कोविद-कीर्तन/११ रायबहादुर पण्डित परमानन्द चतुर्वेदी

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११---रायबहादुर पण्डित परमानन्द

चतुर्वेदी, बी० ए०

और अनेक व्यसनों मे लिप्त रहनेवाले तो हज़ारों क्या लाखों आदमी भारतवर्ष के प्रान्त-प्रान्त मे वर्तमान हैं; पर विद्याव्यसनी लोगों की यहाँ बड़ी कमी है। ढूँढ़ने से कहीं कोई इक्का-दुक्का मिलता है, जो एकमात्र ज्ञान-सम्पादन के इरादे से विद्याध्ययन और पुस्तकावलोकन करता हो। चार पैसे पैदा करने ही के इरादे से पढ़ना-लिखना सीखने और पैसे की आमदनी का द्वार खुल जाने पर पुस्तक हाथ से रख देनेवालों ही की यहाँ अधिकता है। रायबहादुर पण्डित परमानन्द चतुर्वेदी ऐसे लोगों में न थे। उन्होने आमरण केवल ज्ञान-सम्पादन के लिए ही विद्याध्ययन किया और अपनी कमाई का अधिकांश केवल पुस्तक-संग्रह में लगा दिया। दुःख की बात है कि गत २५ जन को आपका देहान्त हो गया। आपके शोक में आपके छोटे भाई, पण्डित रामदयालुजी, ने भी उसके पन्द्रह ही दिन बाद शरीर छोड़ दिया।

पण्डितजी का जन्म संवत् १९०७ की माघ वदी चौथ को, क़सबा क़ायमगंज, जिला फ़र्रुखाबाद, मे हुआ था। आप पण्डित कन्हईलालजी चतुर्वेदी के दूसरे पुत्र थे। उस
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समय पढ़ने-लिखने का वैसा प्रचार न था जैसा आजकल है। इस कारण आपकी भी शिक्षा का प्रबन्ध न हो सका। परन्तु जो होनहार होते हैं वे स्वयं ही सब कुछ कर लेते हैं। आपने स्वयं ही तहसीली स्कूल मे विद्याभ्यास आरम्भ किया और बहुत शीघ्र वहाँ की पढ़ाई समाप्त कर डाली। बाल्यावस्था ही से पुस्तकावलोकन से आपको प्रेम था। हिन्दी और उर्दू की जितनी किताबे, जिस प्रकार, जहाँ से मिल सकी, सब आपने पढ़ डाली। जब आप तहसीलो स्कूल मे पढ़ते थे तब छपे हुए नकशे बहुत कम मिलते थे। इससे आपने हिन्दुस्तान का एक नकशा अपने ही हाथ से ऐसी उत्तमता से बनाया और उसमे ऐसे उत्तम रङ्ग भरे कि मदरसों के इन्सपेक्टर उसे देखकर दङ्ग रह गये। वह नक़शा अब तक विद्यमान है और हमने स्वयं उसे देखा है। इन्सपेक्टर साहब ने खुश होकर इस उपलक्ष्य मे आपको ३०० पुरस्कार मे दिये।

तहसीली मदरसे की पढ़ाई समाप्त हो चुकने पर आप पढ़ने का विचार छोड़ चुके थे। परन्तु आपके एक सहपाठी, जो मैनपुरी मे अँगरेजी पढ़ने चले गये थे, किसी छुट्टी मे घर आये। उनसे और आपसे परस्पर बातचीत हुई। फल यह हुआ कि आपको भी अँगरेज़ी पढ़ने की उत्तेजना मिली। आप भी मैनपुरी चले गये और अँगरेजी आरम्भ कर दी। अत्यन्त कष्ट उठाकर आठवे दरजे तक आपने वहाँ पढ़ा। फिर आप आगरे चले गये। १८७१ मे आपने कलकत्ता-
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विश्वविद्यालय की एंट्रेंस परीक्षा पास की और युक्तप्रान्त में आपका पहला नम्बर रहा। इसलिए आपको ५) वज़ीफ़ा मिलने लगा। दो वर्ष बाद आपने एफ० ए० की परीक्षा भी उसी तरह पास की और १२ वज़ीफ़ा पाने लगे। के० डायटन साहब उस समय आगरा-कालेज के प्रिंसिपल थे। वे आपका विद्यानुराग देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और १८) माहवार स्वयं देने लगे। एफ० ए० परीक्षा पास करने के बाद परमानन्दजी के पिता का देहान्त हो गया और घर का साराभार आप ही पर आ पड़ा; क्योंकि आपके दो छोटे भाई, पण्डित देवीदयाल और पण्डित रामदयाल, उस समय बहुत छोटे थे। खैर किसी तरह, १८७५ मे, आपने बी० ए० की भी परीक्षा पास कर ली।

कालेज छोड़कर पण्डित परमानन्दजी ने सेट जान्स कालेज, आगरे, में नौकरी कर ली। वहाँ वे कोई एक साल रहे। फिर आप नवगॉव (बुँदेलखण्ड) के स्कूल मे हेडमास्टर होकर चले गये। परन्तु वहाँ कुछ झगड़ा हो जाने से आप चरखारी गये और कोई पाँच वर्ष तक वहाँ हेडमास्टर रहे। वहाँ आपके एक बड़े होनहार पुत्र का देहान्त हो गया। इससे वहाँ आप अधिक न रह सके। वहाँ से आप छत्रपुर गये और कुछ समय तक वहाँ भी रहे। उसके बाद आप सिंहार के पोलिटिकल एजंट के दफ़्तर में मीरमुंशी हो गये। इस पद पर आपने ९ वर्ष काम किया। वही रहकर आपने विशेष
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विद्याध्ययन किया और अपने पुस्तकालय की जड़ डाली। वहाँ का काम आपको किसी कारण छोड़ना पड़ा। तब, १८९४ ईसवी मे, आप रियासत झालावाड़ मे महाराज-राना ज़ालिमसिंह के दीवान हुए।

१८९६ मे महाराज-राना ज़ालिमसिह गद्दो से उतारे गये, और आधी रियासत कोटे मे मिला दी गई। उस समय झालावाड़ की रियासत मे एक प्रकार का विप्लव सा हो रहा था। ऐसे समय मे आपने बड़ी ही योग्यता से काम किया। उसी समय आपके दूसरे लड़के का, जो बी० ए० की परीक्षा देनेवाला था, देहान्त हो गया। तथापि आप दृढ़तापूर्वक काम करते ही रहे। महाराज-राना ज़ालिमसिह के बाद, महाराज-राना भवानीसिहजी गद्दी पर बिठाये गये। तब आप बदस्तूर इनके भी दीवान बने रहे।

संवत् १९५६ के घोर दुर्भिक्ष मे दीवान परमानन्दजी ने बाहर से गल्ला मँगाकर झालावाड़ मे ऐसा अच्छा प्रबन्ध किया कि अकाल का बहुत ही कम कष्ट लोगो को सहना पडा। उस प्रबन्ध से प्रसन्न होकर गवर्नमेट ने आपको रायबहादुर बनाया। अपने समय मे आपने रियासत की तमाम अदालतों में हिन्दी का प्रचार किया, अँगरेज़ी सिक्का चलाया; सर्वसाधारण के लिए एक पुस्तकालय खोला; बड़े-बड़े तालाब खुदवाये, लड़कियों के मदरसे भी खोल दिये। साराश यह कि झालावाड़ की रियासत को आपने बहुत उन्नत कर दिया। [ १३२ ]सन् १९१३ ईसवी मे गवर्नमेट ने आपको "दीवान बहादुर" की पदवी से विभूषित किया।

चतुर्वेदीजी पर वर्तमान महाराज-राना साहब का पूर्ण विश्वास था। वे उनकी योग्यता, सुप्रबन्ध कौशल और नीति-नैपुण्य पर बहुत प्रसन्न रहे। इसी कारण राज्य का सारा भार उन्हीं पर उन्होंने छोड़कर विलायत की सैर की। झालावाड़ मे पण्डित परमानन्दजी का वेतन आठ-नौ सौ रुपये मासिक तक पहुँच गया था।

पण्डित परमानन्दजी बड़े विद्या-प्रेमी थे। संस्कृत आप बहुत ही अच्छी जानते थे। बँगला, उर्दू, फ़ारसी और अरबी मे भी आपकी गति थी। फ्रेञ्च, लैटिन और जर्मन भाषाये भी आप कुछ-कुछ जानते थे। विद्याव्यासङ्ग और पुस्तक-प्रणयन मे लगे हुए लोगों के आप अकारण-बन्धु थे। इस नोट के लेखक पर बिना पूर्व-परिचय और प्रत्यक्ष जान-पहचान के, आपकी बड़ी ही कृपा थी। आपके पत्रों का जो संग्रह हमारे पास है उसके प्रत्येक पत्र से आपके विद्या-प्रेम, औदार्य और ज्ञान-पिपासा की धारा सी बहती है। 'सरस्वती' को आप ध्यान से पढ़ते थे। कभी-कभी उसमें प्रकाशित बातो की समालोचना भी लिख भेजते थे। आप अपनी ३१ अगस्त १९०७ की चिट्ठी मे लिखते हैं---

"शाकटायन की पुस्तक देखने से पाया जाता है कि इसके कर्ता शाकटायन पाणिनि और कात्यायन के बाद हुए। जिन
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शाकटायन का नाम अष्टाध्यायी मे आया है वे कोई दूसरे शाकटायन होंगे। x x x x कात्यायन के वार्तिकों का विषय इन शाकटायन के व्याकरण मे सूत्रबद्ध है। यदि इनको पाणिनि से प्राचीन मानें तो इसके साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि पाणिनि ने जानबूझकर अपने सूत्रो को नाक़िस बनाया। x x x x शाकटायन का पाणिनि से पहले होना तो निर्विवाद है। बहस तो सिर्फ़ इसमे है कि व्याकरण की जो पुस्तक हाल मे छपी है उसके कर्ता वही शाकटायन हैं या कोई दूसरे, जो पाणिनि के बाद हुए हैं। मेरा ख़याल तो यही है कि यह व्याकरण, जो इस समय छपा है, पाणिनि के क्या, बल्कि कात्यायन के भी बाद लिखा गया है। Encyclopædia Britannica के लेखक ने भी यही कहा है——

"This has been proved to be the production of a modern Jain writer"

हमने एक बार हरद्वार से आपको पत्र भेजा। उसके उत्तर मे आपने लिखा——

"आपकी चिट्ठी मे हरद्वार और गङ्गाजी का हाल पढ़कर मेघदूत का यह श्लोक याद आ गया——

तस्माद्गच्छेरनुकनखलं शैलराजावतीर्णां
जह्नो कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपंक्तिम्।
गौरीयक्त भ्रु कुटिरचनां या विहस्येव फेनै.
शम्भोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नार्मिहस्ता।"

[ १३४ ]व्याकरण और दर्शन-शास्त्रों के गहन से गहन विषयों के

आप उत्तम ज्ञाता थे। साथ ही काव्यों के भी बड़े प्रेमी और रसिक थे। 'नैषधचरित' के सदृश क्लिष्ट काव्य के सर्ग के सर्ग आपको कण्ठाग्र थे। पर नाम आप न चाहते थे। गुमनाम रहना ही आपको पसन्द था। हमारे बहुत इसरार करने पर भी आपने अपने विषय मे एक सतर भी 'सरस्वती' मे लिखने की इजाज़त न दी। फ़ोटो तक उतारने से आपको नफ़रत थी। इसी से आपका कोई अच्छा सा फ़ोटो नहीं मिल सका।

चतुर्वेदीजी चाहते थे कि हर्बर्ट स्पेन्सर की तथा विलायत के अन्यान्य नामी ग्रन्थकारो की पुस्तकों का अनुवाद हिन्दी मे हो जाय। अनुवाद-प्रकाशन का सारा ख़र्च आप देने को तैयार थे। अनुवादकों को काफ़ी पुरस्कार भी आप देना चाहते थे। इस सम्बन्ध में हमने और उन्होंने भी बहुत चेष्टा की। पर हिन्दी के दुर्भाग्य से कोई सुयोग्य अनुवादक न मिला। हमारे कई एक मित्रों तक ने यह काम करने की अपेक्षा गप्पे हॉकते हुए समय नष्ट करना ही अधिक आवश्यक और अधिक उपयोगी व्यवसाय समझा।

पण्डित परमानन्दजी ने अपनी जन्मभूमि क़ायमगञ्ज मे एक बड़े ही महत्व का पुस्तकालय स्थापित किया है। उसमे संस्कृत, हिन्दी, अरबी, फ़ारसी, उर्दू, अँगरेज़ी और फ्रेन्च भाषाओं के १५००० ग्रन्थो का अपूर्व संग्रह है। ऐसा चुना हुआ
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संग्रह कलकत्ते की इम्पोरियल लाइब्रेरी के सिवा हमने अन्यत्र नही देखा। उसमे पुरातत्त्व-सम्बन्धी ग्रन्थों और सामयिक पुस्तकों का सङ्ग्रह बड़े ही महत्व का है। रायल एशियाटिक सोसायटी और एशियाटिक सोसायटी आव् बंगाल के पुराने से पुराने जरनल, सैकड़ो रुपये खर्च करके, आपने बड़े ही प्रयत्न से एकत्र किये। सेंटपिटर्सबर्ग ( वर्तमान पेट्रोग्राड ) मे प्रकाशित संस्कृत-कोश की कापियाँ अब नही मिलती। पर बहुत खर्च करके उसकी भी एक कापी, रूस से मॅगाकर, आपने अपने पुस्तकालय मे रक्खी। यह पुस्तकालय इन प्रान्तों मे एक अद्भुत वस्तु है। चतुर्वेदीजी ने अपनी कमाई का विशेषांश इसी मे लगा दिया। इसके लिए एक सुन्दर इमारत भी, अपने मकान ही के पास, आपने बनवा दी। उसी में यह पुस्तकालय है। अपने पिता के नाम पर इसका नाम आपने---"कन्हईलाल-पुस्तकालय"---रक्खा।

अन्य भाषाओं का उत्तम ज्ञान रखने पर भी पण्डितजी हिन्दी और हिन्दी की पुस्तकों के भी प्रेमी थे। आप सदा हिन्दी ही मे चिट्ठी लिखते थे। आपका हिन्दी-प्रेम ऐसा था कि कोई अच्छी पुस्तक हिन्दी मे निकली नही कि आपने झट उसे मँगाया नही। हमसे बहुधा आप इस विषय मे पूछ-पाछ किया करते थे और उपयोगी पुस्तकों का नाम मालूम होने पर तुरन्त उन्हें मँगा लेते थे। कोई महीना न जाता था जिसमें आप सौ-पचास रुपये की पुस्तके न मँगाते हों। कलकत्ते
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जाने पर तो न मालूम कितना रुपया पुस्तकें खरीदने में आप ख़र्च कर देते थे।

झालावाड़ के महाराज-राना बहादुर ने अपने निज के पुस्तकालय का नाम, चतुर्वेदीजी ही के नामानुसार—"परमानन्द-लाइब्रेरी"—रक्खा है।

पण्डित परमानन्दजी के धार्मिक विचार वैसे ही थे जैसे विद्वानों के हुआ करते हैं। धार्मिक पक्षपात उनको छू तक न गया था।

पण्डितजी के कोई पुत्र नहीं। उन्होंने अपने भतीजों ही को पुत्रवत् समझा और पढ़ाया-लिखाया। सुनते हैं, महाराज-राना ने उन्हें उदारता-पूर्वक आश्रय देने की कृपा की है।

[नवम्बर १९१४