कोविद-कीर्तन/५ पण्डित कुन्दनलाल
५---पण्डित कुन्दनलाल
कविता भी प्रकृति-चित्रण है। वह भी एक प्रकार की चित्रविद्या है। पर कविता और चित्रकला दोनों से एक ही साथ प्रेम होना बहुधा कम देखा गया है। पण्डित कुन्दनलाल में दोनों बातें एक ही साथ मौजूद थीं।
पण्डित कुन्दनलाल गौड़ ब्राह्मण थे। उनके पितामह का नाम गिरिधारीलाल और पिता का चतुर्भुज था। संवत् १९१५ में उनका जन्म, मथुरा में, हुआ था। उनके बड़े भाई पण्डित श्यामलालजी जयपुर में वैद्य थे और पण्डित प्यारेलालजी सरिश्तेदार।
पण्डितजी के पूर्वज साधारण गृहस्थ थे। वे मालदार न थे। तथापि उन्होंने पण्डित कुन्दनलाल को यथाशक्ति शिक्षा देने में कोई कसर न होने दी। वे मथुरा के जिल़ा-स्कूल मे पढ़ने के लिए भेजे गये और कई वर्ष तक वहाँ रहे। लड़कपन ही से उन्हें चित्र खींचने का शौक़ था। एक बार, सुनते हैं, मथुरा के तत्कालीन ज्वाइण्ट मैजिस्ट्रेट ग्राउज़ साहब स्कूल देखने गये। वहाँ कुन्दनलाल ने, ग्राउज़ साहब को देखते ही, उनका चित्र खींचा और उसी वक्त़ स्कूल ही में उन्हें भेंट किया। इतनी थोड़ी उम्र में कुन्दनलाल का चित्रनैपुण्य देखकर ग्राउज़
साहब बहुत खुश हुए। तभी से ये साहब कृपामात्र हा
गये और बहुत कुछ उनसे सहायता पाई।
स्कूल छोड़कर पण्डित कुन्दनलाल ने सरकारी नौकरी कर ली। जिस समय वे बुलन्दशहर में कलेक्टरी के हेडक्लार्क थे, ग्राउज़ साहब फ़तेहगढ़ की कलक्टरी पर बदल आये। वहाँ उन्होंने पण्डित कुन्दनलाल की भी बदली करा ली। तब से पण्डितजी का और साहब का, साहब के पेन्शन लेकर विलायत जाने तक, अखण्ड साथ रहा।
पण्डित कुन्दनलाल यद्यपि अँगरेज़ी के पदवीधर न थे तथापि अँगरेज़ी लिखने और बोलने मे उन्हें पदवीधरो से भी अधिक अभ्यास था। उनकी अँगरेज़ी की चिट्ठियों से उनकी योग्यता का अच्छा परिचय मिलता है। उनकी कई चिट्ठियाँ हमारे पास हैं। उनमे कितनी ही बातें उन्होंने बड़े महत्त्व की लिखी हैं। हिन्दी, अँगरेजी के सिवा पण्डितजी उर्दू भी जानते थे। चित्रकला मे तो आप बहुत ही व्युत्पन्न थे। चित्र खीचने मे वे इतने चतुर थे कि आदमी को सामने बिठाकर, बात की बात मे, उसका बहुत ही अच्छा चित्र खीच देते थे। कई नुमायशी मे उनके चित्रो की बड़ी तारीफ़ हुई थी और शायद उन्हे कोई पदक भी मिला था। "एक हिन्दू-विधवा" और "राजपूत ब्राइड" (नवविवाहिता राजपूत-वधू)---
उनके ये दो चित्र बहुत बढ़िया समझे गये थे। "मराठा" और "मराठिन" का भी एक जोड़ा चित्र उन्होंने अच्छा बनाया
था। सब मिलाकर कोई छ:-सात चित्र उन्होंने बनाये थे; पर औरों के नाम हमें नहीं मालूम हुए। नव-विवाहिता राज-पूत-वधू के साथ उसके पति का भी चित्र था। पति लड़ाई से जाने के लिए तैयार था। जाने के पहले वह अपनी नवीना वधू से मिलने आया। उसे देखकर वधू ने कहा––
रणकूँ चाल्याँ साहिवाँ कोईं ढूँडत साथ।
थारे साथी तीन छे हिया, कटारी, हाथ॥
यही भाव चित्र में दिखाया गया था। चित्र के नीचे ऊपर का दोहा भी था। दोहे का अनुवाद भी अँगरेज़ी में इस प्रकार था––
Bound for fray, why halt my Lord?
What other' and need be?
Heart, right hand and trenchant sword,
Are thy sure champions three.
यह चित्र शिमला की चित्र-प्रर्दाशनी-कमिटी को बहुत पसन्द आया था। एक अँगरेज़-चित्रकार ने इसे इतना पसन्द किया कि अपना १५०) रुपये का एक चित्र देकर इसे बदल लिया।
"हिन्दू-विधवा" का चित्र कुन्दनलाल ने १८८८ ईसवी में बनाया था। उसका एक फ़ोटो फ़तेहगढ़ से श्रीबाबू हरप्रसादजी ने हमारे पास भेजा है। यह चित्र भी प्रदर्शिनी के अधिकारियों ने बहुत पसन्द किया था। कुछ लोगो का––ख़याल करके विदेशियों का–– ख़याल है कि भारतवर्ष की विधवा
स्त्रियों की बड़ी दुर्दशा होती है। उन्हें और-और क्लेशो के सिवा खाने-पहनने का भी क्लेश उठाना पड़ता है। इस ख़याल को दूर करने के लिए भी पण्डितजी ने एक चित्र बनाया था। वह इन प्रान्तों की एक तरुण विधवा का चित्र था। यहाँ कॉच की चूड़ियाँ, नथ, बिछुवे आदि चीजों और रड्ग-बिरङ्ग कपड़ों को छोड़कर और सब चीज़े पहनने-ओढ़ने का अधिकार विधवाओं को है। खाने-पीने मे भी उन्हें कोई कष्ट नही दिया जाता। सिर के बाल भी नही मुड़ाये जाते। यही भाव इस चित्र मे दिखाया गया। चित्रगत विधवा के अवयव इस बात की गवाही दे रहे हैं कि उसे खाने-पीने की कोई तकलीफ़ नही। प्रातःकालीन स्नान और पूजन के पश्चात् यह स्त्री परमेश्वर से नित्य यही प्रार्थना करती थी कि मरने के बाद मेरा संयोग मेरे पति से फिर हो। जिस दिन का यह
चित्र है उस दिन स्नान और प्रार्थना के बाद वह अपने मकान
की छत पर, दीवार से लगकर, खड़ी हो गई है और पति के
सोच में ध्यानस्थ सी है।
संवत् १९४८ के आरम्भ (सन् १८९१ ईसवी) से पण्डित
कुन्दनलाल ने "कवि व चित्रकार" नाम का एक त्रैमासिक पत्र, फतेहगढ़ से, निकाला। उसका उद्देश कविता और चित्रविद्या की उन्नति था। चित्र भी उसमे कभी-कभी निकलते थे। उसके साथ एक बार नरगिस के स्वाभाविक पुष्प-गुच्छ का एक रङ्गीन चित्र निकला था, और एक बार सेव के पुष्प-गुच्छ
का। ये चित्र बड़े ही मनोहर थे। हमे याद पड़ता है, पण्डित कुन्दनलाल ने लिखा था कि ये गुच्छ एक हिन्दू-कुल-
कामिनी के कर-कौशल के फल हैं। पण्डितजी इस पत्र मे चित्रकला और फ़ोटोग्राफ़ी-विषयक अनेक उपयोगी और सहज
में बोधगम्य बातें लिखा करते थे। दो-एक दफ़े आपने अच्छे-अच्छे चित्र और "डिज़ाइन" बनाकर भेजनेवालो को इनाम देने की भी घोषणा प्रकाशित की थी।
"कवि व चित्रकार" के पहले अड्क के प्रारम्भ में एक संस्कृत-लावनी छपी थी। उसका शुरू इस प्रकार है----
प्रणमामि राधिकाकान्त पादयुगलन्ते
यद्विहरति रविजातीरविपुलविपिनान्ते।
इसके 'प्रणमामि' का 'प्र' बड़े आकार मे, बेल-बूटो के भीतर, बनाया गया था। पर किसी-किसी रसिक कवि को वह देख ही न पड़ा। इस पर उन्होंने सम्पादक से शिकायते की, जिन्हे पढ़कर पण्डित कुन्दनलाल को ललित-कलाओं की अधोगति पर बड़ा दुःख हुआ। इतना बड़ा और इतना साफ़ 'प्र' होने पर भी, सिर्फ़ बेलबूटेदार होने के कारण, लोगों की नज़र से ग़ायब हो गया!
"कवि व चित्रकार" से अच्छी-अच्छी कवितायें, कविता-विषयक प्रबन्ध, पुस्तकों की आलोचनायें और चित्रकला-विषयक लेख छपते थे। पूर्ति करने के लिए समस्याये भी दी जाती थीं। पहली समस्या इस विषय पर दी गई थी कि
किसने और किस उद्देश से जालियों का प्रचार किया। इस
पर सैकड़ों पूर्तियाँ आईं। पर वे विशेष करके श्रृङ्गार ही रस की थीं। कुछ तो अश्लील तक थी। जालियों के उद्देश को भी कविजनो ने श्रृङ्गार ही मे डुबो दिया, यह देखकर पण्डित
कुन्दनलाल को अफ़सोस हुआ। पर और रसों को भी कुछ
पूर्तियाँ थीं। अच्छी-अच्छो पूर्तियों को पण्डितजी ने जाल-कौमुदी
नामक पुस्तक मे प्रकाशित किया। इस पुस्तक मे जालियों की उत्पत्ति पर पण्डितजी ने एक लेख बड़े खोज से लिखा है। और कोई पौने तीन सौ तरह को जालियों के नमूने दिये है। इसमे जालियाँ बनाने की रीति आदि का भी वर्णन है। जाली-विषयक पूर्तियों की जाँच के लिए एक कमिटी बनी। उसके सभापति राजा लक्ष्मणसिहजी हुए। कमिटी ने ७ कवियों की पूर्तियों को अच्छा ठहराया। उनमे से तीन को पण्डित कुन्दनलाल ने दुशाला, घड़ी और डुपट्टा अपनी तरफ़ से पारितोषिक दिया, और शेष चार को राजा लक्ष्मणसिह ने अपनी तरफ से पगड़ी। पहला पुरस्कार, अर्थात् दुशाला, पण्डित जयदेवजी (अलवर) को मिला। पण्डित नाथूराम शङ्करजी ने पगड़ी पाई। चन्द्रकला बाई ( बूंदी ) ने डुपट्टा।
कोई दो साल तक "कवि व चित्रकार" निकला। प्रत्येक अङ्क मे एक न एक समस्यापूर्ति छपती रही। पूर्तियाँ अलग "पूर्तिपत्र" मे निकलती थीं। पूर्तिपत्र "कवि व चित्रकार" के अङ्क के साथ ही बॅटता था। (१) भाल लिखी लिपि को सक टार
(२) सार यहै उपकार तजै ना
(३) उन्नति यों करिए कविता की
(४) बार करो जिन बार बराबर
(५) अब तो सबको गुरुदेव रुपैया
आदि समस्याओं पर उत्तमोत्तम पूर्तियाँ इस पत्र में प्रकाशित हुईं। कुन्दनलालजी ने अच्छी-अच्छी पूर्तियों के उपलक्ष्य मे कवियों को सोने-चांदी के पदक, घड़ियाँ, पगड़ी आदि देकर उनका उत्साह खूब बढ़ाया।
कविता और चित्रकला के ऐसे प्रेमी को कुटिल काल ने बहुत दिनो तक इस लोक में न रहने दिया। पण्डित कुन्दन-लालजी पहले श्वास-रोग से दुखी रहा करते थे। पर अब वे वात-व्याधि से पीड़ित हो गये। उन पर फ़ालिज का दौरा हुआ। वे फतेहगढ़ से जयपुर गये। उनके कुटुम्बी वहीं थे। वहाँ चिकित्सा से पहले कुछ आराम भी हुआ। पर तीसरे दौरे मे उसने पण्डितजी की जान लेकर ही कल की। संवत् १९५१ की चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को, सिर्फ ३६ वर्ष की उम्र में, उन्होंने शरीर छोड़ दिया। "कवि व चित्रकार" का निकलना बन्द हो गया। साथ ही कवियों को पदक और दुशाले मिलने भी बन्द हो गये। "कवि व चित्रकार" का जो
अड्क उनकी मृत्यु के बाद निकला उसमे कितने ही कवियों ने
बड़ी ही हृदय-विदारिणी कविता मे पण्डितजी के असमय परलोकवास पर शोक प्रकट किया।
पण्डित कुन्दनलालजी ने, पहली स्त्री के मरने पर, दूसरा विवाह किया था। मरने के वर्ष ही डेढ़ वर्ष पहले यह विवाह हुआ था। अतएव यह और भी दुःख की बात हुई।
पण्डितजी थियासफ़िकल सोसायटी के सभासद थे और उसके तत्त्वो मे अच्छी पारदर्शिता रखते थे।
ग्राउज साहब ने तुलसीदास की रामायण का जो अनुवाद अंगरेजी मे किया है वह पहले ८) रुपये मे आता था। इससे उन्होने उसे, साहब की अनुमति से, खुद छपाया और सर्व-साधारण के सुभीते के लिए उसकी कीमत घटाकर सिर्फ ३) रुपये कर दी।
कुन्दनलालजी ने फतेहगढ़ मे एक सदुपकारिणी सभा भी स्थापित की थी। उसके सभापति आप ही थे। सज्जन और कुलीन स्त्री-पुरुष जो भूखे-प्यासे रहकर किसी तरह दिन काटते हैं, पर अप्रतिष्ठा के डर से किसी से कुछ मॉग नहीं सकते, उन्हें इस सभा से गुप्त सहायता मिलती थी। इस सभा ने कितने ही अनाथो और दीन-दुखियों का पालन किया। यह अब तक बनी हुई है और अब तक दो-चार दीनो को अन्न-वस्त्र दे रही है।
पण्डित कुन्दनलालजी बड़े उदार, बड़े स्वदेश भक्त और बड़े विद्या-प्रेमी थे। "कवि व चित्रकार" के निकालने मे उन्होने
बहुत रुपया खर्च किया, पर हिन्दी के प्रवीण पाठकों ने उनके पत्र की बहुत कम क़दर की। पण्डितजी एक पत्र में लिखते हैं---
My father left me no great fortune, nor my luck is over-fond of me. What little I can earn is hardly sufficient for my own family, which is by no means small. I conduct the paper at a very heavy loss (one year's loss amounting to over Rs. 800) and this is, in a sense, injustice to my family, who have stronger claims on me than the magazine. Yet I do what I can for the love of knowledge and glory of my country. I have sacrificed my health, my money, my time and, if, still the king does not like the dish, woe to the goat which has lost its life !
अर्थात्----न हमारे कोई मौरूसी जायदाद है, न हम ख़ुद ही भाग्यवान् हैं। जो कुछ थोड़ा सा हमे मिलता है हमारे ही बाल-बच्चों के लिए काफ़ी नही। कुटुम्ब भी हमारा छोटा नही। "कवि व चित्रकार" को चलाने मे हमे बहुत नुक़सान उठाना पड़ता है। गत वर्ष हम ८०० रुपये से भी अधिक के घाटे में रहे! यह हमने मानो अपने कुटुम्ब पर जुल्म किया--अन्याय किया। "कवि व चित्रकार" की अपेक्षा अपने कुटुम्बियों की ज़रूरतों को रफ़ा करना हमारा पहला काम है। पत्र की अपेक्षा कुटुम्ब का हक़ अधिक है। तिस पर भी
अपने देश की सुख्याति और विद्याभिरुचि की प्रेरणा से जो
कुछ हमसे हो सकता है, करते हैं। हमने अपना आरोग्य नष्ट कर दिया, अपना समय नष्ट कर दिया, अपना रुपया नष्ट कर दिया; इस पर भी यदि "खाना-पसन्द" शाह को शोरबा अच्छा न लगे तो उस छाग के लिए शोक है जिसने अपनी जान खो दी!
इससे पण्डित कुन्दनलालजी के औदार्य, विद्याप्रेम और स्वदेशाभिमान का अच्छा परिचय मिलता है। इतनी हानि उठाकर और इतना आत्महितोत्सर्ग करके भी पण्डितजी हिन्दी बोलनेवालों की सहानुभूति न प्राप्त कर सके। यह हिन्दी-भाषा-भाषियों के लिए बहुत बड़े कलङ्क की बात है। यह चौदह-पन्द्रह वर्ष पहले की दशा का वर्णन है। पर अब तक यह दुरवस्था प्रायः पूर्ववत् बनी हुई है। अब तक हिन्दी-पत्रों, पत्रिकाओं और पुस्तको का विशेष आदर नही है। अब तक हिन्दी बोलनेवाली माता के सपूत हिन्दी मे ख़्वाब देखना छोड़कर लिखना, पढ़ना पसन्द नही करते। देखें कब तक यह उदासीनता अटल रहती है---
"कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी"
इस लेख की बहुत कुछ सामग्री भेजने के लिए हम फ़तेहगढ़ के म्यूनीसिपल कमिश्नर, वावू हरप्रसादजी, के बहुत कृतज्ञ हैं।
[ अगस्त १९०७
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