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कायाकल्प/४०

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कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ २९१ से – २९७ तक

 

४०

रोहिणी के बाद राजा साहब जगदीशपुर न रह सके। मनोरमा का भी जी वहाँ घबराने लगा। उसी के कारण मनोरमा को वहाँ रहना पड़ा था। जब वही न रही; तो किस पर रीस करती? उसे अब दुःख होता था कि मैं नाहक यहाँ आयी। रोहिगी के कटु-वाक्य सह लेती, तो आज उस बेचारी की जान पर क्या बनती? मनोरमा इस ग्लानि को मन से न निकाल सकी थी कि मैं ही रोहिणी की अकाल-मृत्यु का हेतु हुई। राजा साहब की निगाह भी अब उसकी ओर से फिरी हुई मालूम होती थी। अब खंजाची उतनी तत्परता से उसकी फरमाइशें नहीं पूरी करता। राजा साहब भी अब उसके पास बहुत कम जाते हैं। यहाँ तक कि गुरुसेवकगिंह को भी जवाब दे दिया है, और उन्हें रनिवास में आने की मनाही कर दी गयी है। रोहिणी ने प्राण देकर मनोरमा पर विजय पायी है। अब वसुमती और रामप्रिया पर राजा साहब की कुछ विशेष कृपा हो गयी है। दूसरे तीसरे दिन जगदीशपुर चले जाते हैं और कभी कभी दिन का भोजन भी यहीं करते हैं। वह अब अपने पापों का प्रायश्चित्त कर रहे हैं। रियासत मे अब अन्वेर भी ज्यादा होने लगा है। मनोरमा की खोली हुई शालाएँ बन्द होती जा रही हैं। मनोरमा सब देखती और समझती है, पर मुँह नहीं खोल सकती। उसके सौभाग्य-सूर्य का पतन हो रहा है। वही राजा साहब, जो उससे बिना कहे सैर करने भी न जाते थे, अब हफ्ता उसकी तरफ झॉकते तक नहीं। नौकरों-चाकरों पर भी अत्र उसका प्रभाव नहीं रहा। वे उसकी बातों को परवाह नहीं करते। इन गवारों को हवा का रुख पहचानते देर नहीं लगती। रोहिणी का आत्म-बलिदान निष्फल नहीं हुआ।

शखधर को अब एक नयी चिन्ता हो गयी है। राजा साहब के रूठने से छोटी नानी नी मर गयी। क्या पिताजी के रूठने से अम्मॉजी का भी यही हाल होगा? अम्माँजी भी तो दिन दिन घुलती जाती हैं। जब देखो, तब रोया करती है। उसका नाम स्कूल में लिखा दिया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लोगो के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग कहाँ ठहरते हैं, क्या खाते हैं, जहाँ रेलें नहीं है, वहाँ लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लोगी उसके मनोभावो को ताड़ती है, लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती हैं। वह मुँझलाती है, घुड़क बैठती है, लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी गोद में बैठ जाता है, तो उसे दया था जाती है। छुट्टियों के दिन शखधर पितृ-गृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है, वह भक्त की श्रद्धा और उपासक के प्रेम से उस घर में कदम रखता है और जब तक वहाँ रहता है, उसपर भक्ति-गर्व का नशा-सा छाया रहता है। निर्मला की ऑखे उसे देखने से तृप्त ही नहीं होती। उसके घर में आते ही प्रकाश-सा फैल जाता है। वस्तुओ की शोभा बढ़ जाती है। दादा और दादी दोनों उसको बालो त्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं, उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं, ऐसा जान पड़ता है, मानो चक्रधर स्वय बालरूप धारण करके उनका मन हरने आ गया है।

एक दिन निर्मला ने कहा-बेटा, तुम यहीं आके क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो यह घर काटने दौड़ता है। शखधर ने कुछ सोचकर गम्भीर भाव से कहा-अम्मॉनी तो आती ही नहीं। वह क्यों कमी यहाँ नहीं पाती, दादीनी?

निर्मला-क्या जाने बेटा, मैं उनके मन की बात क्या जानूँ? तुम कभी कहते नहीं। आज फहना, देखो क्या कहती हैं?

शखधर-नहीं दादीजी, वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिनों में मैं गद्दी पर बैठेंगा, तो यही मेरा राज भवन होगा। तभी अम्माँजी आयेंगी।

निर्मला-जल्दी से बैठो बेटा, हम भी देख लें। शखधर-मै बाबूजी के नाम से एक स्कूल खोलूँगा; देख लेना। उसमें किसी लड़के से फीस न ली जायगी।

वजघर-और हमारे लिए क्या करोगे वेटा ?

शंखधर-श्रापके लिए अच्छे अच्छे सितारिये बुलाऊँगा। आप उनका गाना सुना कीजिएगा। आपको गाना किसने सिखाया, दादाजी?

वनधर-मैने तो एक साधु से यह विद्या सीखी, बेटा ! बरसों उनकी ख़िदमत की, तब कहीं जाके वह प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझे ऐसा पाशीर्वाद दिया कि थोड़े ही दिनों मे मै गाने बजाने मे पका हो गया । तुम भी सीख लो वेटा; में बड़े शौक से सिखाऊँगा। राजायो महारानाओं के लिए तो यह विद्या है ही, वेटा, वही तो गुणियों का गुण परख.फर उनका श्रादर कर सकते हैं। जिन्हें यह विद्या या गयी, बस, समझ लो कि उन्हें किसी बात की कमी न रहेगी। वह जहाँ रहेगा, लोग उसे सिर-आँखो पर बिठायेंगे । मैने तो एक बार इसी विद्या की बदौलत बदरीनाथ की यात्रा की थी। पैदल चलता था। जिस गाँव मे शाम हो जाती, किसी भले श्रादमी के द्वार पर चला जाता और दो-चार चीजें सुना देता । बस, मेरे लिए सभी बातों का प्रबन्ध हो जाता था।

शखधर ने विस्मित होकर कहा-सच ! तब तो में जरूर सीलूंगा।

वज्रधर-जरूर सीख लो वेटा ! लायो, आज ही से श्रारम्भ कर दूं।

शस्खधर को संगीत से स्वाभाविक प्रेम था। ठाकुरद्वारे में नब गाना होता, वह बढ़े चाव से सुनता। खुद भी एकान्त में बैठा गुन-गुनाया करता था। ताल-स्वर का शान उसे सुनने ही मे हो गया था। एक बार भी कोई राग सुन लेता, तो उसे याद हो जाता । योगियों के कितने ही गीत उसे याद थे। खेजरो वनाकर वह सूर, कबीर, मीरा श्रादि सन्तों के पद गाया करता था। इस वक्त जो उसने कबीर का एक पद गाया, तो मुशीजी उसके सगीत-शान और स्वर लालित्य पर मुग्ध हो गये। बोले-बेटा, तुम तो बिना सिखाये ही ऐसा अच्छा गा लेते हो। तुम्हे तो मैं थोड़े ही दिनों में ऐसा बना दंगा कि अच्छे-अच्छे उस्ताद कानी पर हाथ धरेंगे । पाखिर मेरे ही पोते तो हो । वस, तुम मेरे नाम पर एक संगीतालय खोल देना।

शखधर-जी हाँ, उसमें यही विद्या सिसायी जायगी।

निर्मला-अपनी बुदिया दादीजी के लिए क्या फरोगे, वेटा ?

शखधर-तुम्हारे लिए एक डोली रख दूँगा, जिसे दो कदार दोयेंगे। उसी पर चैटफर तुम नित्य गंगा स्नान करने लाना।

निर्मला-में डोली पर न बैठेगी। लोग हँसने कि नहीं, कि राजा साहब को दादी डोली पर बैठी जा रही है।

शलघर-वाद ! ऐसे श्राराम को नवारी और कौन होगी।

इस तरह दोनों प्राणियों का मनोरजन परके जब वह चलने लगा. टो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गयी, जहाँ ते पद मोटर को दूर तक जाते हुए देखती रहे। सहसा शखधर ड्योढी मे खड़ा हो गया और बोला-दादीजी, आपसे कुछ माँगना चाहता हूँ।

निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गद्गद होकर बोली क्या माँगते हो, बेटा?

शखधर-मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो!

निर्मला ने पोते को कण्ठ से लगाकर कहा-भैया, मेरा तो रोयाँ रोयाँ तुम्हें आशीर्वाद दिया करता है। ईश्वर तुम्हारी मनोकामनाएं पूरी करें।

शखधर ने उनके चरणों पर सिर झुकाया और मोटर पर जा बैठा। निर्मला चौखट पर खड़ी मोटरकार को निहारती रही। मोड़ पर आते ही मोटर तो आँखों से ओझल हो गयी, लेकिन निर्मला उस समय तक वहाँ से न हटी जब तक कि उसकी ध्वनि क्षीण होते होते आकाश में विलीन न हो गयी। अन्तिम ध्वनि इस तरह कान में पायी, मानो अनन्त की सीमा पर बैठे किसी प्राणी के अन्तिम शब्द हो। जब यह आधार भी न रह गया, तो निर्मला रोती हुई अन्दर चली गयी।

शखधर घर पहुंचा, तो अहल्या ने पूछा-आज इतनी देर कहाँ लगायी बेटा? मैं कबसे तुम्हारी राह देख रही हूँ।

शखघर--अभी तो ऐसी बहुत देर नहीं हुई, अम्माँ! जरा दादीजी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक सन्देशा कहला भेजा है।

अहल्या-क्या सन्देशा है, सुनूं? कुछ तुम्हारे बाबूजी की खबर तो नहीं मिली है?

शखघर--नहीं। बाबूजी की खबर नहीं मिली। तुम कभी-कभी वहाँ क्यों नहीं चली जाती?

अहल्या-क्या इस विषय मे कुछ कहती थी?

शखधर-कहती तो नहीं थी, पर उनकी इच्छा ऐसी मालूम होती है। क्या इसमें कोई हरज है?

अहल्या ने ऊपरी मन से यह तो कह दिया--हरज तो कुछ नहीं, हरज क्या है, घर तो मेरा वही है, यहाँ तो मेहमान हूँ। लेकिन भाव से साफ मालुम होता था कि वह वहाँ जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती, तो कहती-वहाँ से तो एक बार निकाल दी गयी, अब कौन मुँह लेकर जाऊँ? क्या अब में कोई दूसरी हो गयी हूँ? बालक से यह बात कहनी मुनासिब न थी।

अहल्या तश्तरी में मिठाइयाँ और मेवे लायी और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली--वहाँ तो कुछ जलपान न किया होगा, खा लो। आज तुम इतने उदास क्यों हो?

शखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा- इस वक्त तो खाने का जी नहीं चाहता, अम्माँ!

एक क्षण के बाद उसने कहा-क्यों अम्माँजी, बाबूजी को हम लोगों की याद भी कभी आती होगी?

अहल्या ने सजल नेत्र होकर कहा—क्या जानें बेटा, याद आती तो काले कोसो बैठे रहते!

शंखधर—क्या वह बड़े निष्ठुर हैं, अम्माँ?

अहल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी।

शंखधर—मुझे देखें, तो पहचान जायँ कि नहीं, अम्माँजी?

अहल्या फिर भी कुछ न बोली—उसका कण्ठ स्वर अश्रुप्रवाह में डूबा जा रहा था।

शंखधर ने फिर कहा—मुझे तो मालूम होता है अम्माजी, कि वह बहुत ही निर्दयी हैं, इसी से उन्हें हम लोगों का दुःख नहीं जान पड़ता। अगर वह भी इसी तरह रोते, तो जरूर आते। मुझे एक दफा मिल जाते, तो मैं उन्हें कायल कर देता। आप न-जाने कहाँ बैठे हैं, किसी का क्या हाल हो रहा है, इसकी सुधि ही नहीं। मेरा तो कभी, कभी ऐसा चित्त होता है कि देखूँ तो प्रणाम तक न करूँ, कह दूँ—आप मेरे होते कौन है, आप ही ने तो हम लोगों को त्याग दिया है।

अब अहल्या चुप न रह सकी, काँपते हुए स्वर में बोली—बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहाँ उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूँ। हम लोगों की याद एक क्षण के लिए भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने पीने का ध्यान भी न रहता होगा। हाय! यह सब मेरा ही दोष है, बेटा! उनका कोई दोष नहीं।

शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा—अच्छा अम्माँजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जायँ कि नहीं?

अहल्या—तुझे? मैं तो जानती हूँ, न पहचान सकें। तब तू बिलकुल जरा सा बच्चा था। आज उनको गये दसवाँ साल है। न-जाने कैसे होंगे। मैं तो तुम्हें देख देखकर जीती हूँ, वह किसको देखकर दिल को ढाढस देते होंगे। भगवान् करें, जहाँ रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जायगी।

शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था, उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला—लेकिन अम्माँजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन् पहचान जाऊँ। वह चाहे किसी वेष में हों, मै पहचान लूँगा।

अहल्या—नही बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तसवीरें ही तो देखी हैं। ये तसवीरें बारह साल पहले की हैं। फिर, उन्होंने केश भी बढ़ा लिये होंगे।

शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा। फिर अपने कमरे में आया और चुपचाप बैठकर कुछ सोचने लगा। उसका मन भक्ति श्रीर उल्लास से भरा हुआ था। क्या मैं ऐसा बहुत छोटा हूँ? मेरा तेरहवाँ साल है। छोटा नहीं हूँ। इसी उम्र में कितने ही आदमियों ने बड़े-बड़े काम कर डाले हैं। मुझे करना ही क्या है? दिन भर गलियों में घूमना और सव्या समय कहीं पढ़ रहना। यहाँ लोगो की क्या दशा होगी, इसकी उसे चिन्ता न थी। राजा साहब पागल हो जायँगे, मनोरमा रोते रोते अन्धी हो जायगी, अहल्या शायद प्राण देने पर उतारू हो जाय, इसकी उसे इस वक्त बिल्कुल फिक्र न थी। वह यहाँ से भाग निकलने के लिए विकल हो रहा था।

एकाएक उसे ख्याल आया, ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकलें, थाने में हुलिया लिखायें, खुद भी परेशान हों, मुझे भी परेशान करें, इसलिए उन्हे इतना बतला देना चाहिए कि में कहाँ और किस काम के लिये जा रहा हूँ। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है, जब चाहेंगे आयेंगे, हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जायेगा। उसने एक कागज पर यह पत्र लिखा और अपने बिस्तरे पर रख दिया--

'सब को प्रणाम, मेरा कहा-सुना माफ कीजिएगा। मैं आज अपनी खुशी ते पिताजी को खोजने जाता हूँ। आप लोग मेरे लिये जरा भी चिन्ता न कीजिएगा, न मुझे खोजने के लिए ही आइएगा, क्योंकि में किसी भी हालत में बिना पिता जी का पता लगाये न आऊँगा। जब तक एक बार दर्शन न कर लूँ और पूछ न लूँ कि मुझे किस तरह से जिन्दगी बसर करनी चाहिये, तब तक मेरा जीना व्यर्थ है। में पिताजी को अपने साथ लाने की चेष्टा करूँगा। या तो उनके दर्शनों से कृतार्थ होकर लौलौटूँगा, या इसी उद्योग में प्राण दे दूँगा। अगर मेरे भाग्य में राज्य करना लिखा है, तो राज्य करूँगा, भीख माँगना लिखा है, तो भीख माँगूंगा, लेकिन पिताजी के चरणों की रज माथे पर बिना लगाये, उनकी कुछ सेवा किये बिना मैं घर न लौटूँगा। मै फिर कहता हूँ कि मुझे वापस लाने की कोई चेष्टा न करे, नहीं तो मैं वहीं प्राण दे दूंगा। मेरे लिए यह कितनी लजा की बात है कि मेरे पिताजी तो देश-विदेश मारे-मारे फिरें और मैं चैन करूँ। यह दशा अब मुझसे नहीं सही जाती। कोई यह न समझे कि मैं छोटा हूँ, भूल-भटक जाऊँगा। मैने ये सारी बातें अच्छी तरह सोच ली हैं। रुपये पैसे की भी मुझे जरूरत नहीं। अम्माजी, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप दादाजी की सेवा कीजिएगा और समझाइएगा कि वह मेरे लिए चिन्ता न करें। रानी अम्माँ को प्रणाम, बाबाजी को प्रणाम।'

आधी रात बीत चुकी थी। शखघर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला। बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे। वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की तरफ कूद पड़ा। अब उसके सिर पर तारिकामण्डित नीला आकाश या, सामने विस्तृत मैदान और छाती मे उल्लास, शका और आशा से धड़कता हुआ हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढाता हुआ चला, कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहाँ लिये जाती है।

ऐसी ही अंधेरी रात थी, जब चक्रधर ने इस घर से गुप्त रूप से प्रस्थान किया था। आज भी वही अँधेरी रात है, और भागने वाला चक्रघर का आत्मज है। कौन जानता है, चक्रधर पर क्या बीती? शंखधर पर क्या बीतेगी, इसे भी कौन जान सकता है? इस घर में उसे कौन-सा सुख नहीं था? उसके मुँह से कोई बात निकलने भर की देर थी, पूरा होने में देर न थी। क्या ऐसी भी कोई वस्तु है, जो इस ऐश्वर्य, भोग विलास और राजपाट से प्यारी है?

अभागिनी अहल्या! तू पड़ी सो रही है। एक बार तूने अपना प्यारा पति खोया और अभी तक तेरी आँखों में आँसू नहीं थमे। आज फिर तू अपना प्यारा पुत्र, अपना प्राणाधार, अपना दुखिया का धन खोये देती है। जिस सम्पत्ति के निमित्त तूने अपने पति की उपेक्षा की थी, वही सम्पत्ति क्या आज तुझे अजीर्ण नहीं हो रही है?