गो-दान/१०

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गो-दान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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१०

हीग का कही पता न चला और दिन गुजरते जाते थे। होरी मे जहाँ तक दोड़-धूप हो सकी की;फिर हारकर बैठ रहा। खेती-बारी की भी फ़िक्र करनी थी। अकेला आदमी क्या-क्या करता। और अब अपनी खेती से ज्यादा फ़िक्र थी पुनिया की खेती की। पुनिया अब अकेली होकर और भी प्रचण्ड हो गयी थी। होरी को अव उसकी खुशामद करते बीतती थी। हीग था,तो वह पुनिया को दबाये रहता था। उसके चले जाने से अब पनिया पर कोई आँकुस न रह गया था। होरी की पटीदारी हीरा से थी। पुनिया अबला थी। उससे वह क्या तनातनी करता। और पुनिया उसके स्वभाव से परिचित थी और उसकी मज्जनता का उसे खूब दण्ड देती थी। खैरियत यही हुई कि कारकुन साहब ने पुनिया से बकाया लगान वमूल करने की कोई सख्ती न की,केवल थोड़ीसी पूजा लेकर गजी हो गये। नही,होरी अपनी वकाया के साथ उसकी वक़ाया चुकाने के लिए भी कर्ज लेने को तैयार था। सावन में धान की रोपाई की ऐसी धूम रही कि मजूर न मिले और होरी अपने खेतों में धान न रोग सका;लेकिन पुनिया के खेतों में कैसे न रोपाई होती। होरी ने पहर रात-रात तक काम करके उसके धान रोपे। अब होरी ही तो उसका रक्षक है! अगर पुनिया को कोई कप्ट हुआ,तो दुनिया उसी को तो हसेगी। नतीजा यह हुआ कि होरी को खरीफ़ की फ़मल में बहुत थोड़ा अनाज मिला,और पुनिया के बग्वार में धान रखने की जगह न रही।

होरी और धनिया में उस दिन से बराबर मनमुटाव चला आता था। गोबर से भी होरी की बोल-चाल बन्द थी। माँ-बेटे ने मिलकर जैसे उसका बहिष्कार कर दिया था। अपने घर में परदेशी बना हुआ था। दो नावों पर सवार होनेवालों की जो दुर्गति होती है,वही उसकी हो रही थी। गाँव में भी अब उसका उतना आदर न था। धनिया ने अपने साहम से स्त्रियों का ही नहीं,पुरुषों का नेतृत्व भी प्राप्त कर लिया था। महीनों तक आसपास के इलाकों में इम काण्ड की खूब चर्चा रही। यहाँ तक कि वह अलौकिक रूप तक धारण करता जाता था--'धनिया नाम है उसका जी। भवानी का इप्ट है उसे। दारोग़ाजी ने ज्योंही उसके आदमी के हाथ में हथकड़ी डाली कि धनिया ने भवानी का मुमिग्न किया। भवानी उसके सिर आ गयी। फिर तो उसमें इतनी शक्ति आ गयी कि उसने एक झटके में पति की हथकड़ी तोड़ डाली और दारोगा की मूंँछे पकड़कर उखाड़ लीं,फिर उसकी [ १२१ ]
छाती पर चढ़ बैठी। दारोगा ने जब बहुत मानता की,तब जाकर उसे छोड़ा। कुछ दिन तक तो लोग धनिया के दर्शनों को आते रहे। वह बात अब पुरानी पड़ गयी थी;लेकिन गाँव में धनिया का सम्मान बहुत बढ़ गया। उसमें अद्भुत साहस है और समय पड़ने पर वह मर्दो के भी कान काट सकती है।

मगर धीरे-धीरे धनिया में एक परिवर्तन हो रहा था। होरी को पुनिया की खेती मे लगे देखकर भी वह कुछ न बोलती थी। और यह इसलिए नहीं कि वह होरी से विरक्त हो गयी थी; बल्कि इसलिए कि पुनिया पर अब उसे भी दया आती थी। हीरा का घर से भाग जाना उसकी प्रतिशोध-भावना की तुष्टि के लिए काफ़ी था।

इसी बीच में होरी को ज्वर आने लगा। फ़स्ली बुखार फैला था ही। होरी उसके चपेट में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आया,तो उसने सारी बकाया चुका ली। एक महीने तक होरी खाट पर पड़ा रहा। इस बीमारी ने होरी को तो कुचल डाला ही,पर धनिया पर भी विजय पा गयी। पति जब मर रहा है,तो उममे कैसा बैर। ऐसी दशा में तो बैरियों में भी बैर नहीं रहता,वह तो अपना पति है। लाख बुरा हो;पर उमी के माथ जीवन के पचीस साल कटे है,सुग्व किया है तो उसी के साथ,दुःख भोगा है तो उसी के साथ,अब तो चाहे वह अच्छा है या बुरा,अपना है। दाढीजार ने मुझे सबके सामने मारा,सारे गाँव के सामने मेरा पानी उतार लिया;लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाये खाकर उठ जाता है,डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूँ।

होरी जब अच्छा हुआ,तो पति-पत्नी में मेल हो गया था।

एक दिन धनिया ने कहा--तुम्हें इतना गुस्सा कैसे आ गया। मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना ही गुस्सा आये मगर हाथ न उठाऊँगी।

होरी लजाता हुआ बोला--अब उसकी चर्चा न कर धनिया! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था। इसका मुझे कितना दुःख हुआ है,वह मैं ही जानता हूँ।

'और जो मैं भी उस क्रोध में डूब मरी होती!'

'तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता? मेरी लहाश भी तेरे साथ चिता पर जाती।'

'अच्छा चुप रहो,बेबात की बात मत बको।'

'गाय गयी सो गयी,मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गयी। पुनिया की फिकर मुझे मारे डालती है।'

'इसीलिए तो कहते हैं,भगवान घर का बड़ा न बनाये। छोटों को कोई नहीं हँसता। नेकी-बदी सब बड़ों के सिर जाती है।'

माघ के दिन थे। मघावट लगी हुई थी। घटाटोप अँधेरा छाया हुआ था। एक तो जाड़ों की रात,दूसरे माघ की वर्षा। मौत का-सा सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तक न सूझता था। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेंड़ पर अपनी मडै़या में लेटा हुआ था। चाहता था,शीत को भूल जाय और सो रहे;लेकिन तार-तार कम्बल और फटी हुई मिर्जई और शीत के झोंकों से गीली पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख [ १२२ ]
आने का नींद में साहस न था। आज तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला मुलगा लाया था,पर शीत में वह भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डालकर और हाथों को जाँघों के बीच में दबाकर और कम्बल में मुंँह छिपाकर अपनी ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेप्टा कर रहा था। पाँच साल हुए,यह मिर्जई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनबा दी थी, वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिये थे,जिसके पीछे कितनी सांँसत हई,कितनी गालियाँ खानी पड़ी,और कम्बल तो उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था,जवानी में गोबर को लेकर इसी कम्बल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज वही बूढ़ा कम्बल उसका साथी है,पर अब वह भोजन को चबानेवाला दाँत नही,दुखनेवाला दाँत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नही आया कि लगान और महाजन को देकर कभी कुछ बचा हो। और बैठे बैठाये यह एक नया जंजाल पड़ गया। न करो तो दुनिया हँसे,करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते हैं। सब यह समझते हैं कि वह पुनिया को लूट लेता है, उसकी सारी उपज घर में भर लेता है। एहसान तो क्या होगा उलटा कलक लग रहा है। और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं कि कहीं कोई सगाई का डौल करो,अब काम नहीं चलता। सोभा उससे कई बार कह चुका है कि पुनिया के विचार उसकी ओर से अच्छे नहीं है। न हों। पुनिया की गृहस्थी तो उसे सँभालनी ही पड़ेगी,चाहे हंँसकर संँभाले या रोकर। धनिया का दिल भी अभी तक साफ नहीं हुआ। अभी तक उसके मन में मलाल बना हुआ है। मुझे सब आदमियों के सामने उसको मारना न चाहिए था। जिसके साथ पचीस माल गुजर गये,उसे मारना और सारे गाँव के सामने,मेरी नीचता थी;लेकिन धनिया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतगकर निकल जाती है,जैसे कभी की जान-पहचान ही नहीं। कोई बात कहनी होती है,तो सोना या रूपा मे कहलाती है। देखता हूँ उसकी साड़ी फट गयी है;मगर कल मुझसे कहा भी,तो सोना की साड़ी के लिए,अपनी साड़ी का नाम तक न लिया। सोना की साड़ी अभी दो-एक महीने थेगलियांँ लगाकर चल सकती है। उसकी साड़ी तो मारे पेवंदों के बिलकुल कथरी हो गयी है। और फिर मैं ही कौन उसका मनुहार कर रहा हूंँ। अगर मैं ही उसके मन की दो-चार बातें करता रहता,तो कौन छोटा हो जाता। यही तो होता वह थोड़ा-सा अदग्वान कराती,दो-चार लगनेवाली बात कहती तो क्या मुझे चोट लग जाती;लेकिन मैं बुड्ढा होकर भी उल्लू बना रह गया। वह तो कहो इस बीमारी ने आकर उसे नर्म कर दिया,नही जाने कब तक मुंँह फुलाये रहती।

और आज उन दोनों में जो बातें हुई थीं,वह मानो भूखे का भोजन थीं। वह दिल मे बोली थी और होरी गद्गद् हो गया था। उसके जी में आया,उसके पैरों पर सिर रख दे और कहे--मैंने तुझे मारा है तो ले मैं सिर झुकाये लेता हूँ,जितना चाहे मार ले,जितनी गालियाँ देना चाहे दे ले।

सहसा उसे मंँडै़या के सामने चूड़ियों की झंकार सुनायी दी। उसने कान लगाकर मुना। हाँ,कोई है। पटवारी की लड़की होगी,चाहे पण्डित की घरवाली हो। मटर [ १२३ ]
उखाड़ने आयी होगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी है। सारे गाँव से अच्छा पहनते हैं,सारे गाँव से अच्छा खाते हैं,घर में हजारों रुपए गड़े हैं,लेन-देन करते हैं, ड्योढ़ी-सवाई चलाते हैं,घूस लेते हैं,दस्तूरी लेते हैं,एक-न-एक मामला खड़ा करके हमा-सुमा को पीसते ही रहते हैं,फिर भी नीयत का यह हाल! बाप जैसा होगा,वैसी ही सन्तान भी होगी। और आप नहीं आते,औरतों को भेजते हैं। अभी उठकर हाथ पकड़ लूँ तो क्या पानी रह जाय। नीच कहने को नीच हैं; जो ऊँचे हैं,उनका मन तो और नीचा है। औरत जात का हाथ पकड़ते भी तो नहीं बनता:आँखों देखकर मक्खी निगलनी पड़ती है। उखाड़ ले भाई,जितना तेरा जी चाहे। समझ ले,मैं नही हूँ। बड़े आदमी अपनी लाज न रखें,छोटों को तो उनकी लाज रखनी ही पड़ती है।

मगर नहीं,यह तो धनिया है। पुकार रही है।

धनिया ने पुकारा--सो गये कि जागते हो?

होरी झटपट उठा और मॅडै़या के बाहर निकल आया। आज मालूम होता है,देवी प्रसन्न हो गयी,उसे वरदान देने आयी हैं,इसके साथ ही इस बादल-बूंँदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गये उसका आना शंकाप्रद भी था। ज़रूर कोई-न-कोई बात हुई है।

बोला--ठण्डी के मारे नींद भी आती है? तू इस जाड़े -पाले में कैमे आयी? कुसल तो है?

'हांँ सब कुसल है।'

'गोबर को भेजकर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया।'

धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मॅडै़या में आकर पुआल पर बैठती हुई बोली--गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो। जिस बात को डरती थी,वह होकर रही।

'क्या हुआ क्या? किसी से मार-पीट कर बैठा?'

'अब मैं जानूंँ,क्या कर बैठा,चलकर पूछो उसी राँड़ से ?'

'किस राँड़ से? क्या कहती है तू? बौरा तो नहीं गयी?'

'हाँ बौरा क्यों न जाऊंँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगुनी हो जाय।'

होरी के मन में प्रकाश की एक लम्बी रेखा ने प्रवेश किया।

'साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती। किस राँड़ को कह रही है?'

'उसी झुनिया को,और किसको!'

'तो झुनिया क्या यहाँ आयी है?'

'और कहाँ जाती,पूछता कौन?'

'गोबर क्या घर में नही है?'

'गोबर का कहीं पता नहीं। जाने कहाँ भाग गया। इसे पाँच महीने का पेट है।'

होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अहिगने जाते देखकर वह खटका था ज़रूर;मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही है,इसमें कोई नयी बात नहीं। मगर जिस रूई के गाले को उसने नीले आकाश में हवा के [ १२४ ]
झोंके से उड़ते देखकर केवल मुस्करा दिया था,वह सारे आकाश में छाकर उसके मार्ग को इतना अन्धकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लम्पट! वह सरल गँवार जिसे वह अभी बच्चा समझता था;लेकिन उसे भोज की चिन्ता न थी,पंचायत का भय न था,झुनिया घर में कैसे रहेगी इसकी चिन्ता भी उसे न थी। उमे चिन्ता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील है,अनाड़ी है,आत्माभिमानी है,कहीं कोई नादानी न कर बैठे।

घबड़ाकर बोला--झुनिया ने कुछ कहा नहीं,गोबर कहाँ गया? उससे कहकर ही गया होगा।

धनिया झुंँझलाकर बोली--तुम्हारी अक्कल तो घास खा गयी है। उसकी चहेती तो यहाँ बैठी है,भागकर जायगा कहाँ? यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। दूध थोड़े ही पीता है कि खो जायगा। मुझे तो इस कलमुंँही झुनिया की चिन्ना है कि इसे क्या करूँ? अपने घर में मैं छन-भर भी न रहने देंगी। जिस दिन गाय लाने गया है,उसी दिन में दोनों मे तक-झक होने लगी। पेट न रहता तो अभी बात न खलती। मगर जब पेट रह गया तो झुनिया लगी घबड़ाने। कहने लगी,कहीं भाग चलो। गोबर टालता रहा। एक औरत को साथ लेके कहाँ जाय,कुछ न सूझा। आखिर जब आज वह सिर हो गयी कि मुझे यहाँ मे ले चलो, नही मैं परान दे दूंँगी,तो बोला--तू चलकर मेरे घर में रह,कोई कुछ न बोलेगा,अम्माँ को मना लूँगा। यह गधी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा.फिर न जाने किधर सरक गया। यह खडी़-खडी़ उसे पुकारती रही। जब रात भीग गयी और वह न लौटा,भागी यहाँ चली आयी। मैंने तो कह दिया,जैसा किया है वैसा फल भोग। चुडै़ल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया। तब मे बैठी रो रही है। उठती ही नहीं। कहती है,अपने घर कौन मुंँह लेकर जाऊँ। भगवान ऐसी सन्तान मे तो बाँझ ही रखे तो अच्छा। सबेरा होते-होते मारे गाँव में कॉव-कॉव मच जायगी। ऐमा जी होता है,माहुर खा लूं। मैं तुमसे कहे देती हूँ, मैं अपने घर में न रवगी। गोबर को रखना हो,अपने सिर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है और अगर तुम बीच में बोले,तो फिर या तो तुम्हीं रहोगे,या मैं ही रहूँगी।

होरी बोला--तुझसे बना नहीं। उसे घर में आने ही न देना चाहिए था।

'सब कुछ कहके हार गयी। टलती ही नहीं। धरना दिये बैठी है।'

'अच्छा चल,देखूँ कैसे नहीं उठती,घसीटकर बाहर निकाल दूंँगा।'

'दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था;पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बहया होते हैं!'

'वह क्या जानता था,इनके बीच में क्या खिचड़ी पक रही है।'

'जानता क्यों नहीं था। गोबर रात-दिन घेरे रहता था तो क्या उसकी आँखें फूट गयी थीं। सोचना चाहिए था न,कि यहाँ क्यों दौड़-दौड़ आता है।'

'चल मैं झुनिया से पूछता हूँ न।' [ १२५ ]दोनों मँडै़या से निकलकर गाँव की ओर चले। होरी ने कहा--पाँच घड़ी रात के ऊपर गयी होगी।

धनिया बोली- हाँ, और क्या; मगर कैसा सोता पड़ गया है। कोई चोर आये,तो सारे गाँव को मूस ले जाय।

'चोर ऐसे गाँव में नहीं आते। धनियों के घर जाते हैं।'

धनिया ने ठिठक कर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली--देखो,हल्ला न मचाना;नहीं सारा गाँव जाग उठेगा और बात फैल जायगी।

होरी ने कठोर स्वर में कहा--मैं यह कुछ नहीं जानता। हाथ पकड़कर घसीट लाऊँगा और गाँव के बाहर कर दूंँगा। बात तो एक दिन खुलनी ही है,फिर आज ही क्यों न खुल जाय। वह मेरे घर आयी क्यों? जाय जहाँ गोबर है। उसके साथ कुकरम किया, तो क्या हमसे पूछकर किया था?

धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे से बोली--तुम उसका हाथ पकड़ोगे,तो वह चिल्लायेगी।

'तो चिल्लाया करे।'

'मुदा इतनी रात गये इस अंधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहाँ,यह तो सोचो।'

'जाय जहाँ उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा है।'

'हाँ, लेकिन इतनी रात गये घर से निकालना उचित नहीं। पाँव भारी है,कहीं डर-डरा जाय,तो और आफ़त हो। ऐसी दशा में कुछ करते धरते भी तो नहीं बनता!'

'हमें क्या करना है,मरे या जीये। जहाँ चाहे जाय। क्यों अपने मुंँह में कालिख लगाऊंँ। मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूँगा।'

धनिया ने गम्भीर चिन्ता से कहा--कालिख जो लगनी थी,वह तो अब लग चुकी। वह अब जीते-जी नहीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी।

'गोबर ने नहीं,डुबाई इसी ने। वह तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।'

'किसी ने डुवाई,अब तो डूब गयी।'

दोनों द्वार के सामने पहुँच गये। सहसा धनिया ने होरी के गले में हाथ डालकर कहा--देखो तुम्हें मेरी सौंह,उस पर हाथ न उठाना। वह तो आप ही रो रही है। भाग की खोटी न होती,तो यह दिन ही क्यों आता।

होरी की आँखें आर्द्र हो गयीं। धनिया का यह मातृ-स्नेह उस अँधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिन्ता-जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों ही के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत हो उठा। होरी को इस वीत-यौवना में भी वही कोमल हृदय बालिका नज़र आयी,जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था। उस आलिगन में कितना अथाह वात्सल्य था,जो सारे कलंक,सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परम्पराओं को अपने अन्दर समेटे लेता था।

दोनों ने द्वार पर आकर किवाड़ों के दराज से अन्दर झाँका। दीवट पर तेल की कुप्पी जल रही थी और उसके मध्यम प्रकाश में झुनिया घुटने पर सिर रखे,द्वार की ओर [ १२६ ]
मुंँह किये,अन्धकार में उस आनन्द को खोज रही थी,जो एक क्षण पहले अपनी मोहिनी छवि दिखाकर विलीन हो गया था। वह आफ़त की मारी व्यंग-बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छाँह खोजती फिरती थी,और उसे एक भवन मिल गया था,जिसके आश्रय में वह अपने को सुरक्षित और सुखी समझ रही थी;पर आज वह भवन अपना सारा सुख-विलास लिये अलादीन के राजमहल की भाँति ग़ायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था।

एकाएक द्वार खुलने और होरी को आते देखकर वह भय से काँपती हुई उठी और होरी के पैरों पर गिरकर रोती हुई बोली--दादा,अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं है,चाहे मारो चाहे काटो;लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत।

होरी ने झुककर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए प्यार-भरे स्वर में कहा--डर मत बेटी,डर मत। तेरा घर है,तेरा द्वार है,तेरे हम हैं। आराम से रह। जैसी तू भोला की बेटी है,वैसी ही मेरी बेटी है। जब तक हम जीते है,किसी बात की चिन्ता मत कर। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी ऑखों न देख सकेगा। भोज-भात जो लगेगा,वह हम सब दे लेंगे,तू खातिर-जमा रख।

झुनिया,सान्त्वना पाकर और भी होरी के पैरों से चिमट गयी और बोली--दादा अब तुम्हीं मेरे बाप हो और अम्माँ,तुम्हीं मेरी माँ हो। मैं अनाथ हूँ। मुझे सरन दो,नहीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा ही ग्वा जायंगे।

धनिया अपनी करुणा के आवेग को अब न रोक सकी। बोली--तू चल घर में बैठ,मैं देख लूंँगी काका और भैया को। संसार में उन्ही का राज नहीं है। बहुत करेंगे,अपने गहने ले लेंगे। फेंक देना उतारकर।

अभी ज़रा देर पहले धनिया ने क्रोध के आवेश में झुनिया को कुलटा और कलंकिनी और कलमुंँही न जाने क्या-क्या कह डाला था। झाड़ मारकर घर से निकालने जा रही थी। अब जो झुनिया ने स्नेह,क्षमा और आश्वासन से भरे यह वाक्य सुने तो होरी के पाँव छोड़कर धनिया के पांँव से लिपट गयी और वही साध्वी जिसने होरी के सिवा किसी पुरुष को आँख भरकर देखा भी न था,इस पापिष्ठा को गले लगाये उसके आँसू पोछ रही थी और उसके त्रस्त हृदय को अपने कोमल शब्दों मे शान्त कर रही थी,जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को परों में छिपाये बैठी हो।

होरी ने धनिया को संकेत किया कि इसे कुछ खिला-पिला दे और झुनिया से पूछा-- क्यों बेटी,तुझे कुछ मालूम है, गोबर किधर गया!

झुनिया ने सिसकते हुए कहा--मुझसे तो कुछ नहीं कहा। मेरे कारन तुम्हारे ऊपर...यह कहते-कहते उसकी आवाज़ आँसुओं में डूब गयी।

होरी अपनी व्याकुलता न छिपा सका।

'जब तूने आज उसे देखा,तो कुछ दुखी था?'

'बातें तो हँस-हँसकर कर रहे थे। मन का हाल भगवान जाने।'

'तेग मन क्या कहता है,है गाँव में ही कि कहीं बाहर चला गया?' [ १२७ ]'मुझे तो शंका होती है,कहीं बाहर चले गये हैं।'

'यही मेरा मन भी कहता है। कैसी नादानी की। हम उसके दुसमन थोड़े ही थे। जब भली या बुरी एक बात हो गयी, तो उसे निभानी पड़ती है। इस तरह भागकर उसने हमारी जान आफ़त में डाल दी।'

धनिया ने झुनिया का हाथ पकड़कर अन्दर ले जाते हुए कहा--कायर कहीं का। जिसकी बाँह पकड़ी,उसका निबाह करना चाहिए कि मुंँह में कालिख लगाकर भाग जाना चाहिए। अब जो आये,तो घर में पैठने न दूंँ।

होरी वहीं पुआल में लेटा। गोबर कहाँ गया? यह प्रश्न उसके हृदयाकाश में किसी पक्षी की भाँति मॅडराने लगा।