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काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध/रहस्यवाद

विकिस्रोत से
काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध
जयशंकर प्रसाद
२—रहस्यवाद

इलाहाबाद: भारती-भण्डार, पृष्ठ २९ से – ६० तक

 
 

रहस्यवाद



काव्य में आत्मा की संकल्पात्मक मूल अनुभूति की मुख्य धारा रहस्यवाद है। रहस्यवाद के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उस का मूल उद्‌गम सेमेटिक धर्म-भावना है, और इसीलिए भारत के लिए वह बाहर की वस्तु है। किन्तु शाम देश के यहूदी, जिन के पैगम्बर मूसा इत्यादि थे, सिद्धान्त में ईश्वर को उपास्य और मनुष्य को जिहोबा (यहूदियों के ईश्वर) का उपासक अथवा दास मानते थे। सेमेटिक धर्म में मनुष्य की ईश्वर से समता करना अपराध समझा गया है। क्राइस्ट ने ईश्वर का पुत्र होने की ही घोषणा की थी, परन्तु मनुष्य का ईश्वर से यह सम्बन्ध जिहोवा के उपासकों ने सहन नहीं किया और उसे सूली पर चढ़वा दिया।*[] पिछले काल में यहूदियों के अनुयायी मुसलमानों ने भी 'अनलहक' कहने पर मंसूर को उसी पथ का पथिक बनाया। सरमद का भी सर काटा गया। सेमेटिक धर्मभावना के विरुद्ध चलनेवाले ईसा, मंसूर और सरमद आर्य अद्वैत धर्मभावना से अधिक परिचित थे। सूफी सम्प्रदाय मुसलमानी धर्म के भीतर वह विचारधारा है जो अरब और सिन्ध का परस्पर सम्पर्क होने के बाद से उत्पन्न हुई थी। यद्यपि सूफी धर्म का पूर्ण विकास तो पिछले काल में आर्यों की बस्ती ईरान में हुआ, फिर भी उस के सब आचार इसलाम के अनुसार ही हैं। उन के तौहीद में चुनाव है एक का, अन्य देवताओं में से, न कि सम्पूर्ण अद्वैत का। तौहीद का अद्वैत से कोई दार्शनिक सम्बन्ध नहीं। उस में जहाँ कहीं पुनर्जन्म या आत्मा के दार्शनिक तत्त्व का आभास है, वह भारतीय रहस्यवाद का अनुकरण मात्र है। क्योंकि शामी धर्मों के भीतर अद्वैत कल्पना दुर्लभ नहीं, त्याज्य भी है।

कुछ लोगों का कहना है मेसोपोटामिया वा वाबिलन के बाल, ईस्टर प्रभृति देवताओं के मन्दिरों में रहनेवाली देवदासियाँ ही धार्मिक प्रेम का उद्‌गम हैं और वहीं से धर्म और प्रेम का मिश्रण, उपासना में कामोपभोग इत्यादि अनाचार का आरम्भ हुआ तथा यह प्रेम ईसाई धर्म के द्वारा भारतवर्ष के वैष्णव धर्म को मिला। किन्तु उन्हें यह नहीं मालूम कि काम का धर्म में अथवा सृष्टि के उद्‌गम में बहुत बड़ा प्रभाव ऋग्वेद के समय में ही माना जा चुका है—कामस्तदग्ने समवर्तताधि मनसोरेनः प्रथमं यदासीत्। यह काम प्रेम का प्राचीन वैदिक रूप है। और प्रेम से वह शब्द अधिक व्यापक भी है। जब से हम ने प्रेम को Love या इश्क का पर्याय मान लिया, तभी से 'काम' शब्द की महत्ता कम हो गयी। सम्भवतः विवेकवादियों की आदर्श भावना के कारण इस शब्द में केवल स्त्रीपुरुष सम्बन्ध के अर्थ का ही मान होने लगा। किन्तु काम में जिस व्यापक भावना का समावेश है, वह इन सब भावों को आवृत कर लेता है। इसी वैदिक काम की, आगम शास्त्रों में, कामकला के रूप में उपासना भारत में विकसित हुई थी। यह उपासना सौन्दर्य, आनन्द और उन्मद भाव की साधना प्रणाली थी। पीछे बारहवीं शताब्दी के सूफी इब्न अरबी ने भी अपने सिद्धान्तों में इस की महत्ता स्वीकार की है। वह कहता है कि मनुष्य ने जितने प्रकार के देवताओं की पूजा का समारम्भ किया है, उन में काम ही सब से मुख्य है। यह काम ही ईश्वर की अभिव्यक्ति का सब से बड़ा व्यापक रूप है।*[]

देवदासियों का प्रचार दक्षिण के मन्दिरों में वर्त्तमान है और उत्तरीय भारत में ईसवी सन् से कई सौ बरस पहले शिव, स्कन्द, सरस्वती इत्यादि देवताओं के मन्दिर नगर के किस भाग में होते थे, इस का उल्लेख चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया है। और सरस्वती मन्दिर तो यात्रागोष्ठी तथा सङ्गीत आदि कला-सम्बन्धी समाज के लिए प्रसिद्ध था। देवदासियाँ मन्दिरों में रहती ही थीं, परन्तु वे उस देवप्रतिमा के विशेष अन्तर्निहित भावों को कला के द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए ही रहती थीं। उन में प्रेम-पुजारिनों का होना असम्भव नहीं था। सूफी रबिया से पहले ही दक्षिण भारत की देवदासी अन्दल ने जिस कृष्ण-प्रेम का संगीत गाया था उस की आविष्कर्त्री अन्दल को ही मान लेने में मुझे तो सन्देह ही है। कृष्ण-प्रेम उस मन्दिर का सामूहिक भाव था, जिस की अनुभूति अन्दल ने भी की। ऐतिहासिक अनुक्रम के आधार पर यह कहा जा सकता है कि फारस में जिस सूफी धर्म का विकास हुआ था, उस पर काश्मीर के साधकों का बहुत कुछ प्रभाव था। यों तो एक दूसरे के साथ सम्पर्क में आने पर विचारों का थोड़ा-बहुत आदान-प्रदान होता ही है; किन्तु भारतीय रहस्यवाद ठीक मेसोपोटामिया से आया है, यह कहना वैसा ही है जैसा वेदों को 'सुमेरियन डॉकुमेन्ट' सिद्ध करने का प्रयास।

शैवों का अद्वैतवाद और उन का सामरस्य वाला रहस्य सम्प्रदाय, वैष्णवों का माधुर्य भाव और उन के प्रेम का रहस्य तथा कामकला की सौन्दर्य-उपासना आदि का उद्‌गम वेदों और उपनिषदों के ऋषियों की वे साधना प्रणालियाँ हैं, जिन का उन्हों ने समय-समय पर अपने संघों में प्रचार किया था।

भारतीय विचारधारा में रहस्यवाद को स्थान न देने का एक मुख्य कारण है। ऐसे अलोचकों के मन में एक तरह की झुँझलाहट है। रहस्यवाद के आनन्द पथ को उन के कल्पित भारतीयोचित विवेक में सम्मिलित कर लेने से आदर्शवाद का ढाँचा ढीला पड़ जाता है। इसलिए वे इस बात को स्वीकार करने में डरते हैं कि जीवन में यथार्थ वस्तु आनन्द है, ज्ञान से वा अज्ञान से मनुष्य उसी की खोज में लगा है। आदर्शवाद ने विवेक के नाम पर आनन्द और उस के पथ के लिए जो जनरव फैलाया है, वही उसे अपनी वस्तु कह कर स्वीकार करने में बाधक है। किन्तु प्राचीन आर्य लोग सदैव से अपने क्रियाकलाप में आनन्द, उल्लास और प्रमोद के उपासक रहे; और आज के भी अन्यदेशीय तरुण आर्यसंघ आनन्द के मूल संस्कार से संस्कृत और दीक्षित हैं। आनन्दभावना, प्रियकल्पना और प्रमोद हमारी व्यवहार्य वस्तु थी। आज की जातिगत निर्वीर्यता के कारण उसे ग्रहण न कर सकने पर, यह सेमेटिक है कह कर सन्तोष कर लिया जाता है।

कदाचित् इन आलोचकों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि आरम्भिक वैदिक काल में प्रकृतिपूजा अथवा बहुदेव-उपासना के युग में ही, जब एवं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति के अनुसार एकेश्वरवाद विकसित हो रहा था, तभी आत्मवाद की प्रतिष्ठा भी पल्लवित हुई। इन दोनों धाराओं के दो प्रतीक थे। एकेश्वरवाद के वरुण और आत्मवाद के इन्द्र प्रतिनिधि माने गये। वरुण न्यायपति राजा और विवेकपक्ष के आदर्श थे। महावीर इन्द्र आत्मवाद और आनन्द के प्रचारक थे। वरुण को देवताओं के अधिपति पद से हटना पड़ा, इन्द्र के आत्मवादकी प्रेरणा ने आर्यों में आनन्द की विचारधारा उत्पन्न की। फिर तो इन्द्र ही देबराज पद पर प्रतिष्ठित हुए। वैदिक साहित्य में आत्मवाद के प्रचारक इन्द्र की जैसी चर्चा है, उर्वशी आदि अप्सराओं का जो प्रसङ्ग है, वह उन के आनन्द के अनुकूल ही है। बाहरी याज्ञिक क्रियाकलापों के रहते हुए भी वैदिक आर्यों के हृदय में आत्मवाद और एकेश्वरवाद की दोनों दार्शनिक विचारधाराएँ अपनी उपयोगितामें सङ्घर्ष करने लगीं। सप्तसिन्धु के प्रबुद्ध तरुण आर्यों ने इस आनन्द वाली धारा का अधिक स्वागत किया। क्योंकि वे स्वत्व के उपासक थे। और वरुण यद्यपि आर्यों की उपासना में गौण रूप से सम्मिलित थे, तथापि उन की प्रतिष्ठा असुर के रूप में असीरिया आदि अन्य देशों में हुई। आत्मा में आनन्द भोग का भारतीय आर्यों ने अधिक आदर किया। इधर असुर के अनुयायी आर्य एकेश्वरवाद और विवेक के प्रतिष्ठापक हुए। भारत के आर्यों ने कर्मकाण्ड और बड़े-बड़े यज्ञों में उल्लास-पूर्ण आनन्द का ही दृश्य देखना आरम्भ किया और आत्मवाद के प्रतिष्ठापक इन्द्र के उद्देश्य से बड़े-बड़े यज्ञों की कल्पनाएँ हुईं। किन्तु इस आत्मवाद और यज्ञ वाली विचारधारा की वैदिक आर्यों में प्रधानता हो जाने पर भी, कुछ आर्य लोग अपने को उस आर्य सङ्घ में दीक्षित नहीं कर सके। वे व्रात्य कहे जाने लगे। वैदिक धर्म की प्रधान धारा में, जिस के अन्तर में आत्मवाद था और बाहर याज्ञिक क्रियाओं का उल्लास था, व्रात्यों के लिए स्थान नहीं रहा। उन व्रात्यों ने अत्यन्त प्राचीन अपनी चैत्यपूजा आदि के रूप में उपासना का क्रम प्रचलित रक्खा और दार्शनिक दृष्टि से उन्हों ने विवेक के आधार पर नये-नये तर्कों की उद्भावना की। फिर तो आत्मवाद के अनुयायियों में भी अग्निहोत्र आदि कर्मकाण्डों की आत्मपरक व्याख्याएँ होने लगीं। उन्हों ने स्वाध्यायमण्डल स्थापित किये। भारतवर्ष का राजनैतिक विभाजन भी वैदिक काल के बाद इन्हीं दो तरह के दार्शनिक धर्मों के आधार पर हुआ है।

वृष्णि सङ्घ व्रज में और मगध के व्रात्य और अयाज्ञिक आर्य बुद्धिवाद के आधार पर नये-नये दर्शनों की स्थापना करने लगे। इन्हीं लोगों के उत्तराधिकारी वे तीर्थङ्कर लोग थे जिन्हों ने ईसा से हजारों वर्ष पहले मगध में बौद्धिक विवेचना के आधार पर दुःखवाद के दर्शन की प्रतिष्ठा की। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर विवेक के तर्क ने जिस बुद्धिवाद का विकास किया वह दार्शनिकों की उस विचारधारा को अभिव्यक्त कर सका जिस में संसार दुःखमय माना गया और दुःख से छूटना ही परम पुरुषार्थ समझा गया। दुःखनिवृत्ति दुःखवाद का ही परिणाम है। फिर तो विवेक की मात्रा यहाँ तक बढ़ी कि वे बुद्धिवाद अपरिग्रही, नग्न दिगम्बर, पानी गरम कर के पीने वाले और मुँह पर कपड़ा बाँध कर चलनेवाले हुए। इन लोगों के आचरण विलक्षण और भिन्न-भिन्न थे। वैदिक काल के वाद इन व्रात्यों के सङ्घ किस-किस तरह का प्रचार करते घूमते थे, उन सब का उल्लेख तो नहीं मिलता; किन्तु बुद्ध के जिन प्रतिद्वन्द्वी मस्करी गोशाल, अजित केश-कम्बली, नाथपुत्र, संजय बेलट्ठिपुत्र, पूरन कस्सप आदि तीर्थङ्करों का नाम मिलता है, वे प्रायः दुःखातिरेकवादी, आत्मवाद में आस्था न रखनेवाले तथा बाह्य उपासना में चैत्यपूजक थे। दुःखवाद जिस मननशैली का फल था वह बुद्धि या विवेक के आधार पर, तर्कों के आश्रय में बढ़ती ही रही। अनात्मवाद की प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए। फलतः पिछले काल में भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवाद का विकास भक्ति के रूप में हुआ। जिन जिन लोगों में आत्मविश्वास नहीं था उन्हें एक त्राणकारी की आवश्यकता हुई। प्रणति वाली शरण खोजने की कामना—बुद्धिवाद की एक धारा—प्राचीन एकेश्वरवाद के आधार पर ईश्वरभक्ति के स्वरूप में बढ़ी और इन लोगों ने अपने लिए अवलम्ब खोजने में नये-नये देवताओं और शक्तियों की उपासना प्रचलित की। हाँ, आनन्दवाद वाली मुख्य अद्वैतधारा में भक्ति का विकास एक दूसरे ही रूप में हो चुका था, जिस के सम्बन्ध में आगे चल कर कहा जायगा।

ऊपर कहा जा चुका है कि वैदिक साहित्य की प्रधान धारा में उस की याज्ञिक क्रियाओं की आत्मपरक व्याख्याएँ होने लगी थीं और व्रात्य दर्शनों की प्रचुरता के युग में भी आनन्द का सिद्धान्त संहिता के बाद श्रुतिपरम्परा में आरण्यक स्वाध्यायमण्डलों में प्रचलित रहा। तैत्तिरीय में एक कथा है कि भृगु जब अपने पिता अथवा गुरु वरुण के पास आत्म उपदेश के लिए गये तो उन्हों ने बार-बार तप करने की ही शिक्षा दी और बार-बार तप कर के भी भृगु सन्तुष्ट न हुए और फिर आनन्दसिद्धान्त की उपलब्धि कर के ही उन्हें परितोष हुआ। विवेक और विज्ञान से भी आनन्द को अधिक महत्त्व देनेवाले भारतीय ऋषि अपने सिद्धान्त का परम्परा में प्रचार करते ही रहे।

तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात्। अन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः। तेनैष पूर्णः। स वा एष पुरुषविध एव। तस्य पुरुषबिधताम्। अन्वयं पुरुषविधः। तस्य प्रियमेव शिरः। मोदो दक्षिणः पक्षः। प्रमोद उत्तरः पक्षः। आनन्द आत्मा। (तैत्ति॰ २/५ )

उपनिषद् में आनन्द की प्रतिष्ठा के साथ प्रेम और प्रमोद की भी कल्पना हो गयी थी, जो आनन्दसिद्धान्त के लिए आवश्यक है। इस तरह जहाँ एक और भारतीय आर्य व्रात्यों में तर्क के आधार पर विकल्पात्मक बुद्धिवाद का प्रचार हो रहा था वहाँ प्रधान वैदिक धारा के अनुयायी आर्यों में आनन्द का सिद्धान्त भी प्रचारित हो रहा था। वे कहते थे―

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।

(मुण्डक॰)

नैषा तर्केणमतिरापनेया। (कठ॰)

आनन्दमय आत्मा की उपलब्धि विकल्पात्मक विचारों और तर्कों से नहीं हो सकती।

इन लोगों ने अपने विचारों के अनुयायी राष्ट्रों में परिषदें स्थापित की थीं और व्रात्य संघों के सदृश ही इन के भी स्वाध्यायमण्डल थे, जो व्रात्य संघों से पीछे के नहीं अपितु पहले के थे। हाँ, इन लोगों ने भी बुद्धिवाद का अपने लिए उपयोग किया था; किन्तु उसे वे अविद्या कहते थे, क्योंकि वह कर्म और विज्ञान की उन्नति करती है और नानात्व को बताती है। मुख्यतः तो वे अद्वैत और आनन्द के ही उपासक रहे। विज्ञानमय याज्ञिक क्रियाकलापों से वे ऊपर उठ चुके थे। कठ, पाञ्चाल, काशी और कोशल में तो उन की परिषदें थीं ही, किन्तु मगध की पूर्वीय सीमा पर भी उस के दुःख और अनात्मवादी राष्ट्रों के एक छोर पर विदेहों की बस्ती थी, जो सम्पूर्ण अद्वैतवादी थे। ब्राह्मण ग्रन्थ में सदानीरा के उस पार यज्ञ की अग्नि न जाने की जो कथा है उस का रहस्य इन्हीं मगध के व्रात्य संघों से सम्बन्ध रखता था। किन्तु माधव विदेह ने सदानीरा के पार अपने मुख में जिस अग्नि को ले जा कर स्थापित किया था वह विदेहों का प्राचीन आत्मवाद ही था। इन परिषदों में और स्वाध्यायमण्डलों में वैदिक मन्त्रकाल के उत्तराविकारी ऋषियों ने संकल्पात्मक ढंग से विचार किया, सिद्धान्त बनाये और साधना पद्धति भी स्थिर की। उन के सामने ये सब प्रश्न आये―

केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क व देवो युनक्ति॥

(केनोपनिषद्)


किं कारण ब्रह्म कुतः स्म जाता
जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठाः।

अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु
वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥

(श्वेताश्वतरोपनिषत्)

इन प्रश्नों पर उन के संवाद अनुभवगम्य आत्मा को संकल्पात्मक रूप से निर्देश करने के लिए होते थे। इस तरह के विचारों का सूत्रपात शुक्ल यजुर्वेद के ३९ और ४० अध्यायों में ही हो चुका था। उपनिषद् उसी ढंग से आत्मा और अद्वैत के सम्बन्ध में संकल्पात्मक विचार कर रहे थे, यहाँ तक कि श्रुतियाँ संकल्पात्मक काव्यमय ही थीं और इसीलिए वे लोग 'कविर्मनीषी' में भेद नहीं मानते थे। किन्तु व्रात्य संघों के बाह्य आदर्शवाद से, विवेक और बुद्धिवाद से भारतीय हृदय बहुत कुछ अभिभूत हो रहा था; इसलिए इन आनन्दवादियों की साधना प्रणाली कुछ-कुछ गुप्त और रहस्यात्मक होती थी।

तपःप्रभावाद्देतप्रसादाच्च ब्रह्म
ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान्।
अत्याश्रमिम्यः परम पवित्रं
प्रोवाच सम्यगृषिसधजुष्टम्॥
वेदान्ते परम गुह्यं पुराकल्पे प्रचोदितम्
माप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुनः॥

(श्वेताश्वतर॰)

उनकी साधनापद्धतियों का उल्लेख छान्दोग्य आदि उपनिषदों में प्रचुरता से है। ये लोग अपनी शिष्यमण्डली में विशेष प्रकार की गुप्त साधना प्रणालियों के प्रवर्तक थे। बौद्ध साहित्य में जिस तरह के साधनों का विवरण मिलता है। बहुत-कुछ इन ऋषियों और इन के उपनिषदों के अनुकरण मात्र थे, फिर भी वे अपने ढंग के बुद्धिवादी थे। और वे उपनिषदों के तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् (कठ॰) वाले योग को अपने ढंग से अनात्मवाद के साधन के लिए उपयोग करने लगे।

श्रुतियों का और निगम का काल समाप्त होने पर ऋषियों के उत्तराधिकारियों ने आगमों की अवतारणा की और ये आत्मवादी आनन्दमय कोश की खोज में लगे ही रहे। आनन्द का स्वभाव ही उल्लास है, इसलिए साधना प्रणाली में उसकी मात्रा उपेक्षित न रह सकी। कल्पना और साधना के दोनों पक्ष अपनी-अपनी उन्नति करने लगे। कल्पना विचार करती थी, साधना उसे व्यवहार्य बनाती थी। आगम के अनुयायियों ने निगम के आनन्दवाद का अनुसरण किया, विचारों में भी और क्रियाओं में भी। निगम ने कहा था―

आनन्दाद्धयै स खल्विमानि भूताति जायन्ते, आनन्देनजातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति॥

आगमवादियों ने दोहराया―

आनन्दोच्छलिता शक्तिः सृजत्यात्मानमात्मना।

आगम के टीकाकारों ने भी इस अद्वैत आनन्द को अच्छी तरह पल्लवित किया―

विगलित भेदसंस्कारमानन्दरसप्रवाहमयमेव पश्यति।

(क्षेमराज)

हाँ, इन सिद्धों ने आनन्दरस की साधना में और विचारों में प्रकारान्तर भी उपस्थित किया। अद्वैत को समझने के लिए―

आत्मैवेदमय आसात्......स वै नैव रेमे। तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत् स हैतावानास यथा स्त्रीपुमाँ सो सम्परिश्वक्तौ स इममेवात्मानंद्विधापातयत्।

इत्यादि बृहदारण्यक श्रुति का अनुकरण कर के समता के आधार पर भक्ति की और मित्र प्रणय की सी मधुर कल्पना भी की। क्षेमराज ने एक प्राचीन उद्धरण दिया―

जाते समरसानन्दे द्वैतमप्यमृतोपमम्।
मित्रयोरिव दम्पत्योर्जीवात्मपरमात्मनोः॥

यह भक्ति का आरम्भिक स्वरूप आगमों में अद्वैत की भूमिका पर ही सुगठित हुआ। उन की कल्पना निराली थी―

समाधिव्रेणाप्यन्यैरभेद्यो भेदभूधरः‌।
परामृष्टश्च नष्टश्च त्वद्भक्तिबलशालिभिः॥

यह भक्ति भेदभाव, द्वैत, जीवात्मा और परमात्मा की भिन्नता को नष्ट करनेवाली थी। ऐसी ही भक्ति के लिए माहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त के गुरु उत्पल ने कहा है―

भक्तिलक्ष्मीसमृद्धानां किमन्यदुपयाचितम्।

अद्वैतवाद के इस नवीन विकास में प्रेमभक्ति की योजना तैत्तिरीय आदि श्रुतियों के ही आधार पर हुई थी। फिर तो सौन्दर्य भावना भी स्फुट हो चली―

श्रुत्वापि शुद्वचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्

(अष्टावक्रगीता ४ । ३)

इन आगम के आनुयायी सिद्धों ने प्राचीन आनन्द मार्ग को अद्वैत की प्रतिष्ठा के साथ अपनी साधना पद्धति में प्रचलित रक्खा और इसे वे रहस्य सम्प्रदाय कहते थे। शिवसूत्रविमर्शिनी की प्रस्तावना में क्षेमराज ने लिखा हैं―

द्वैतदर्शनाधिवासितप्राये जीवलोके रहस्यसम्प्रदायो मा विच्छेदि

रहस्य सम्प्रदाय जिस में लुप्त न हो इसलिए शिवसूत्रों की महादेवगिरि से प्रतिलिपि की गयी। द्वैतदर्शनों की प्रचुरता थी। रहस्य सम्प्रदाय अद्वैतवादी थी। इन लोगों ने पाशुपत योग की प्राचीन साधना पद्धति के साथ-साथ आनन्द की योजना करने के लिए काम-उपासना प्रणाली भी दृष्टान्त के रूप में स्वीकृत की। उसके लिए भी श्रुति का आधार लिया गया।

तद्यथा प्रियया स्त्रिया संपरिष्वक्तो न बाह्ये किञ्चन वेद नान्तरम् (वृहदारण्यक)। उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते।

आत्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्दः स स्वाराड् भवति।

इन छान्दोग्य आदि श्रुतियों के प्रकाश में यह रति-प्रीति― अद्वैतमूला भक्ति रहस्यवादियों में निरन्तर प्राञ्जल होती गयी। इस दार्शनिक सत्य को व्यावहारिक रूप देने में किसी विशेष अनाचार की आवश्यकता न थी। संसार को मिथ्या मान कर असम्भव कल्पना के पीछे भटकना नहीं पड़ता था। दुःखवाद से उत्पन्न संन्यास और संसार से विराग की आवश्यकता न थी। अद्वैत मूलक रहस्यवाद के व्यावहारिक रूप में विश्व को आत्मा का अभिन्न अंग शैवागमों में मान लिया गया था। फिर तो सहज आनन्द की कल्पना भी इन लोगों ने की। श्रुति इसी कोटि के साधकों के लिए पहले ही कह चुकी थी―

या बुद्धयते सा दीक्षा यदश्नाति तद्धवि यत्पिबति तदस्य सोमपानं यद्रमते तदुपसदो...

इसी का अनुकरण है―

आत्मा स्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः।

(शाङ्करी मानसपूजा)

सौन्दर्यलहरी भी उसी स्वर में कहती है―

सपर्यापर्यायस्तव भवत् यन्मे विलसितम्। (२७)

इन साधकों में जगत् और अन्तरात्मा की व्यावहारिक अद्वयता में आनन्द की सहज भावना विकसित हुई। वे कहते हैं―

त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा।
चिदानन्दाकारं शिवयुवति भावेन विभृषे॥

(सौन्दर्यलहरी ३५)

किसी काश्मीरी भक्त कवि ने कहा है—

तत्तदिन्द्रियमुखेन सन्ततं युष्मदर्चनरसायनासवम्।
सर्वभावचषकेषु पूरितेष्वापिवन्निव भवेयमुन्मदः॥

इस में इन्द्रियों के मुख से अर्चन-रस का आसव पीने की जो कल्पना है वह आनन्द की सहज भावना से ओतप्रोत है।

आगमानुयायी स्पन्दशास्त्र के अनुसार प्रत्येक भावना में, प्रत्येक अवस्था में वह आत्मानन्द प्रतिष्ठित है―

अतिक्रुद्धः प्रहृष्टो वा किं करोति परामृशन्।
धावन् वा यत्पदं गच्छेत्तत्र स्पन्दः प्रतिष्ठितः॥

और उनकी अद्वैत साधना के अनुसार सब विषयों में―इन्द्रियों के अर्थों में निरूपण करने पर कहीं भी अशिव, अमङ्गल, निरानन्द नहीं―

विषयेषु च सर्वेषु इन्द्रियार्थेषु व स्थितम्।
यत्र यत्र निरूप्येत नाशिवं विद्यते क्वचित्॥

जिस मन को बुद्धिवादी मना दुर्निग्रहं चलम् समझ कर ब्रह्म पथ में विमूढ़ हो जाते हैं उसके लिए आनन्द के उपासकों के पास सरल उपाय था। वे कहते हैं―

यत्र यत्र मनो याति ज्ञेयं तत्रैव चिन्तयेत्।
चलित्वा यास्यते कुत्र सर्व शिवमयं यतः॥

मन चल कर जायगा कहाँ? बाहर-भीतर आनन्दघन शिव के अतिरिक्त दूसरा स्थान कौन है?

ये विवेक और आनन्द की विशुद्ध धाराएँ अपनी परिणति में अनात्म और दुःखमय कर्मवादी बौद्ध हीनयान सम्प्रदाय तथा दूसरी ओर आत्मवादी आनन्दमय रहस्य सम्प्रदाय के रूप में प्रकट हुई। इसके अनन्तर मिश्र विचारधाराओं की सृष्टि होने लगी। अनात्मवाद से विचलित हो कर बुद्ध में ही सत्ता मान कर बौद्धों का एक दल महायान का अनुयायी बना। शुद्ध बुद्धिवाद के बाद इसमें कर्मकाण्डात्मक उपासना और देवताओं की कल्पना भी सम्मिलित हो चली थी। लोकनाथ आदि देवी-देवताओं की उपसना कोरा शून्यवाद ही नहीं रह गयी। तत्कालीन साधारण आर्य जनता में प्रचलित वैदिक बहुदेवपूजा से शून्यवाद का यह समन्वय ही महायान सम्प्रदाय था। और बौद्धों की ही तरह वैदिक धर्मानुयायियों की ओर से जो समन्वयात्मक प्रयत्न हुआ, उसीने ठीक महायान की ही तरह पौराणिक धर्म की सृष्टि की। इस पौराणिक धर्म के युग में विवेकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक रामचन्द्र के रूप में अवतारित हुआ, जो केवल अपनी मर्यादा में और दुःखसहिष्णुता में महान् रहे। किन्तु पौराणिक युग का सबसे बड़ा प्रयत्न श्रीकृष्ण के पूर्णावतार का निरूपण था। इनमें गीता का पक्ष जैसा बुद्धिवादी था, वैसा ही ब्रजलीला और द्वारका का ऐश्वर्यभोग आनन्द से सम्बद्ध था।

जैसे वैदिक काल के इन्द्र ने वरुण को हटा कर अपनी सत्ता स्थापित कर ली, उसी तरह इन्द्र का प्रत्याख्यान करके कृष्ण की प्रतिष्ठा हुई। किन्तु शोधकों की तरह यह मानने को मैं प्रस्तुत नहीं कि वैदिक इन्द्र के आधार पर पौराणिक कृष्ण की कल्पना खड़ी की गयी। कृष्ण अपने युग के पुरुषोत्तम थे; उन का व्यक्तित्व बुद्धिवाद और आनन्द का समन्वय था। इन्द्र की ही तरह अहं या आत्मवाद का समर्थन करने पर भी कृष्ण की उपासना में समरसता नहीं, अपितु द्वैतभावना और समर्पण ही अधिक रहा। मिलन और आनन्द से अधिक वह उपासना विरहोन्मुख ही बनी रही। और होनी भी चाहिए, क्योंकि इस का सम्पूर्ण उपक्रम जिन पुराणवादियों के हाथ में था वे बुद्धिवाद से अभिभूत थे। सम्भवतः इसीलिए यह प्रेममूलक रहस्यवाद विरहकल्पना में अधिक प्रवीण हुआ। पौराणिक धर्म का दार्शनिक स्वरूप हुआ मायावाद। मायावाद बौद्ध अनात्मवाद और वैदिक आत्मवाद के मिश्र उपकरणों से सङ्गठित हुआ था। इसीलिए जगत् को मिथ्या―दुःखमय मान कर सच्चिदानन्द की जगत् से परे कल्पना हुई। विश्वात्मवादी शिवाद्वैत की भी कुछ बातें इसमें ली गयीं। आनन्द और माया उन्हीं की देन थी। बुद्धिवाद को यद्यपि आगमवादियों की तरह अविद्या मान लिया था―

अख्यात्युल्लसितेषु, भिन्नेषु भावेषु बुद्धिरित्युच्यते

―तथापि विवेक से आत्मनिरूपण के लिए मायावाद के प्रवर्तक श्रीगौडपाद ने मनोनिग्रह का उपाय बताया था―

दुःखं सर्वमनुस्मृत्य कामभोगान्निवर्तयेत्। (माण्डूक्यकारिका ४३)

कामभोग से निवृत्त होने के लिए दुःखभावना करने का ही उन का उपदेश नहीं था। किन्तु वे मानसिक सुख को भी हेय समझते थे―

भास्वादयेत्सुखं तत्र निस्सङ्गः प्रज्ञया भवेत्।

( माण्दृक्यकारिका ४५)

आनन्द सत्-चित् के साथ सम्मिलित था, परन्तु है यह प्रज्ञावाद―बुद्धि की विकल्पना। मायातत्व को आगम से ले कर उसे रूप ही दूसरा दिया गया। बुद्धिवाद की दर्शनों में प्रधानता थी, फिर तो आचार्य ने बौद्धिक शून्यवाद में जिसे पाण्डित्य के बल पर आत्मवाद की प्रतिष्ठा की वह पहले के लोगों से भी छिपा नहीं रहा। कहा भी गया―

मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमैव हि।

महायान और पौराणिक धर्म ने साथ-साथ बौद्ध उपासकसम्प्रदाय को विभक्त कर लिया था। फिर तो बौद्धमत शून्य से ऊब कर सहज आनन्द की खोज में लगा। अधिकांश बौद्ध ऊपर कहे हुए कृष्णसम्प्रदाय की द्वैतमूला भक्ति में सम्मिलित हुए। और दूसरा अंश आगमों का अनुयायी बना उस समय आगमों में दो विचार प्रधान थ। कुछ लोग आत्मा को प्रधानता दे कर जगत् को, 'इदम्' को 'अहम्' में पर्यवसित करने के समर्थक थे और वे शैवागमवादी कहलाये। जो लोग आत्मा की अद्वयता को शक्ति तरङ्ग जगत् में लीन होने की साधना मानते थे वे शाक्तागमवादी हुए। उस काल की भारतीय साधना पद्धति व्यक्तिगत उत्कर्ष में अधिक प्रयुक्त हो रही थी। दक्षिण के श्रीपर्वत से जिस मन्त्र वाद का बौद्धों में प्रचार हो रहा था वह धीरे-धीरे बज्रयान में किस तरह परिणत हुआ और आगमसम्प्रदाय में घुस कर अनात्मवादी बौद्धों ने आत्मा की अवहेलना कर के भी वैदिक अम्बिका आदि देवियों के अनुकरण में कितनी शक्तियों की सृष्टि की और कैसी रहस्यपूर्ण साधना पद्धतियाँ प्रचलित कीं, उसका विवरण देने के लिए यहाँ अवसर नहीं। इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि उन्होंने बुद्ध, धर्म और संघ के त्रिरत्न के स्थान पर कामिनी, काम और सुरा को प्रतिष्ठित क्रिया धारणी मन्त्रों की योजना की। पीछे ये मन्त्रात्मक भावनाएँ प्रतिमा बनने लगीं। मन्त्रों में जिन विचारधारणाओं का संकेत था वे देवता का रूप धर कर व्यक्त हुई। परोक्ष पूजा पद्धति की प्रचुरता हुई।

पौराणिक धर्म ने इसी ढंग पर देववाद का प्रचार किया। उपनिपदों के षोडशकला पुरुष के प्रतिनिधि बने सोलह कलावाले पूर्ण अवतार श्रीकृष्णचन्द्र। सुन्दर नर रूप की यह पराकाष्ठा थी। नारी मूर्ति में सुन्दरी की, ललिता की सौन्धुर्य प्रतिमा के अतिरिक्त सौन्दर्यंभावना के लिए अन्य उपाय भी माने गये। 'नरपति-जयचर्या' स्वरशास्त्र का एक प्राचीन ग्रन्थ है। उसमें मन की भावना के लिए बताया गया है―

गोराङ्गी नवयौवनां शशिमुखीं ताम्बूलगभनिमां
मुक्तामण्डनशुभ्रमाल्यवसनां श्रीखण्डचर्चाड़्किताम्।
दृष्टा कामपि कामिनीं स्वयमिमांं ब्राह्मीं पुरो भावये-
दन्तश्चिन्तयती अनस्य मनसि त्रैलोक्यमुन्मीलिनीम्॥

यह सौन्दर्य धारणा हृदय में त्रैलोक्य को उन्मीलन करने वाली है। यहाँ समझ लेना चाहिए कि भारत में सौन्दर्य-आलम्बन नर और नारी की प्रतिच्छवि मन को महाशक्तिशाली बनाने तथा उन्नत करने के उपाय में उपासना के स्वरूप में व्यवहृत होने लगी थी।

बौद्धों के उत्तराधिकारी भी शून्यवाद से घबरा कर अनेक प्रकार की मन्त्रसाधना में लगे थे। अर्थमञ्जु श्रीमूलकल्प देखने से यह प्रगट होता है। फिर शैवागमों में जो अनुकूल अंश थे उन्हें भी अपनाने से ये न रुके। योगाचार तथा अन्य गुप्त साधनाओं वाला बौद्ध सम्प्रदाय आनन्द की खोज में आगमवादियों से मिला। विचारों में

सर्व क्षणिकं सर्वं दुःखं सर्वमनात्मम्।

पर आनन्दरूपमृतं याद्विभाति ने विजय प्राप्त की। परन्तु इनके सम्पर्क में आने पर शैवागमों का विश्वात्मवाद वाला शाम्भव सिद्धान्त भी व्यक्तिगत संकुचित अहं में सीमित होने लगा। इस संकुचित आत्मवाद को आगमों में निन्दनीय और अपूर्ण अहंता कहते थे; किन्तु बौद्धों ने उसे सरल अद्वैतबोध को व्यक्तिगत आत्मवाद की ओर झुका कर शरीर को वज्र की तरह अप्रतिहतगतिशाली बनाने के लिए तथा साम्पत्तिक स्वतन्त्रता के लिए रसायन बनाने में लगाया। बौद्ध विज्ञानवादी थे। पूर्व के ये विज्ञानवादी ठीक उसी तरह व्यक्तिगत स्वार्थों के उपासक रहें जैसे वर्तमान पश्चिम अपनी वैज्ञानिक साधना में सामूहिक स्वार्थों का भयंकर उपासक है। आगमवादी नाथ सम्प्रदाय के पास हठयोग क्रियाएँ थीं और उत्तरीय श्रीपर्वत बना कामरुप। फिर तो चौरासी सिद्धों की अवतारणा हुई। हाँ, इन दोनों की परम्परा प्रायः एक है, किन्तु आलम्बन में भेद है। एक शून्य कह कर भी निरञ्जन में लीन होना चाहता है और दूसरा ईश्वरवादी होने पर भी शून्य को भूमिका मात्र मान लेता है। रहस्यवाद इन कई तरह की धाराओं में उपासना का केन्द्र बना रहा। जहाँ बाह्य आडम्बर के साथ उपासना थी वहीं भीतर सिद्धान्त में अद्वैत भावना रहस्यवाद की सूत्रधारिणी थी। इस रहस्य भावना में वैदिक काल से ही इन्द्र के अनुकरण में अद्वैत की प्रतिष्ठा थी। विचारों का जो अनुक्रम ऊपर दिया गया है, उसी तरह वैदिक काल से रहस्यवाद की अभिव्यक्ति की परम्परा भी मिलती है।

ऋग्वेद के दसवें मण्डल के अड़तालीसवें सूक्त तथा एक सौ उन्नीसवें सूक्त में इन्द्र की जो आत्मस्तुति है, वह अहंभावना तथा अद्वैतभावना से प्रेरित सिद्ध होता है। अहं भुवं वसुनः पूर्थ्यपसिरह धनामि से जयामि शश्वतः तथा अहमस्मि महामहो इत्यादि उक्तियाँ रहस्यवाद की वैदिक भावनाएँ हैं। इस छोटे से निबन्ध में वैदिक वाङ्मय की सब रहस्यमयी उक्तियों का संकलन करना सम्भव नहीं; किन्तु जो लोग यह सोचते हैं कि आवेश में अटपटी वाणी कहने वाले शामी पैगम्बर ही थे, वे कदाचित् यह नहीं समझ सके कि वैदिक ऋषि भी गुह्य बातों को चमत्कारपूर्ण सांकेतिक भाषा में कहते थे। अजामेकांंलोहितशुक्ल कृष्णाम् तथा तमेकनेर्मि निवृतं षोडशान्तं शतार्याग्म् इत्यादि मन्त्र इसी तरह के हैं।

वेदों, उपनिषदों और आगमों में यह रहस्यमयी आनन्दसाधना की परम्परा के ही उल्लेख हैं। अपनी साधना का अधिकार उन्होंने कम नहीं समझा था। वैदिक ऋषि भी अपने जोम में कह गये हैं―

आसीनो दूरं व्रजति शयानों याति सर्वतः।
कस्तं मदामदं येवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति॥

(कठ॰ १ । २ । २१)

आज तुलसी साहब की जिन जाना तिन जाना नाहीं इत्यादि को देख कर इसे एक बार ही शाम देश से आयी हुई समझ लेने का जिन्हें आग्रह हो उन की तो बात ही दूसरी है, किन्तु केनोपनिषत् केयस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः का ही अनुकरण यह नहीं है, यह कहना सत्य से दूर होगा। यदेवेह तदमुन्न यवमुत्र तदन्विह इत्यादि श्रुति में बाहर और भीतर की पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकता का जो प्रतिपादन किया गया है, संत मत में उसी का अनुकरण किया गया है।

यह भी कहा जाता है कि यहाँ उपासना, कर्म के साथ ज्ञान की धारा विशुद्ध रही और उस में आराध्य से मिलने के लिए कई कक्ष नहीं बनाये गये। किन्तु छान्दोग्य में जिस शून्य आकाश का उल्लेख दहरोपासना में हुआ है, उसीसे बौद्धों के शून्य और आगमों की शून्य भूमिका का सम्बन्ध है। फिर कबीर की शून्य महलिया शाम देश की सौगात कैसे कही जा सकती है? तं चेद् अ॒युर्यदिदमरिमन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म देहरोऽस्मित्रन्तराकाशः (छान्दोग्य॰) तथा―

पद्मकोशप्रतीकाशं हृदयं चाप्यधोमुखम्।

―इत्यादि श्रुतियों में नीवारशूकवत् तन्वी शिखा के मध्य में परमात्मा का जो स्थान निर्दिष्ट किया गया है, वह मन्दिर या महल कहीं विदेश से नहीं आया है। आगमों में तो इस रहस्य भावना का उल्लेख है ही, जिस का उदाहरण पर दिया जा चुका है।

श्रीकृष्ण का आलम्बन मान कर द्वैत-उपासकों ने जिस आनन्द और प्रेम की सृष्टि की उस में विरह और दुःख आवश्यक था। द्वैतमूलक उपासना के बुद्धिवादी प्रवर्त्तक भागवतों ने गोपियों में जिस विरह की स्थापना की वह परकीय प्रेम के कारण दुःख के समीप अधिक हो सका और उस का उल्लेख भागवत में विरल नहीं है। इस प्रेम में पर का दार्शनिक मूल है स्व को अस्वीकार करना। फिर तो बृहदारण्यक के यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति के अनुसार वह प्रेम विरह सापेक्ष ही होगा। किन्तु सिद्धों ने आगम के बाद रहस्यवाद की धारा अपनी प्रचलित भाषा में, जिसे वे सन्ध्या-भाषा कहते थे, अविच्छिन्न रक्खी और सहज आनन्द के उपासक बने रहे।

अनुभव सहज मा मोल रे जोई।
चोकीहि विभुका जइसो तइसो होई॥
जइसने आछिले स वइसन अच्छ।
सहज पथिक जोई भान्ति माहो वास॥ (नारोपा)

वे शैवागम की अनुकृति ही नहीं, शिव की येागेश्वर मूर्ति की भावना भी आरोपित करते थे।

नाडि शक्ति दिर धश्यि खदे।
अनहा डमरू बाजए वीर नादे॥
कछू कपाली यौगी पइठ अचारे।
देह न अरी विहरए एकारें॥ (कण्हपा)

इन आगमानुयायी सिद्धों में आत्म-अनुभूति स्वापेक्ष थी। परोक्ष विरह उनके समीप न था। वह प्रेम कथा स्वपर्यवसित थी। उस प्रेम-रूपक की एक कल्पना देखिए―

ऊँचा ऊँचा पावत तहिं बसइ सबरी बाली।
मोरंगि पीच्छ परहिण सबरी गिवत गुंंजरी माली॥

उमत सबरो पागल शबरो माकर गुली गुहाउर।
तोहोरि णिय घरिणी णाद्रे सहज सुंदरी॥ (शबरपा)

ऊपरवाला पद्य शबरी रागिनी में है। सम्भवतः शबरी रागिनी आसाबरी का पहला नाम है। सिद्ध लोग अपनी साधना में संगीत की योजना कर चुके थे। नादानुसन्धान की आगमोक्त साधना के आधार पर वाह्य नाद का भी इनकी साधना में विकास हुआ था, ऐसा प्रतीत होता है। अनुन्मत्ता उन्मत्तवदाचरन्तः सिद्धों ने आनन्द के लिए संगीत को भी अपनी उपासना में मिला कर जिस भारतीय संगीत में योग दिया है, उसमें भरत मुनि के अनुसार पहले ही से नटराज के संगीतमय नृत्य का मूल था। सिद्धों की परम्परा में सम्भवतः बैजू बावरा आदि संगीतनायक थे, जिन्होंने अपनी ध्रुपदों में योग का वर्णन किया है।

इन सिद्धों ने ब्रह्मानन्द की भी परिचय प्राप्त किया था। सिद्ध भुसुक कहते हैं―

विरमानंद विलक्षण सूध जो येथू दुझै सो येशु बूध।
भुसुक भणइ मह बूझिय मेखे सहजानंद महासुह लेलें॥

इन लोगों ने भी वेद, पुराण और आगमों का कबीर की तरह तिरस्कार किया ह। कदाचित् पिछले काल के संतों ने इन सिद्धों का ही अनुकरण किया है।

आगम बेद पुराणे पंडिठ मान बहन्ति।
पक सिरिफल अलिय जिमबाहेरित भमयन्ति॥ (कण्हपा)

आगमों में ऋग्वेद के काम की उपासना कामेश्वर के रूप में प्रचलित थी और उसका विकसित स्वरूप परिमार्जित भी था। वे कहते थे―

जायथा सम्परिष्वक्तो न वाह्मं वेद नान्तरम्।
निदर्शनं श्रुतिः प्राह मूर्खस्प्तं मन्यते विधिम्॥

फिर भी सहजानन्द के पीछे बौद्धिक गुप्त कर्मकाण्ड की व्यवस्था भयानक हो चली थी। और वह रहस्यवाद की बोधमयी सीमा को उच्छङ्ललता से पार कर चुकी थी। हिन्दी के इन आदि रहस्य-वादियों का, आनन्द के सहज साधकों को, बुद्धिवादी निर्गुण संतों को स्थान देना पड़ा। कबीर इस परम्परा के सबसे बड़े कवि हैं। कबीर में विवेकवादी राम का अवलम्ब है और सम्भवतः वे भी साधो सहज समाधि भली इत्यादि में सिद्धों की सहज भावना को ही, जो उन्हें आगमवादियों से मिली थी, दोहराते हैं। कवित्व की दृष्टि से भी कबीर पर सिद्धों की कविता की छाया है। उन पर कुछ मुसलमानी प्रभाव भी पड़ा अवश्य; परन्तु शामी पैगम्बरों से अधिक उनके समीप थे वैदिक ऋषि, तीर्थङ्कर नाथ और सिद्ध। कबीर के बाद तथा कुछ-कुछ समकाल में ही कृष्णबाली मिश्र रहस्य की धारा आरम्भ हो चली थी। निर्गुण राम और सुधारक रहस्यवाद के साथ ही तुलसीदास के सगुण समर्थ राम का भी वर्णन सामने आया। कहना असंगत न होगा कि उस समय हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद की इतनी प्रबलता थी कि स्वयं तुलसीदास को भी अपने महाप्रबन्ध में रहस्यात्मक संकेत रखना पड़ा। कदाचित् इसीलिए उन्होंने कहा है—अस मानस मानस चख चाही। किन्तु कृष्णचन्द्र में आनन्द और विवेक का, प्रेम और सौन्दर्य का संमिश्रण था। फिर तो ब्रज के कवियों ने राधिका-कन्हाई-सुमिरन के बहाने आनन्द की सहज भावना परोक्ष भाव में की। मीरा और सूरदास ने प्रेम के रहस्य का साहित्य संकलन किया। देव, रसखान, घनआनन्द इन्हीं के अनुयायी थे। मीरा ने कहा―

सूली ऊपर सैज पिया की, किस विध मिलणो होय।

यह प्रेम, मिलन की प्रतीक्षा में, सदैव विरहोन्मुख रहा। देव ने भी कुछ इसी धुन में कहना चाहा―

हो ही ब्रज वृंदाबन मोही मैं बसत सदा
जमुना तरंग स्याम रंग अवलीन की।
चहुँ ओर सुंदर सघन वन देखियत,
कुंजन मैं सुनियत गुंजन अलीन की॥
बंसीबट-तट नटनागर नटत्त भी में,
रास के विलास की मधुर धुनि बीन की।
भर रही भनक बनक ताल तानन की
तनक तनक ता में खनक चुरीन की॥

परन्तु वे वृन्दावन ही बन सके, श्याम नहीं। यह प्रेम का रहस्यवाद विरहदुःख से अधिक अभिभूत रहा। यद्यपि कुछ लोगों ने इसमें सहज आनन्द की योजना भी की थी और उसमे माधुर्य-महाभाव के उज्ज्वल नीलमणि को परकीय प्रेम के कारण गोप्य और रहस्यमूलक बनाने का प्रयत्न भी किया था, परन्तु द्वैतमूलक होने के कारण तथा वाह्य आवरण में बुद्धिवादी होने से यह विषय में साहित्यिक ही अधिक रहा। निर्गुण सम्प्रदायवाले संतों ने भी राम की बहुरिया बन कर प्रेम और विरह की कल्पना कर ली थी; किन्तु सिद्धों की रहस्य सम्प्रदाय की परम्परा में तुकनगिरि और रसालगिरि आदि ही शुद्ध रहस्यवादी कवि लावनी में आनन्द और अद्वयता की धारा बहाते रहे।

साहित्य में विश्वसुन्दरी प्रकृति में चेतनता का आरोप संस्कृत वाङ्मय में प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यह प्रकृति अथवा शक्ति का रहस्यवाद सौन्दर्यलहरी के शरीरं त्वं शम्भी का अनुकरण मात्र है। वर्तमान हिन्दी में इस अद्वैतरहस्यवाद की सौन्दर्यमयी व्यञ्जना होने लगी है, वह साहित्य में रहस्यवाद की स्वाभाविक विकास है। इस में अपरोक्ष अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा अहं का इदम् से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है। हाँ, विरह भी युग की वेदना के अनुकूल मिलन का साधन बन कर इसमें सम्मिलित है। वर्त्तमान रहस्यवाद की धारा भारत की निजी सम्पत्ति है, इस में सन्देह नहीं। 

  1. * Therefore the Jews sought the more to kill him, because he not only had broken the Sabbath, but said also that God was his Father, making himself equal with God, (St. John, 5). I and my Father are one. Then the Jews took up stones again to stone him. (St. John, 10).
  2. * Of the gods man has conceived and worshipped, Ibn Arabi is of opinion that Desire is the greatest most vital. It is the greatest of the universal forms of his self-expression. (M. Ziyauddin in "Vishwabharati.")