कोविद-कीर्तन/१—वामन शिवराम आपटे

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कोविद-कीर्तन

१——वामन शिवराम आपटे, एम० ए०

आपूर्णश्च कलाभिरिन्दुरमलो यातश्च राहोर्मुखम्।

——मालतीमाधव

इस ओर के शिक्षित पुरुषों में से जिन्होंने किसी स्कूल अथवा कालेज में शिक्षा पाई है वे तथा संस्कृत से प्रेम रखनेवाले अन्य लोग भी आपटेजी से अवश्य परिचित होंगे। आपटेकृत "संस्कृत-गाइड" और "संस्कृत-अँगरेज़ी" तथा "अँगरेज़ी-संस्कृत" कोश इत्यादि ग्रन्थ इतने प्रसिद्ध हो रहे हैं कि प्रत्येक विद्या-रसिक के पुस्तक-संग्रह अथवा पुस्तकालय में उनको सादर स्थान दिया गया है। कुटिल काल ने ऐसे लोक-विश्रुत विद्वान की वही गति की जो भवभूति की शिरोलिखित उक्ति में दिखलाई गई है। षोडश कलाओं से परिपूर्ण चन्द्रमा का ग्रास राहु ने कर लिया। वामनराव को भी, विद्या की पूर्ण कलाओं से विभूषित होते ही, काल ने अपनी कुक्षि में सन्निवेशित कर लिया। उनका पूर्ण अभ्युदय होते ही वे इस नश्यमान संसार की असारता का उदाहरण हो गये। [  ]

विद्वानों को अल्पायु होते देख भर्तृहरि को भी खेद हुआ था। उन्होंने कहा है कि पहले तो ब्रह्मा पुरुष-रत्न निर्माण ही नहीं करता और यदि करता है तो उनके शरीर को क्षणभङ्गुर बना देता है। इस मूर्खता का कहीं ठिकाना है?

"अहह कष्टमपण्डितता विधेः"

परन्तु कोई-कोई महात्मा इतने तेजस्वी होते हैं कि अपनी अल्पकालिक स्थिति ही में वे ऐसे-ऐसे अपूर्व काम कर जाते हैं जो साधारण मनुष्यों से, सौ वर्ष पर्यन्त जीवित रहने पर भी, पूर्ण नहीं हो सकते। सायङ्काल और प्रभात की शोभा यद्यपि क्षणमात्र ही दृग्गोचर होकर लोप हो जाती है, तथापि वह उतने ही समय में लोगों को अलौकिक आनन्द दे जाती है। अँगरेज़ी कवि व्यन जानसन् ने कहा है––

In small proportions we just beauties see;
And in short measures life may perfect be.

सतारा ज़िले में सावन्तवाड़ी नामक एक स्थान है। उसके अन्तर्गत आसोलीपाल नामक ग्राम में, सन् १८५८ ईसवी में, वामनराव का जन्म हुआ। वामनराव जब तीन ही वर्ष के थे तभी उनके पिता शिवरामरावजी आपटे ने अपनी जीवन-लीला संवरण की। वामनराव के पिता के मरने पर उनकी विधवा माता अपने लड़कों को लेकर जीवन-निर्वाह के निमित्त कोल्हापुर आईं। वहाँ भी उस साध्वी का पीछा दुर्दैव ने न छोड़ा। कोल्हापुर मे उसके एक १५ वर्ष के पुत्र को [  ]निघृण मृत्यु ने उदरसात् कर लिया। पति भी गया; एक पुत्र भी गया! इस दुःख-परम्परा को वामनराव की माता न सहन कर सकी। शोकाकुल होकर, वही कोल्हापुर में, वह भी अपने पति और पुत्र की अनुगामिनी हो गई। आठ ही वर्ष के वय में वामनराव निराश्रय और अनाथ हो गये। पिता भी नहीं! माता भी नहीं!!

अनाथों का नाथ ईश्वर है। निराश्रयों का आश्रय भी वही है। वामनराव यद्यपि माता-पिता-हीन हो गये, तथापि वे अकारण-कारुणिक परम पिता जगदीश्वर के पूर्ववत् वात्सल्य-भाजन बने रहे। उसी ने उन पर अपना वरद-हस्त रखकर, और इस अपरिमेय दुःख को सहन करने की शक्ति देकर, उनको धैर्य धारण करने में समर्थ किया।

दक्षिण में दरिद्र ब्राह्मणो के लड़के––विशेषतः विद्यार्थी––भिक्षा से अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। वामनराव को भी यह वृत्ति अवलम्बन करनी पड़ी। पौराणिक वामनजी की वृत्ति को स्वीकार करने के लिए, दुर्दैव द्वारा इस प्रकार विवश किये जाने पर, वामनराव ने अपने वामन नाम को सार्थक कर दिया। आठ ही वर्ष के वय से भिक्षाटन से उदर-पूर्ति करते हुए वामनराव ने विद्या-सम्पादन करना आरम्भ किया। दो तीन वर्ष में मराठी भाषा भली भाँति सीखकर वे कोल्हापुर की अँगरेज़ी पाठशाला में प्रविष्ट हुए। वहाँ जाने पर उनकी वृत्ति वही बनीं रही। उसमें अन्तर न पड़ा। उनको [ १० ]गणित और संस्कृत पर बड़ा अनुराग था। इन विषयों में वे अपने सहपाठियों की सहायता करते थे और उनको प्रसन्न करके उनकी पुस्तकें माँगकर अपना काम चलाते थे। पुस्तकों की भी भिक्षा! वस्त्र की भी भिक्षा!! अन्न की भी भिक्षा!!! भिक्षा ही पर उनका जीवन अवलम्बित था। ऐसी विपन्न दशा में रहकर भी वामनराव ने बड़े परिश्रम से विद्याध्ययन में चित्त लगाया। वे इतने कुशाग्र बुद्धि थे कि अपनी कक्षा में उनका सदैव उच्चासन रहता था। वामनराव को, अपने सहाध्यायी लड़कों को संस्कृत और गणित सिखलाते देख, उनके प्रधान शालाध्यापक ने उनसे कहा था कि "वामन! तू एक प्रसिद्ध अध्यापक होगा!" यह भविष्यद् वाणी सत्य निकली।

१८७३ ईसवी में वामनराव एन्ट्रन्स (Matriculation) परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। उस समय उनका वय केवल १५ वर्ष था। इस परीक्षा में उन्होंने, संस्कृत में, ऐसी प्रवीणता दिखलाई कि उनको २५ रुपये की छात्रवृत्ति मिली। इस समय उनकी, अपनी चिर-परिचित भिक्षावृत्ति को, नमस्कारपूर्वक, विदा करना पड़ा। तदनन्तर वामनराव ने डेकन कालेज मे प्रवेश किया और १८७५ में एफ़॰ ए॰, १८७७ में बी॰ ए॰ और १८७९ में (२१ वर्ष के वय में) एम॰ ए॰ में उन्होंने उत्तीर्णता प्राप्त की। जिस वर्ष वे एफ॰ ए॰ की परीक्षा में सफल हुए उस वर्ष से उनको कई छात्र-वृत्तियाँ मिलने लगीं। एम॰ ए॰ की परीक्षा में वामनराव ने ऐसी योग्यता [ ११ ]दिखलाई और इतने सम्मान-सहित वे उत्तीर्ण हुए कि उनको उस उपलक्ष में ४०० रुपये का पारितोषिक मिला।

वामनराव का विवाह, पूना-निवासी गणेश वासुदेव जोशी की कन्या से, १८७७ ईसवी में हुआ। गणेश वासुदेव एक सर्वप्रिय, सर्वमान्य और धनी पुरुष थे। उन्होंने वामन-राव की अकिञ्चनता का किञ्चिन्-मात्र भी विचार न करके केवल उनकी विद्वत्ता, बुद्धिमत्ता और सदाचरण पर लुब्ध होकर अपनी कन्या उनको समर्पित की। इससे व्यक्त होता है कि गणेश वासुदेव ने विद्या के सम्मुख और बातों को तुच्छ समझा। वामनराव की पत्नी यद्यपि एक धनी के घर की थी तथापि ऐसा सद्‌गुणी पति पाकर उसको वामनराव की निर्धनता, स्वप्न में भी, दुःखदायिनी न हुई; उलटा उसने, इस संयोग से अपने को परम भाग्यशालिनी माना। सुनते हैं, वह रूपवती न थी, तथापि पति और पत्नी दोनों ने अपने-अपने सद्‌गुणों से एक दूसरे को ऐसा मोहित कर लिया था कि परस्पर कभी कलह, मतद्वैध अथवा किसी प्रकार का अप्रिय व्यवहार नहीं हुआ। वामनराव को इस पत्नी से दो कन्यायें हुई और एक पुत्र भी हुआ। परन्तु, खेद है, पुत्र नहीं रहा। कन्या भी, शायद, एक ही इस समय जीवित है।

दक्षिण में विष्णु कृष्ण शास्त्री चिपलूनकर बड़े विद्वान् हो गये हैं। उनके कई मराठी-निबन्धों का हिन्दी-अनुवाद नागपुर-निवासी पण्डित गङ्गाप्रसाद अग्निहोत्री ने किया [ १२ ]है। उसके द्वारा शास्त्रीजी की विद्वत्ता और उनके नाम से हिन्दी के प्रायः सभी प्रेमी परिचित हो गये हैं। वे संस्कृत और अँगरेज़ी दोनों भाषाओं के ज्ञाता थे और मराठी में "निबन्धमाला" नामक मासिक पुस्तक निकालते थे। वे पाठशाला में अध्यापक थे। परन्तु कई कारणों से उनकी "निबन्धमाला" के निकलने में प्रतिबन्ध होने लगा। अतएव दास्यरूपी रजत-श्रृङ्खला उन्होंने तोड़ डाली और स्वतन्त्र होकर देशोपकार करने पर कटिबद्ध हुए। उन्होंने अपने मित्र गोपाल गणेश आगरकर, एम॰ ए॰ और बालगङ्गाधर तिलक बी॰ ए॰ की सहायता से "न्यू इँगलिश स्कूल" नामक एक पाठशाला स्थापित की। वामनराव आपटे भी, विष्णु शास्त्री की भाँति पहले अध्यापक हो गये थे; परन्तु उन्होंने भी सरकारी नौकरी छोड़ दी। उसे छोड़कर वे भी अपने इस मित्रत्रितय के साथी हुए। १८८० ईसवी में यह पाठशाला स्थापित हुई। इसी के साथ "केसरी" और "मराठा" नामक दो पत्र भी निकलने लगे। पहला मराठी में और दूसरा अँगरेज़ी में। "केसरी" में प्रायः विष्णु शास्त्री के लेख निकलते थे और "मराठा" में वामनराव आपटे के। इन पत्रों के ऊपर १८८२ ईसवी में कोल्हापुर के एक प्रतिष्ठित पुरुष ने मानहानि का अभियोग चलाया। उसका फल यह हुआ कि आगरकर और तिलक को कारागार-सेवन करना पड़ा। इस घटना से यह सिद्ध हुआ कि आगरकर, आपटे, तिलक, चिपलूनकर और पाँचवें नाम जोशी–– [ १३ ]इन पाँचों मित्रों की आत्मा एक थी; शरीर-मात्र पृथक् था। लेख लिखा औरों ने, परन्तु उसका दुष्परिणाम भोगा दूसरों ने! जिस वर्ष यह घटना हुई उसी वर्ष, अर्थात् १८८२ ईसवी में, विष्णु शास्त्री चिपलूनकर इस लोक से चल बसे। इन कारणों से यह शङ्का उत्पन्न हुई कि "न्यू इँगलिश स्कूल" भी अब अस्त हो जायगा। परन्तु ऐसा न हुआ। वामनराव ने ऐसी कार्य-दक्षता दिखलाई कि स्कूल का बन्द होना तो दूर रहा, उलटा उसका उत्कर्ष प्रतिदिन होने लगा।

"न्यू इँगलिश स्कूल" का अध्यापक-वर्ग ऐसा कार्य-पटु, विद्वान्, चतुर और परिश्रमी था कि स्कूल की परीक्षाओं का फल बहुत अच्छा होने लगा और उसकी ख्याति प्रति दिन बढ़ने लगी। इस पाठशाला का यहाँ तक उत्कर्ष हुआ कि १८८५ ईसवी में यह कालेज कर दी गई और "फ़र्गुसन-कालेज" इसका नाम हुआ। तब से वामनराव इस कालेज के प्रधान शिक्षक नियत हुए। भिक्षारत बालक वामन, प्रिन्सपल वामन शिवराम आपटे, एम॰ ए॰, कहलाया जाने लगा।

१८८५ से १८९२ ईसवी तक वामनराव ने "फ़र्गुसन-कालेज" की प्रधानाध्यक्षता बड़ी ही दक्षता से निबाही। उनके प्रयत्न से कालेज की अधिकाधिक उन्नति होती गई। उनकी शिक्षण-पद्धति बहुत ही प्रशंसनीय थी। उनसे उनके छात्र सदा प्रसन्न रहते थे। विशेषतः जब वे संस्कृत के काव्यों और नाटकों की मीमांसा करने लगते थे तब उनके विवेचन से उनके विद्या[ १४ ]र्थियों को पराकाष्ठा का आनन्द होता था और विवेचित विषय उनके हृत्पटल में तत्काल अङ्कित सा हो जाता था।

इस प्रकार १२ वर्ष-पर्यन्त अपनी अपूर्व अध्यापन-शक्ति से महाराष्ट्र-देश को उत्तम शिक्षा प्रदान करके अकाल ही में वामनराव ने परलोक के लिए प्रस्थान कर दिया। ९ अगस्त १८९२ को, अर्थात् केवल ३४ वर्ष के वय में, वे अल्पायु हो गये। महाराष्ट्र-देश का एक अलौकिक रत्न खो गया। संस्कृत का अनन्यभक्त सर्वदा के लिए तिरोहित हो गया। उनकी मृत्यु से उनके मित्र-मण्डल और छात्र-वर्ग को ही नहीं, किन्तु महाराष्ट्र देश भर को असह्य दुःख हुआ। जस्टिस तैलङ्ग, डाक्टर भाण्डारकर, तथा डेकन-कालेज और एल्फ़िन्स्टन्-कालेज के प्रिन्सपल ने भी बहुत शोक प्रकट किया। यहाँ तक कि बम्बई के गवर्नर, लार्ड हैरिस, तक ने उनके गुणों की प्रशंसा करके खेद प्रदर्शित किया[१][ १५ ]

आपटे ने "संस्कृत-अँगरेज़ी" और "अँगरेज़ी-संस्कृत कोश", "संस्कृत-गाइड", "प्राग्रेसिव एकसर्‌साइजेज़" और "कुसुम-माला" नामक कई पुस्तकें लिखी हैं। उनका बनाया हुआ कोश बहुत ही उपयोगी है। इस कोश की प्रशंसा बड़े-बड़े विद्वानों ने की है। उनके "संस्कृत-गाइड" की भी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। उसमे आपटे ने अपने असाधारण संस्कृत-ज्ञान का अच्छा नमूना दिखलाया है। इस ग्रन्थ के प्रसाद से, संस्कृत-भाषानुरागी अनेक विद्यार्थिगण, इस समय, अपरिमेय लाभ उठा रहे हैं। "संस्कृत गाइड" आपटे की संस्कृत-पारदर्शिता का आदर्श है। संस्कृत-साहित्य में जितने अच्छे-अच्छे ग्रन्थ हैं सबसे यथेष्ट वाक्यों का उद्धरण करके, उनके द्वारा, इसमें व्याकरण के नियमों की सिद्धता दिखलाई गई है। [ १६ ]शब्दशास्त्र में आपटे की विलक्षण गति थी। पाणिनि के "शकधृषज्ञाग्लाघटरभलभक्रमसहार्हास्त्यर्थेषु तुमुन्" इस सूत्र पर, सिद्धान्त-कौमुदी में, भट्टोजी दीक्षित ने कहा है––

अर्थग्रहण मस्तिनैव संबध्यते। अनन्तरत्वात्।

दीक्षित के इस कथन का, आपटे ने, अपने "संस्कृत-गाइड" के 'तुम्' प्रत्यय ( Infinitive mood) प्रकरण में, सप्रमाण और सयौक्तिक खण्डन किया है। यह पुस्तक इतनी उपयोगी और सर्वप्रिय है कि थोड़े ही समय में इसकी कई आवृत्तियाँ निकल चुकी हैं।

दारिद्रग्रस्त होकर भी अभिरुचि होने से मनुष्य उच्च से उच्च विद्या सम्पादन कर सकता है और अपनी विद्वत्ता के बल पर वह अलौकिक प्रतिष्ठा-भाजन भी हो सकता है। आपटे के चरित्र से यही शिक्षा मिलती है।

[जनवरी १९०१

  1. लार्ड हैरिस ने पूना-निवासियो से कहा——
    Death has been busy here in the city and cantonments this last month; and amongst those whom you have to mourn, none, I fancy, has passed away with more sincere and deeper feelings of regret than Mr. Apte. I beg very respectfully to join with you in those feelings. I know what Mr. Apte was doing for education here. I know what a labour of love it has been to him to extend the efforts of educational association with which he was connected, and how successful that labour has been. We can illspare such enthusiasts, but we must bor before the greater Wisdom of the Almighty. I name Mr. Apte in connection with that doctrine of self-help which I am taking the liberty to inculcate, because I believe him to be a notable instance of a man raising himself to the highest level in his own line by the unaided determination of his character and his self-confidence in lhis power to succeed.