काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध/प्राक्कथन
प्राक्कथन
प्रसादजी हिन्दी के युगप्रवर्त्तक कवि और साहित्यस्रष्टा तो थे ही, एक असाधारण समीक्षक और दार्शनिक भी थे। बुद्ध, मौर्य और गुप्त काल के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अन्वेषणों पर प्रसादजी के निबंध पाठक पढ़ चुके हैं। उनका महत्त्व इस दृष्टि से बहुत अधिक है कि वे इतिहास की सूखी रूपरेखा पर तत्कालीन व्यापक उन्नति या अवनति के कारणों और रहस्यों का रंग चढ़ा देते हैं। व्यक्तियों और समूहों की कृतियों का ही नहीं उन विचारधाराओं का भी वे उल्लेख करते हैं, जिनका सामयिक जीवन के निर्माण में हाथ रहा है। इस प्रकार प्रसादजी ने इतिहास के अस्थिपंजर को कार्य-कारण-युक्त दार्शनिक सजीवता प्रदान की है, जिससे उनका अध्ययन करने में एक अनोखा आनंद प्राप्त होता है। वे इतिहास को मानवनिर्मित संस्थाओं, उनके सामूहिक उद्योगों, मनोवृत्तियों और रहन-सहन को पद्धतियों के साथ देखना चाहते हैं और मनुष्यों की इन सारी प्रगतियों का केन्द्र समसामयिक दर्शन को मानते हैं। इस प्रकार मानव जीवन का अंतःप्रेरण दर्शन को और बहिर्विकास इतिहास को मान कर वे इन दोनों का घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर देते हैं। कोरी भौतिक घटनाओं का इतिहास या कोरा पारमार्थिक दर्शन उनके लिए कोई महत्व नहीं रखते।
प्रसादजी की इस दृष्टि के कारण भारतीय इतिहास और दर्शन दोनों ही राष्ट्रीय संस्कृति के अविच्छिन्न अंग बन गए हैं, कहीं भी इनका बिछोह नहीं होने पाया। जहाँ कहीं दार्शनिक विवेचन है वहाँ मानवजीवन और इतिहास की पृष्ठभूमि अवश्य है और जहाँ कहीं किसी राष्ट्रीय मानवीय उद्योग का आकलन है वहाँ भी दर्शन का साथ कभी नहीं छूटा। प्रस्तुत पुस्तक में प्रसाद जी की साहित्यिक समीक्षाओं का संग्रह है। साहित्य भी एक सांस्कृतिक प्रक्रिया ही है। इसलिए हम देखते हैं कि प्रसादजी ने इन निबंधों में भारतीय दार्शनिक अनुक्रम का साहित्यिक अनुक्रम से युगपत संबंध तो स्थापित किया ही है प्रसंगवश दर्शन और साहित्य की समानता भी मानवात्मा के संबंध से सिद्ध की है। मुख्य-मुख्य दार्शनिक धाराओं के साथ मुख्य-मुख्य काव्य धाराओं का समीकरण करके इन दोनों का एक इतिहास भी प्रसादजी ने प्रस्तुत पुस्तक में हमारे सामने रक्खा है।
प्रसादजी की ये उद्भावनाएँ इतनी मार्मिक हैं, इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता का पुट इतना प्रगाढ़ है, और साथही इनकी मनोवैज्ञानिक विवृत्ति इतनी सुंदर रीति से हृदय का स्पर्श करती है कि हम सहसा यह भूल जाते हैं कि ये अधिकांश एकदम नवीन हैं, किसी क्रमागत विचारपरिपाटी से इनका संबंध नहीं है। किन्तु नवीन होना इनका दोष नहीं है, गुण ही है, क्योंकि परंपरागत शैली के अनुयायी तो केवल लीक पीट रहे थे। जब उन लीक पीटने वालों से हिन्दी का कल्याण होता नहीं दीखा और नवशिक्षित समाज की तीव्र दार्शनिक पिपासा शान्त नहीं हुई तभी तो इस प्रकार की विचारधाराओं और व्याख्याशैलियों की और प्रसादजी जैसे दो-चार इने-गिने विद्वानों की अभिरुचि हुई।
किन्तु परंपरागत व्याख्याशैली से दूर हट कर भी प्रसादजी ने प्राचीन सांकेतिक शब्दावली का, वह साहित्यिक हो या दार्शनिक, त्याग कहीं नहीं किया; अपितु अपनी दृष्टि से उसकी यथातथ्य व्याख्या ही की है। न उन्होंने उन पारिभाषिक शब्दों का अनुचित या अन्यथा प्रयोग ही किया है जैसा कि आधुनिक असंस्कृतज्ञ करने लगे हैं। इसका कारण यही है कि प्रसादजी ने दर्शन और साहित्य शास्त्रों का विस्तृत अध्ययन किया था और कहीं भी शाब्दिक खींचतान या अर्थ का अनर्थ करने की चेष्टा नहीं की। यह बात दूसरी है कि उनकी उपपत्तियाँ सब को एक-सी मान्य न हों किन्तु जिन्हें वे मान्य न हों वे भी उन्हें अशास्त्रीय नहीं कह सकते क्योंकि उनका आधार शास्त्र ही हैं। शास्त्रीय वस्तु को ही उन्होंने इतिहास और मानव मनोविज्ञान के दोहरे छन्नों से छान कर संग्रह किया है। इस छनी हुई वस्तु को अशुद्ध या अप्रामाणिक कहने के लिए साहस चाहिए।
अब मैं प्रसादजी की उन उपपत्तियों को जो इस पुस्तक में हैं संक्षेप में उपस्थित करके ही आगे बढ़ूँगा। 'काव्य और कला' निबंध में प्रसादजी की सब से मुख्य और महत्वपूर्ण उद्भावना यह है कि काव्य स्वतः आध्यात्मिक है, काव्य से ऊँची अध्यात्म नाम की कोई वस्तु नहीं। साहित्य शास्त्र में काव्यानन्द को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा गया है और 'कविर्मनीषी परिभू : स्वयंभू' यह अति भी प्रसिद्ध है जिसमें कवि और मनीषी (अर्थात् आध्यामिक) समानार्थी कहे गए हैं। किन्तु जहाँ मान्यता की बात आती है वहाँ आध्यात्मिक क्षेत्रों में इसको अर्थवाद ही मानते हैं सिद्धान्त रूप में स्वीकार नहीं करते। किन्तु प्रसादजी इसे सिद्धान्त रूप में प्रतिपादित करते हैं। उनका कथन है कि पश्चिमी विचार प्रणाली के अनुसार जहाँ मूर्त और अमूर्त का आध्यात्मिक भेद प्रचलित है काव्य को, मूर्त होने के कारण, आध्यात्मिक सीमा से, जिसमें अमूर्त के लिये ही स्थान है, अलग करने की चेष्टा भले ही की गई हो, किन्तु भारतीय विचारधारा में ब्रह्म मूर्त भी है और अमूर्त भी। अतः मूर्त होने के कारण काव्य को अध्यात्म से निम्न श्रेणी की वस्तु नहीं कह सकते।
यहीं प्रसादजी ने काव्य की मार्मिक व्याख्या की है―'काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है'। आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति की दो धाराएँ हैं―एक काव्यधारा और दूसरी वैज्ञानिक, शास्त्रीय या दार्शनिक धारा। समझ रखना चाहिये कि इन दोनों में कोई मौलिक अन्तर नहीं है दोनों ही आत्मा के अखंड संकल्पात्मक स्वरूप के दो पहलू-मात्र हैं। कुछ लोग श्रेय और प्रेय भेद से विज्ञान और काव्य का विभाजन करते हैं किन्तु प्रसादजी का स्पष्ट मत है कि यद्यपि विज्ञान या दर्शन में श्रेय रूप से ही सत्य का संकलन किया जाता है और काव्य में प्रेय रूप की प्रधानता है, किन्तु श्रेय और प्रेय दोनों ही आत्मा के अभिन्न अंग हैं। काव्य के प्रेय में परोक्ष रूप से श्रेय निहित है। काव्य की व्याख्या में उन्होंने कहा है कि काव्य को संकल्पात्मक मूल अनुभूति कहने से मेरा जो तात्पर्य है उसे भी समझ लेना होगा। आत्मा की मननशक्ति की वह असाधारण अवस्था जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य में संकल्पात्मक मूल अनुभूति कही जा सकती है।'
इस प्रकार मूर्त और अमूर्त की द्विविधा हटा कर प्रसादजी ने श्रेय और प्रेय के झगड़े को भी साफ कर दिया है। इसका यह आशय नहीं कि वे काव्य और शास्त्र में कोई अंतर नहीं मानते। उन्होंने न केवल इनका व्यावहारिक अंतर माना है, प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति का भी विवरण दिया है जिसमें इन दोनों विषयों की शिक्षा पृथक्-पृथक् दो केन्द्रों में दी जाती थी। शास्त्रीय व्यापार के संबंध में प्रसाद जी स्वयं कहते हैं 'मन संकल्प और विकल्पात्मक है। विकल्प विचार की परीक्षा करता है। तर्क-वितर्क कर लेने पर भी किसी संकल्पात्मक प्रेरणा के ही द्वारा जो सिद्धान्त बनता है वही शास्त्रीय व्यापार है। अनुभूतियों की परीक्षा करने के कारण और इसके द्वारा विश्लेषणात्मक होते-होते उसमें चारुत्व की, प्रेय की, कमी हो जाती है।
किन्तु काव्य को आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति मान लेने और संकल्पात्मक अनुभूति की उपर्युक्त व्याख्या कर देने भर से समस्या का समाधान नहीं होता बल्कि यहीं से शंकाएँ आरंभ होती हैं। सब से पहली शंका प्रसाद जी ने स्वयं उठाई है और उसका उत्तर भी दिया है। वे लिखते हैं 'कोई भी यह प्रश्न कर सकता है कि संकल्पात्मक मन की सब अनुभूतियाँ श्रेय और प्रेय दोनों ही से पूर्ण होती हैं इसमें क्या प्रमाण है?' उत्तर वे यह देते हैं―'इसी लिए तो साथ ही साथ 'असाधारण अवस्था' का उल्लेख किया गया है। यह असाधारण अवस्था युगों की समष्टि अनुभूतियों में अंतर्निहित रहती है, क्यों कि सत्य अथवा श्रेय ज्ञान कोई व्यक्तिगत सत्ता नहीं, वह एक शाश्वत चैतनता है...जो व्यक्तिगत स्थानीय केन्द्रों के नष्ट हो जाने पर भी निर्विशेष रूप से विद्यमान रहती है। प्रकाश की किरणों के समान भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के दर्पण में प्रतिफलित हो कर वह आलोक को सुंदर और ऊर्जस्वित बनाती है।'
'असाधारण अवस्था' का इस प्रकार निर्वचन कर प्रसादजी ने काव्य और उसकी व्याख्या को रहस्यात्मक पुट दिया है। वह असाधारण अवस्था क्या है, उसके स्वरूप का अंतिम निर्णय नहीं हो सकता। अवश्य अह अनुभवजन्य है किन्तु युगों की समष्टि अनुभूतियों में अंतर्निहित होने के कारण वह इतिहास की वस्तु भी है। इतिहास के अनुशीलन से उसका आभास हम पा सकते हैं।
प्रसादजी ने प्रस्तुत पुस्तक में उस असाधारण अवस्था का ऐतिहासिक अनुशीलन भी किया है। उनके इस अनुशीलन से आत्मा की उस असाधारण अवस्था का, जिसे मननशील संकल्पात्मक अनुभूति या काव्यावस्था कहते हैं, जो परिचय प्राप्त होता है, हम बहुत संक्षेप में उल्लेख कर सकते हैं। यह अवस्था आत्मा की है इसलिए स्वभावतः अवस्था के साथ साथ आत्मा संबंधी विभिन्न युगों की धारणाओं का परिचय प्रसादजी देते गए हैं। आत्मा का विशुद्ध अद्वय स्वरूप आनंदमय है और उस अद्वयता में संपूर्ण प्रकृति से संनिहित है यह प्रसादजी की सुदृढ़ धारणा और उपपत्ति है। आदि वैदिक काल में इस आत्मवाद के प्रतीक इन्द्र थे और यही धारा शैव और शाक्त आगमों में आगे चल कर बही। यही विशुद्ध आत्मर्दशन था जिनमें प्रकृति और पुरुष की द्वयता विलीन हो गई है। शैव और शाक्त आगमों में जो अंतर है उसे भी प्रसादजी ने प्रकट किया है―'कुछ लोग आत्मा को प्रधानता देकर जगत् को, 'इदम्' को 'अहम्' में पर्यवसित करने के समर्थक थे, वे शैवागमवादी कहलाए। जो लोग आत्मा की अद्वयता को शक्तितरंग जगत् में लीन होने की साधना मानते थे ये शाक्तागमवादी हुए।' आत्मा का यही विशुद्ध अद्भय प्रवाह परवर्ती रहस्यात्मक काव्य में प्रसरित हुआ इसीलिए प्रसादजी रहस्यात्मक काव्यधारा को ही आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति की मुख्य धारा मानते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह शक्ति और आनंदप्रधान धारा थी जिसमें आदर्शवाद, यथार्थवाद, दुःखवाद आदि बौद्धिक, विवेकात्मक आदि, प्रसादजी के मत से अनात्मवादों का, स्वीकार नहीं था। दुःख या करुणा के लिए यहाँ भी स्थान था, किन्तु यह वेदना आनन्द की सहायक और साधक बन कर ही रह सकी।
इससे भिन्न दूसरी धाराओं के कई विभाग प्रसादजी के किए हैं किन्तु स्थूल रूप से उन्हें हम विवेकवादी या अनात्मवादी धारा के अंतर्गत ग्रहण कर सकते हैं। इन्हीं धाराओं के प्रतीक वैदिक काल में वरुण (जो एकेश्वरवाद के आधार हुए और जिनकी गणना असुरों में भी की गई) और परवर्ती काल में अनात्मवादी बौद्ध थे जो चैत्यपूजक हुए। पौराणिक काल में इसी दुःखवादी विचारधारा की प्रधानता थी और राम इसी विवेक पक्ष के प्रतिनिधि थे। कृष्ण के चरित्र में यद्यपि आनन्द की मात्रा कम न थी किन्तु मुख्य पौराणिक विचारधारा–दुःखवाद से उनकी चरित्र-सृष्टि भी आक्रान्त हैं। शांकर वेदान्त बौद्धों के दुःखवाद में संसार से अतीत सच्चिदानंद स्वरूप की प्रतिष्ठा करता है। यह आदिम आर्य आत्मवाद की दुःख से मिश्रित धारा है। यद्यपि इसमें आत्मा की अमरता और आनंदमयता का संदेश है किन्तु संसार मिथ्या या माया की आर्त पुकार भी है। परवर्त्ती भक्ति संप्रदायों के संबंध में प्रसादजी की धारणा है कि ये अनात्मवादी बौद्धों के ही पौराणिक रूपान्तर हैं। अपने ऊपर एक त्राणकर्ता की कल्पना और उसकी आवश्यकता दुःखसंभूत दर्शन का ही परिणाम है। यद्यपि प्रसादजी का यह मत है कि 'मनुष्य की सत्ता को पूर्ण मानने की प्रेरणा ही भारतीय अवतारवाद की जननी हैं’ किन्तु भक्ति संप्रदायों में यह प्रेरणा दृढ़मूल नहीं हो सकी और दुःखवादी या रक्षावादी विचारों ने उस पर कब्जा कर लिया। कबीर आदि निर्गुण संत भी दुःखवादी ही थे, समय की आवश्यकता से सच्चे आनंदवादी रहस्यवादियों को उनके लिए स्थान करना पड़ा।
प्रसादजी ने केवल ये आरोप ही नहीं किए, इनके लिए प्रमाणों की भी व्यवस्था की है। वैदिक काल के संबंध में वे लिखते हैं—'सप्तसिंधु के प्रबुद्ध तरूण आर्यो ने इस आनन्द वाली धारा (इन्द्र की उपासना) का अधिक स्वागत किया क्योंकि वे स्वत्व के उपासक थे।...आत्मा में आनन्द भोग का भारतीय आर्यों ने अधिक आदर किया। भारत के आर्यों में कर्मकाण्ड और बड़े बड़े यज्ञों में उल्लास पूर्ण आनन्द का ही दृश्य देखना आरंभ किया और आत्मवाद के प्रतिष्ठापना इन्द्र के उद्देश्य से बड़े-बड़े यज्ञों की कल्पनाएँ हुईं। किन्तु इस आत्मवाद और यज्ञवाली विचारधारा की वैदिक आर्यों में प्रधानता हो जाने पर भी, कुछ आर्य लोग अपने को उस आर्य संघ में दीक्षित नहीं कर सके। वे व्रात्य कहे जाने लगे।...उन व्रात्यों ने अत्यंत प्राचीन अपनी चैत्यपूजा आदि के रूप में उपासना का क्रम प्रचलित रक्खा और दार्शनिक दृष्टि से उन्होंने विवेक के आधार पर नए-नए तर्को की उद्भावना की।...वृष्णि संघ ब्रज में और मगध में अयाज्ञिक आर्य बुद्धिवाद के आधार पर नए-नए दर्शनों की स्थापना करने लगे। इन्हीं के उत्तराधिकारी वे तीर्थङ्कर लोग थे जिन्होंने ईसा से हजारों वर्ष पहले मगध में बौद्धिक विवेचना के आधार पर दुःखवाद के दर्शन की प्रतिष्ठा की।...फिर तो विवेक की मात्रा यहाँ तक बढ़ी कि वे बुद्धिवादी अपरिग्रही, नग्न, दिगंबर; पानी गरम करके पीने वाले और मुँह पर कपड़ा बाँध कर चलने वाले हुए। इन लोगों के आचरण विलक्षण और भिन्न-भिन्न थे।'
इस प्रसंग को अधिक विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है। पाठक मूल में ही उसे पढ़ेंगे। यहाँ इसी के साथ अब भारतीय साहित्य की प्रमुख धाराओं और अंगों के संबंध में प्रसादजी की धारावाहिक समीक्षा का सारांश उपस्थित किया जाता है जो उन्होंने काव्य की अपनी मूल परिभाषा को स्पष्ट करते हुए की है। ऊपर कह चुके हैं कि प्रसादजी रहस्यवाद को आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति की मुख्य धारा मानते हैं। यह काव्यात्मक रहस्यवाद वैदिक काल के 'ऊषा' और 'नासदीय' सूक्तों में, अधिकांश उपनिषदों में, शैव शाक्तादि आगमों में, आगमानुयायी स्पंदशास्त्रों में, सौन्दर्य लहरी आदि रहस्यकाव्य में तथा सहजानन्द के उपासक नागप्पा, कन्हप्पा आदि आगमानुयायी सिद्धों की रचनाओं में मिलता है। बीच में इन रहस्यवादी संप्रदायों के 'बौद्धिक गुप्त कर्मकाण्ड की व्यवस्था भयानक हो चली थी और वह रहस्य वाद की बोधमयी सीमा को उच्छृंखलता से पार कर चुकी थी।' यही अवसर रहस्यवादियों के ह्रास का था। किन्तु फिर भी इस धारा का अत्यन्ताभाव कभी नहीं हुआ। पिछले खेवे भी तुकनगिरि और रसालगिरि आदि, सिद्धों के रहस्य संप्रदाय के शुद्ध रहस्यवादी कवि, लावनी में आनन्द और अद्वयता की धारा बहाते रहे। प्रसादजी का यह भी स्पष्ट मत है कि 'वर्तमान हिन्दी में इस अद्वैत रहस्यवाद की सौन्दर्यमयी व्यंजना होने लगी है। वह साहित्य में रहस्यवाद का स्वाभाविक विकास है। इसमें अपरोक्ष अनुभूति, समरसता, तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा 'अहम्' का 'इदम्' से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है।' उनके शब्दों में 'वर्तमान रहस्यवाद की धारा (जिसे छायावाद काव्य भी कहते हैं) भारत की निजी संपत्ति है, इसमें संदेह नहीं।'
यह न समझना चाहिए कि काव्यात्मक रहस्यवाद बस इतना ही है। इतना तो वह तब होता जब प्रसादजी की दृष्टि पूर्ण साहित्यिक न होकर मुख्यतः सांप्रदायिक होती। काव्य में जहाँ कहीं वास्तविक आनन्द या रस का प्रवाह है वहीं आत्मा को संकल्पात्मक प्रेरणा है और वहीं वह 'असाधारण अवस्था' है, जिसे काव्य की—विशेष कर रहस्य-काव्य की—जन्मदातृ माना गया है। जिन काव्यों का प्रवाह आनन्द के स्रोत से उद्रिक्त है, दुःख जिनमें निमित्त बन कर आया है लक्ष्य नहीं—जो मुख्यतः प्रगतिशील सांस्कृतिक सृष्टियाँ हैं—वे सभी प्रसादजी की रहस्यकाव्य की व्याख्या के अंतर्गत आ जाती हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य में नाटक एक प्रधान अंग है। नाटक में रस या आनन्द की प्रधानता मानी गई है। साहित्य के अन्य अंग काव्य, उपन्यास आदि तो दुःखान्त हो सकते हैं किन्तु नाटकों के लिए ऐसी व्यवस्था सर्वमान्य रही है कि उसमें दुःखान्त सृष्टि नहीं होनी चाहिए। प्रसाद जी ने इसका कारण यह बतलाया है कि नाटकों में आनन्द या रस का साधारणीकरण होता है। प्रत्येक दर्शक अभिनीत वस्तु के साथ हृदय का तादात्म्य करके पूर्ण रस की अनुभूति करता है। वह अभिनीत दृश्यों से एकाकार हो जाता हैं, इसलिए अभिनीत वस्तु में न तो व्यक्तिवैचित्र्य (अद्भुत चरित्र सृष्टि) के लिए अधिक स्थान मान गया है न दुःखातिरेक के लिए। इसका आशय यह नहीं है कि नाटक में दुःख के दृश्यों के लिए स्थान ही नहीं है अथवा आनन्द के, रस में, नाम पर श्रेयहीन प्रेय का ही प्राधान्य है। इसका आशय केवल इतना है कि नाटक में आत्मा की संकल्पात्मक, सांस्कृतिक प्रेरणाओं की प्रधानता होती है क्योंकि वे मुख्यतः जनसमाज के मनोरंजन के साधन होते हैं। आए दिन सिनेमा की दृश्यावली में भी हम इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति के पाते हैं, यद्यपि उनमें सर्वत्र श्रेय सुरुचि का ध्यान नहीं रक्खा जाता।
प्रसादजी की एक अन्य उपपत्ति यह भी है कि दार्शनिक रहस्यवाद का नाटकीय रस से घनिष्ट संबंध है। जिस प्रकार रहस्यवाद में आनन्द के पक्ष की प्रधानता है उसी प्रकार नाटक में भी। जिस प्रकार भक्ति आदि विवेक और उपासना-मूलक दर्शन के अद्वैत रहस्य में स्थान नहीं है, उसी प्रकार भक्ति की रस में गणना नहीं हो सकती। यह स्पष्ट ही इसलिए कि भक्ति-काव्य के पात्रों और व्यवहारों का नाटक द्वारा रस-रूप में साधारणीकरण नहीं हो सकता। वे पात्र तो उपासना के हैं, उनका साधारणीकरण हो कैसे? इसलिए वे साहित्यिक अर्थ में नीरस हैं। साहित्यिक रस तो तभी तक है जब तक तादात्म्य की पूर्ण सुविधा है।
इसी तादात्म्य या साधारणीकरण के प्रसंग को लेकर प्रसाद जी ने वह अत्यन्त मार्मिक दार्शनिक निष्पत्ति की है जिसके आधार पर उनका सारा ऊर्ध्व-लिखित विवेचन स्थिर है। वह निष्पत्ति पूर्णतः मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थिर है। अभिनय देखते हुए दर्शक के हृदय में साधारणीकरण या तादात्म्य के आधार पर जो रसानुभूति होती है, वह साहित्यिक शास्त्र से सर्वथा स्वीकृत है और ब्रह्मानन्द-सहोदर कही गई है। किन्तु साधारणीकरण होता किस वस्तु का है? अभिनीत पात्रों के प्राकृतिक व्यवहारों और वासनाओं का। इससे स्पष्ट है कि प्राकृतिक वासनाओं का आत्मस्वरूप में स्वीकार ही रस का हेतु है—वह रस जो ब्रह्मानन्द-सहोदर कहा गया हैं। इससे यह निष्कर्ष निकला कि ब्रह्मानन्द-सहोदर रस प्रकृति के उपादानों से ही बना है—उनका बहिष्कार करके किन्हीं अलौकिक उपादानों द्वारा नहीं। दार्शनिक क्षेत्र में यही उपपत्ति इस प्रकार ग्रहण की जायगी कि आनंद की सत्ता को प्रकृतिबाह्य मानने की आवश्यकृता नहीं है, प्रकृति का आनंद-स्वरूप में स्वीकार ही वास्तविक अद्वैत है।
यहाँ फिर यह कहने की आवश्यकता है कि प्राकृतिक वासनाओं का जो साधारणीकरण रस रूप में होता है वह श्रेयहीन प्रेय नहीं हैं, श्रेयपूर्ण प्रेय है। वह प्राकृतिक द्वैत से संयुक्त नहीं है आत्मिक अद्वैत से निष्पन्न है। उपकरण प्रकृति है किन्तु आत्म विरहित प्रकृति नहीं। यह रस आत्मा की मननशीलता का परिणाम है, कोई प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं। इसी अर्थ में प्रसादजी ने काव्य को अध्यात्मिक वस्तु सिद्ध किया है और इसी अर्थ में वे प्राकृतिक सत्ता का आत्मसत्ता में समन्वय करते हैं।
प्रसादजी का यह मंतव्य है कि आत्मा की यह विशुद्ध अद्वय तरंग जैसी प्राचीन भारतीय नाटकों में प्रवाहित है वैसी अन्य साहित्यिक कृतियों में नहीं। उनका कथन यह है कि नाट्य साहित्य में रस, या आनन्द अनिवार्य होने के कारण काव्य की मूल रहस्यात्मक धारा नाटकों में ही प्रवर्तित हुई। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य भी विवेकवाद से (जो दुःखवाद का ही एक रूप है) अभिभूत हैं। उनमें से एक (रामायण) आदर्शात्मक विवेकवाद की पद्धति पर रचा गया है और दूसरा यथार्थवादात्मक पद्धति पर। दोनों के मूल में विवेक या विकल्प का अंश है। पूर्णतः संकल्पात्मक ये कृतियाँ नहीं हैं। आदर्शवाद और यथार्थवाद इन शब्दों का प्रयोग स्पष्ट रूप से इस प्रसंग में न करने पर भी प्रसादजी का आशय यही जान पड़ता है। ये शब्द प्रसादजी ने आधुनिक प्रचलित अर्थ से कुछ भिन्न अर्थ में व्यवहृत किए हैं जिसे हम आगे देखेंगे। यहाँ समझने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि आदर्शवाद में लोकोत्तर चरित्रों और भावों का समावेश प्रसाद जी ने माना है और यथार्थवाद में लोकसामान्य घटनाओं, मनोवृत्तियों आदि का। किन्तु ये दोनों ही वाद प्रसाद जी की संमति में बौद्धिक या विवेकप्रसूत हैं। ये रसात्मक या आनंदात्मक नहीं हैं।
यही नहीं प्रसादजी का मत है कि पौराणिक साहित्य से लेकर अधिकांश श्रव्य काव्य (जिन्हें प्रसाद जी ने समयोपयोगी 'पाठ्य काव्य' नाम दिया है) जिनमें कथासरित्सागर और दशकुमार-चरित्र को 'यथार्थवादी' रचनाएँ और कालिदास, अश्वघोष, दण्डि, भवभूति और भारवि फा काव्यकाल भी सम्मिलित है, बाहरी आक्रमण से हीनवीर्य हुई जाति की कृतियाँ हैं। इनमें प्राचीन अद्वैत भावापन्न 'नाट्यरस' नहीं है। 'आत्मा की मननशक्ति की वह असाधारण' अवस्था (वह रहस्यात्मक प्रेरणा) नहीं है जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में सहसा ग्रहण कर लेनी है।'
संक्षेप में प्रसाद जी की मुख्य विवेचना यहाँ समाप्त हो जाती है। स्थूल रूप से हम कह सकते हैं कि उन्होंने एक और आनंदप्रधान, रहस्यात्मक या रसात्मक और दूसरी ओर विवेकप्रधान, बौद्धिक या आलंकारिक साहित्य की दो कोटियाँ स्थिर की हैं और उन्हें अद्वैत और द्वैत दर्शन से क्रमशः अनुप्राणित माना है। इस प्रकार को श्रेणिविभाग नया, विचारोत्तेजक और प्रसादजी की प्रतिभा का परिचायक है। हिन्दी के साहित्यिक और दार्शनिक क्षेत्रों में यह प्रायः अभुतपूर्व है। अवश्य ही ये श्रेणियों बहुत दृष्टि से परस्पर नितांत विरोधिनी नहीं हैं, ऐसी भी संभावनाएँ ध्यान में आती हैं जब ये दोनों ऊपर से एक दूसरे के बहुत निकट आ जाएँ, किन्तु इनके मूल स्रोतों, लक्षणों और प्रक्रियाओं में स्पष्ट अंतर है। यद्यपि प्रसादजी ने यह बात कहीं स्पष्ट रूप से नहीं कही है और ऐतिहासिक शैली से ही विवेचन किया है तो भी यह कई स्थानों पर ध्वनित होता है कि प्रथम धारा का साहित्य ही वास्तव में प्रगतिशील साहित्य है और दूसरी धारा का साहित्य मुख्यतः ह्रासोन्मुख है। इस विचार से हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डाली जाय तो प्रचलित धारणाओं में बहुत अधिक फेर-फार करने की आवश्यकता प्रतीत होगी।
इसी प्रकार अद्वैत और द्वैत के संबंध की प्रसाद जी की दार्शनिक उद्भावना—प्रकृति का आत्मा से पृथक्करण नहीं वरन् उसमें पर्यवसान अद्वैत है और द्वैत आत्मा और जगत् की भिन्नता का विकल्प है—आधुनिक आध्यात्मिक क्षेत्रों में कम उत्तेजना नहीं उत्पन्न करेगी। यद्यपि विचारपूर्वक देखा जाय तो इसमें प्राचीन प्रवृत्तिमार्ग, अथवा आत्मा की छत्रछाया में निष्काम कर्म की आधुनिक आध्यात्मिक उपपत्ति से विशेष भिन्नता नहीं है, तो भी प्रकारभेद तो है ही।
प्रसाद जी की संमति में अद्वयता की साधना ही मुख्य साहित्यिक और दार्शनिक साधना है तथा इन दोनों का ही हिन्दी क्षेत्र में प्रायः अभाव है। साहित्य में वे आनन्द सिद्धान्त के षृष्ठपोषक हैं (हिन्दी के भक्ति और शृंगार दोनों ही कालों में वास्तविक आनन्द की न्यूनता थी) और दर्शन में शक्ति-अद्वैतवाद के संदेशवाहक। आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति में इन दोनों का समन्वय हो जाता है।
इसके अतिरिक्त प्रसादजी के अन्य आनुषंगिक विचारों का अनुशीलन भी कम उपादेय नहीं है। उदाहरणार्थं रस के प्रसंग में उन्होंने प्रदर्शित किया है कि अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और ध्वनि आदि के साहित्य संप्रदाय विवेकमत की उपज हैं, अकेला रस-मत ही आनंद-उद्भूत है। एक अन्य निबंध में आधुनिक साहित्य का हवाला देते हुए आदर्शवाद, यथार्थवाद, छायावाद आदि कई पारिभाषिक शब्दों को उन्होंने प्रयोग किया है। वे लिखते हैं कि 'श्री हरिश्चन्द्र ने वेदना के साथ ही जीवन के यथार्थ रूप का चित्रण आरंभ किया।... प्रतीक-विधान चाहे दुर्बल रहा हो परंतु जीवन की अभिव्यक्ति का प्रयत्न हिन्दी में उसी समय हुआ था।... यद्यपि हिन्दी में पौराणिक युग की पुनरावृत्ति हुई और साहित्य की समृद्धि के लिए उत्सुक लेखकों ने नवीन आदर्शों से भी उसे सजाना आरंभ किया, किन्तु श्री हरिश्चन्द्र का आरंभ किया हुआ यथार्थवाद भी पल्लवित होता रहा। यथार्थवाद की विशेषताओं में प्रधान है लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात। उसमें स्वभावतः दुःख की प्रधानता और वेदना की अनुभूति आवश्यक है। लघुता से मेरा तात्पर्य है साहित्य के माने हुए सिद्धान्त के अनुसार महत्ता के काल्पनिक चित्रण के अतिरिक्त व्यक्तिगत जीवन के दुःख और अभावों का वास्तविक उल्लेख।'
यथार्थवाद की यह व्याख्या दार्शनिक की अपेक्षा ऐतिहासिक अधिक है और श्री हरिश्चन्द्र के समय की यथार्थोन्मुख प्रवृत्तियों का संकेत करती है। अभाव के साथ ही साथ यथार्थवाद का एक भावपक्ष भी है जिसमें दैनिक जीवन के यथातथ्य चित्रण, काल्पनिक के स्थान पर बौद्धिक दृष्टि, और फ्रायड की सुझाई मनोवैज्ञानिकता का अनुसरण मुख्य है। इस यथार्थवाद के साथ ऐतिहासिक भौतिक विज्ञानवाद (Historical Materialism) और नवीन कामविज्ञान का भी घनिष्ठ संबंध हो गया है। सामाजिक समस्याओं का व्यावहारिक नहीं, बौद्धिक समाधान भी इस वाद की विशेषता है। यह वाद सामाजिक उत्थान की निचली सीढ़ी, नींव अथवा जड़ के समीप रह कर ही अपनी उपयोगिता प्रकट करता है, ऊँची सांस्कृतिक भूमियों में जाने का कष्ट नहीं करता। उसकी दृष्टि मुख्यतः भौतिक विज्ञान पर स्थित है।
प्रसादजी ने आदर्शवाद के संबंध में लिखा है—'आरंभ में जिस आधार पर साहित्यिक न्याय की स्थापना होती है—जिसमें राम की तरह आचरण करने के लिए कहा जाता है, रावण की तरह नहीं—उसमें रावण की पराजय निश्चित है। साहित्य में ऐसे प्रतिद्वन्दी पात्र का पतन आदर्शवाद के स्तंभ में किया जाता है।' यह आदर्शवाद की परिपाटी भी ऐतिहासिक है, सैद्धान्तिक नहीं और मेरे विचार से आदर्शवाद की यह अवनतिशील (dependent) परिपाटी है। अपनी उन्नत अभिव्यक्तियों मे आदर्शवाद अतिशय निस्पृह विज्ञान है। किन्तु प्रसादजी जिस ऐतिहासिक आदर्शवाद का उल्लेख करते हैं, अपने स्थान पर वही ठीक है। बाद के रूप में आदर्श को प्रसादजी दुःखवाद की ही सृष्टि मानते हैं। इसीलिए वे कहते भी हैं—'सिद्धान्त से ही आदर्शवादी धार्मिक प्रवचन कर्ता बन जाता है। वह समाज को कैसा होनी चाहिए यही आदेश करता है। और यथार्थवादी सिद्धान्त से ही इतिहासकार से अधिक कुछ नहीं ठहरता। यह चित्रित करता है कि समाज कैसा है या था। स्पष्ट ही यहाँ प्रसादजी ने यथार्थ और आदर्श दोनों ही वादों को विवेकप्रसूत माना है आनन्दोद्भूत, अद्वैत अथवा सच्चा सांस्कृतिक नहीं। इसीलिए प्रसादजी की ये व्याख्याएँ प्रचलित पारिभाषिक व्याख्याओं से कुछ भिन्न हो गई हैं।
प्रसादजी स्पष्ट ही इन दोनों वादों का विरोध करते हैं। उनका कथन है कि 'सांस्कृतिक केन्द्रों में जिस विकास का आभास दिखलाई पड़ता है वह महत्व और लघुत्त्व दोनों सीमान्तों के बीच की वस्तु है; यहाँ महत्त्व और लघुत्व के दोनों सीमान्तों से प्रसादजी का तात्पर्य ऐतिहासिक आदर्शवाद और यथार्थवाद के सीमान्तों से है। दार्शनिक सीमान्तों की ओर यहाँ उनकी दृष्टि नहीं है।
इस बीच की वस्तु या मध्यस्थता के निर्देश से यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि प्रसादजी सिद्धान्ततः मध्यवर्गीय थे। प्रसादजी आदर्शवाद और यथार्थवाद की बौद्धिक दार्शनिकता के विरोधी थे। उनके रहस्यवाद या शक्तिसिद्धान्त में दोनों के अंश हो सकते हैं किन्तु दोनों की सीमाएं नहीं हैं और दोनों को मूल दुखात्मकता का भी निषेध है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में इसका नाम छायावाद पड़ा और ऐतिहासिक दृष्टि से इसमें उक्त दोनों वर्गों (आदर्शवाद और यथार्थवाद) की मध्यस्थता के चिन्ह भी संभव है मिलें, किन्तु दार्शनिक दृष्टि से वह अद्वैत पर स्थित है और वे दोनों बाद द्वैत पर। प्रसादजी ने इस अन्तर का ही अधिक आग्रह किया है। उनकी मीमांसा से प्रकट होता है कि छायावाद ऊपरी दृष्टि से तो यथार्थवाद के ही निकट है (ऐसा कहते हुए उनका ध्यान आरंभिक आदर्शवादी छायावादियों की ओर नहीं गया जिनकी एक प्रतिनिधि रचना 'साधना' है) किन्तु प्रसादजी को संमति में यथार्थवाद श्रीहरिश्चन्द्र के 'भारत दुर्दशा' आदि में स्थूल, बाह्य वर्णनों तक ही सीमित रहा, और दुःखप्रधान था। छायावाद में 'वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी।...ये नवीन भाव आंतरिक स्पर्श से पुलकित थे। सूक्ष्म आभ्यन्तर भावों के व्यवहार में प्रचलित पद योजना असफल रही। उनके लिए नवीन शैली, नया वाक्यविन्यास आवश्यक था।'
यह प्रबल नवीन उत्थान किसी मध्यवर्ग के मान का नहीं था। इसके लिए नव्य दर्शन की आवश्यकता थी। यह नवीन दर्शन अद्वैत रहस्यवाद ही है जिसके अनुसार 'विश्वसुन्दरी प्रकृति में चेतनता का आरोप प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यह प्रकृति अथवा शक्ति का रहस्यवाद है जिनकी सौन्दर्यमयी व्यंजना वर्तमान हिन्दी में हो रही है।' छायायाद एक ऐतिहासिक आवश्यकता भी है और दार्शनिक अभ्युत्थान भी। प्रसादजी का यह स्पष्ट मत है कि दार्शनिक दृष्टि से यह अभ्युत्थान प्राचीन रहस्यात्मक परंपरा में है जिसे भूले भारत को बहुत दिन हो गए थे।
'नाटकों का आरंभ' और 'रंग मंच' पर प्रसादजी के दो निबन्ध प्रस्तुत पुस्तक में हैं जिन्हें मूल में ही अध्ययन करने की आवश्यकता है। यहाँ उनका विवरण अधूरा और अप्रासंगिक भी होगा क्योंकि उनमें व्याख्येय कोई विशेष वस्तु नहीं है, सब-का-सब विवरणात्मक है।
चार प्रश्न और भी विचारणीय हैं―वे चारों पहले ही निबन्ध (काव्य और कला) के हैं। वे प्रस्तुत पुस्तक के मूल प्रश्नों में से नहीं हैं, इसीलिए अब तक छूटे हुए थे। किन्तु अपने स्थान पर वे सभी महत्त्वपूर्ण हैं। पहला प्रश्न कला की परिभाषा और दूसरा मूर्त और अमूर्त आधार पर कलाओं के वर्गीकरण का है। तीसरा काव्य पर राष्ट्रीय संस्कृति का प्रभाव और अन्तिम प्रश्न काव्य में अनुभूति की प्रधानता पर है। 'कला' शब्द का भारतीय व्यवहार पाश्चात्य व्यवहार से भिन्न है। यहाँ कला केवल छंद-रचना के अर्थ में व्यवहृत हुई, इसीलिए काव्य नहीं 'समस्यापूर्ति' की गणना कला में की गई। स्पष्ट ही काव्य केवल समस्यापूर्ति नहीं है, समस्यापूर्ति या छंद तो उसका वाहनमात्र है―बिना सवार का घोड़ा। पाश्चात्य अर्थ में कला सवार सहित घोड़ा है इसलिए उसकी शिक्षा-दीक्षा और सामाजिक संस्कृति में उसका स्थान स्वभावतः भिन्न होना ही चाहिए।
कलाओं के वर्गीकरण का प्रश्न कलाओं के पाश्चात्य अर्थ में है। चित्र, संगीत, स्थापत्य, साहित्य आदि कलाओं के वर्गीकरण का कुछ क्रम आवश्यक है। हीगेल ने कलाओं के मूर्त्त आधार को लेकर उनकी सूक्ष्मता और स्थूलता के विभेद से वर्गीकरण किया है जिसके अनुसार अत्यन्त सूक्ष्म, भावमय होने के कारण साहित्य को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। और सब से नीचे स्थापत्य का स्थान है क्योंकि उसका उपकरण अपेक्षाकृत स्थूल है। यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि यह विभाजन व्यावहारिक है और इन कलाओं की वास्तविक उच्चता या नीचता का परिचायक नहीं। काव्य भी निम्न कोटि का हो सकता है। सुन्दर मूर्त्ति उससे कहीं श्रेष्ठ कलावस्तु मानी जा सकती है हीगेल का प्रयोजन इतना ही है कि और सब बातें बराबर हों तो काव्य का स्थान उसके सुक्ष्मतर उपकरण के कारण सर्वोच्च होगा और उसके नीचे क्रमशः संगीत, चित्र, मूर्त्ति और स्थापत्य कलाएँ होंगी। कलाओं के उत्कर्ष-अपकर्ष की तुलना यहाँ नहीं हैं। वह तो एक-एक कलावस्तु की समीक्षा द्वारा ही हो सकती है। यहाँ तो केवल व्यावहारिक विभाग की चर्चा है। इस सम्बन्ध में मतभेद के लिए विशेष स्थान मुझे नहीं दिखाई देता।
तीसरा प्रश्न काव्य साहित्य पर राष्ट्रीय संस्कृति की छाप का है। यह निश्चय है कि काव्य में राष्ट्र की स्यायी सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का प्रचुर प्रभाव पड़ता है। प्रसादजी ने इसका एक सुन्दर उदाहरण भी दिया है:―'यह स्पष्ट देखा जाता है कि भारतीय साहित्य में पुरुष-विरह विरल है और विरहिणी का ही वर्णन अधिक है। इसका कारण है भारतीय दार्शनिक संस्कृति। पुरुष सर्वथा निर्लिप्त और स्वतंत्र है। प्रकृति या माया उसे प्रवृत्ति या आवरण में लाने की चेष्टा करती है। इसलिए आसक्ति का आरोपण स्त्री में ही है। 'नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायम् नपुंसकः' मानने पर भी व्यवहार में ब्रह्म पुरुष है, माया स्त्री धर्मिणी। स्त्रीत्व में प्रवृत्ति के कारण नैसर्गिक आकर्षण मान कर उसे प्रार्थिनी बनाया गया है।' देशान्तर और जात्यंतर से इस प्रथा में भिन्नता भी पाई जाती है। इसलिए काव्य के देश-जाति-गत कुछ स्थायी उपलक्षण (Conventions) मानने पड़ते हैं।
अन्तिम प्रश्न काव्य में अनुभूति या अभिव्यक्ति की प्रधानता विषयक है। अभिव्यंजनावाद अभिव्यक्ति की ही प्रधानता स्वीकार करता है, किन्तु प्रसादजी अनुभूति की प्रधानता मानते हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में हिन्दी के दो सर्वश्रेष्ठ कवियों का उदाहरण सामने रक्खा है—सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास का। वे पूछते हैं—'कहा जाता है कि वात्सल्य की अभिव्यक्ति में तुलसीदास सूरदास से पिछड़ गए हैं। तो क्या यह मान लेना पड़ेगा कि तुलसीदास के पास वह कौशल या शब्दविन्यासपटुता नहीं थी जिसके अभाव के कारण ही वे वात्सल्य की संपूर्ण अभिव्यक्ति नहीं कर सकें? प्रश्न का उत्तर भी वे देते हैं 'मैं तो कहूँगा, यही प्रमाण है आत्मानुभूति की प्रधानता का। सूरदास के वात्सल्य में संकल्पात्मक मौलिक अनुभूति की तीव्रता है, उस विषय की प्रधानता के कारण।.... तुलसीदास के हृदय में वास्तविक अनुभूति तो रामचन्द्रजी की भक्त-रक्षण-समर्थ दयालुला है, न्याय पूर्ण ईश्वरता है, जीभ ही शुद्धावस्था में पाप-पुण्य निर्लप्त कृष्ण चन्द्र की शिशु मूर्ति का शुद्धाद्वैतवाद नहीं।'
प्रसादजी का यह उत्तर सोलह आना सत्य है किन्तु अभिव्यज्जना-वादियों का प्रश्न यह है कि अनुभूति है क्या वस्तु? एक ओर तो कवि को अनुप्रेरित करने वाले सृष्टि के वस्तु-व्यापार हैं और दूसरी ओर है कवि की काव्य या अभिव्यक्ति। इन दोनों के बीच में अनुभूति है। यह अनुभूति काव्य-व्यापार में कहीं भी स्वतंत्र नहीं है। एक ओर वह वाह्य अभिव्यक्ति (संसार और उसके भावादियों) से प्रतिक्षण निर्मित होती है और दूसरी ओर काव्याभिव्यक्ति में परिणत होती है। केवल अनुभूति काव्य का कोई उपादान नहीं। अनुभूति चाहे जितनी हो, काव्य का निर्माण नहीं हो सकता। काव्यनिर्माण के लिए काव्यात्मक अभिव्यक्ति ही आवश्यक है। अभिव्यक्ति केवल रचनाकौशल नहीं है। अनुभूतिपूर्ण रचनाकौशल हैं।
प्रसादजी का इस मत से कोई विरोध नहीं है, किन्तु वे इसकी छान-बीन में उतरे नहीं हैं। हाँ, वे अभिव्यज्जनावादियों की भाँति अनुभूति को गौणता न देकर उसे मुख्य मानते हैं। अनुभूति का निर्माण कैसे होता है यह तो प्रश्न ही दूसरा है। वस्तुतः वे अनुभूति को मननशील आत्मा की असाधारण अवस्था मानते हैं, और अभिव्यज्जनावादियों की व्यक्त वाह्म प्रक्रियाओं को विशेष महत्व नहीं देते। अभिव्यज्जनावादी क्रोस और रहस्ययादी 'प्रसाद' में इतना ही मुख्य अन्तर है।
अंत मे यह कहते हुए पुस्तक पाठकों के हाथ में रक्खी जा रही है कि यह अपने ढंग की अकेली रचना है जो हिन्दी की अपनी मानी जाय और साहित्य के सुयोग्य विद्यार्थियों को स्नेह और विश्वासपूर्वक पढ़ने को दी जाय। निश्चय ही यह कहना मेरे लिए जितना सुखद है आज उतना ही दुःखप्रद भी।
गीता प्रेस, गोरखपुर | नन्ददुलारे वाजपेयी |
११–३–३९. |
काव्य और कला
तथा