कायाकल्प/३६
३६
अब बहुत अच्छी हो गयी थी, रुविर के बढ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते हैं, उनकी अब कोई सम्भावना न थी।
दीवान साहब को पाचन शक्ति अच्छी हो गयी हो; पर विचार शक्ति तो जरूर क्षीण हो गयी थी। निश्चय करने की अब उनमे सामर्थ्य हो न थी। ऐसी ऐसी गलतियाँ करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी बार बार एतराज करना पड़ता था। वह कार्यदक्षता, वह तत्परता, वह विचारशीलता, जिसने उन्हे चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गयी थी। वह बुद्धि भला जगदीशपुर का शासन भार क्या सँभालती। लोगो को आश्चर्य होता था कि इन्हें क्या हो गया है। गुरुसेवक को भी शायद मालूम होने लगा कि पिताजी की याद में कोई दूसरी ही शक्ति रियासत का सञ्चालन करती थी।
एक दिन उन्होंने पिता से कहा―लौगी कब तक आयेगी?
दीवान साहब ने उदामीनता से कहा―उसका दिल जाने। यहाँ आने की तो कोई खास जरूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपने कर्मों का प्रायश्चित्त ही कर ले। यहाँ आकर क्या करेगी?
उसी दिन भाई बहन में भी इसी विषय पर बातें हुई। मनोरमा ने कहा― भैया, क्या तुमने लौंगी अम्माँ को भुला ही दिया? दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं? सूखकर कॉटा हो गये हैं।
गुरुसेवक―भोजन तो करते ही नहीं। कोई क्या करे। वस, जब देखो शराब―शराब।
मनोरमा―उन्हें लौंगी अम्माँ ही कुछ ठीक रख सकती हैं। उन्हीं को किसी तरह वुलाओ और बहुत जल्द। दादाजी की दशा देखकर मुझे तो भय हो रहा है। राजा साहब तो कहते हैं, तुम्हारे पिताजी सठिया गये हैं।
गुरुसेवक―तो मैं क्या करूँ? बार-बार कहता हूँ कि बुला लीजिए, पर वह सुनते ही नहीं। उलटे उसे चिढाने को और लिख देते हैं कि यहाँ तुम्हारे आने की जरूरत नहीं! वह एक हठिन् है। भला, इस तरह क्यों आने लगी?
मनोरमा―नहीं भैया, वह लाख हठिन हो, पर दादानी पर जान देती है। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही है। तीर्थयात्रा में उसकी श्रद्धा कभी न थी। वहाँ रो-रोकर उसके दिन कट रहे होंगे। पिताजी जितना ही उसे आने के लिए रोकते हैं, उतना ही उसे आने की इच्छा होती है, पर तुमसे डरती है।
गुरुसेवक―नोरा, मैं सच कहता हूँ, मैं दिल से चाहता हूँ कि वह आ जाय, पर सोचता हूँ कि जब पिताजी मना करते हैं, तो मेरे बुलाने से क्यों आने लगी। रुपए पैसे की कोई तकलीफ है ही नहीं।
मनोरमा―तुम समझते हो, दादानी उसे मना करते हैं? उनकी दशा देखकर भी ऐसा कहते हो! जब से अम्माँजी का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों वेच दिया। लौंगी ने न सँभाला होता, तो अम्मॉजी के शोक में दादाजी प्राण दे देत। मैंने किसी विवाहित स्त्री में इतनी पति-भक्ति नहीं देखी। अगर दादाजी को बचाना चाहते हो, तो जाकर लौंगी अम्माँ को अपने साथ लाओ!
गुरुसेवक—मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है, नोरा!
मनोरमा—क्यों? क्या इसमें आपका अपमान होगा?
गुरुसेवक—वह समझेगी, आखिर इन्हीं को गरज पड़ी। आकर और भी सिर चढ़ जायगी। उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुँचेगा।
मनोरमा—भैया, ऐसी बाते मुँह से न निकालो। लौंगी देवी है, उसने तुम्हारा और मेरा पालन किया है। उसपर तुम्हारा यह भाव देखकर मुझे दुःख होता है।
गुरुसेवक—मैं अब उससे कभी न बोलूँगा, उसकी किसी बात में भूलकर भी दखल न दूँगा, लेकिन उसे बुलाने न जाऊँगा।
मनोरमा—अच्छी बात है, तुम न जाओ; लेकिन मेरे जाने में तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है?
गुरुसेवक—तुम जाओगी?
मनोरमा—क्यों, मैं क्या हूँ! क्या मैं भूल गयी हूँ कि लौंगी अम्माँ ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है? अगर वह इस घर में आकर रहती, तो मैं अपने हाथों से उसके पैर धोती और चरणामृत आँखों से लगाती। जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात-की-रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को कभी भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना चाहे सम्भव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूँ। आजकल वह कहाँ है?
गुरुसेवक लज्जित हुए। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पड़े हुए हैं। पूछा—आपका जी कैसा है?
दीवान साहब की लाल आँखें चढ़ी हुई थीं। बोले—कुछ नहीं जी, जरा सरदी लग रही थी।
गुरसेवक—आपकी इच्छा हो, तो में जाकर लौंगी को बुला लाऊँ?
हरिसेवक—तुम! नहीं तुम उसे बुलाने क्या जाओगे। कोई जरूरत नहीं। उसका जी चाहे, आये या न आये। हुँह! उसे बुलाने जाओगे! ऐसी कहाँ की अमीरजादी है?
गुरुसेवक-यह आप कहें। हम तो उसकी गोद में खेले हुए हैं, हम ऐसा कैसे कह सकते हैं। नोरा आज मुझपर बहुत बिगड़ रही थी। वह खुद उसे बुलाने जा रही है। उसकी जिद तो आप जानते ही हैं! जब धुन सवार हो जाती है, तो उसे कुछ नहीं सूझता।
हरिसेवक सजल नेत्र होकर बोले—नोरा जाने को कहती है। नोरा जायगी? नहीं, मैं उसे न जाने दूँगा। लौंगी को बुलाने नोरा नहीं जा सकती। मैं उसे समझा दूँगा।
गुरसेवक क्या जानते थे, इन शब्दों में कोई गूढ़ आशय भरा हुआ है। वहाँ से चले गये।
दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने तापमान लगाकर देखा, तो ज्वर १०४ डिग्री का था। घबराकर डाक्टर को बुलाया। मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी हुई आई। उसने आते-ही-आते गुरुसेवक से कहा—मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्माँ को बुला लाइए, लेकिन आप न गये। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते।
गुरुसेवक—मैं तो जाने को तैयार था लेकिन जब कोई जाने भी दे। दादाजी से पूछा, तो वह मुझको बेवकूफ बनाने लगे। मैं कैसे चला जाता?
मनोरमा—तुम्हें उनसे पूछने की क्या जरूरत थी? इनकी दशा देख नहीं रहे हो। अब भी मौका है। मैं इनकी देख माल करती रहूँगी, तुम इसी गाड़ी से चले जाओ और उसे साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रुकेंगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही है।
दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले—आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरुसेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी, इसमें तुम्हारा अपमान है। उसको हजार दफा गरज हो आये, या न आये। भला तुम उसे बुलाने जाओगी, तो दुनिया क्या कहेगी? सोचो, कितनी बदनामी की बात है।
मनोरमा—दुनिया जो चाहे कहे, मैंने भैयाजी को भेज दिया है। वह तो स्टेशन पहुँच गये होंगे। शायद गाड़ी पर सवार भी हो गये हों।
हरिसेवक—सच! यह तुमने क्या किया? लौंगी कभी न आयेगी।
मनोरमा—आयेगी क्यों नहीं। न आयेगी, तो मैं जाऊँगी और उसे मना लाऊँगी।
हरिसेवक—तुम उसे मनाने जाओगी? रानी मनोरमा लौंगी कहारिन को मनाने जायेंगी?
मनोरमा—मनोरमा लौंगी कहारिन का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती? हरिसेवक का मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आँखें जगमगा उठीं, प्रसन्नमुख होकर बोले—नोरा, तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो, अगर लौंगी आये और मैं न रहूँ, तो उसकी खबर लेती रहना। उसने मेरी बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसानों का बदला नहीं चुका सकता। गुरुसेवक उसे सतायेगा, उसे घर से निकालेगा; लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहूँ, तो अपनी सारी सम्पति उसके नाम लिख सकता हूँ। यह सब जायदाद मेरी पैदा की हुई है। मैं अपना सब कुछ लौंगी को दे सकता हूँ, लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्टा मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुएगी। वह अपने गहने-पाते भी काम पड़ने पर इस घर में लगा देगी। बस, वह सम्मान चाहती है। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जायगी, लेकिन दासी बनकर सोने का कौर भी न खायगी। यह उसका स्वभाव है। गुरुसेवक ने आज तक उसका स्वभाव न जाना। नोरा, जिस दिन से वह गयी है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है, मेरी आत्मा कहीं चली गयी है। मुझे अपने ऊपर जरा भी भरोसा नहीं रहा। मुझमें निश्चय करने की शक्ति ही नहीं रही। अपने कर्त्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहा। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है, नोरा?
मनोरमा—बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं; लेकिन लौंगी अम्मा का, मुझे गोद में खिलाना खूब याद है, अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मा मुझे पंखा झला करती थीं।
हरिसेवक ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा—उससे पहले को बात है नोरा, जब गुरुसेवक तीन वर्ष का था और तुम्हें तुम्हारी माता साल-भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर लूँ। नोरा, जैसी तुम हो, वैसी ही तुम्हारी माता भी थी। उसका स्वभाव भी तुम्हारे-जैसा था। मैं बिलकुल पागल हो गया था। उस दशा में इसी लौंगी ने मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण देते देखकर उस पर मेरा प्रेम हो गया। मैं उसके स्वरूप और यौवन पर न रीझा। तुम्हारी माता के बाद किसका स्वरूप और यौवन मुझे मोहित कर सकता था? मैं लौंगी के हृदय पर मुग्ध हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरुसेवक की बीमारी की याद तुम्हें क्या आयेगी? न-जाने इसे कौन सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल पर। छः महीने तक उसको दशा यही रही। जितनी दवा-दारू उस समय कर सकता था, वह सब करके हार गया। झाड़-फूँक, दुआ-ताबीज सब कुछ कर चुका। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर काँटा हो गया था। रोता तो इस तरह, मानो कराह रहा है। यह लौंगी ही थी जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया। कोई माता अपने बालक की इतनी सेवा नहीं कर सकती। जो उसके त्यागमय स्नेह को देखता, दाँतों-तले उँगली दबाता था। क्या वह लोभ के वश अपने को मिटाये देती थी? लोभ में भी कहीं त्याग होता है? और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए हैं। मूर्ख यह नहीं सोचता कि जिस समय लौंगी उसका पंजर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था। सच पूछो, तो यहाँ लक्ष्मी लौंगी के समय ही आयी; बल्कि लक्ष्मी ही लौंगी के रूप में आयी; लौंगी ही ने मेरे भाग्य को रचा। जो कुछ किया, उसी ने किया, मैं तो निमित्त मात्र था। क्यों नोरा, मेरे सिरहाने कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है? कह दो, यहाँ से जाय।
मनोरमा—यहाँ तो मेरे सिवा कोई नही है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? फिर डाक्टर को बुलाऊँ?
हरिसेवक—मेरा जी घबरा रहा है, रह-रहकर डूबा जाता है। कष्ट कोई नहीं, कोई पीड़ा नहीं। बस, ऐसा मालूम होता है कि दीपक में तेल नहीं रहा। गुरुसेवक शाम तक पहुँच जायगा? मोरना-हाँ कुछ रात जाते-जाते पहुँच गयेंगे ।
हरिवगडे देज मोटर हो, तो में शाम तक पहुंच बाऊँ।
नरना-इस दशा में इतना लन्ग पर आप ने कर सम्ने हैं?
हरिका-दा, दीक न्ती हो. केटी मगर मेरी दवा लोगी के पास है। उस चीन वा प्रतार या । तर बह रही, नेरे सिर में कमी दर्द भी न छा। मेरी मूर्तब देखो कि वन उसने तीर्थयात्रा न बात कही, तो मेरे मुंह से एक बार भी न निकता-तुम नुने ति पर छोड़कर बाती हो ? अगर ने यह कह तक्ता, तो वह क्मी नमानी । एक बार मी नहीं रोका । नै उने निप्पुरता का टरड देना चाहता था । म उस वक्ष व्हन दुक पड़ा कि
यह कहते कहते दीवान साहब फिर चौक पड़े ओर द्वार की बोर अाशग्नि नेत्रो से देखते -यह कौन अन्दर जाना. नोरा ये लोग क्यों नुले घेरे हुए है ? मुझे दुछ नहीं हुआ है । तेवा हुत्रा बातें कर रहा हूँ।
मनोरमा ने घड़ते हुए इदय से उमड़नेवाले प्राँसुत्रों को दबाकर पृछा-या प्राग्नीकिर घबरा रहा है?
हरितेवर-वह कुछ नहीं था, नोरा ! नेने अपने जीवन में अच्छे काम कम किये, बुरे कन बहुत किये। अच्छे नाम जितने किये, वे लोंगी ने किये। बुरे काम जितने किये, के नेरे है । उनले व्ड न भागी ने हूँ। लोगी के कहने पर चलता, तो प्राज मेरी श्रात्ना शान्त होती। एक बात तुमते पूछ, नोरा, बतायोगी ?
मनोरना-खुशी ते पूछिए।
हरितेवक-तुन अपने मान्य से सन्तुष्ट हो ?
मनोरमा-यह श्राप क्यों पूछते है ? क्या मैंने बापते कभी कोई शिकायत की है ?
हरितेवन-नहीं नोरा, तुमने कभी शिकायत नहीं की और न करोगो, लेकिन मेने तुम्हारे साय तो घोर अत्याचार किया है, उसकी व्यथा से आज मेरा अन्तःकरण पीड़ित हो रहा है। मैंने तुम्हें अपनी तृष्णा की भेंट चढ़ा दिया, तुम्हारे जीवन का र्वनाश कर दिया । ईश्वर! तुम मुझे इसका कठिन से कठिन दण्ड देना! लोंगी ने कितना विरोध क्यिा, तेक्नि मैने एक न सुनी। तुम निर्घन होकर सुखी रहतीं। मुझ तृष्णा ने अन्या बना दिया था। फिर जो हवा जाता है ! शायद उस देवी के दर्शन न होगे । तुम उसत्ते कह देना नोरा, कि यह त्वार्थी, नीच, पापी लीव नन्त समय तक उसकी याद में तड़पता रहा.. ...।
मनोरमा ने रोकर कहा-दादानी, श्राप ऐसी बातें क्यों करते हैं ? लौंगी अम्मा न्ल शाम तक श्रा जायँगी ।
हरितेवक हते, वह विलक्षण हँसी, जिसमें तमत्त जीवन की श्राशाओं और भिलाषात्रों का प्रविवाद होता है। फिर सन्दिग्ध माव से बोले-कल शाम तक? शायद।
मनोरमा आँसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर-परिचित स्थान में आज एक विचित्र शंका का आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य प्रकाश कुछ क्षीण हो गया है, मानो सन्ध्या हो गयी है। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।
दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाये हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनन्त के उस पार पहुँच जाना चाहती हो। सहसा उन्होने क्षीण-स्वर से पुकारा—नोरा!
मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा—खड़ी हूँ, दादाजी!
दीवान—जरा कलम-दावात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहाँ नहीं है? मेरा दान-पत्र लिख लो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ। जायदाद के लोभ से गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख लो और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। जरा बहू को बुला लो, मैं उसे भी समझा दूँ। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना। जरूरत पड़ने पर इससे काम लेना।
मनोरमा अन्दर जाकर रोने लगी। अब आँसुओं का वेग उसके रोके न रुका। उसकी भाभी ने पूछा—क्या है दीदी, दादाजी का जी कैसा है?
यह कहते हुए वह घबराई हुई दीवान साहब के सामने आकर खड़ी हो गयी। उसकी आँखों में आँसू भर आये। कमरे में वह निस्तब्धता छायी हुई थी, जिसका आशय सहज ही समझ में आ जाता है। उसने दीवान साहब के पैरों पर सिर रख दिया और रोने लगी।
दीवान साहब ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीवाद देते हुए कहा—बेटी! यह मेरा अन्तिम समय है। यात्रा के सामान कर रहा हूँ। गुरसेवक के आने तक क्या होगा, नही जानता। मेरे पीछे लौंगी बहुत दिन न रहेगी। उसका दिल न दुखाना। मेरी तुमसे यही याचना है। तुम बड़े घर की बेटी हो। जो कुछ करना, उसकी सलाह से करना। इसी में वह प्रसन्न रहेगी। ईश्वर तुम्हारा सौभाग्य अमर करें!
यह कहते-करते दीवान साहब की आँखें बन्द हो गयीं। कोई आध घण्टे के बाद उन्होंने आँखें खोली और उत्सुक नेत्रों से इधर-उघर देखकर बोले—अभी नहीं आयी? अब भेंट न होगी?
मनोरमा ने रोते हुए कहा—दादाजी, मुझे भी कुछ कहते जाइए। मैं क्या करूँ?
दीवान साहब ने आँखें बन्द किये हुए कहा—लौंगी को देखो?
थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुँचे। अहल्या भी उनके साथ थी। मुन्शी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आये। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गये। डाक्टर भी आ पहुँचा। किन्तु दीवान साहब ने आँखें न खोलीं।
सन्ध्या हो गयी थी। कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था! सब लोग सिर झुकाये बैठे थे, मानो श्मशान में भूतगण बैठे हों। सबको आश्चर्य हो रहा था कि इतनी जल्द यह क्या हो गया। अभी कल शाम तक तो मजे में रियासत का काम करते रहे। दीवान साहब अचेत पड़े हुए थे, किन्तु आँखों से आँसू की धारें बह बहकर गालों पर आ रही थीं। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है।
एकाएक द्वार पर एक बग्घी आकर रुकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया—आ गयी, आ गयी! यह लौंगी थी।
लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उनकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका हृदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गये। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहल्या रह गयीं।
लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्रायी हुई आवाज में कहा—प्राणनाथ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?
दीवान साहब को आँखें खुल गयीं। उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किन्तु कितना अपार प्रेम!
उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा—लौंगी, और पहले क्यों न आयी?
लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथों के बीच में अपना सिर दिया और उस अन्तिम आलिंगन के आनन्द में विह्वल हो गयी। इस निर्जीव, मरणोन्मुख प्राणी के आलिंगन में उसने उस आत्मबल, विश्वास और तृप्ति का अनुभव किया, जो उसके लिए अभूतपूर्व था। इस आनन्द में वह शोक भूल गयी। पचीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन में उसने कभी इतना आनन्द न पाया था। निर्दय अविश्वास रह रहकर उसे तड़पाता रहता था। उसे सदैव यह शंका बनी रहती थी कि यह डोंगी पार लगती है, या मँझधार ही में डूब जाती है। वायु का हलका-सा वेग, लहरों का हलका-सा आन्दोलन, नौका का हलका-सा कम्पन उसे भयभीत कर देता था। आज उन सारी शंकाओं और वेदनाओं का अन्त हो गया। आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अन्त तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शान्तिदायिनी थी।
वह इसी विस्मृति की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी और दिवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कुहराम मच गया। नौकर-चाकर सभी रोने लगे। जिन नौकरों को दीवान साहब के मुख से नित्य घुड़कियाँ मिलती थीं, वह भी रो रहे थे। मृत्यु में मानसिक प्रवृत्तियों को शान्त करने की विलक्षण शक्ति होती है। ऐसे विरले ही प्राणी संसार में होंगे, जिनके अन्तःकरण मृत्यु के प्रकाश से आलोकित न हो जायँ। अगर कोई ऐसा मनुष्य है, तो उसे पशु समझो। हरिसेवक की कृपणता, कठोरता, संकीर्णता, धूर्तता एवं सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने जीवन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बह गये।
आधी रात बीत चुकी थी। लाश अभी तक गुरुसेवक के इन्तजार में पड़ी हुई थी। रोनेवाले रो-धोकर चुप हो गये थे। लौंगी शोकगृह से निकलकर छत पर गयी और सड़क की ओर देखने लगी। सैर करनेवालों की सैर तो खत्म हो चुकी थी; मगर मुसाफिरों की सवारियाँ कभी-कभी बँगले के सामने से निकल जाती थीं। लौंगी सोच रही थी, गुरुसेवक अब तक लौटे क्यों नहीं? गाड़ी तो यहाँ दो बजे आ जाती है। क्या अभी दो नहीं बजे? आते ही होंगे। स्टेशन की ओर से आनेवाली हर सवारी गाड़ी को वह उस वक्त तक ध्यान से देखती थी, जब तक वह बँगले के सामने से न निकल जाती। तब वह अधीर होकर कहती—अब भी नहीं आये!
और मनोरमा बैठी दीवान साहब के अन्तिम उपदेश का आशय समझने की चेष्टा कर रही थी। उसके कानों में ये शब्द गूँज रहे थे—'लौंगी को देखो!'