कायाकल्प/६

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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मुशी वज्रधर उन रेल के मुसाफिरों में थे, जो पहले तो गाड़ी मे खड़े होने व जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अन्त में सोने की तैयारी क [ ३८ ] देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रियासत के दीवान की लड़की को पढायें और वह इस स्वर्ण सयोग से लाभ न उठायें। यह क्योकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने जाने लगे। बातें करने में तो निगुण थे ही, दो ही चार मुलाकाता में उनका सिफा जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में जा पहुँचे और ऐसी लच्छेदार बातें की, अपनी तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ायी कि रानीजी मुग्ध हो गयी। कोई क्या तहसीलदारी करेगा। जिस इलाके मे मै था, वहाँ के यादमी अाज तक मुझे याद करते हैं । डींग नहीं मारता, डींग मारने की मेरी ग्राटत नहो, लेकिन जिम इलाके मे मुश्किल से ५० हजार वसल होता था, उसा इलाके से साल के अन्दर मैने दो लाख वमूल करके दिखा दिया और लुत्फ यह कि किसी को हिरासत में रसने या कुरकी करने की जरूरत नही पड़ी।

ऐसे कार्य कुशल यादमी की सभी जगह जरूरत रहती है। रानी ने सोचा- इस अादमी को रख लें, तो इलाके की ग्रामदनी बढ जाय । ठार साहब से सलाह की । यहाँ तो पहले ही से सारी बातें सघी बधी थी । ठाकुर साहब ने रग और भी चोखा कर दिया। उनके दोस्तों मे यही ऐसे थे, जिसपर लौगी की असीम कृपा दृष्टि थी। दूसरी ही सलामी में मुशीजी को २५) मासिक की तहसीलदारी मिल गयी। मुँह माँगी मुराद पूरी हुई । सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने का सुहागा हो गया ।

अब मुशीजी की पाँचों अगुली घी में थी। जहाँ महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थी, वहाँ अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बडे अहलकार के लिए शराब की क्या कमी | कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतले खिचवा लेते कभी शहर के किसी कलवार पर धौस जमाकर दो चार बोतल ऐंठ लेते । बिना हरे फिटकरी रग चोखा हो जाता था। एक कहार भी नोकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो चार कुरसियाँ उठवा लाये | उनके हौसले बहुत ऊँचे न थे, केवल एक भले आदमी की भाँति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरो ने उनके हौसले को बहुत-कुछ पूरा कर दिया, लेकिन यह जानते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं । रईसों का मिजाज एक सा नहीं रहता। मान लिया, रानी साहब के साथ निभ ही गयी, तो कै दिन । राना साहब आते ही पुराने नौकरों को निकाल बाहर करेंगे । जब दीवान साहब ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती। इसलिए उन्होंने पहले ही से नये राजा साहब के यहाँ आना जाना शुरू कर दिया था। इनका नाम ठाकुर विशालसिंह था । रानी साहब के चचेरे देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे । बड़े भाई रियासत के मालिक थे । उन्हीं के वशजों ने दो पीढियो तक राज्य का आनन्द भोगा था । अब रानी के निस्सन्तान होने के कारण विशाल सिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गाँव जो उनके दादा को गुजारे के लिए मिले थे, उन्हीं को रेहन वय करके इन लोगों ने ५० वर्ष काट दिये थे- यहाँ तक कि विशालसिंह के पास अब इतनी भी सम्पत्ति न थी कि [ ३९ ]गुजर बसर के लिए काफी होती । उसपर कुल-मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। वह महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ो, सभी कुछ रखना पड़ता था | अभी तक परम्परा को नकल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव जरूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन जरूर धूमधाम होती।

प्रातःकाल था, माघ की ठण्ड पड़ रही थी। मुन्शीजी ने गरम पानी से स्नान किया और चौकी से उतरे। मगर खड़ाऊँ उलटे रखे हुए थे । कहार खडा था कि यह जायँ,तो धोती छाट! मुन्शीजी ने उलटे खड़ाऊँ देखे, तो कहार को डॉटा-तुझसे कितनी बार कह चुका कि खड़ाऊँ सीधे रखा कर | तुझे याद क्यों नहीं रहता ? बना, उलटे खड़ाऊँ पर कैसे पैर रखूँ ? आज तो मैं छोड़ देता हूँ, लेकिन कन जो तूने उलटे खड़ाऊँ रखे, तो इतना पीटगा कि तू भी याद करेगा।

कार ने कॉपते हुए हाथों से खडाऊँ सीधे कर दिये।

निर्मला ने हलवा बना रखा था । मुन्शीजी पाकर एक कुरसी पर बैठ गये और जलता हुअा हलवा मुंह में डाल लिया बारे किसी तरह उसे निगल गये और आँखों से पानी पोंछते हुए ब'ले-तुम्हारा कोई काम ठीक नहीं होता | जलता हुया हलवा सामने रख दिया । आखिर मेरा मुँह जलाने से तुम्हें कुछ मिल तो नहीं गया ।

निर्मला-जरा हाथ से देख क्यो न लिया ?

वज्रधर - वाह, उलटा चोर कोतवालै बाटे | मुझीको उल्लू बनाती हो । तुम्हें खुद सोच लेना चाहिए था कि जलता हुया हलमा खा गये, तो मुंह की क्या दशा होगी। लेकिन तुम्हें क्या परवा | लल्लू कहाँ हैं ?

निर्मला- लल्लू मुझसे कहके कही जाते हैं ? पहर रात रहे, न जाने किधर चले गये । नाने कहीं किसानों की सभा होनेवाली है। वहीं गये हैं ।

वनधर-वहाँ दिन-भर भूखा मरेगा ! न जाने इसके सिर से यह भूत कत्र उतरेगा? मुझसे कल दारोगाजी कहते थे, श्राप लड़के को सॅभालिए, नहीं तो धोखा खाइएगा। समझ में नहीं याar, क्या करूँ । मेरे इलाके के ग्रादमी भी इन सभागों मे अब जाने लगे हैं और मुझे खौफ हो रहा है कि कहीं रानी साहब के कानो में भनक पड़ गयी, तो मेरे सिर हो जायेंगी। मैं यह तो मानता है कि अहलकार लोग गरीबों को बहुत सताते हैं, मगर किया क्या जाय, सताये बगैर काम भी तो नहीं चलता। आखिर उनका गुजर बसर कैसे हो ! पिसानो को समझाना बुरा नहीं, लेकिन ग्राग मे कुदना तो बुरी बात है । मेरो तो मुनने को उसने कसम खा ली है, मगर तुम क्यों नहीं समझाती ?

निर्मला-जो याग में कृदेगा, आप जलेगा, मुझे क्या करना है । उससे बहस कौन करे । आज सवेरे-सवेरे कहाँ जा रहे हो ?

वनधर-जरा ठाकुर विशालसिंह के यहाँ जाता हूँ।

निर्मला-टोपहर तक तो लौट अायोगे न ? [ ४२ ]दूं। हॉ, इसका वादा करता हूँ कि रियासत मिलने के साल भर बाद भर कौड़ी कौड़ी सूद के साथ चुका दूंगा । सच्ची बात तो यह है कि मुझे पहले ही मालुम था कि इस शर्त पर कोई महाजन रुपए देने पर राजी न होगा । ये बला के चघह होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ है । मेरा वश चले, तो ग्राज इन सबों को तोप पर उड़ा दूं। जितना डर मुझे इनसे लगता है, उतना साँप मे भी नहीं लगता। इन्हीं के हाथों ग्रान मेरी यह दुर्गति है, नहीं तो इस गयी बीती दशा में भी यादमी होता। इन नर पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया । पिताजी ने केवल पाँच हजार लिये थे, जिनके पचास हजार हो गये । और मेरे तीन गाँव, जो इस वक्त दो लाख को सस्ते ये, नीलाम हो गये। पिताजी का मुझे यह अन्तिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।

यहाँ श्रमी यह बातें हो ही रही थी कि जनानखाने में से कलह शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियो मे सग्राम छिड़ा हुया है। ठाकुर साहब ये कर्कश पाब्द सुनते ही विकल हो गये, उनके माथे पर बल पड़ गये, मुख तेजहीन हो गया । यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी । यही काँटा था, जो नित्य उनके हृदय मे खटका करता था । उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती था। वह अत्यन्त गर्वशीला थी;नाक पर मक्खी भी न बैठने देती । उनको तलवार सदैव म्यान से बाहर रहती थी। वह अपनी सपत्नियों पर उसी भाँति शासन करना चाहती थी, जैसे कोई सास अपनी बहुश्री पर करती है । वह यह भूल जाती थी कि ये उनकी बहुएँ नहीं, सप नयाँ हैं । जो उनकी हाँ म हाँ मिनाता, उसपर प्राण देती थी, किन्तु उनकी इच्छा के विरुद्ध जरा भी कोई बात हो जातो, तो सिंहनी का सा विकराल रूप धारण कर लेती थी।

दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। यह रानी जगदीशपुर की सगी बहन थी । उनके पिता पुगने खिलाड़ी थे, दो दस्ती झाड़ते थे, दो-धारी तलवार से लडते थे । रामप्रिया दया और विनय की मूर्ति थी, बड़ी विचारशील और वाक्य-मधुर, जितना कोमल अग था, उतना ही कोमल हृदय भी था। वह घर में इस तरह रहती थी मानों थी ही नही। उन्हें पुस्तको से विशेष रुचि थी, हरदम कुछ न कुछ पढ़ा लिखा करती थीं। सब से अलग-विलग रहती थी, न किसी के लेने मे, न देने में, न किसी से वैर, न प्रेम।

तीसरी महिला का नाम रोहिणी या । ठाकुर साहब का उनपर विशेष प्रेम या, और वह भी प्रापण से उनकी सेवा करती थी। इनमे प्रेम की मात्रा अधिक थी या माया को इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहन उनकी सौतो से बात चीत भी करें। वसुमनी कर्कशा होने पर भी मलिन हृदयान थी, जो कुछ मन में होता, वही मुख म । एक बार मुँह से बात निकाल डालने पर फिर उसके हृदय पर उसका कोई चित न रहता था। रोहिणी द्वेष को पालती थी, जैसे- चिड़िया अपने अण्डे को सेतो है । वह जितना मुँह से कहती थी, उससे कही अधिक मन मे रखती थी। [ ४३ ]ठाकुर साहब ने अन्दर जाकर वसुमती से कहा--तुम घर में रहने दोगी या नहीं ? जरा भी शरम-लिहाज नहीं कि बाहर कौन बैठा हुया है। बस, जब देखो, सग्राम मचाbरहता है । इस जिन्दगी से तग पा गया । सुनते-सुनते कलेजे में नासूर पड़ गये ।

वसुमती-कर्म तो तुमने किये हैं, भोगेगा कौन ?

ठाकुर-तो जहर दे दो। जला जलाकर मारने से क्या फायदा !

वसुमती-क्या वह महारानी लडने के लिए कम थी कि तुम उनका पक्ष लेकर श्रा दौड़े ? पूछते क्यों नहीं, क्या हुआ, जो तीरों की बौछार करने लगी ?

रोहिणी--अाप चाहती हैं कि मैं कान पकड़कर उठाऊ, या बैठाऊँ, तो यहाँ कुछ आपके गॉव मे नहीं बसी हूँ । क्यों कोई अापसे थर-थर कॉपा करे!

ठाकुर-आखिर कुछ मालुम भी तो हो, क्या बात हुई ?

रोहिणी--वही हुई, जो रोज होती है । मैंने हिरिया से कहा, नरा मेरे सिर मे तेल डाल दे । मालकिन ने उसे तेल डालते देखा, तो श्राग हो गयीं। तलवार खींचे हुए आ पहुंची और उसका हाथ पकड़कर खींच ले गयी । अाज अाप निश्चित कर लीजिए कि हिरिया उन्हीं की लौडी है या मेरी भी। यह निश्चय किये बिना आप यहाँ से न जाने पायेंगे।

वसुमती-वह क्या निश्चय करेगे, निश्चय मैं करूँगी। हिरिया मेरे साथ मेरे नैहर से आयी है और मेरो लौडो है । किसी दूसरे का उस पर कोई दावा नहीं है ।

रोहिणी--सुना आपने ? हिरिया पर किसी का दावा नहीं है, वह अकेली उन्ही की लौंडी है।

ठाकुर-हिरिया इस घर में रहेगी, तो उसे सब का काम करना पड़ेगा।

वसुमती यह सुनकर जल उठी। नागिन की भाँति फुफकारकर बोली- इस वक्त तो अापने चहेती रानी की ऐसी डिग्री कर दी, मानो यहाँ उन्हीं का राज्य है। ऐसे ही न्यायशील होते, तो सन्तान का मुँह देखने को न तरसते ।

ठाकुर साहब को ये शब्द बाण-से लगे । कुछ जवान न दिया। बाहर आकर कई मिनट तक मर्माहत दशा में बैठे रहे । वसुमती इतनी मुंहफट है, यह उन्हे अाज मालूम हुया । सोचा, मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही थी, जिस पर वह इतना झल्ला जाती। मैने क्या बुरा कहा कि हिरिया को सबका काम करना पड़ेगा। अगर हिरिया केवल उसी का काम करती है, तो दो महरियाँ और रखनी पड़ती हैं । क्या वसुमती इतना भी नहीं समझतो ? ताना ही देना था, तो और कोई लगती हुई बात कह देती। यह तो कठोर से कठोर ग्राघात है, जो वह मुझ पर कर सकती थी। ऐसी स्त्री का तो मुँह न देखना चाहिए।

सहमा उन्हें एक बात सूझी। मुशीजी से बोले--ज्योतिष की भविष्यवाणी के विषय में आपके क्या विचार है । क्या यह हमेशा सच निकलती है ?

मुंशोजी असमजस में पड़े कि इसका क्या जवाब दूं। कैसा जवाब रुचिकर होगा--[ ४४ ]यह उनकी समझ में न पाया । अंधेरे में टटोलते हुए बोले--यह तो उसी विद्या के विषय में कहा ना सकता है, जहाँ अनुम न से काम न लिया जाय । ज्योतिष में बहुत-कुछ पूर्व अनुभव और अनुमान हो से काम लिया जाता है।

ठाकुर--बस, ठीक यही मेरा विचार है । अगर ज्योतिप मुझे धनी बतलाये, तो यह आवश्यक नहीं कि मैं धनी हो जाऊँ । ज्योतिप के धनी कहने पर भी सम्भव है कि मैं निन्दगी भर कौड़ियों को मुहताज रहूँ । इमी भाँति ज्योतिष का दरिद्र लक्ष्मी का कृपा पात्र भी हो सकता है, क्यों ?

मुशीजी को अब भी पॉव जमाने को भूमि न मिली । सन्दिग्ध भाव से बोले-हाँ, ज्योतिष की धारणा जब अनुष्ठानों से बदली जा सकती है, तो उसे विधि का लेख क्यों समझा जाय ?

ठाकुर साहब ने बड़ी उत्सुकता से पूछा- अनुष्ठानों पर श्रापका विश्वास है ?

मुशीजीको जमीन मिल गयी । बोले-~अवश्य ।

विशालसिह यह तो जानते थे कि अनुराना से शकायों का निवारण होता है । शनि, राहु ग्रादि का शमन करने के अनुशनों से परिचित थे । बहुत दिनो से मगल का व्रत भी रखते थे, लेकिन इन अनुराना पर अन उन्हें विश्वास न था । वह कोई ऐसा अनुष्ठान करना चाहते थे जो किसी तरद निष्फल ही न हो | बोले- यदि यार यहाँ के किसी विद्वान् ज्योतिषी से परिचित हों, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहाँ भेज दोजि एगा । मुझे एक विषय में उनसे कुछ पूछना है ।

मुशी-अाज ही लीजिए, यहाँ एक से एक बढकर ज्योतिषी पड़े हुए हैं। श्राप.मुझे कोई गैर न समझिए । जब, जिस काम को इच्छा हा, मुझे कहला भेजिए ।.सिर के बल दौड़ा श्राऊँगा। बाजार से काई अच्छी चीज मॅगानी हो, मुझे हुक्म दीजिए, किसी वैद्य या हकीम की जरूरत हो, मुझे सूचना दीजिए। मैं तो जैसे महारानीनी को समझता हूँ, वैसे ही श्रापको भी समझता हूँ।

ठाकुर-मुझे श्रापसे ऐसी ही श्राशा है। जरा रानी साहबा का कुशल-समाचार जल्द जल्द भेजिएगा। वहाँ अापके सिवा मेग और कोई नहीं है । श्राप ही के ऊपर मेरा भरोसा है । जरा देखिएगा, कोई चीज इधर उधर न होने पाये, यार लोग नोच-खसोट न शुरू कर दें।

मुशी-आप इससे निश्चिन्त रहें । मैं देख भाल करता रहूँगा।

ठाकुर-हो सके, तो जर( यह भी पता लगाइएगा कि रानी ने कहाँ-कहाँ से कितने रुपये कर्ज लिये हैं।

मुशी-समझ गया, यह तो सहज ही में मालूम हो सकता है।

ठाकुर-- जरा इसका भी पता लगाइएगा कि याजकल उनका भोजन कौन बनाता है। पहले तो उनके मैके ही की कोई स्त्री थी। मालूम नहीं, अब भी वही बनाती है, या कोई दूसरा रसोइया रखा गया है । [ ४५ ]चक्रधर ने ठाकुर साहब के मन का भाव ताडकर दृढ़ता से कहा-महाराज, क्षमा कीजिएगा, मै आपका सेवक हूँ, पर रानी जी का भी सेवक हूँ। उनका शत्रु नही हूँ। और वह दोनों सिह और सिहनी की भाँति लड़ सकते हैं। मै गीदड़ की भॉति स्वार्थ के लिए बीच मे कूदना अपमान-जनक समझता हूँ। मै वहाँ तक तो आपकी सेवा कर सकता हूँ, जहाँ तक रानीजी का अहित न हो । मै तो दोनों का भिक्षुक हूँ।

ठाकुर साहब दिल मे शरमाये, पर इसके साथ मुंशीजी पर उनका विश्वास और हो गया । बात बनाते हुए बोले-नहीं, नहीं, मेरा मतलब आपने गलत समझा। छी: ! मै इतना नीच नही । मै केवल इसलिए पूछता था कि नया रसोइया है या नहीं । अगर वह सुपात्र है, तो वही मेरा भी भोजन बनाता रहेगा। ठाकुर साहब ने बात तो बनायी, पर उन्हें स्वय ज्ञात हो गया कि बात बनी नहीं ।

झेप मिटाने को वह एक समाचार पत्र देखने लगे, मानों उन्हें विश्वास हो गया शीजी ने उनकी बात सच मान ली ।

इतने मे हिरिया ने आकर मुंशीजी से कहा--बाबा, मालकिन ने कहा है कि श्राप लगे, तो मुझसे मिल लीजिएगा।

ठाकुर साहब ने गरज कर कहा-ऐसी क्या बात है, जिसको कहने की इतनी जल्दी है। इन बेचारे को देर हो रही है, कुछ निठल्ले थोड़े ही है कि बैठे बैठे औरतों का सुना करें । जा, अन्दर बैठ ।

यह कह कर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए, मानो मुशी जी को विदा कर रहे हैं । वह ती को उनसे बातें करने का अवसर न देना चाहते थे । मुशीजी को भी अब विवश विदा माँगनी पड़ी।

मुंशीजी यहाँ से चले तो उनके दिल मे एक शंका समायी हुई थी कि ठाकुर साहब मुझसे नाराज तो नहीं हो गये। हाँ, इतना सन्तोष था कि मैने कोई बुरा काम नहीं । यदि वह सच्ची बात कहने के लिए नाराज हो जाते हैं, तो हो जायँ। मै क्यों साहब का बुरा चेतू । बहुत होगा, राजा होने पर मुझे जवाब दे देगे । इसकी क्या चिंता। इस विचार से मुंशीजी और अकड़कर घोड़े पर बैठ गये। वह इतने खुश थे, । हवा में उड़े जा रहे हैं। उनकी आत्मा कभी इतनी गौरवोन्मत्त न हुई थी। ताओं को कभी उन्होंने इतना तुच्छ न समझा था।