गो-दान/१३
गोबर अंधेरे ही मुंह उठा और कोदई से बिदा माँगी। सबको मालूम हो गया था कि उसका ब्याह हो चुका है। इसलिए उससे कोई विवाह-सम्बन्धी चर्चा नहीं की। उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मुग्ध कर लिया था। कोदई की माता को तो उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातृपद की रक्षा करते हुए, ऐसा उपदेश दिया कि उसने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया था।
'तुम बड़ी हो माताजी, पूज्य हो। पुत्र माता के रिन से सौ जन्म लेकर भी उरिन नहीं हो सकता, लाख जन्म लेकर भी उरिन नहीं हो सकता। करोड़ जन्म लेकर भी नहीं...'
बुढ़िया इस संख्यातीत श्रद्धा पर गद्गद् हो गयी। इसके बाद गोबर ने जो कुछ कहा, उसमें बुढ़िया को अपना मंगल ही दिखायी दिया। वैद्य एक बार रोगी को चंगा कर दे, फिर रोगी उसके हाथों विष भी खुशी से पी लेगा––अब जैसे आज ही बहू घर से रूठकर चली गयी, तो किसकी हेठी हुई? बहू को कौन जानता है? किसकी लड़की है, किसकी नातिन है, कौन जानता है! सम्भव है, उसका बाप घसियारा ही रहा हो....
बुढ़िया ने निश्चयात्मक भाव से कहा––घसियारा तो है ही बेटा, पक्का घसियारा। सबेरे उसका मुंह देख लो, तो दिन-भर पानी न मिले।
गोबर बोला––तो ऐसे आदमी की क्या हँसी हो सकती है! हँसी हुई तुम्हारी और तुम्हारे आदमी की। जिसने पूछा, यही पूछा कि किसकी बहू है? फिर वह अभी लड़की है, अबोध, अल्हड़। नीच माता-पिता की लड़की है, अच्छी कहाँ से बन जाय! तुमको तो बूढ़े तोते को राम-नाम पढ़ाना पड़ेगा। मारने मे तो वह पढ़ेगा नहीं, उसे तो सहज स्नेह ही से पढ़ाया जा सकता है। ताड़ना भी दो; लेकिन उसके मुंह मत लगो। उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, तुम्हारा अपमान होता है।
जब गोबर चलने लगा, तो बुढ़िया ने खाँड़ और सत्तू मिलाकर उसे खाने को दिया। गाँव के और कई आदमी मजूरी की टोह में शहर जा रहे थे। बातचीत में रास्ता कट गया और नौ बजते-बजते सब लोग अमीनाबाद के बाजार में जा पहुँचे। गोबर हैरान था, इतने आदमी नगर में कहाँ से आ गये? आदमी पर आदमी गिरा पड़ता था।
उस दिन बाज़ार में चार-पाँच सौ मजदूरों मे कम न थे। राज और बढ़ई और लोहार और बेलदार और खाट बुननेवाले और टोकरी ढोनेवाले और संगतराश सभी जमा थे। गोबर यह जमघट देखकर निराश हो गया। इतने सारे मजूरों को कहाँ काम मिला जाता है। और उसके हाथ में तो कोई औजार भी नही है। कोई क्या जानेगा कि वह क्या काम कर सकता है। कोई उसे क्यों रखने लगा। बिना औजार के उसे कौन पूछेगा?
धीरे-धीरे एक-एक करके मजूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश होकर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई ग़म नहीं।
सहसा मिर्जा खुर्शेद ने मजदूरों के बीच में आकर ऊँची आवाज़ से कहा––जिसको छः आने पर आज काम करना हो, वह मेरे साथ आये। सबको छ: आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी।
दस-पांच राजों और बढ़इयों को छोड़कर सब के सब उनके साथ चलने को तैयार हो गये। चार सौ फटे-हालों की एक विशाल सेना सज गयी। आगे मिर्ज़ा थे, कन्धे पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लम्बी क़तार थी, जैसे भेड़ें हों।
एक बूढ़े ने मिर्ज़ा से पूछा––कौन काम करना है मालिक?
मिर्ज़ा साहब ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चकित हो गये। केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी है, जो कबड्डी खेलने के लिए छ: आना रोज दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पाकर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को सन्देह होने लगा, कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जाकर कह दे, कोई काम नहीं है, तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाये, चाहे आँख मिचौनी, चाहे गुल्लीडंडा, मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा?
गोबर ने डरते-डरते कहा––मालिक, हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ, तो कुछ लेकर खा लूँ।
मिर्ज़ा ने झट छ: आने पैसे उसके हाथ में रख दिये और ललकारकर बोले––मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिन्ता मत करो।
मिर्ज़ा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी-सी जमीन ले रखी थी। मजूरों ने जाकर देखा, तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अन्दर केवल एक छोटी-सी फूस की झोंपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियाँ थीं, एक मेज़। थोड़ी-सी किताबें मेज़ पर रखी हुई थीं। झोंपड़ी बेलों और लताओं से ढकी हुई बहुत ही सुन्दर लगती थी। अहाते में एक तरफ़ आम और नीबू और अमरूद के पौधे लगे थे, दूसरी तरफ़ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिर्जा़ ने सबको एक क़तार में खड़ा करके ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में सन्देह न रहा।
गोबर पैसे पहले ही पा चुका था, मिर्ज़ा ने उसे बुलाकर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठकर रह गया। इन बुड्ढों को उठा-उठाकर पटकता; लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कबड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गये।
आज युगों के बाद इन जरा-ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिकतर तो ऐसे थे, जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गये घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाता था, खाकर पड़े रहते थे। प्रातःकाल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरस, निरानन्द, केवल एक ढर्रा मात्र हो गया था। आज जो यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गये। अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिये, मुंह में दाँत न पेट में आँत, जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाये ताल ठोक-ठोककर उछल रहे थे, मानो उन बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गयी, दो नायक बन गये। गोइयों का चुनाव होने लगा। और बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठण्डी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ऋतु है।
इधर अहाते के फाटक पर मिर्जा़ साहब तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह की कोई-न-कोई सनक हमेशा सबार रहती थी। अमीरों से पैसा लेकर गरीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाये गये थे, नोटिस बाँटे गये थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आयें और अपनी आँख तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछतायेगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से लेकर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का तांता लगा हुआ था। दो हजार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुर्सियों और बेंचों का इन्तज़ाम था। साधारण जनता के लिए साफ़ सुथरी ज़मीन।
मिस मालती, मेहता, खन्ना, तंखा और राय साहब सभी विराजमान थे।
खेल शुरू हुआ तो मिर्जा़ ने मेहता से कहा––आइए डाक्टर साहब, एक गोई हमारी और आपकी भी हो जाय।
मिस मालती बोली––फ़िलासफ़र का जोड़ फ़िलासफ़र ही से हो सकता है।
मिर्ज़ा ने मूंछों पर ताव देकर कहा––तो क्या आप समझती हैं, मैं फिलासफ़र नहीं हूँ। मेरे पास पुछल्ला नहीं है। लेकिन हूँ मैं फ़िलासफ़र। आप मेरा इम्तहान ले सकते हैं मेहताजी!
मालती ने पूछा––अच्छा बतलाइए, आप आइडियलिस्ट हैं या मेटीरियलिस्ट।
'मैं दोनों हूँ।'
'यह क्योंकर?'
'बहुत अच्छी तरह। जब जैसा मौका देखा, वैसा बन गया।'
'तो आपका अपना कोई निश्चय नहीं है।'
'जिस बात का आज तक कभी निश्चय न हुआ, और कभी न होगा, उसका निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँ; और लोग आँखें फोड़कर और किताबें चाटकर जिस नतीजे पर पहुँचते हैं, वहाँ मैं यों ही पहुंँच गया। आप बता सकती हैं, किसी फिलासफ़र ने अक्लीगद्दे लड़ाने के सिवाय और कुछ किया है?'
डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन खोलते हुए कहा––तो चलिए हमारी और आपकी हो ही जाय। और कोई माने या न माने, मैं आपको फि़लासफ़र मानता हूँ।
मिर्ज़ा ने खन्ना से पूछा––आपके लिए भी कोई जोड़ ठीक करूँ?
मालती ने पुचारा दिया––हाँ, हाँ, इन्हें ज़रूर ले जाइए मिस्टर तंखा के साथ।
खन्ना झेंपते हुए बोले––जी नहीं, मुझे क्षमा कीजिए।
मिर्ज़ा ने रायसाहब से पूछा––आपके लिए कोई जोड़ लाऊँ?
राय साहब बोले––मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का है, मगर वह आज नज़र ही नहीं आते। मिर्ज़ा और मेहता भी नंगी देह, केवल जाँधिए पहने हुए मैदान में पहुँच गये। एक इधर, दूसरा उधर। खेल शुरू हो गया।
जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियां बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती थी, बाजियाँ लगाती थी। वाह! ज़रा इन बूढ़े बाबा को देखो। किस शान से जा रहे हैं, जैसे सबको मारकर ही लौटेंगे। अच्छा, दूसरी तरफ़ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैतरे बदल रहे हैं! इन हड्डियों में अभी बहुत जान है। इन लोगों ने जितना घी खाया है, उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधरवाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छुट निकलने के लिए कितना ज़ोर मार रहा है। मगर अब नहीं जा सकते बच्चा! एक को तीन लिपट गये। इस तरह लोग अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर कर रहे थे; उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ़ से क़हकहे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धांधली देखकर लोग 'छोड़ दो, छोड़ दो' का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते, लेकिन जो थोड़े-से सज्जन शामियाने में ऊँचे दरजे के टिकट लेकर बैठे थे, उन्हें इस खेल में विशेष आनन्द न मिल रहा था। वे इससे अधिक महत्त्व की बातें कर रहे थे।
खन्ना ने जिंजर का ग्लास खाली करके सिगार सुलगाया और राय साहब से बोले––मैंने आप से कह दिया, बैंक इससे कम सूद पर किसी तरह राज़ी न होगा और यह रिआयत भी मैंने आपके साथ की है; क्योंकि आपके साथ घर का मुआमला है।
राय साहब ने मूंछों में मुस्कराहट को लपेटकर कहा––आपकी नीति में घरवालों को ही उलटे छुरे से हलाल करना चाहिए?
'यह आप क्या फ़रमा रहे हैं।'
'ठीक कह रहा हूँ। सूर्यप्रताप सिंह से आपने केवल सात फी़ सदी लिया है, मुझसे नौ फी़सदी माँग रहे हैं और उस पर एहसान भी रखते हैं। क्यों न हो।'
खन्ना ने कहकहा मारा, मानो यह कथन हँसने के ही योग्य था।
'उन शर्तो पर मैं आपसे भी वही सूद ले लूंगा। हमने उनकी जायदाद रेहन रख ली है और शायद यह जायदाद फिर उनके हाथ न जायगी।'
'मैं अपनी कोई जायदाद निकाल दूंगा। नौ परसेंट देने से यह कहीं अच्छा है कि फ़ालतू जायदाद अलग कर दूं। मेरी जैकसन रोडवाली कोठी आप निकलवा दें। कमीशन ले लीजिएगा।'
'उस कोठी का सुभीते से निकलना ज़रा मुश्किल है। आप जानते हैं, वह जगह बस्ती से कितनी दूर है; मगर खैर, देखूँगा। आप उसकी कीमत का क्या अन्दाज़ा करते हैं?'
राय साहब ने एक लाख पच्चीस हज़ार बताये। पन्द्रह बीघे ज़मीन भी तो है उसके साथ। खन्ना स्तंभित हो गये। बोले––आप आज के पन्द्रह साल पहले का स्वप्न देख रहे हैं राय साहब! आपको मालूम होना चाहिए कि इधर जायदादों के मूल्य में पचास परसेंट की कमी हो गयी है।
राय साहब ने बुरा मानकर कहा––जी नहीं, पन्द्रह साल पहले उसकी क़ीमत डेढ़ लाख थी। 'मैं खरीदार की तलाश में रहूँगा; मगर मेरा कमीशन पाँच प्रतिशत होगा, आपसे।'
'औरों से शायद दस प्रतिशत हो क्यों; क्या करोगे इतने रुपए लेकर?'
'आप जो चाहें दे दीजिएगा। अब तो राजी हुए। शुगर के हिस्से अभी तक आपने न खरीदे। अब बहुत थोड़े-से हिस्से बच रहे हैं। हाथ मलते रह जाइएगा। इंश्योरेंस की पालिसी भी आपने न ली। आप में टाल-मटोल की बुरी आदत है। जब अपने लाभ की बातों में इतना टाल-मटोल है, तब दूसरों को आप लोगों से क्या लाभ हो सकता है! इसीसे कहते हैं, रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है। मेरा बस चले तो मैं ताल्लुकेदारी की रियासतें जब्त कर लूंँ।'
मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक रहे थे। मालती ने साफ़ कह दिया था कि वह एलेक्शन के झमेले में नही पड़ना चाहती; पर तंखा इतनी आसानी से हार माननेवाले व्यक्ति न थे। आकर कुहनियों के बल मेज़ पर टिककर बोले––आप जरा उस मुआमले पर फिर विचार करें। मैं कहता हूँ ऐसा मौक़ा शायद आपको फिर न मिले। रानी साहब चन्दा को आपके मुकाबले में रुपए में एक आना भी चान्स नहीं है। मेरी इच्छा केवल यह है कि कौंसिल में ऐसे लोग जायें, जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव प्राप्त किया है और जनता की कुछ सेवा की है। जिस महिला ने भोग-विलास के सिवा कुछ जाना ही नहीं, जिसने जनता को हमेशा अपनी कार का पेट्रोल समझा, जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पार्टियाँ हैं, जो वह गवर्नरों और सेक्रेटरियों को दिया करती हैं, उनके लिए इस कौसिल में स्थान नहीं है। नयी कौंसिलों में बहुत कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में होगा और मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार अनधिकारियों के हाथ में जाय।
मालती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा––लेकिन साहब, मेरे पास दस-बीस हजार एलेक्शन पर खर्च करने के लिए कहाँ हैं? रानी साहब तो दो-चार लाख खर्च कर सकती हैं। मुझे भी साल में हज़ार-पाँच सौ रुपए उनसे मिल जाते हैं, यह रक़म भी हाथ से निकल जायगी।
'पहले आप यह बता दें कि आप जाना चाहती हैं, या नहीं?'
'जाना तो चाहती हूँ; मगर फ्री पास मिल जाय!'
'तो यह मेरा जिम्मा रहा। आपको फ्री पास मिल जायगा।'
'जी नहीं, क्षमा कीजिए। मैं हार की ज़िल्लत नहीं उठाना चाहती। जब रानी साहब रुपए की थैलियाँ खोल देंगी और एक-एक वोट पर एक-एक अशी चढ़ने लगेगी, तो शायद आप भी उधर वोट देंगे।'
‘आपके खयाल में एलेक्शन महज़ रुपए से जीता जा सकता है।'
'जी नहीं, व्यक्ति भी एक चीज़ है। लेकिन मैंने केवल एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन-सेवा की है? और सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब ही से गयी थी, उसी तरह जैसे राय साहब और खन्ना गये थे। इस नयी सभ्यता का आधार धन है, विद्या और सेवा और कुल और जाति सब धन के सामने हेच है। कभी-कभी इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब धन को आन्दोलन के सामने नीचा देखना पड़ता है। मगर इसे अपवाद समझिए। मैं अपनी ही बात कहती हूँ। कोई गरीब औरत दवाखाने में आ जाती है, तो घण्टों उससे बोलती तक नहीं। पर कोई महिला कार पर आ गयी, तो द्वार तक जाकर उसका स्वागत करती हूँ और उसकी ऐसी उपासना करती हूँ, मानो साक्षात् देवी है। मेरा और रानी साहब का कोई मुकाबला नहीं। जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैं, उनके लिए रानी साहब ही ज्यादा उपयुक्त हैं।
उधर मैदान में मेहता की टीम कमज़ोर पड़ती जाती थी। आधे से ज्यादा खिलाड़ी मर चुके थे। मेहता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। मिर्जा़ इस फन के उस्ताद थे। मेहता की तातीलें अभिनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप भरने में वह अच्छे-अच्छों को चकित कर देते थे। और मिर्ज़ा के लिए सारी दिलचस्पी अखाड़े में थी, पहलवानों के भी और परियों के भी।
मालती का ध्यान उधर भी लगा हुआ था। उठकर राय साहब से बोली––मेहता की पार्टी तो बुरी तरह पिट रही है।
राय साहब और खन्ना में इंश्योरेंस की बातें हो रही थीं। राय साहब उस प्रसंग से ऊबे हुए मालूम होते थे। मालती ने मानो उन्हें एक बन्धन से मुक्त कर दिया। उठकर बोले––जी हाँ, पिट तो रही है। मिर्जा़ पक्का खिलाड़ी है।
'मेहता को यह क्या सनक सूझी। व्यर्थ अपनी भद्द करा रहे हैं।'
'इसमें काहे की भद्द? दिल्लगी ही तो है।'
'मेहता की तरफ़ से जो बाहर निकलता है, वही मर जाता है।'
एक क्षण के बाद उसने पूछा––क्या इस खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता?
खन्ना को शरारत सूझी। बोले––आप चले थे मिर्ज़ा से मुकाबला करने। समझते थे, यह भी फ़िलॉसफ़ी है।
'मैं पूछती हूँ, इस खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता?'
खन्ना ने फिर चिढ़ाया––अब खेल ही खतम हुआ जाता है। मज़ा आयेगा तब, जब मिर्ज़ा मेहता को दबोचकर रगड़ेंगे और मेहता साहब 'ची' बोलेंगे।
'मैं तुमसे नहीं पूछती। राय साहब से पूछती हूँ।'
राय साहब बोले––इस खेल में हाफ़ टाइम! एक ही एक आदमी तो सामने आता है।
'अच्छा, मेहता का एक आदमी और मर गया।'
खन्ना बोले––आप देखती रहिए! इसी तरह सब मर जायेंगे और आखिर में मेहता साहब भी मरेंगे।
मालती जल गयी––आपकी हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने की।
'मैं गँवारों के खेल नहीं खेलता। मेरे लिए टेनिस है।'
'टेनिस में भी मैं तुम्हें सैकड़ों गेम दे चुकी हूँ।'
'आपसे जीतने का दावा ही कब है?'
'अगर दावा हो, तो मैं तैयार हूँ।' मालती उन्हें फट कार बताकर फिर अपनी जगह पर आ बैठी। किसी को मेहता से हमदर्दी नहीं है। कोई यह नहीं कहता कि अब खेल खत्म कर दिया जाय। मेहता भी अजीब बुद्धू आदमी हैं, कुछ धाँधली क्यों नहीं कर बैठते। यहाँ अपनी न्याय-प्रियता दिखा रहे हैं। अभी हारकर लौटेंगे, तो चारों तरफ़ से तालियाँ पड़ेंगी। अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ़ और होंगे और लोग कितने खुश हो रहे हैं।
ज्यों-ज्यों अन्त समीप आता जाता था, लोग अधीर होते जाते थे और पाली की तरफ़ बढ़ते जाते थे। रस्सी का जो एक कठघरा-सा बनाया गया था, वह तोड़ दिया गया। स्वयं-सेवक रोकने की चेष्टा कर रहे थे; पर उस उत्सुकता के उन्माद में उनकी एक न चलती थी। यहाँ तक कि ज्वार अन्तिम बिन्दु तक आ पहुंचा और मेहता अकेले बच गये और अब उन्हें गूंगे का पार्ट खेलना पड़ेगा। अब सारा दारमदार उन्हीं पर है; अगर वह बचकर अपनी पाली में लौट आते हैं, तो उनका पक्ष बचता है। नहीं, हार का सारा अपमान और लज्जा लिए हुए उन्हें लौटना पड़ता है, वह दूसरे पक्ष के जितने आदमियों को छूकर अपनी पाली में आयेंगे वह सब मर जायेंगे और उतने ही आदमी उनकी तरफ़ जी उठेंगे। सबकी आँखें मेहता की ओर लगी हुई थीं। वह मेहता चले। जनता ने चारों ओर से आकर पाली को घेर लिया। तन्मयता अपनी पराकाष्ठा पर थी। मेहता कितने शान्त भाव से शत्रुओं की ओर जा रहे हैं। उनकी प्रत्येक गति जनता पर प्रतिबिम्बित हो जाती है, किसी की गर्दन टेढ़ी हुई जाती है, कोई आगे को झुका पड़ता है। वातावरण गर्म हो गया। पारा ज्वाला-बिन्दु पर आ पहुँचा है। मेहता शत्रु-दल में घुसे। दल पीछे हटता जाता है। उनका संगठन इतना दृढ़ है कि मेहता की पकड़ या स्पर्श में कोई नहीं आ रहा है। बहुतों को जो आशा थी कि मेहता कम-से-कम अपने पक्ष के दस-पाँच आदमियों को तो जिला ही लेंगे, वे निराश होते जा रहे हैं।
सहसा मिर्ज़ा एक छलाँग मारते हैं और मेहता की कमर पकड़ लेते हैं। मेहता अपने को छुड़ाने के लिए जोर मार रहे हैं। मिर्ज़ा को पाली की तरफ़ खींचे लिये आ रहे हैं। लोग उन्मत्त हो जाते हैं। अब इसका पता चलना मुश्किल है कि कौन खिलाड़ी है, कौन तमाशाई। सब एक गडमड हो गये हैं। मिर्जा़ और मेहता में मल्लयुद्ध हो रहा है। मिर्ज़ा के कई बुड्ढे मेहता की तरफ़ लपके और उनसे लिपट गये। मेहता ज़मीन पर चुपचाप पड़े हुए हैं; अगर वह किसी तरह खींच-खाँचकर दो हाथ और ले जायँ, तो उनके पचासों आदमी जी उठते हैं, मगर वह एक इंच भी नहीं खिसक सकते। मिर्ज़ा उनकी गर्दन पर बैठे हुए हैं। मेहता का मुख लाल हो रहा है। आँखें बीरबहूटी बनी हुई हैं। पसीना टपक रहा है, और मिर्ज़ा अपने स्थूल शरीर का भार लिये उनकी पीठ पर हुमच रहे है।
मालती ने समीप जाकर उत्तेजित स्वर में कहा––मिर्ज़ा खुर्शेद, यह फ़यर नहीं है। बाजी़ ड्रान रही।
खुर्शेद ने मेहता की गर्दन पर एक घस्सा लगाकर कहा––जब तक यह'ची'न बोलेंगे, मैं हरगिज न छोडूंगा। क्यों नहीं 'ची' बोलते? और आगे बढ़ी––'ची' बुलाने के लिए आप इतनी जबरदस्ती नहीं कर सकते।
मिर्ज़ा ने मेहता की पीठ पर हुमचकर कहा––बेशक़ कर सकता हूँ। आप इनसे कह दें,'ची' बोलें, मैं अभी उठा जाता हूँ।
मेहता ने एक बार फिर उठने की चेष्टा की; पर मिर्जा़ ने उनकी गर्दन दबा दी।
मालती ने उनका हाथ पकड़कर घसीटने की कोशिश करके कहा––यह खेल नहीं, अदावत है।
'अदावत ही सही।'
'आप न छोड़ेंगे?'
उसी वक्त जैसे कोई भूकम्प आ गया। मिर्ज़ा साहब ज़मीन पर पड़े हुए थे और मेहता दौड़े हुए पाली की ओर भागे जा रहे थे और हज़ारों आदमी पागलों की तरह टोपियाँ और पगड़ियाँ और छड़ियाँ उछाल रहे थे। कैसे यह काया पलट हुई, कोई समझ न सका।
मिर्ज़ा ने मेहता को गोद में उठा लिया और लिये हुए शामियाने तक आये। प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे––डाक्टर साहब ने बाजी मार ली। और प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाज़ी के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था। सभी मेहता के जीवट और धैर्य का बखान कर रहे थे।
मजदूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मॅगा ली गयी थीं। उन्हें एक-एक नारंगी देकर बिदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था। मेहता और मिर्ज़ा एक ही मेज़ पर आमने-सामने बैठे। मालती मेहता के बगल में बैठी।
मेहता ने कहा––मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है।
मिर्ज़ा ने मालती की ओर देखा––अच्छा! यह बात थी! जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गये।
मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली––आप बड़े बेमुरौवत आदमी है मिर्ज़ाजी! मुझे आज मालूम हुआ।
'कुसूर इनका था। यह क्यों 'ची' नहीं बोलते थे?'
'मैं तो 'ची' न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले लेते।'
कुछ देर मित्रों में गप-शप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकबाद के भाषण हुए और मेहमान लोग बिदा हुए। मालती को भी एक विज़िट करनी थी। वह भी चली गयी। केवल मेहता और मिर्ज़ा रह गये। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनते। गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे।
मिर्ज़ा ने पूछा––शादी कब तक होगी?
मेहता ने अचम्भे में आकर पूछा––किसकी?
'आपकी।' 'मेरी शादी! किसके साथ हो रही है?'
'वाह! आप तो ऐसा उड़ रहे हैं, गोया यह भी छिपाने की बात है।'
'नहीं-नहीं, मैं सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल खबर नहीं है। क्या मेरी शादी होने जा रही है?'
'और आप क्या समझते हैं, मिस मालती आपकी कम्पेनियन बनकर रहेंगी?'
मेहता गंभीर भाव से बोले––आपका खयाल बिलकुल गलत है। मिर्ज़ाजी! मिस मालती हसीन हैं, खुशमिज़ाज हैं, समझदार हैं, रोशन खयाल हैं और भी उनमें कितनी खूबियाँ हैं। लेकिन मैं अपनी जीवन-संगिनी में जो बात देखना चाहता हूँ, वह उनमें नहीं है और न शायद हो सकती है। मेरे जेहन में औरत वफ़ा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी वेज़बानी से, अपनी कुर्बानी से, अपने को बिलकुल मिटाकर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है। देह पुरुष की रहती है, पर आत्मा स्त्री की होती है। आप कहेंगे, मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाता? औरत ही से क्यों इसकी आशा करता है? मर्द में वह सामर्थ्य ही नही है। वह अपने को मिटायेगा, तो शून्य हो जायगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सर्वात्मा में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेजप्रधान जीव है, और अहंकार में यह समझकर कि वह ज्ञान का पुतला है, सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है। स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान् है, शान्ति-सम्पन्न है, सहिष्णु है। पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं, तो वह महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है। पुरुष आकर्षित होता है स्त्री की ओर,जो सर्वाश में स्त्री हो। मालती ने अभी तक मुझे आकर्षित नहीं किया। मैं आपसे किन शब्दों में कहूँ कि स्त्री मेरी नज़रों में क्या है? संसार में जो कुछ सुन्दर है, उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ; मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूं तो भी प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आये, अगर मैं उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ, तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे। ऐसी नारी पाकर मैं उसके चरणों में गिर पड़ेंगा और उस पर अपने को अर्पण कर दूंगा।
मिर्ज़ा ने सिर हिलाकर कहा––ऐसी औरत आपको इस दुनिया में तो शायद ही मिले।
मेहता ने हाथ मारकर कहा––एक नहीं हज़ारों; वरना दुनिया वीरान हो जाती।
'ऐसी एक ही मिसाल दीजिए।'
'मिसेज़ खन्ना ही को ले लीजिए।'
'लेकिन खन्ना!'
'खन्ना अभागे हैं, जो हीरा पाकर काँच का टुकड़ा समझ रहे हैं। सोचिए, कितना त्याग है और उसके साथ ही कितना प्रेम है। खन्ना के रूपासक्त मन में शायद उसके लिए रत्ती-भर भी स्थान नहीं है। लेकिन आज खन्ना पर कोई आफ़त आ जाय तो वह अपने को उनपर न्योछावर कर देगी। खन्ना आज अन्धे या कोढ़ी हो जायँ, तो भी उसकी वफ़ादारी में फ़र्क न आयेगा। अभी खन्ना उसकी क़द्र नहीं कर सकते हैं, मगर आप देखेंगे, एक दिन यही खन्ना उसके चरण धो-धोकर पियेंगे। मैं ऐसी बीबी नहीं चाहता, जिससे मैं आइंस्टीन के सिद्धान्त पर बहस कर सकूँ, या जो मेरी रचनाओं के प्रूफ़ देखा करे। मैं ऐसी औरत चाहता हूँ, जो मेरे जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दे, अपने प्रेम और त्याग से।'
खुर्शेद ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए जैसे कोई भूली हुई बात याद करके कहा––आपका खयाल बहुत ठीक है मिस्टर मेहता! ऐसी औरत अगर कहीं मिल जाय, तो मैं भी शादी कर लूँ, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं है कि मिले।
मेहता ने हँसकर कहा––आप भी तलाश में रहिए, मैं भी तलाश में हूँ। शायद कभी तक़दीर जागे।
'मगर मिस मालती आपको छोड़नेवाली नहीं। कहिए लिख दूँ।'
'ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरंजन कर सकता हूँ, याह नहीं। ब्याह तो आत्मसमर्पण है।'
'अगर याह आत्म-समर्पण है, तो प्रेम क्या है?'
'प्रेम जब आत्म-समर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है; उसके पहले ऐयाशी है।'
मेहता ने कपड़े पहने और विदा हो गये। शाम हो गयी थी। मिर्ज़ा ने जाकर देखा, तो गोबर अभी तक पेड़ों को सींच रहा था। मिर्ज़ा ने प्रसन्न होकर कहा––जाओ, अब तुम्हारी छुट्टी है। कल फिर आओगे?
गोबर ने कातर भाव से कहा––मैं कहीं नौकरी चाहता हूँ मालिक!
'नौकरी करना है,तो हम तुझे रख लेंगे।'
'कितना मिलेगा हुजूर!'
'जितना तू माँगे।'
'मैं क्या माँगू। आप जो चाहें दे दें।'
'हम तुम्हें पन्द्रह रुपए देंगे और खूब कसकर काम लेंगे।'
गोबर मेहनत से नहीं डरता। उसे रुपए मिलें, तो वह आठों पहर काम करने को तैयार है। पन्द्रह रुपए मिलें, तो क्या पूछना। वह तो प्राण भी दे देगा।
बोला––मेरे लिए कोठरी मिल जाय, वहीं पड़ा रहूँगा।
'हाँ-हाँ, जगह का इन्तज़ाम मैं कर दूँगा। इसी झोपड़ी में एक किनारे तुम भी पड़ रहना।'
गोबर को जैसे स्वर्ग मिल गया।