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कोविद-कीर्तन/३-आदित्यराम भट्टाचार्य

विकिस्रोत से
कोविद-कीर्तन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ४४ से – ५४ तक

 

३---महामहोपाध्याय पण्डित आदित्यराम भट्टाचार्य, एम० ए०

इस प्रान्त के पढ़े-लिखे लोगों में से ऐसा शायद ही कोई होगा जो पण्डित आदित्यरामजी के नाम से परिचित न हो। जिसने किसी स्कूल या कालेज में प्रवेश किया है और पण्डितजी के ऋजुव्याकरण को हाथ में लेकर "भवति, भवतः, भवन्ति" सीखा है, उसकी तो कुछ बात ही नहीं, वह तो उनका विद्यार्थी ही है। वह न जानेगा तो जानेगा कौन?

पण्डितजी के पूर्वज बङ्गाल मे रहते थे। आप पाश्चात्य वैदिक श्रेणी के ब्राह्मण हैं। अर्थात् आदिसूर के समय मे आपके पूर्वज इसी तरफ़ से वहाँ गये थे। पण्डितजी का वेदयजु, शाखा कण्व और गोत्र घृतकौशिक है। आपके मातामह के पूर्वजों में काशीराम वाचस्पति नाम के एक विख्यात पण्डित हो गये हैं। स्मृतिशास्त्र के प्राचार्य रघुनन्दन के तिथितत्त्व नामक ग्रन्थ की उन्होंने एक बहुत अच्छी टीका लिखी है। काशीराम के पौत्र राजीवलोचन न्यायभूषण बनारस मे आकर रहने लगे। वहाँ वे गवर्नमेंट-संस्कृत-कालेज मे वेदान्त के अध्यापक नियत हुए। यह घटना १८२८ ईसवी की है। वहाँ से वे प्रयाग चले आये। प्रयाग में उनको

रीवॉ-नरेश, महाराजा जयसिंहदेव और विश्वनाथसिंहदेव, ने सब प्रकार से आश्रय दिया।

पण्डित राजीवलोचन न्यायभूषण, भट्टाचार्य महाशय के मातामह थे। उन्होंने अपनी कन्या ( पण्डित आदित्यराम की माता) को संस्कृत पढ़ाया था। वे खूब लिख-पढ़ सकती थीं। ज्योतिष का वे यहाँ तक ज्ञान रखती थीं कि जन्म-पत्र तक बनाती थी। उनके बड़े पुत्र का नाम पण्डित वेणीमाधव भट्टाचार्य है। आप बहुत दिनों तक प्रयाग मे म्यूनीसिपल कमिश्नर रहे हैं। अब भी वे वहीं हैं। इस समय आप आनरेरी मजिस्ट्रेट हैं।

पण्डित आदित्यराम की माता का नाम था धन्यगोपी। आदित्यरामजी उनके दूसरे पुत्र हैं। आपका जन्म २३ नवम्बर १८४७ को, प्रयाग मे, हुआ। आपकी विदुषी माता ने आपका जन्मपत्र सूतिका-गृह ही मे अपने हाथ से बनाया था। पाँच वर्ष के होने पर इन्होने अपनी माँ से अक्षराभ्यास किया और आठ ही वर्ष की उम्र मे ये बंगला मे रामायण और महाभारत पढ़ लेने लगे। प्रयाग से ये बनारस गये। उस समय प्रयाग मे ज़िला-स्कूल तक न था। बनारस मे ये अँगरेज़ी और संस्कृत दोनो साथ ही साथ पढ़ने लगे।

१८६४ ईसवी मे पण्डितजी ने प्रवेशिका-परीक्षा पास की । इस उपलक्ष्य में ग्रिफ़िथ साहब ने इनको वरसेस्टर का बृहत्-कोश इनाम मे दिया। इस कोश को पण्डितजी अभी तक बड़े

आदर से रक्खे हुए हैं, क्योंकि इस पर उपहार-दाता का हस्ताक्षर है। ग्रिफिथ साहब आप पर बहुत ही प्रसन्न थे। यह परीक्षा पास करने पर पण्डितजी को गवर्नमेट की छात्रवृत्ति भी मिली और संस्कृत की छात्रवृत्ति भी। जब तक कालेज मे रहे वे अपनी संस्कृत और अँगरेज़ी की योग्यता के बल पर कालेज के बड़े से बड़े वजीफ़े प्राप्त करते गये। एक सुवर्ण-पदक भी आपको मिला। महामहोपाध्याय पण्डित कैलाशचन्द्र शिरोमणि, पण्डित बेचनराम त्रिपाठी. पण्डित प्रेमचन्द तर्कवागीश और पण्डित जयनारायण तर्कालङ्कार से आपने संस्कृत अध्ययन किया।

पण्डित आदित्यरामजी को ग्रिफ़िथ साहब से अँगरेज़ी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ग्रिफ़िथ साहब अनेक भाषाओं के ज्ञाता हैं, अँगरेज़ी के तो वे आचार्य ही हैं। अँगरेज़ी गद्य और पद्य लिखने में वे अपना सानी नहीं रखते। फिर,अध्यापन-विद्या मे वे ऐसे कुशल हैं कि बनारस-कालेज मे जिस समय वे कुछ कहने या सिखलाने लगते थे उस समय क्लास का क्लास तन्मय हो जाता था। ऐसा अच्छा अध्यापक पाकर पण्डित आदित्यरामजी ने भी उनके अध्यापन से लाभ उठाने में कोई कसर नही की। ग्रिफ़िथ साहब की तरह वे भी एक प्रसिद्ध अध्यापक हुए। उन पर ग्रिफ़िथ साहब का बड़ा प्रेम था। इस समय साहब यद्यपि ८० वर्ष के बूढ़े हो गये हैं और नीलगिरि पर्वत पर, एकान्तवास मे, वेदों का अंगरेज़ी-अनुवाद कर रहे हैं, तथापि वे अपने विद्यार्थियों को भूले

नहीं हैं। ६ फरवरी १९०२ के अपने एक पत्र में वे पण्डित आदित्यरामजी को लिखते हैं---

I take very great interest in the career of my old pupils and am happy to see that many of them are occupying high and respectable positions in the service of the Government.

जिस समय ग्रिफ़िथ साहब डाइरेक्टर थे उस समय, ११ जनवरी १८८७ को, आपने एक बहुत लम्बी सरटीफ़िकट पण्डितजी को दी। उसमे पण्डितजी की छात्रावस्था के विषय मे आप यों लिखते हैं---

He matriculated in 1861, passing in the first or highest class. and obtaining in consequence a Government scholarship and prize ; and throughout his college career, in which he passed, with great credit, the local and the university examinations, and gained additional scholarships and prizes. his regulality and attention to his studies, his rapid progress and his good manners and conduct, gave me and all his teachers entire satisfaction He passed the B. A Examination, in the second division, in 1869. and the M A Examination (for which he took up Sanskrit) in 1871

संस्कृत से एम० ए० पास कर लेने पर ग्रिफ़िथ साहव की सिफ़ारिश से, १६ मार्च १८७२ को, भट्टाचार्य महाशय सागर

के "हाईस्कूल" से संस्कृत के अध्यापक नियत हुए। वहाँ दो ही तीन महीने वे रहे होंगे कि प्रयाग में म्योर-कालेज की स्थापना हुई। तब वे म्योर-कालेज मे बदल आये और वहाँ संस्कृत के अध्यापक नियत हुए। इस प्रकार वे अपनी जन्म-भूमि प्रयाग में पहुँच गये। इस कालेज में वे दो ही वर्ष रहे । इतने में बनारस के क्वीन्स कालेज में अँगरेज़ी और संस्कृत-विभाग के अध्यापक की जगह ख़ाली हुई। उस पर गफ़ साहब थे पर वे म्योर-कालेज को बदल आये। इस जगह पर तब तक कोई देशी विद्वान् न नियत हुआ था । डाक्टर हाल, डाक्टर कर्न और ग्रिफ़िथ साहब, जितने इस जगह पर गफ़ साहब के पहले थे, सब विलायती थे और सभी अँगरेज़ो तथा संस्कृत के पारगामी पण्डित थे। परन्तु, इस समय, विद्या-विभाग के अधिकारियों को भट्टाचार्य महाशय से अधिक योग्य पुरुष न मिला। इसलिए वही इस सम्माननीय पद पर अधिष्ठित किये गये। जनवरी १८७४ से मार्च १८७५ तक आप इस पद पर रहे। जब डाक्टर थीबो विलायत से इस जगह के लिए विशेष रूप से मुक़र्रर होकर आ गये तब पण्डित आदित्यरामजी म्योर-कालेज में अपनी जगह पर लौट आये। १८७८ में वे वहाँ पर इतिहास और दर्शन-शास्त्र के अध्यापक हुए। १८८१ मे आप कुछ काल तक अँगरेज़ी के भी अध्यापक रहे। फिर आपको संस्कृत का अध्यापन-कार्य मिला। इसी पर आप अन्त तक बने रहे। १९०२ में, ५५ वर्ष के वयो-वृद्ध होकर, आपने पेंशन ले ली। म्योर-कालेज और "फ़ैकल्टी आफ़ आर्टस्" के लिए पण्डित आदित्यरामजी ने जो कुछ किया है उसकी प्रशंसा शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर और कालेज के प्रधानाध्यापक ने खूब की है। आप "सिडिकेट' के मेम्बर हैं। इलाहाबाद के विश्वविद्यालय की सभाओं मे आपने कभी किसी को प्रसन्न करने अथवा किसी व्यक्ति विशेष को लाभ पहुंचाने के इरादे से कोई काम नहीं किया। जो कुछ आपको उचित और न्याय्य समझ पड़ा वही आपने स्पष्टतया कहा भी है और उसी के अनुसार, समय पर, आपने काम भी किया है। यूनीवरसिटी-कमिशन को आपने अपनी जो राय लिखकर दी थी वह पढ़ने लायक़ है। उसमे आपने इस बात की साफ़-साफ़ सिफ़ारिश की है कि विश्वविद्यालय की सभाओं में शरीक होनेवालों को इस बात की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए कि निर्भय होकर वे अपने सच्चे आन्तरिक विचारों को व्यक्त कर सकें। इस लेख मे पण्डितजी ने संस्कृत-प्रचार के विषय मे बहुत कुछ कहा है।

पण्डितजी की विद्वत्ता से प्रसन्न होकर गवर्नमेट ने, १८९७ मे, आपको महामहोपाध्याय की पदवी देकर अपनी गुणग्राहकता का परिचय दिया। आपके नाम के साथ इस पदवी का मणि-काञ्चन का जैसा योग हो गया।

३० वर्ष नौकरी करके जब आप म्योर-कालेज से अलग होने लगे तब कालेज मे एक सभा हुई। डाक्टर थीबो ने अपनी वक्तृता मे भट्टाचार्य महाशय के कामों की खूब प्रशंसा
की। कालेज के कई पुराने विद्यार्थी––माननीय पण्डित मदन-मोहन मालवीय, पण्डित सुन्दरलाल, तथा हाईकोर्ट के और कई वकील––इस अवसर पर उपस्थित थे। जब मालवीयजी बोलने को उठे तब उनका कण्ठ इतना भर आया कि उन्हें अश्रुपात होने लगा। कालेज के विद्यार्थियों ने, अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए, अपने व्यय से, पण्डितजी का एक फ़ोटो (Life-size bust) बलवाकर कालेज के पुस्तकालय में लगाने का तत्काल विचार किया। यह शायद अब तक लग भी गया हो[]

शिक्षा-विभाग के डाइरेक्टर ग्रिफ़िथ और लिविस साहब ने आदित्यरामजी को बहुत अच्छे सरटीफ़िकट दिये हैं। पण्डितजी के गुणगान से वे साधन्त भरे हुए हैं। ग्रिफ़िथ साहब अपनी सरटीफ़िकट के अन्त में लिखते हैं––

His whole official career has been one of quiet, steady and successful labour, and I have a very high opinion of his character and merits as a servant of the State.

पण्डितजी हिन्दी-मिडिल के बहुत वर्षों तक परीक्षक रहे हैं। डाइरेक्टर साहब की भेजी हुई हिन्दी-पुस्तकों की आलोचनायें भी आप करते रहे हैं। इस सम्बन्ध मे आपने जो काम किये हैं उनकी भी ग्रिफ़िथ साहब ने बड़ी बडाई की है। इस प्रान्त के स्कूलो मे हिन्दी की जो किताबें पढ़ाई जाती हैं उनकी जॉच के लिए टेक्स्ट बुक कमिटी की जो शाखा है उसके पण्डितजी मेम्बर हैं; और, सुनते हैं, आप अपनी सच्ची राय देने से कभी नही सकुचे हैं। चाहे जिसकी पुस्तक हो, और चाहे आप पर जैसा दवाव डाला जाय, आप कभी किसी का पक्षपात नहीं करते। आपकी न्यायशीलता को धन्य है। इस विषय मे लिविस साहव अपनी सरटीफ़िकट मे क्या कहते हैं, सो भी सुनिए---

His services, as a member of the Provincial Text-Book Committee, have been particularly generous and valuable The number of Books, which he has critically examined and reported on in detail, is very great indeed, and his reviews have been the expression of his scholarship and of his sincere desire to help things forward in the direction of progress, While they have remained untainted by any unworthy prejudice or sinister aim He appears to have laboured constantly with the high object of promoting the public good, as he conceived it He has been frank and outspoken and tenacious of his own opinions, but I have

not known him to fail incourtesy and true loyalty. I believe that any course of conduct not perfectly straightforward would be entirely foreign to his nature and habit of thought.

शिक्षा-विभाग के सबसे बड़े अफसर की की हुई इस यथार्थ स्तुति को पढ़कर टेक्स्ट बुक कमिटी के दूसरे मेम्बरों को उपदेश ग्रहण करना चाहिए।

पण्डित आदित्यरामजी नागरीप्रचारिणी सभा के सभासद हैं। टेक्स्ट बुक कमिटी में सभा अपना एक मेम्बर भेजने का बड़ा उद्योग कर रही है। परन्तु गवर्नमेंट के पूछने पर वह कहती है कि उसने पण्डितजी को इस पद के लिए अपना प्रतिनिधि नहीं चुना। क्या सभा ने पण्डितजी से भी अधिक योग्य कोई सभासद इस काम के लिये ढूँढ़ निकाला है ?

भट्टाचार्य महाशय को हिन्दी से भी प्रेम है। कोई ३० वर्प हुए उन्होंने हिन्दी मे "सरस्वती-प्रकाश" नाम की एक सामयिक पुस्तक निकालने का विचार किया था। परन्तु न तो शिक्षा-विभाग ही ने इस विषय मे उनकी सहायता की और न और ही किसी ने। इससे लाचार होकर आपको अपना यह सद्विचार रहित करना पड़ा। खैर, इतने दिनों बाद, अब एक "प्रकाश"-हीन "सरस्वती" निकलने लगी है। आशा है, इस प्रकार, अपने विचार के एक अंश के पूर्ण हो जाने से आप प्रसन्न हुए होंगे। जब आप विद्यार्थी थे तभी

आपकी इच्छा बंगला के "सोमप्रकाश" की तरह का एक हिन्दी-अखबार निकालने की थी; परन्तु सरकारी नौकरी स्वीकार करने पर उस इच्छा का कार्य में परिणत होना असम्भव हो गया । सरकारी नौकरी में भी आप कभी-कभी अँगरेज़ो में लेख लिख- कर 'इंडियन मिरर और 'पायनियर' में प्रकाशित कराते रहे हैं। १८८२ में, कुम्भ-मेला के विपय में, जो कई गुमनाम लेख 'पायनियर' में छपे थे, वे पण्डितजी ही की लेखनी से निकले थे।

१८९७ मे पण्ठितजी का ज्येष्ठ पुत्र, जिसकी उम्र २४ वर्ष की थी, परलोकगामी हो गया। यह बहुत बड़ा आघात आप पर हुआ। संसार मे सुख-द:ख का जोड़ा किसी का पीछा नहीं छोडता। उसने भट्टाचार्य महाशय को भी अपनी अनुल्लंघनीयता का परिचय दिया। परन्तु----

सम्पत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम् ।

आपत्सु च महाशैलशिलासंघातर्कशम् ॥

अतएव कहने की आवश्यकता नहीं, इस दुःख को पण्डितजी ने सह डाला।

पण्डित आदित्यरामजी ने ऋजु-व्याकरण, गद्यपद्य-संग्रह और संस्कृत-शिक्षा नाम की पुस्तकें लिखी हैं। ये पुस्तकें स्कूलो में पढ़नेवाले लड़को के लिए आपने बनाई हैं। उनको पढ़कर हज़ारों छात्रों ने लाभ उठाया है और अब तक उठा रहे है।

पण्डितजी ने यद्यपि नौकरी छोड़ दी है, तथापि आप टेक्स्ट बुक कमिटी के मेम्बर बने हुए हैं। यह बहुत अच्छी बात

है। इस कमिटी मे पण्डितजी का होना अत्यावश्यक है। लिविस साहब ने अपनी सरटीफ़िकट में एक जगह लिखा है——

Although Pandit Aditya Ram Bhattacharya has retired from the service of Government, he has, as far as it is possible for me to form an opinion, maintained the physical, moral and mental strength for many years' labour in selving his day and generation, and amongst other things it is hoped that he will still continue to take part in the work of the Provincial Text-Book Committee.

हस इस विषय मे लिविस साहब ही के साथ "तथास्तु" कहते हैं। पण्डितजी को कमिटी मे ज़रूर बना रहना चाहिए। साहब ने भट्टाचार्य महाशय की शारीरिक और मानसिक अवस्था के बहुत वर्षों तक काम करने योग्य बनी रहने का जो अनुमान किया वह सच है। यही कारण है, जो पण्डितजी ने स्वदेश-भक्ति से उत्साहित होकर, अपने तजरिबे और अध्ययन-कौशल से भावी सन्तति को शिक्षित बनाने के लिए, कुछ दिनों से बनारस के हिन्दू-कालेज मे शिक्षा देना प्रारम्भ किया है। ईश्वर आपको सदैव नीरोग और प्रसन्न रक्खे, जिससे चिरकाल तक आपके विद्यादान में त्रुटि न हो।

[दिसम्बर १९०४


  1. यह लेख आक्टोबर १९०४ का लिखा हुआ है