक क्षण के लिए सब कुछ भूल गयी। उसके दोनों हाथ महेन्द्र के गले में जा पड़े।

एकाएक धमाके की आवाज हुई। देवप्रिया चौंक पड़ी। उसे मालूम हुआ, यान बड़े वेग से नीचे चला जा रहा है। उसने अपने को महेन्द्र के कर पाश से मुक्त कर लिया और घबराकर बोली—प्राणनाथ, यान नीचे चला जा रहा है।

महेन्द्र ने कुछ उत्तर न दिया।

देवप्रिया ने फिर कहा—ईश्वर के लिए इसे रोकिए, देखिए, कितने वेग ने नीचे गिर रहा है।

महेन्द्र ने व्यथित कण्ठ से कहा—प्रिये! अब इसे मैं नहीं रोक सकता, मेरे पैर काँप रहे हैं, मालूम होता है, जीवन का अन्त हो रहा है। आह! आह। प्रिय मैं गिर रहा हूँ।

देवप्रिया उन्हें सँभालने चली थी कि महेन्द्र गिर पड़े। उनके मुँह से केवल ये शब्द निकले—डरो मत, यान भूमि से टक्कर न खायगा, तुम हर्षपुर जाकर राज्याधिकार अपने हाथ में लेना। मैं फिर आऊँगा, हम और तुम फिर मिलेंगे, अवश्य मिलेंगे, अतृप्त तृष्णा फिर मुझे तुम्हारे पास लायेगी, विधि का निर्दय हाथ भी उसमें बाधक नहीं हो सकता। इस प्रेम की स्मृति देवलोक में भी मुझे विकल करती रहेगी। आह! इस अनन्त विश्राम की अपेक्षा अनन्त वियोग कितना सुखकर था!

देवप्रिया खड़ी रो रही थी और यान वेग से नीचे उतरता जाता था!